लोगों की राय

लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख

छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :254
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :9788181432803

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

432 पाठक हैं

जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो


दुर्मुख लोग जाने कितनी ही तरह की वातें करते हैं। इनकी बातों पर कान नहीं देना चाहिए। मैं भी नहीं देती। अगर मैं इनकी बातों पर कान दूं, तो इन लोगों की जुबान पर जितनी सारी बैक्टीरिया चिपकी हुई है वह सब मेरे कानों तक पहुँचकर, सड़न भर देगी। लेकिन हर बात की एक सीमा होती है। ये दुर्मुख सीमा पार करते जा रहे हैं। इधर काफी दिनों से मैं गौर कर रही हूँ कि मैं अच्छा लिखती हूँ, इसमें किसी को, कोई एतराज नहीं है। एतराज है मेरे व्यक्तिगत जीवन को लेकर। इसके अलावा भी, जो लोग मेरा लेखन पसंद नहीं करते, तो वे लोग जब मेरा लेखन पसंद करने वालों से बहस पर उतरते हैं, तब एक ही सवाल बार-बार दुहराया जाता है-मैंने एक से अधिक विवाह क्यों किया? (विवाह की संख्या को लेकर लोगों में तरह-तरह का मतभेद भी है। कोई कहता है, तीन! कोई चार! कोई पाँच और कोई-कोई तो सात विवाह)। मेरे कितने विवाह हुए और मेरे पूर्व पतियों के नाम क्या-क्या हैं, इस बात को लेकर, लोगों में उत्साह की सीमा नहीं है। जिन लोगों ने मेरे साहित्य का एक अक्षर भी नहीं पढा. वे लोग भी लोक-मख से सनी, मेरे पर्व-पतियों के नाम अपनी जुबान पर रखते हैं। लोक-मुख से सुनने का जिक्र, मैंने इसलिए किया, क्योंकि मैंने किसी दिन, कहीं भी यह न कहा, न लिखा कि मैंने किसे या किन लोगों से विवाह किया। जिन लोगों के नाम, मेरे पतियों की फेहरिश्त में शामिल किए गए हैं, वे लोग सच ही क्या कभी मेरे पति थे? उनके साथ क्या मैं कभी भी रही-सही हूँ? इसका जवाब, सिर्फ मैं जानती हूँ कि कौन था मेरा पति; मैं किस किसके साथ, बीवी के तौर पर रही-सही हूँ।

मेरे लेखन में सिर खपाने के बजाय, लोग-बाग मेर विवाह में सिर खपाते हैं। लेकिन विवाह नितांत मेरा निजी मामला है। कब, किसके साथ, मेरा क्या रिश्ता था और वह रिश्ता कहाँ पहुँचकर ख़त्म हुआ, यह सिर्फ मैं जानती हूँ। मेरे अलावा और किसी में है इतनी कुव्वत कि यह सब जान ले? लेकिन अखबारों के हाव-भाव देखकर ऐसा लगता है, मानों वे लोग ही मेरे बारे में, मुझसे ज्यादा जानते हैं। ऐसे लोगों का नाम भी मेरे पति के रूप में प्रचारित कर दिया जाता है, जिन्हें मैं पहचानती भी नहीं।

मैं अक्सर सोचती हूँ कि इन सबकी वजह क्या है? लोगों में इतनी जिज्ञासा क्यों है कि मैं किसके साथ घूमती-फिरती हूँ। किसके साथ सोई हूँ? मैं चाहे जिसके साथ भी हमबिस्तर होऊँ, चाहे वह मेरा विवाहित पति हो या जिससे मेरा विवाह न हुआ हो। यह मेरा नितांत निजी शारीरिक मामला है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, शारीरिक मामला नितांत निजी होता है। व्यक्तिगत! इंसान एक-दूसरे को प्यार करता है। रिश्ते बनाता है। यह इंसान का अंतर्गत नियम है। लेकिन यह ज़रूर देखना होता है कि कोई, किसी को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहा है। मैं जानती हूँ, मेरे बहुतेरे करीबी लोग जानते हैं कि मैंने कभी, किसी का, कोई नुकसान नहीं किया। बल्कि पति के तौर पर जो-जो नाम, मेरे नाम की बगल में दर्ज हैं, वही लोग कई-कई कायदों और ढंग से मेरा नुकसान करते रहे! मेरा अपमान किया है। चूंकि मैं अपने को अपमानित होने देना नहीं चाहती। मुझे वे रिश्ते तोड़ने पड़े हैं! वैसे लोग-बाग की बातों से तो यह जाहिर होता है कि अगर किसी से मेरा विच्छेद न हुआ होता, तो वे लोग ज़्यादा खुश होते यानी मैं अगर बेइज़्ज़त होते-होते, तिल-तिल करके दम तोड़ देती, तो उन लोगों को यह कहने का मौका मिल जाता कि लड़की काफी चरित्रवान थी। मुझे मालूम है कि मर्द के अन्याय के आगे, अगर मैं अपनी बलि दे देती, तो सभी लोग मुझे 'लक्ष्मी लड़की' कहेंगे। लेकिन मैं अपनी हत्या करके, इन तमाम लोगों को खुश करने के लिए हरगिज राजी नहीं हूँ। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे पति के तौर पर जिन लोगों का नाम प्रचारित होता है, उनमें से किसी-किसी को मैं पहचानती हूँ। लेकिन यह भी सच है कि उन लोगों से मेरा मानसिक और शारीरिक फासला, हमेशा ही बहुत ज्यादा था। मेरा जिससे बेहद अंतरंग रिश्ता रहा है उसका नाम अभी तक इन प्रचारकों के अशुभ हाथों में नहीं पड़ा। यह शायद मेरी ही विजय है!

वे लोग स्वरचित तरीके से, सूअरों की तरह घों-घों करते हैं, करते रहें। लेकिन अब उनके घों-घों की आवाजें इतनी विकट हो चुकी हैं कि मुझे आशंका होती है कि इस समाज में औरत क्या कभी भी इंसानी हक के साथ जिंदा रह सकेगी? कट्टरवादी मेरा नामोनिशान मिटाना चाहते हैं और इनके साथ 'मर्द जात' भी! मैं उन लोगों के अपप्रचार और अपमान से रंचमात्र भी कातर नहीं होनवाली! मैं मनुष्यता, मुक्तबुद्धि और युक्तिवाद के साथ डटकर खड़ी रहूँगी। चारों तरफ जब अज्ञता का बोलबाला हो, तब बातों में नहीं, कामों में मन लगाना ही बेहतर है। इंसान के मंगल के लिए, अगर मैं कुछ कर गई, औरतों के भोंथरे दिमाग को अगर हल्का-सा भी तीखा, प्रतिवादी बना सकी तभी मेरे अंदर की आग कम होगी। इस नष्ट समाज में औरतें अगर अपने को अपमानित न होने दें, तो मुझे चैन आ जाएगा। सुख-दुःख दुःसह यंत्रणा और रोग-शोक सहकर भी औरों का भला कर जाऊँ यही बेहतर है! तमाम मुसीबत अपने सिर लेकर दूसरों को निश्चित कर जाऊँ। खुद बदनामी और अशुभ झेल लूँगी और दूसरों को सारा शुभ देने को मैं राजी हूँ। मेरे गुच्छे-गुच्छे तकलीफ पर आज लोग जश्न मना रहे हैं। अखवार इन वातों को लेकर अपना धंधा चला रहे हैं। लेकिन फिर भी यह उम्मीद करने में क्या हर्ज़ है कि मैं जल-जलकर अंगार बन गई हूँ। अब मुझे छूकर और कोई भी अंगार वन जाए। मैं औरत के पैरों तले की ज़मीन वनूँगी। वे लोग खड़ी होना, चलना, आगे बढ़ना तो सीख लें।




...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book