लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
अभी, उसी दिन 'जनकंठ' में मेरी एक रचना प्रकाशित हुई। उस रचना के नीचे, 'जनकंठ' की तरफ से यह कहा गया है कि मैं स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ। सिर्फ 'जनकंठ' ही नहीं, यह बात और भी बहुत से लोग कहते हैं। लेकिन मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन, में हूँ? मैंने क्या अपनी मर्जी से देश छोड़ा है? सन् 94 की अगस्त में मुझे देश क्यों छोड़ना पड़ा यह बात, उस वक्त की बीएनपी सरकार बखूबी जानती है। सन् 98 में, जब मैं अपने देश वापस लौटी, कैसे लौटी, किसकी, कितनी अनिच्छा रही, बाधा और धमकियों की उपेक्षा करके लौटी, यह अवामी लीग सरकार जानती है। यह वजह भी उस वक्त की सरकार को ही मालूम है कि देश वापस लौट आने के बाद भी, मुझे देश दुबारा क्यों छोड़ना पड़ा? मैं कभी भी स्वेच्छा से निर्वासन में नहीं गई। हर बार, मुझे देश छोड़ने के लिए लाचार किया गया है। मेरे नागरिक अधिकार का उल्लंघन करने में अवामी लीग और बीएनपी, सभी सरकारों ने एक जैसी दक्षता दिखाई है। यह जो अभी भी मैं देश लौटने की कोशिश किए जा रही हैं. इसमें क्या सफल हो सकी मैं? बंगलादेश के दूतावासों में मैं हैरान-परेशान भटकती रही कि मेरे पासपोर्ट की मियाद बढ़ा दी जाए। ताकि मैं अपने देश जा सकूँ। मुझे इत्तला दी गई कि कोई भी दूतावास, मेरे पासपोर्ट की मियाद बढ़ाने को तैयार नहीं है। क्यों नहीं बढ़ाएँगे, भई? क्योंकि सरकार की तरफ से मनाही है। मनाही क्यों है? मैं क्या फरार असामी हूँ? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। तमाम उड़ते-उड़ाते, इधर-उधर के मामलों में जितनी भी बार मुझे फँसाया गया, मैंने जान-जोखिम उठाकर भी जमानत ले ली है। लेकिन, मेरे खिलाफ मामला ठोंकना, आश्चर्यजनक रूप से आसान है। देश के किसी भी ओने-कोने में बैठे-बैठे, जो कोई भी यह कह दे कि मेरी लिखी हुई किताबों के किसी शब्द या किसी वाक्य में उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचा है, तमाम सरकारी अदालतें उसकी शिकायत हुमककर ग्रहण करेंगी। मुझे नीचा दिखाने के लिए, जो जो करना होगा, करेंगी। मैंने क्या किसी का खून किया है? कहीं उग्रवादी हमला किया है, जो मुझे अपने देश में रहने-सहने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा? बंगलादेश में अंधाधुंध खून, संत्रास, छिनताई, बलात्कार, चोरी-डकैती-प्रतारणा वगैरह की वारदातें घटती रहती हैं। मैं इन सब मामलों से कहीं भी जुड़ी हुई नहीं हूँ, फिर भी मुझे यह दुर्भोग झेलना होगा।
कभी न कभी तो मुसीबत गुज़र जाती है, दुर्भोग ख़त्म होता है। एक मेरा ही कभी कुछ ख़त्म होने को नहीं आता। इंतज़ार करते-करते जिंदगी ख़त्म होती जा रही है। लेकिन पल-पल जो सपना देखते हुए, वक्त गुज़ार रही हूँ, देश लौटने का सपना, वह सपना कभी पूरा नहीं होता। कोई भी उसे पूरा ही नहीं होने देता। जब मेरी अम्मी मरण-सेज पर थी, उनके साथ आखिरी कुछ दिन गुज़ारने के लिए, मैंने स्वदेश लौटना चाहा। मेरी चाह की जानकारी मिलते ही, सरकारी लोगों ने मना कर दिया। नहीं, देश लौटना नहीं चलेगा। मेरे अब्बू भयंकर बीमार हैं। मैं उनके आखिरी दिनों में उनके साथ रहना चाहती हूँ। मैंने सरकार से दुबारा आवेदन किया है। मुझे स्वदेश लौटने दिया जाए। इस बार भी मेरा आवेदन ठुकरा दिया गया है। मैं उनकी अनिच्छा, बाधा, धमकियों की उपेक्षा करके, पहले की तरह देश लौट जाऊँ, अब इसका भी उपाय नहीं रहा। मेरा पासपोर्ट अचल कर दिया गया है। ऐसा निर्मम-निष्ठुर व्यवहार इंसान के प्रति इंसान कैसे कर सकता है? बंगालियों का प्यार कहाँ गुम हो गया है? संवेदना कहाँ खो गई है? क्या, कहीं, कुछ भी नहीं बचा है? वैसे देश के हाल-समाचार देखकर, ऐसा नहीं लगता कि कहीं, कुछ बचा है। संख्यालघु संप्रदाय पर अकथनीय अत्याचार जारी है, सत्ता के लिए अश्लील जंग छिड़ी है, किसी भी वक्त, जिस किसी भी वजह से कोई भी, किसी को कत्ल कर देता है-बंगाली क्या पहले जैसा बंगाली रह गया है? जो बंगाली बड़े गर्व से दावा करता था कि हम हिंदू हैं, हम ईसाई हैं, हम बौद्ध हैं, हम मुसलमान! लेकिन हम सब बंगाली हैं। जो बंगाली दूसरों की ज़रूरत पर जान-जोखिम उठाकर भी कूद पड़ता था; जो दूसरों के लिए अपनी जान तक दे डालता था! अब वह जान देता नहीं, लेता है। प्रेम में असफल होकर जान ले लेता है, लोभ-हिंसा, ईर्ष्या-मोह आक्रोश में प्राण लूट लेता है। ढेर-ढेर खून बहाकर, अर्जित किए हुए देश के प्रति, ऐसा नहीं लगता कि किसी को, कोई मोह-माया है। सन 71 में बंगाली जागरूकता के चरम शिखर पर थे। सन 71 में वे लोग जितने दिलदार थे, उतने ही अंगार भी! सन 71 में हिंस्र लोगों की हिंस्रता से उन लोगों ने अपने को मुक्त किया। उसके बाद ही जाति के जीवन में एकदम से टूटन उतर आया। क्षुद्र स्वार्थों में निमग्न एक-एक दिलदार इंसान एक-एक ज्योतिर्मय अंगार अपनी आँखों के सामने ही एक संभावना का विनाश देखने को विवश है। ये बंगाली लोग खुद ही अपने को जलाकर खाक कर रहे हैं। सन् 52 से लेकर सन् 71 तक, इन बीस सालों के बाद ही, वह पहले की तरह फिर बंदी हो गया है; खुद ही अपने खून से समूची राह लाल कर डाली है। खुद अपनी ही जंजीर में खुद आबद्ध हो गया है; खुद ही उसने अपनी जुबान पर ताला जड़ लिया है! उसने खद ही अपनी चेतना के कमरे में काल-सर्प बसा लिया है। जो भी राजनीतिक दल सत्ता में आता है, छल-बल-कौशल से इंसान को ठगकर, इंसान का कत्ल करके, गरीब को और गरीब बनाकर, धनी का धन और बढ़ाकर देश का बारह-चौदह-सोलह बजाकर भी, सत्ता में बना रहना चाहता है; सत्ता का ऐशो-आराम जीना चाहता है। देश भले रसातल में जाए, इंसानों की मौतों से देश भले श्मशान हो जाए। भले अभाव-अशांति, अन्याय, विषमता का बोलबाला हो, उन लोगों का कुछ भी नहीं आता-जाता।
देश के अर्थनैतिक और सामाजिक विकास की बात, स्वस्थ शिक्षा-प्रसार की बात, गरीबी मिटाने की बात, सम्पत्तियों के समान बँटवारे की बात, अब कोई नहीं सोचता। इंसान के मंगल के बारे में अब कोई राजनीतिज्ञ सोचता है, मुझे विश्वास नहीं होता। हाँ, उँगलियों पर गिने जाने लायक कुछेक इंसान ही ऐसा सोचते हैं। वे लोग संख्या में कम हैं वे लोग अन्याय का विरोध करते हैं। वे लोग ही अनशन या हड़ताल करने की हिम्मत भी दिखाते हैं। वे लोग ही बंगलादेश के गौरव हैं। चूँकि वे लोग विद्यमान हैं, इसीलिए मैं अभी भी देश लौटने के सपने देखती हूँ। एक अदद फूल को बचाने का सपना देखती हूँ।
अब तो जैसे यह नियम बन गया है कि हर सरकार की एक निजी दहशतगर्द फौज होगी। जिस फौज का काम देश में हर तरफ दहशत फैलाकर, सत्ता का गलत . इस्तेमाल करना है। सरकार गणतांत्रिक तरीके से सत्ता में आई है। इसमें किसको क्या कहना है? सच्चा गणतंत्र किसे कहते हैं, यह समझने की क्षमता अगर किसी भी राजनीतिक पार्टी में होती तो देश की तकदीर में ऐसी दुर्गत न बदा होती। यह . देश दुनिया में अव्वल दर्जे का दुर्नीति के देश में अपना नाम नहीं लिखाता। अब तो दुर्नीति चारों तरफ फैल चुकी है। इस दुर्नीति के कीचड़ में फिसलकर, अपनी अंगहानि या अर्थहानि करने की साध, किसी भी विदेशी कंपनी में नहीं है। दुर्नीति के शिकंजे से बचने के लिए, इस देश के मेधावी नौजवान, किसी भी तदबीर से देशत्याग कर रहे हैं। ज्यादातर नेता, राजनीति में निरे अनभिज्ञ, राजनीति का सिर-पैर न जाननेवाले, निरक्षर, दरिद्र इंसानों को गलत-सलत समझाकर, झूठ बोलकर वोट खरीदते हैं। माथे पर काली पट्टी बाँधकर, हाथ में तसबीह लेकर, धार्मिक सजकर, धर्मभीरु इंसानों को धोखा देकर भी वोट खरीदते हैं। भारत के हाथों देश बेचने का षड्यंत्र कौन दल रच रहा है, इस बात को लेकर, मंच-कँपाते हुए, लंबे-चौड़े भाषण झाड़कर, जनता-जनार्दन को बेवकूफ बनाकर, चतुर राजनैतिक नेतागण, अपनी मूंछों की आड़ में मंद-मंद मुस्कराते रहते हैं, महिला नेता भी मुँह पर आँचल डालकर हँसती रहती हैं। बाढ़-सैलाब, सूखा, अनाहार, अशिक्षा झेलते इंसान अपनी तकदीर लौट आने की उम्मीद में वोट देते हैं। लेकिन उनकी तकदीर कभी नहीं लौटती! उनकी तकदीर जैसी थी, वैसी ही रह गई। रानी जाती है, रानी आती है। प्रजा का दुःख नहीं मिटता। मेरी एक जर्मन सहेली, अल्लाह के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करती थी, लेकिन अब, बंगलादेश घूम आने के बाद, अल्लाह पर विश्वास करने लगी है। अब, उसका कहना है, अल्लाह ज़रूर है। वर्ना वह देश चल कैसे रहा है? कभी-कभी मुझे भी लगता है कि अल्लाह मौजूद है, तभी यह देश चल रहा है। देश के अधिकांश लोग, मानवेतर जिंदगी गुज़ारने के बाद भी, किसी के खिलाफ, कोई शिकायत नहीं करते, क्योंकि उन लोगों का विश्वास है कि खुद अल्लाह ने ही उन लोगों को इस जिंदगी की सौगात दी है। बीमारी, अभाव, मौत में अल्लाह उन लोगों के ईमान का इम्तहान लेता है। इंसान के सारे दुर्भोग, दुर्गति, दुर्दशा का दायित्व अल्लाह पर सौंपकर, सरकार काफी हद तक दायित्वमुक्त हो रहती है। चूंकि सरकार दायित्वमुक्त रहती है, इसलिए उनका सिर, धड़ पर सलामत रहता है। धर्म को राजनीति के अहम हिस्से के तौर पर इस्तेमाल करना, राजनीतिज्ञ लोगों का, लोगों को ठगने का कौशल भर है, इसके अलावा और कुछ नहीं। यह बात लोग आखिर कब समझेंगे?
अभी उस दिन लेखक शहरयार कबीर की जबानबंदी, जब अखबार में पढ़ रही थी, उस दिन दिमाग में यादों की भीड़ उतर आई। एक दिन मेरे खिलाफ भी देशद्रोह का इल्ज़ाम लगाया गया था। मुझे भी 'र' का एजेंट कहा गया था। मैं उन दिनों जानती भी नहीं थी कि 'र' कहते किसे हैं? मुझे याद है कि मैंने अपने एक मित्र से पूछा था कि यह 'र' क्या है? मित्र ने ज़ोर का ठहाका लगाया। जिसे समूचा देश 'र' का एजेंट समझता है, वह जानती ही नहीं कि 'र' क्या बला है! वाकई, हँसने की वजह थी! मुझे याद है, मेरे एक फ्रेंच प्रकाशक ने फ्रांस से मेरे नाम रॉयल्टी का चेक भेजा था। वह चेक मेरे हाथ तक नहीं पहुँचा, बीच में ही चोरी हो गया। हैरत है! चोरी गए चेक की तस्वीर, इन्कलाब के पहले पन्ने पर छपी थी और यह लिखा गया था कि बीजेपी ने मुझे मोटी रकम भेजी है, यह उसी का प्रमाण है। छः दिसम्बर के दंगे में संख्यालघु हिंदुओं की दुर्दशा का जो चित्र मैंने बयान किया था, इसीलिए मुझे बीजेपी से रुपए खाने का ताना सुनना पड़ा। अगर मैं इंसान हूँ, अगर मैं सच हूँ, अगर मैं विषमता के खिलाफ जंग लडूं, तो मैंने क्या किसी पार्टी का रुपया खाया है? दुर्नीतिग्रस्त समाज में यही एक दोष है। किसी भी निःस्वार्थ काम को, कोई निःस्वार्थ समझने को राजी नहीं होता। हर काम के पीछे उद्देश्य खोजता है। पता नहीं, कहाँ तो खो गया है प्राणवान् बंगालियों का प्राण!
जब अँधेरे में, मुझे एक घर से दूसरे घर में भागते रहना पड़ा था। कुचक्री सरकार की पुलिस-फौज और कट्टरवादी दहशतगर्दो के शिकंजे से बचने के लिए, जब मेरे सामने मौत के अलावा और कोई भविष्य नहीं था, तब चंद लोगों ने मुझे जिंदा रहने की प्रेरणा दी थी। उन लोगों ने जीवन का चरम जोखिम उठाकर मुझे पनाह दी थी। उन लोगों की असंभव उदारता की याद आते ही, मेरी आँखें भर आती हैं। असल में, अनाचार और अन्याय, देश की नस-नस में जहर की तरह घुलमिल गया है। उसके बाद भी उन चंद उदार लोगों को याद करके, बंगाली के लिए मुझे गर्व होता है। वे लोग अभी मौजूद हैं, इसलिए अभी भी मैं अपने देश लौटने का सपना देखती हूँ। मैं एक फूल को बचाने का सपना देखती हूँ! देश लौटकर, किसी एक भी हरसिंगार को अगर सांप्रदायिक बलात्कारी के हाथों से बचा सकूँ अगर किसी एक भी नूरजहाँ को कट्टरवादियों के लांछन से बचा सकूँ...!
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- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
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- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
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- उत्तराधिकार-2
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- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार