लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
इस देश के बंगाली मुसलमान, वात-बात पर कहते हैं-'इंशाअल्लाह! मसलन्--यह। काम मैं करूँगा, इंशाअल्लाह! कल मैं जाऊँगा, इंशाअल्लाह!' वे लोग माशाअल्लाह, : सुभानअल्लाह भी कम नहीं बोलते! 'तुम्हारे एक बेटा हुआ है, सुभानअल्लाह! इम्तहान। में बढ़िया किया है, माशाअल्लाह!' इसी तरह विदा लेते हुए, निश्चित तौर पर जुबान पर आ जाता है-खुदाहाफिज़! 'अस्सलामवालेकुम' तो सिर्फ बंगाली मुसलमान ही नहीं, इस देश के बंगाली हिंदू भी हमेशा ही बोलते हैं।
लेकिन, क्यों कहते हैं? बात-बात में अल्लाह को दैनिक शब्दों के इस्तेमाल में उतार लाने की क्या वजह है? जो लोग नमाज-रोजा नहीं करते, अल्लाह के आदेश-निर्देशों का पालन नहीं करते वे लोग भी इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, खुदाहाफिज़ कहते-कहते, मुँह से फेन उगलने लगते हैं। यह मक्कारी आखिर किसके साथ? क्या अपने ही साथ नहीं? तथाकथित सभ्य-शिक्षित इंसान अपने ही साथ प्रतारणा कर रहा है, करता ही जा रहा है। उन लोगों के बोध और विश्वास के साथ, हालांकि ये शब्द नहीं मिलते। फिर भी...। जो लोग यह विश्वास करते हैं कि इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह कहने से उन्हें थोड़ा-बहुत पुण्य होगा, उन लोगों की बात अलग है।। मैं उन लोगों को गिनती में नहीं लाती क्योंकि उन लोगों के जरिये अमंगल के अलावा, . कभी कोई मंगल नहीं होगा। लेकिन, जिन लोगों के जीवन में धर्माचारों की बला नहीं है। कम से कम उन लोगों को तो अरबी शब्दों का धार्मिक मोह छोड़कर, बांग्ला। शब्द इस्तेमाल करना चाहिए। मैं खुद कभी इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह वगैरह शब्द इस्तेमाल नहीं करती। मैं कहती हूँ-'यह काम मैं ज़रूर करूँगी।' इस जुमले के साथ इंशाअल्लाह शब्द जोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती। कोई खुशखबरी सुनकर मैं इंसान का 'अभिनंदन' करती हूँ, माशाअल्लाह नहीं कहती। 'खुदा हाफिज़' का मतलब है, खुदा सर्वज्ञानी है। यह जुमला, रुख्सत होते वक्त कहने की कोई ज़रूरत है? खुदा ज्ञानी है या मूर्ख, यह तो ज़रा दिमाग भिड़ाने से ही समझ में आ जाता है। तोते की तरह 'खुदा ज्ञानी' रटने से इंसान या खुदा, कोई भी बुद्धिमान प्राणी नहीं लगता।
शक्की लोग भी घूम-फिरकर एक बात बार-बार दोहराते हैं। जो लोग हर पाँच जुमले के बाद अल्लाह का नाम लेते हैं उन लोगों को ज़रूर यह शक होता है कि अल्लाह नामक कोई शै है भी या नहीं।
हाँ, किसी के भी रुख्सत के समय मुझे यह कहना पसन्द है-फिर मिलेंगे! किसी भी शुभ विदा के वक्त, यह जुमला अत्यंत मानवीय और आंतरिक है! 'अस्सलाम वालेकुम' अरबी शब्द है। जिसका मतलब है-आप पर शांति की वर्षा हो। 'आप पर शांति की वर्षा हो-' इस वाक्य को भिन्न भाषा में उच्चारण करने की क्या ज़रूरत है? हमारी वांग्ला भाषा क्या इतनी ही दीन-हीन है? इतनी ही दरिद्र है? किसी से भेंट या परिचय होने पर, मैं 'अस्सलाम वालेकुम' नहीं कहती। मैं कहती हूँ-'शुभेच्छा', 'कैसे हैं?' 'सब कुशल-मंगल है न?' या 'सुप्रभात' 'शुभ-संध्या' वगैरह! मैं यथासंभव विदेशी शब्द या वाक्य का आश्रय नहीं लेती। मुझे यह पसंद ही नहीं है! देश के चोर, डाकू, खूनी, चोरी का धंधा करने वाले और दहशतगर्द लोग, अपना दिन 'अल्लाह' के नाम से शुरू करते हैं और 'अल्लाह' पर ही ख़त्म करते हैं। चूँकि वे अल्लाह का नाम लते हैं, इसलिए वे लोग महान् इंसान हैं। यह बात सही नहीं है। वैसे भी, कहना चाहिए, अल्लाह का नाम, मेरे जीवन के आचार में अनुपस्थिति रहता है; होश सम्हालने के बाद मैंने यह नाम कभी श्रद्धा से नहीं लिया, लेकिन इस वजह से मैं कहीं से झूठी-बेईमान, अमानवीय, अनुदार हरगिज नहीं हूँ। मैं तार्किक हूँ! मैं अपने स्वभाव की सच्चाई और ईमानदारी की बदौलत ही सहनशील और उदार हो सकती हूँ!
इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह के व्यापक इस्तेमाल से और कुछ भले हो, इंसान का कोई भला नहीं हो सकता। यह मैं साफ-साफ बता दूँ। विज्ञान या प्रगति के साथ इन शब्दों का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। अस्तु विदेशी और निरर्थक शब्दों को, विज्ञानसम्मत लोग अनायास ही खारिज कर सकते हैं।
आजकल तो टेलीफोन पर भी यह उपद्रव शुरू हो गया है। अक्सर दूसरी छोर से आवाज़ आती है-'हलो, अस्सलामवालेकुम!' अब यह 'हलो' शब्द के साथ अस्सलाम वालेकुम शब्द भी मानो गोंद की तरह चिपक गया है! क्या हमारे समाज में, भिन्न भाषा में सम्भाषण क्या अड्डा गाड़कर बैठ गया है? इस रिवाज को झाड़-झंखाड़ की तरह उखाड़ फेंकना होगा, क्योंकि संस्कृति, धर्म से बड़ी है! अनपढ़ लोगों की संस्कृति है-धर्म और पढ़े-लिखे लोगों का धर्म है-संस्कति! हम लोग अशिक्षित तो नहीं कहलाना चाहते।
चूँकि मैं प्रोफेसरों को अस्सलाम वालेकुम कहकर, मौखिक परीक्षा में नहीं बैठी थी, इसलिए मेडिकल कॉलेज में आखिरी वर्ष के इम्तहान में, मेरे नम्बर काट लिए गए थे। बात ऐसी नहीं थी कि प्रोफेसरों को अस्सलाम वालेकुम नहीं कहा, इसलिए उन लोगों के प्रति मेरी श्रद्धा में कोई कमी थी, बल्कि बहुतों से, बहुत ज़्यादा ही थी। मुझे याद है कि मौखिक परीक्षा देकर जब मैं बाहर निकली, तो उसी छात्र ने एक प्रोफेसर को 'हरामज़ादा' कहकर गाली दी थी जिसने परीक्षा देने से पहले बेहद विनीत भंगिमा में, उस प्रोफेसर को 'अस्सलाम वालेकुम' कहा था। उसकी यह अशोभन उक्ति सुनकर, मैं आतंकित हो उठी थी। इम्तहान में उस छात्र के नम्बर तो नहीं काटे गए। बल्कि उसके भद्र आचरण के लिए उसके नम्बर शायद बढ़ा दिए गए थे। मैं अपने प्रोफेसर को 'अस्सलाम वालेकुम' भी नहीं कहूँगी, लेकिन उनके प्रति मैं अतिशय श्रद्धा अर्पित करूँगी; मैं उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगी; उन्हें गाली भी नहीं दूंगी; अशोभन वाक्य भी नहीं उछालूँगी। लेकिन वह छात्र उन्हें 'अस्सलाम वालेकुम' भी कहेगा और उन्हें गाली-गलौज भी करेगा, उनकी अश्रद्धा करेगा, मौका देखकर उन पर दुलत्ती भी झाड़ेगा-ऐसे में सच्चा शरीफ कौन है? मैं या वह छात्र?
आजकल अल्लाह खुदा का नाम लोगों की जुबान पर रहता है। इससे अल्लाह की कोई भलाई नहीं होती। जो यह नाम दोहराता है, भला उसका भी नहीं होता। असल में, इंसान को ईमानदार और सच्चा होना होता है, विवेकवान होना होता है; उदार, सहनशील और तार्किक होना होता है, तभी इंसान का सचमुच मंगल होता है और इंसान के मंगल का मतलब है मानव जाति का मंगल!
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