बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
उसके थोड़े से प्रयास से राम तथा लक्ष्मण प्रायः नीरोग होकर उठ बैठे। रक्त-स्राव बंद हो गया, पीड़ा समाप्त हो गई और अंगों की जकड़न भी दूर हो गई। वे दोनों ही प्रसन्न तथा उत्साह से भरे-पूरे लग रहे थे।
इस बीच वहां पूर्ण स्तब्धता छाई रही। किसी ने आगंतुक से कुछ नहीं पूछा। उन्होंने भी कुछ नहीं बताया। चुपचाप अपना काम करते रहे।
राम स्वस्थ होकर देखा : आगंतुक लोग अन्य आहत सैनिक और यूथपतियों का उपचार करने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ क्षणों तक राम उन्हें मुग्ध दृष्टि से देखते रहे और फिर उनके नेता के निकट जाकर धीमे, मधुर स्वर में बोले, "भद्र! यदि आप अपना परिचय दे देते...।"
"अभी आया आर्य!" वह धीरे से बोला।
उसने अपने साथियों को जल्दी-जल्दी कुछ निर्देश दिए। औषधियों की ओर संकेत किए और उन्हें काम करते छोड़, राम के पास आ गया।
"भद्र राम! मैं गरुड़ हूं। सर्प-विष से बने शस्त्रों के उपचार के लिए देव-जातियों का प्रसिद्ध वैद्य हूं।" वह बोला, "यद्यपि हमें आने में कुछ विलंब हुआ; किंतु मुझे प्रसन्नता है कि हमें बहुत देर नहीं हुई। आपको जिन शस्त्रों से घायल किया गया था, उनमें भी सर्प-विष बहुत अधिक मात्रा में था। मुझे प्रसन्नता है कि हमारे आने तक विष औषध की मर्यादा के पार नहीं हुआ था। राम!..." गरुड़ ने रुककर राम को देखा, "आप भयंकर जोखिम का युद्ध लड़ रहे हैं आपके पास दिव्यास्त्रों
का अभाव है। शल्य चिकित्सक आपके पास नहीं हैं। राक्षसों ने इधर कुछ नये शस्त्रों का प्रयोग आरंभ किया है, जिन पर विभिन्न प्रकार के विषैले तत्वों तथा मानव शरीर के लिए घातक तथा पीड़ादायक पदार्थों का लेप होता है। ये व्यक्ति को तड़पा-तड़पाकर मार डालते हैं। यद्यपि ये सब नियम-बद्ध युद्ध के विपरीत तथा मानवता-विरोधी आचरण हैं, किंतु राक्षस इसकी चिंता नहीं करते। वे अपने शत्रु को अधिक से अधिक यातना देकर मारने में सुख का अनुभव करते हैं। आपको इस पक्ष में भी सजग और जागरूक रहना होगा।"
"आप यहां कैसे चले आए भद्र?" राम ने पूछा।
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