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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"बहुत पीड़ा है राम?" सुषेण ने पुनः पूछा।

राम ने पुनः जीभ से अपने होंठ गीले किए, "इतनी कि व्यक्ति के मन में मृत्यु-वरण की इच्छा जागे...।"

सुषेण ने पुनः कोई आसव उनके मुख में टपकाया, "पीड़ा में कोई न्यूनता आए तो बताना।" राम ने स्वीकार में अपना सिर हल्का-सा हिलाया और उनके कंठ से पीड़ा की सिसकारी निकल गई।

"यह केवल घाव अथवा रक्त बह जाने के कारण नहीं है।" सुषेण राम के पास से उठ खड़े हुए, "यह तो मेघनाद के दिव्यास्त्रों में ही कोई तत्व हैं, जिसने शरीर में प्रवेश कर राम जैसे सहनशील और समर्थ पुरुष की यह स्थिति कर दी है...।"

विभीषण की आंखें डबडबा आईं, "हम किसी प्रकार लंका की सेना से लड़ने में समर्थ नहीं हैं; न शास्त्रों की दृष्टि से, न सैनिक प्रशिक्षण की दृष्टि से, न चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से...।"

"यदि लंका का कोई वैद्य..." हनुमान ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।

"हां। यदि लंका में से कोई सैनिक वैद्य और शल्यचिकित्सक लाया जा सके।" विभीषण बोले, "तो कदाचित् इन घावों का उपचार हो सके।"

"पर लंका से कोई वैद्य क्यों आएगा?" तार बोले।

"यदि किसी समर्थ वैद्य का पता हो तो हम उसे बलात् उठा लाएंगे।" अंगद बोले।

"व्यर्थ है।" विभीषण ने कहा, "लंका में घुसकर वैद्य को उठा लाना सरल नहीं है।"

"ऐसा दुस्साहस मत करना।" सहसा अपनी यातना के बीच राम बोले, "इस प्रकार का गुप्त आघात करने वाले दल के नेतृत्व के लिए तुम्हारे पास कोई समर्थ योद्धा नहीं है...। तात सुषेण...। "

सुषेण उनके निकट आ गए।

"असहनीय पीड़ा..." सुषेण ने पुनः उनके मुख में आसव टपकाया और घावों पर नई औषध का लेप करने लगे।

किंतु न राम की स्थिति में कोई सुधार हुआ, न लक्ष्मण की। लक्ष्मण की मूर्छा टूटने के स्थान पर और भी सघन होती प्रतीत हो रही थी और राम की असहनीय पीड़ा उन्हें बार-बार तड़पा उठती थी।

निराश होकर सुषेण ने असमर्थता में अपना सिर हिला दिया।

"हमें कुछ तो करना ही होगा।" सुषेण को निराशा में सिर हिलाते देख हनुमान कुछ उग्र स्वर में बोले, "आर्य राम और लक्ष्मण को हम इस प्रकार तड़प कर मरते नहीं देख सकते।"

सुग्रीव ने हनुमान की ओर देखा : पिछले कई दिनों से उनके मन में यह विचार पल रहा था-हनुमान कदाचित् अपने हृदय से उनकी अपेक्षा कर राम के ही अधिक निकट हो गए थे। यह कुछ-कुछ वैसे ही था, जैसे अंगद, बाली की अपेक्षा सुग्रीव के अधिक निकट आ गए थे। राम के व्यक्तित्व में हनुमान को जैसा मित्र, नेता और समर्थ परामर्शदाता मिला था-यह सब कुछ कदाचित् सुग्रीव उन्हें नहीं दे पाए थे। राम को पीड़ा में देख, सबको कष्ट हो रहा था, किंतु जो तड़प हनुमान के चेहरे पर दिखाई दे रही थी, यह अन्यत्र कहीं भी नहीं थी...भविष्य में यदि कभी राम और सुग्रीव में मतभेद हो जाए अथवा उनमें कोई विरोध जाग उठे तो हनुमान किसका पक्ष ग्रहण करेगा?...राम का या सुग्रीव का?...

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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