लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
(1)
'जाय जाय दिन' में पिछले दो अंक से पहले, मैंने लिखा था-बस में सवार होने पर भी किसी अकेली औरत को देखते ही, कण्डक्टर उसे किसी औरत की बगल में ही बिठाता है! अगर कोई दूसरी औरत न हो, किसी बूढ़े मर्द की वगल में बिठाता है या हद से हद किसी बच्चे-लड़के की बगल में! 'कंडक्टर खुद भी मर्द होता है। वह भी मर्द के स्वभाव से बखूबी परिचित है। इसलिए वह औरत को किसी अक्षम या अप्राप्तवयस्क मर्द की बगल में विठाकर चैन की साँस लेता है।'
अपना पुराना लेखन याद करने की वजह है-एक ख़त! ख़त तो खैर हर दिन ही सौ से ऊपर आते हैं। सारे ख़त पढ़ने की फुर्सत भी नहीं होती। लेकिन अचानक ही कोई ख़त एकदम से चौंका जाता है। कुछेक ख़त फिक्र में डाल देते हैं। कुछ खत रुला देते हैं!
मऊ नामक एक लड़की ने कुमिल्ला से लिखा है- आपकी चालू संख्या में प्रकाशित कॉलम के एक कोने में लिखा हुआ था-बुड्डे अक्षम होते हैं! मुझे भी इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन इस प्रसंग में, मेरी नासमझ उम्र की एक घटना आपको बताना चाहती हूँ, उसके प्रतिकार की उम्मीद में नहीं, सिर्फ बताकर, जी हल्का करने के लिए भी तो किसी न किसी को होना चाहिए।
उन दिनों मैं छठी क्लास में पढ़ती थी। बूढ़ा-सा एक शख्स, सूरत शक्ल से काफी कुछ अबुल फज़ल जैसा शख्स मेरे कस्बे में आया। वह शेक्सपियर की कहानी को नत्य-नाटय रूप देकर, चंदा बटोरने आया था। मैंने उसके गीतों में हिस्सा लिया था। एक दिन रिहर्सल के बाद, रात को जीप से सबको घर पहुँचाने आए। मुझे उन्होंने सबसे अंत में छोड़ा। चूँकि मैं सबसे छोटी थी, इसलिए मौके का फायदा उठाते हुए, वे अपनी उँगली से मेरा यौनांग दबाने लगे। कहीं वे हद पार न कर जाएँ, इस आशंका से मैं पल-छिन गिनने लगी। जाने कब तो घर का गेट नज़र आएगा। मुझे गाना अच्छी तरह सिखाने के लिए अगले दिन वे मेरे घर आ धमके। कहीं मेरी माँ डिस्टर्ब न हो जाए, यह सोचकर वे अंदर कमरे में नहीं आए। थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझसे कहा-'सुनो, विटिया, मैं तुमसे एक चीज़ माँगने वाला हूँ, तुम मुझे. लौटा मत देना।' काफी देर बाद, उन्होंने मेरे दोनों जंघे चौड़े किए और मेरे यौनांग को चूम लिया।
उसके बाद काफी दिनों तक मेरा मन होता रहा कि मैं अपने को हर पल पानी में डुवाए रखू। यह बात मैंने किसी को भी नहीं बताई। माँ, वाबूजी, सखी-सहेली किसी को भी नहीं। वे लोग कहीं मुझे अपवित्र न समझ लें।
आज भी सफेद पकी हुई दाढ़ी देखते ही मुझे उल्टी आने लगती है। मैं हर पल उनके स्पर्श तक से बचने की कोशिश करती हूँ। कहीं आशीर्वाद देने के बहाने, वे लोग मेरे मन में और ज़्यादा घृणा न भर दें। मैं मन ही मन मनाया करती हूँ कि मेरी सिर्फ सास हो। कोई सफेदपोश-ससुर न हो। जव बस में सवार होकर कहीं जाती हूँ, तो मैं सिर्फ किसी नौजवान को ढूँढ़ती फिरती हूँ, किसी बूढ़े को नहीं। मैंने गौर किया है, जवान मर्द कुछ देर गप-शप जमाने की कोशिश के बाद, अंत में छुटकारा दे देते हैं। लेकिन ये बुड्ढे कभी ऊँघते हुए, कभी जगे हुए, औरत का सिर्फ अंग-प्रत्यंग दबोचते रहते हैं।
आप इन नन्ही किशोरियों के बारे में भी कुछ लिखें, जिन बिचारियों को, इन तथाकथित ददुओं के शिकंजे से अपने बचाव का हुनर नहीं आता।'
वह ख़त पढ़कर मैंने मऊ से मन ही मन माफी माँगी। बुड्ढों को अक्षम कहकर मैंने भूल की है। असल में मर्द, मर्द ही होता है-चाहे वह बूढ़ा हो या कमसिन मर्द!
कोयले को लाख धोओ, मगर जैसे वह उजला नहीं होता, मर्द का स्वभाव-चरित्र भी बिल्कुल वैसा ही होता है। चाहे कितने भी जुलजुल बूढे हों। उनकी नीयत शुद्ध नहीं होती।
(2)
औरतें, मर्दों के मुकाबले काफी ठंडे दिमाग से काम कर सकती हैं। यह बात बहुतेरे लोग जानते हैं चूँकि वे लोग ठंडे दिमाग से काम करती हैं, इसलिए इस देश में सबसे भयंकर-भयंकर जानलेवा सड़क दुर्घटनाएँ होती हैं, मेरा ख्याल है कि उनकी संख्या काफी कम हो जाएगी, अगर औरतें ड्राइवर की जिम्मेदारी संभाल लें! दो-चार एन जी ओ ज़रूर औरतों को ड्राइवर के तौर पर लेने लगे हैं, लेकिन इतना ही काफी नहीं है। सरकारी वाहन और साथ ही गैर-सरकारी बस-ट्रकों के लिए भी अगर औरतों को ड्राइवर तैनात किया जाए, तो ड्राइविंग सेंटरों में औरतें भरपूर उत्साह से दाखिला लेंगी और अपने को निष्ठावान, दायित्ववान, धीर-स्थिर, दक्ष ड्राइवर साबित करेंगी।
इस देश में औरतों को विज्ञापन के मॉडल की तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन लोगों को सेल्सगर्ल की तौर पर क्यों नहीं लिया जाता। अगर हिसाब-किताब किया जाए तो मेरा ख्याल है कि हर इंसान यह कबूल करेगा कि औरतें ज़्यादा दक्ष हैं। औरतें थयोरिटिकल सर्टिफिकेट नहीं जुटा पातीं, क्योंकि उन्हें ज़्यादा दूर तक लिखाई-पढ़ाई जो नहीं करने दी जाती, लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह साबित हो चुका है कि इसमें उन्हें दस में दस नंवर मिलते हैं। तब तो औरतों को सेल्सगर्ल बनाने की पर्याप्त वजह भी है! समूचा ढाका शहर बाजारों से पटा हुआ है। मगर औरत विक्रेता एक भी नहीं है, यानी एक दक्ष शक्ति को काम में नहीं लगाया जा रहा है। आखिर क्यों? आज अनगिनत औरतें बेरोजगार बैठी हैं। कामकाज न पाकर, वे लोग बर्बाद हो रही हैं। राज्य को क्या यह हक है कि वह इतनी सारी प्रतिभाएँ. शक्ति नष्ट कर दे?
गाँवों में भी औरतें धान-मड़ाई का काम करती हैं। ढेरों निम्नवित्त लड़कियाँ-औरतें, चावल-मिलों में चाकरी करने उतर गई हैं। इस तरह वे लोग हाट-बाजारों में उतरें, कल-कारखानों, खेत-खलिहानों में वे औरतें खेती का काम करती हैं; बेहद जतन से उत्पादन करती हैं, इसलिए उन लोगों को क्यों नहीं चुना जाता? औरत के लिए साल भर जच्चेखाने में लेटे रहने के दिन क्या अभी तक ख़त्म नहीं हुए? वे लोग अगर बत्तख-मुर्गियाँ पाल सकती हैं, तो वे लोग खेत-खेत में फसल क्यों नहीं लहलहा सकती? इसमें भी वे लोग ज़रूर कामयाब होंगी। परिवर्तन निम्नवित्त की तरफ से ही आना चाहिए! मध्यवित्त तो सविधापरस्त होते हैं और उच्चवित्त यहाँ उँगलियों पर गिने जाने लायक! यह सब किसी बड़े परिवर्तन में मददगार नहीं हो सकते। हमें उचित शिक्षा और विज्ञान को थामे हुए, अधिकांश लोगों के दरवाजे-दरवाजे जाना चाहिए।
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