बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
महोदर ने रावण की ओर देखा और फिर कुंभकर्ण की ओर, "मैं उन लोगों से भयभीत नहीं हूं राजाधिराज। पर यदि आप अनुमति दें तो कहना चाहूंगा कि मेरा प्रस्ताव है कि लंका की सेना का क्षय रोका जाए।"
"कैसे?"
"यदि युक्ति से अपने कार्य की सिद्धी होती हो तो मैं युद्ध को अनावश्यक मानता हूं।" महोदर स्पष्ट शब्दों में ठहर-ठहर कर बोला, "मेरा प्रस्ताव है कि आप युद्ध के लिए लंका से बाहर सेना न भेजें। अपने सेनापतियों पार्षदों तथा उच्च अधिकारियों को एक भोज पर आमंत्रित करें। खूब समारोह और उत्सव बनाएं जाएं। लंका में घनघोर प्रचार किया जाए कि वानर सेना हार गई है। और राम तथा लक्ष्मण का वध हो चुका है, इस प्रचार को सुनकर, लंका के समारोहों और विजयोत्सवों को देखकर सीता मान जाएगी कि राम जीवित नहीं हैं। वह अपने लिए कोई भी मार्ग न देखकर आपके सम्मुख आत्मसमर्पण कर देगी। और उसके आत्मसमर्पण का प्रमाण पाते ही राम या तो वापस चला जाएगा या आत्महत्या कर लेगा। सीता भी आपकी हो जाएगी, और राक्षस-सेना की रक्षा भी हो जाएगी।"
"कायर।" कुंभकर्ण ने उसे धिक्कारा, "चाटुकार।"
महोदर ने अपने बचाव के लिए आहत दृष्टि से रावण की ओर देखा।
रावण ने कुंभकर्ण की ओर ध्यान नहीं दिया। उसने महोदर को कठोर दृष्टि से देखा, "कल्पना विलास का समय नहीं है महोदर। लंका की प्राचीर और परकोटों से टकराती वानर-सेना की जयजयकार लंका के प्रासादों को हिला रही है। सीता न इतनी भोली है न इतनी भीरु, जितनी तुम समझे बैठे हो; और न राम ही इतना कोमल है।"
रावण का स्वर कुछ और ऊंचा हुआ, "वैसे भी हमारे बीच में से ही अनेक लोग सीता को सूचना दे रहे हैं। यथार्थ का सामना करो। आज युद्ध ही यथार्थ है। जाओ।"
"यही तो मैं कह रहा हूं।" कुंभकर्ण उठकर चल पड़ा।
कुंभकर्ण के सेनापतित्व में लंका की सेना द्वार से बाहर निकली तो उसकी पिछली पराजय का कोई चिह्न शेष नहीं था। सैनिकों का उत्साह अपनी पराकाष्ठा पर था। सेनापति कुंभकर्ण तनिक भी विचलित दिखाई नहीं पड़ता था। मदिरा ने उसका आत्मबल आकाश पर पहुंचा रखा था। अपने शक्तिशाली कवचरक्षित रथ में, लोहे का कवच पहने, एक हाथ में लोहे का बना भयंकर त्रिशूल तथा दूसरे हाथ में लौह-गदा पकड़े, वह वानरों के लिए भीषण दुःस्वप्न-सा खड़ा था।
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