लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
हमारे प्रगतिवादी लोगों का कहना है, 'कट्टरवाद ख़त्म हो जाए, तो सारी समस्या मिट जाएगी। उग्र कट्टरवाद ही सारी समस्याओं की जड़ है।' वे लोग यह भी कहते हैं, 'धर्म के बारे में कोई समस्या नहीं है। इंसान ख़ामोशी से, एकांतिक भाव से अपना धर्मपालन करता रहे और राष्ट्र-धर्म इस्लाम भी बहाल रहे। लेकिन चाहे जैसे भी हो, इस देश से कट्टरवाद को खदेड़ना होगा।'
मैं उन लोगों की इस बात से सहमत नहीं हैं। मेरा कहना है, 'जिंतने दिन धर्म विद्यमान है, कट्टरवाद भी जरूर रहेगा।' घर में साँप छोड़ दिया जाए और कोई यह समझाए कि मैंने साँप को समझा दिया है, वह दंश नहीं मारेगा, तो कोई बुद्धिमान भला यह मानेगा? साँप ने अगर आज नहीं उँसा, तो कल ढुसेगा। साँप को समझा-बुझाकर शांत करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि इंसना, साँप का स्वभाव है।
घर-घर साँप छोड़ दिया जाए और यह कहा जाए कि साँप दंश नहीं मारेगा, ऐसी गारंटी कोई राजनीतिज्ञ नहीं दे सकता। कोई राष्ट्र प्रधान भी यह दावा नहीं कर सकता। विषवृक्ष बढ़ता जा रहा है। यह दुहाई देते हुए उसके डाल-पत्ते छाँट दिए जाएँ, तो वह पेड़ क्या अपनी डालें फैलाना छोड़ देगा? विषवृक्ष की सैकड़ों डाल-पत्तों में विष नहीं फलेगा? वृक्ष का काम ही है फलना-फूलना। इसलिए हम ऐसी उम्मीद हरगिज नहीं कर सकते कि कट्टरवाद नामक वृक्ष को काटकर, कट्टरवाद ख़त्म कर दिया जाएगा। हममें अगर बुद्धि हैं, तो हमें समझ लेना लेना चाहिए कि मिट्टी तले ही कट्टरवाद की जड़ें छिपी हुई हैं और उसका नाम है-धर्म! अगर वह जड़ें उखाड़कर न फेंकी जाएँ, तो कट्टरवाद के डाल-पत्ते तो बढ़ते ही जाएँगे। धर्म कोई कछुआ नहीं है, जो सिमटा-सिकुड़ा रहेगा।
देश में मस्जिद-मदरसे बढ़ रहे हैं। क्यों? मस्जिद-मदरसों से इंसान की कौन-सी तरक्की होती है? मदरसों में लिख-पढ़कर, इंसान 'मुल्ला' बनेगा। इस देश का इससे क्या लाभ होगा? कोई मुल्ला या मौलवी, देश के आर्थिक विकास में आखिर कितनी-सी मदद करता है? वे लोग घर-घर में कुरान या खुतबा पढ़कर, डेढ़-दो सौ रुपए कमा लेते हैं! फ्री खाना मिल जाता है। लेकिन यह तो कोई लोभनीय पेशा नहीं है। फिर?
फिर झुंड-झुंड लोग इस पेशे की तरफ क्यों दौड़ रहे हैं? महज़ पारलौकिक सुख के लोभ में ना, ऐसा मुझे बिल्कुल नहीं लगता, क्योंकि लोग इहलौकिक सुख के लिए अत्यंत कातर हैं। ये लोग अपनी स्थूल रुचि की वजह से कम मेहनत में धन कमाने के लिए मुल्लागीरी पर उतरते हैं। ये लोग आमतौर पर मध्यवित्त के बिगडैल, घोंचू-गँवार लड़के होते हैं या गाँव-गिराम के दरिद्र होते हैं। ये अधःपतित पुरुष, समाज को चरम अधःपतन के अलावा और क्या दे सकते हैं?
देश अगर इन लोगों के हाथों में चला जाए, तो क्या हमें अंदाज़ा है कि देश की क्या परिणति होगी? देश के लोगों की? राजनीति की? अर्थनीति की? समाज व्यवस्था की? मूल्यबोध की? फर्ज़ करें एक ही मुहल्ले में एक अदद स्कूल, दस अदद मदरसे, बारह मस्जिदें मौजूद हों; फर्ज़ करें, देश में किसी तरह का संगीत न हो, कविता या नृत्य न हो, नवान्न या नववर्ष का उत्सव न हो; मुहल्ले-मुहल्ले में इस्लामी जलसे होते हैं, तो हमारी क्या परिणति होगी? देश तो दिनोंदिन उसी परिणति की तरफ बढ़ रहा है। सन् 69 में बयतुल मुकर्रम के सामने, जागरूक इंसानों ने जमाते इस्लामी की सभा तितर-बितर कर दी थी। आज है किसी में वह मजाल? आज का इंसान समझौतापरस्त है। आज लोग यह दुहाई देते हैं-ठीक है, वे लोग नाचकूद रहे हैं, तो कोई बात नहीं। उनके बदन को हाथ लगाने से अल्लाह नाराज़ होगा, भवनों में वे लोग अल्लाह के भेजे गए दूत हैं।
इसलिए इस देश में गुलाम आयम, नियामी, अब्बासी, सईदी लोगों के वंशधर बढ़ते जा रहे हैं। एक गुलाम की लार से लाखों गुलाम जन्म ले रहे हैं। धर्म तो जनता के लिए अफीम है। यही अफीम खाकर विभ्रांत और नशाग्रस्त लोग आज मजार के कारोबार, पीरी के धंधे या राजनीति व्यवसाय की तरफ बेतहाशा दौड़ रहे हैं। इस वक्त प्रगतिवादी लोग राविन्द्रिक सुर में अगर यह कहें-'देश से कट्टरवाद मिटाना होगा'-तो ठेंगा होगा। अगर सच ही इसे मिटाना है, तो कट्टरवाद की जड़ों तले, यह जो 'धर्म' छिपा पड़ा है, उसे मिटाना होगा। अगर हम साँपों के द्वारा दंशित नहीं होना चाहते, तो साँपों को मारना होगा। ऐसी उम्मीद हरगिज नहीं की जा सकती कि साँपों का दिमाग ठंडा है। वह दंश नहीं मारेगा।
देश में कोई भी विज्ञान रिसर्च सेंटर नहीं बनता लेकिन जगमग सितारे-अंकित, संगमरमर की मस्जिद ज़रूर खड़ी होती जा रही है! देश में विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों में वृद्धि नहीं हो रही है। हाँ, इस्लामिक फाउंडेशन की शाखाएँ बढ़ती जा रही हैं। सच तो यह है कि देश में गपचप संत्रास बढ रहा है। इस्लामी संत्रास! इस पल, सच्चाई, ईमानदारी, साहस और संस्कृति को ही सख्त मुट्ठी में थामे रहने से ही हम जिंदा नहीं रह सकते। पहले उस संत्रास को जड़ से उखाड़ फेंकना ज़रूरी है।
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