लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
फतवाबाज़ों का गिरोह
सातक्षीरा के कालीगंज थाने का कालिकापुर गाँव! ख़ालिक मिस्त्री की सोलह वर्षीया बेटी, फिरोज़ा नदी में चिंगड़ी मछली के अण्डे-बच्चे पकड़कर गृहस्थी में हाथ बँटाती थी। मछलियाँ पकड़ने के दौरान ही, कालीगंज थाने के ही बंदकाटी गाँव के मछेरे हरिपद मंडल के बेटे, उदय मंडल से उसकी जान-पहचान हो गई। फिरोज़ा और उदय के संबंध अंतरंग हो गए।
एक रात, उदय मंडल, फिरोज़ा के घर ही रंगे हाथों पकड़ा गया। उस पर गाय चुराने का इल्ज़ाम लगाया गया। मुजीबर मेम्बर के नेतृत्व में उसी रात ही पंचायत बैठी और उदय पर पन्द्रह सौ रुपयों का जुर्माना ठोंका गया। उदय के अभिभावक रुपए देकर बेटे को छुड़ा ले गए। इधर एक और ई यू पी सदस्य, इम्तियाज़ अली ने जुर्माने का यह फैसला मंजूर नहीं किया। उसने चेयरमैन के जरिए यह निर्देश दिलाया कि जुर्माने की राशि, यानी पन्द्रह सौ रुपए उन तक पहुँचा दिए जाएँ। वैसे खालिक मिस्त्री भी पूरे रुपए अदा नहीं कर पाया। उसमें से तीन सौ रुपए खर्च हो चुके थे। इसलिए उसने बेटे के हाथ बारह सौ रुपए भेज दिए। उसका बेटा, जब चेयरमैन के पास पहुंचा, तो उसने, उसकी बेतरह पिटाई की। चेयरमैन ने बताया कि वह फिरोज़ा के बाप का विचार, शरीयत मुताबिक करेगा, वर्ना उसके पिता को गाँव छोड़कर जाना होगा। बहरहाल, गाँव छोड़कर जाने के बजाय खालिक मिस्त्री ने उनका फैसला ही मान लिया। पहली सितम्बर, शाम को कालिकापुर गाँव के वाजिद शेख के यहाँ फिर पंचायत बैठी। उस पंचायत में गाँव के कई जाने-माने प्रतिष्ठित लोग और मौलाना भी मौजूद थे। बदकारी अहमदिया मदरसे के सुपरिटेंडेंट अब्दुर रहीम ने फतवा जारी किया, फिरोज़ा को बाँस के एक खूटे में बाँधकर उसे सौ झाडू मारे जाएँ। पंचायत में मौजूद सभी धार्मिक लोगों ने राय दी कि यह सज़ा बिल्कुल उचित है।
उस दिन सच ही फिरोज़ा की झाडू से बेतरह पिटाई की गई। ख़ालिक मिस्त्री भी अपनी आँखों से यह मंज़र देखे, इसलिए उसे भी सामने रखा गया। जब झाड़-पिटाई पूरी हो गई, तो फिरोज़ा अपनी बहन के कंधे का सहारा लिए हुए, अपने घर लौट गई। घर पहुँचकर, उसने जहर खा लिया। वैसे उसने जहर खाया या नहीं, यह तो पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से ही पता चलेगा। फिरोज़ा की बहन ने बताया कि फिरोज़ा ने घर आकर एक गिलास पानी पीया। उसके बाद उसने दम तोड़ दिया। खैर, वह चाहे जैसे भी मरी हो, मर ही तो गई। अगर उसने आत्महत्या भी की, तो क्यों की? झाडू पिटाई की वजह से ही न? फिरोज़ा की झाड़-पिटाई क्यों की गई? यह किस देश का न्याय है? इसे ही क्या न्याय कहते हैं? फिरोज़ा का आखिर कसूर क्या था? गाँव के मौलाना ने आखिर किस कसूर के लिए उसका विचार किया? किसी हिंदू नौजवान से कोई मुसलमान लड़की प्यार कर बैठी थी, क्या यही उसका गुनाह था? इस गुनाह पर उसे एक सौ एक झाड़ की मार सहना होगी? या उसने व्यभिचार का पाप किया था, इसलिए? जिस पाप के लिए सिर्फ औरत ही जिम्मेदार होती है, मर्द तो साफ़ पार पा जाते हैं। बहरहाल किस कसूर के लिए फिरोज़ा का विचार हुआ, मेरे पल्ले नहीं पड़ा।
मेरा ख्याल है कि औरत को मारने-पीटने के लिए या उसे जान से ख़त्म कर देने के लिए. किसी गनाह या कसर की जरूरत नहीं पड़ती। पंचायत बिठाकर मौलाना लोग बस, फतवा जारी कर दें. हो गया। इस्लामी कानन के जरिए विचार यह तो किसी के न माननेवाली बात ही नहीं है। देश का धर्म जब इस्लाम है, तब इस्लामी कानून गाँव-गंज में सम्मान किया जाता है। विधर्मी से रिश्ता रखना, उन लोगों की नज़र में गुनाह होता है या इसी को व्यभिचार मानकर उसके लिए सज़ा तजबीज की गई है या यह सब कुछ भी नहीं, सैकड़ों मर्दो की आँखों के सामने सोलहसाला एक-एक लड़की को पीटने का कार्यक्रम! वह लड़की धीरे-धीरे नीली पड़ेगी। फिर बैंगनी हो जाएगी, दर्द से छटपटाएगी, रोएगी-चीखेगी-यही सब मर्दो को शायद मज़ा देता है। पंचायत के मर्द लोग एक लड़की की यंत्रणा का मज़ा लेंगे।
इसी तरह छातकछड़ा गाँव की नूरजहाँ पर एक मौलाना के फतवे पर, कंकड़ बरसाए गए; कालिकापुर गाँव की फिरोज़ा को एक मौलाना के फ़तवे पर सौ झाडुओं की मार खाकर मरना पड़ा! आखिर कौन हैं ये मौलाना लोग? या तो मदरसों के सुपर, या मस्जिद के इमाम! यानी ये लोग समाज के गण्यमान लोग हैं। इन लोगों को फतवा देने का हक़ आखिर किसने दिया है? इन बदमाशों के फतवे गाँववाले मान क्यों लेते हैं? गाँव के चुने हुए चेयरमैन और सदस्यों में इस किस्म के अन्याय का 'विचार' करने की स्पर्धा आई कहाँ से? इन तमाम मौलाना और क्षमताशाली मेम्बर-चेयरमैन के पीछे, कोई न कोई अदृश्य शक्ति ज़रूर होती है। वर्ना वे लोग ऐसा अजीब कांड करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इस किस्म के 'विचार' तो लगातार होते रहते हैं। हम लोगों को तो तब ख़बर होती है जब कोई औरत मर जाती है। फिर भी सभी मौतों की ख़बर हम तक पहुँचती भी नहीं। कुछ मौतें तो बिल्कुल खामोशी में घट जाती हैं। वह तो जो ख़बर छापने में कोई अख़बार उत्साह दिखाता है, हम लोग तो वही जान पाते हैं। उस खबर पर कुछेक दिन चीख-पुकार मचाते हैं। बस कुछ दिनों बाद सब थम जाता है, क्योंकि साधारण लोगों की चीख-पुकार। से क्षमतासीन असाधारण लोगों को भला क्या फर्क पड़ता है? हाँ, दो-एक लोगों के लिए आपात् सज़ा का इंतज़ाम होता है। बाद में उन लोगों को भी रिहाई मिल जाती है। बहरहाल, बस सितम्बर को कालिकापुर गाँव से मौलाना और चेयरमैन को गिरफ्तार कर लिया गया है। लेकिन वे लोग आखिर कितने दिन हाजत या जेल में रुके रहेंगे? हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि कट्टरवादी और सरकारी पार्टियों के हस्तक्षेप से, बहुत जल्द ही वे लोग रिहा हो जाएँगे। हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि फिरोज़ा की मौत के लिए, अंत में किसी को भी सज़ा नहीं मिलेगी। क्योंकि मौलाना और ई यू पी चेयरमैन, दोनों ही वर्तमान सरकार के प्रियभाजन हैं। सरकार उन लोगों के अपराध 'अपने गुण' मुताबिक ही माफ कर देगी। गुनहगार तो हमेशा फिरोज़ा जैसी औरतें ही होंगी। हमेशा नूरजहाँ जैसी औरतें ही होंगी। उन लोगों के अपराध की कोई सीमा नहीं है; कोई तल नहीं है! हज़ारों-हज़ारों सालों से यही नियम चला आ रहा है! किसी-किसी को अचानक फाँसी पर चढ़ा दिया जाता है। जैसे मुनीर के संदर्भ में हआ! वह भी इसलिए कि रीमा एक शहीद पत्रकार की बेटी थी! जो बेटियाँ हर दिन मरती हैं, उन औरतों के पिता, शायद कोई बड़े पत्रकार नहीं होते; कोई दिहाड़ी मजदूर होते हैं, कोई किसान, कोई दीन-दरिद्र, अख्यात इंसान-उनकी बेटियों की मौत के लिए कभी, किसी को भी जेल या फाँसी नहीं होती।
फतवाबाज़ मौलाना हमेशा ही बच निकलते हैं। हालाँकि इन लोगों का विचार होना चाहिए, इन्हें सज़ा भी मिलनी चाहिए। इन लोगों ने हज़ारों फिरोज़ाओं की, नूरजहाँ की हत्या की है। समाज अगर स्वस्थ होना चाहता है, तो सबसे पहले फतवाबाज़ मौलाना नामक जीवाणु का नाश करना होगा।
टिड्डियों का दल जैसे समूची फसल नष्ट कर देता है, ये मौलाना लोग भी उसी तरह सोने के बंगाल के गाँव के गाँव तबाह कर डाले हैं। इन लोगों को अगर अब भी जड़ से उखाड़ नहीं फेंका गया, तो एक न एक दिन यह समूचा बंगलादेश ध्वंसस्तूप में परिणत हो जाएगा। उस वक्त हाहाकार मचाने से भी कोई फायदा नहीं होगा। इसलिए हम सबको अभी से सतर्क होना होगा। फिलहाल, कालिकापुर गाँव पर सजग दृष्टि रखना होगी, उस फँसे हुए मौलाना और चेयरमैन की तरफ! फतवा देने के जुर्म में उन लोगों को मृत्युदंड की सज़ा मिले।
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