लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
सिमी मर गई और हर ओर आह-आह का शोर मच गया। सिमी मर गई तो क्या हुआ? लोगों में सिमी के लिए इतना आवेग क्यों उमड़ आया? इसलिए कि सिमी ढाका शहर की पढ़ी-लिखी लड़की थी? ऐसी बहुतेरी सिमी हर दिन मरती रहती हैं। इस किस्म की कितनी ही सिमी को उजाड़ दिया जाता है। कितनी ही सिमी शर्म, अपमान से, अकेले में बेआवाज़ आँसू बहाती रहती हैं! जहर पी लेती हैं! फाँसी लगा लेती हैं। जिन लड़कियों को ज़हर भी नहीं जुटता, गले में फाँस लगाते हुए, जिनके हाथ काँपते हैं, वे लोग हर दिन ही दर्द से छटपटाती रहती हैं। हर दिन ही वे लड़कियाँ दोज़ख की आग में जलती हैं; हर दिन ही उन लोगों को साँप-बिच्छू डंक मारते हैं। लड़कियों के लिए दोज़ख परलोक का इंतज़ार तो करती नहीं। इहलोक का समाज ही वह इंतज़ाम कर देता है। किसी भी लड़की के पैदा होते ही, उसे दोज़ख में फेंक दिया जाता है! अगर मर जाएँ, तब तो एक तरह से बच ही जाएँ! धागे के उस पार चली जाएँ। जो लड़कियाँ धागे के इस पार रह जाती हैं, दुर्भोग तो उन्हीं लोगों का है। सिमी तो बच गई। मरकर वह जी गई। मौत को गले लगाकर, उसने खुद को बचा लिया। सिर्फ अपने को ही नहीं, भविष्य में उसका शादी-ब्याह होता, मुमकिन है, उसे बेटी होती, उसने उस बेटी को भी बचा लिया। उसकी बेटी को भी बेटी ही होती, उसने उन लोगों को भी बचा लिया, बल्कि मैं तो सिमी की तारीफ ही करूँगी कि उसने बुद्धि लगाकर, सही फैसला ही लिया।
जिन लोगों को इंसान के तौर पर जीने की आज़ादी नहीं है, उन लोगों को कम से कम मरने की तो आज़ादी है। सिमी अपनी एकमात्र आज़ादी तो जीकर गई। सिमी तकदीरवाली थी। सिर्फ स्वाधीनताहीन, भाग्यहीन लड़कियाँ ही बच रहती हैं! सिमी के लिए मुझे बिल्कुल भी दुःख नहीं हुआ। दुःख तो उन लड़कियों के लिए होता है, जो सिमी की तरह अतिशय दुःख में या सिमी से लाखों-करोड़ों गुना ज्यादा तकतीफ-यंत्रणा में ज़िंदा हैं। सिमी की तकलीफ, बंगलादेश की करोड़ों लड़कियों की तकलीफ-यंत्रणा से ज़्यादा नहीं है। मुहल्ले के चंद लोगों, नाते-रिश्तेदारों और दारोगा-पुलिस ने सिमी का अपमान किया, बस, यही न? इससे ज़्यादा तो कुछ नहीं? सिमी किसी सामूहिक बलात्कार की तो शिकार नहीं हुई? उसके चेहरे पर किसी ने गर्म-तप्त सलाखें तो नहीं दागीं? उस पर किसी ने कंकड़-पत्थर तो नहीं बरसाया? किसने धुर्रा तो नहीं मारा? किसी ने एसिड फेंककर उसका चेहरा तो नहीं जलाया? चूँकि वह लड़की थी, इसलिए उसे किसी ने स्कूल जाने से तो नहीं रोका? लड़की होने की वजह से उसे घर से बाहर निकलने से तो मना नहीं किया? लड़की होने की वजह से उसे घर की दासी तो नहीं बनना पड़ा? क्रीतदासी भी नहीं बनना पड़ा! सिमी को किसी ने चकले में भी नहीं बेचा! सिमी को किसी के घर, नौकरानी का काम नहीं करना पड़ा, जहाँ और-और लड़कियों को हर पल अनन्त दुःख-तकलीफ झेलना पड़ता है। सिमी मर गई। क्योंकि उससे बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हुई। उसके सपनों की दुनिया में ज़रूर किसी ऐसे अपमान या इल्ज़ाम के लिए जगह नहीं थी। इसलिए उससे सहा नहीं गया। सिमी के अपने सपने थे। जाने कितनी लाख-करोड़ लड़कियाँ बंगलादेश में जन्म लेती हैं और स्वप्नहीन जिंदा रहती हैं। उन लड़कियों को तो सपने देखना भी नहीं आता। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि रोशनी किसे कहते हैं रोशनी देखने में कैसी होती है। उन लड़कियों का जन्म अँधेरे में हुआ है, जितने दिनों जिंदा रहती हैं, अँधेरे में ही सड़ती-गलती जीती हैं। उन सबके लिए सपना, कोई अलौकिक मामला है!
सिमी का दुःख-कष्ट-यंत्रणा अब नहीं रही। अब वह सबसे मुक्त हो गई है। उसके अलावा यह खुशख़बरी के अलावा और कुछ नहीं है। दरअसल, बंगलादेश की सभी लड़कियों को एकजुट होकर, सिमी की तरह मर जाना चाहिए। मौत की तकलीफ काफी संक्षिप्त होती है। कभी-कभी मृत्यु में कोई कष्ट नहीं होता, बल्कि एक किस्म का आनंद होता है। हीरोइन या मॉर्फिन किस्म की चीज़ों से होनेवाली मौत में कोई तकलीफ नहीं होती। अगर यंत्रणा भरी मौत चुनी जाए, तो भी यही बेहतर है, क्योंकि यंत्रणा भरी मौत होने पर भी, उसे कुल पाँच मिनट तक ही वह यंत्रणा सहना पड़ती है। कोई लड़की अगर पचास साल जिंदा रहेगी। तो उसे पचास साल यंत्रणा सहनी पड़ेगी। सिमी अगर और पचास साल जिंदा रहती, तो उसे और पचास साल तक तकलीफ सहनी पड़ती। इससे तो बेहतर यही हुआ कि उसने पचास साल की यंत्रणा को कम करके, पाँच मिनट का कर लिया। ऐसा करके उसने कोई बेवकूफी नहीं की। कोई भी लड़की जितने कम दिन ज़िंदा रहे, उसके लिए उतना ही भला है, उसे उतनी कम यंत्रणा सहनी होगी। पैदा होते ही जिस लड़की की मौत हो जाती है, उसके प्रति मैं एक तरह की ईर्ष्या महसूस करती हूँ! वही लड़की शायद सबसे ज़्यादा सुखी होती है।
बंगलादेश के बहुतेरे मर्दो को सिमी के लिए असीम दुःख है। सिमी देखने में खूबसूरत थी, उम्र भी कम थी। वह खूबसूरत तस्वीरें आँकती थी। अगर वह जिंदा रहती, तो इन्हीं सब मर्दो में से चंद मर्द सिमी के साथ का मज़ा उठाते हैं। उन्हें दुःख क्यों नहीं होगा भला? जब गाँव-गंज में रहीमा, फ़ातिमा, जहूरा वगैरह पेड़ों की डाल से झूलकर फाँसी लगा लेती हैं तब क्या किसी को इतना दुःख होता है? बंगलादेश के किसी भी परिवार में लड़की का जन्म आकांक्षित नहीं है। वहाँ लड़की का जन्म एक हादसा है। जो औरतें इस हादसे को हजम कर जाती हैं, जो प्रसूतिगृह में बेटियों की हत्या नहीं करतीं, वे लोग लड़कियों को उपेक्षा, अपमान, दुःख-कष्ट, लानत-मलामत देकर बड़ी करती हैं। बड़ी होने के बाद, रास्ता-घाट, पति के घर, दफ्तर-अदालत, दुकान-पाट, मैदान-नदी तट वगैरह जगहों में, और ज़्यादा लांछन, उन लड़कियों के इंतज़ार में होता है। निपीड़न, शोषण, निर्यातन, निष्पेषण झेलती हुई औरतें जिंदगी नहीं जीतीं, बल्कि जिंदगी का विकराल बोझ ढोती हैं। लड़कियों को यह विश्वास करने को लाचार किया जाता है कि यही आचार-व्यवहार, उनका प्राप्य है। उन लोगों को यह विश्वास करने को मजबूर किया जाता है कि वे सूरत-शक्ल से इंसान जैसी ज़रूर हैं, मगर वे इंसान नहीं हैं। लड़कियाँ बिल्कुल निम्न जाति की प्राणी हैं। लड़कियाँ तीसरे दर्जे की नागरिक हैं। लड़कियाँ अछूत हैं। औरतें, मर्द के लिए भोग की सामग्री हैं। औरतें बच्चे पैदा करने की मशीन के अलावा और कुछ नहीं हैं। औरतों के मान-सम्मान, इच्छा-अनिच्छा, साध-आह्वाद, उनकी बुद्धिमत्ता, विलक्षणता वगैरह का इस समाज में कोई मोल नहीं है। बेगम खालिदा जिया उर्फ कठपुतली चूँकि राष्ट्रपति की बीवी थीं, इसलिए बंगलादेश की कमजोर, अस्वस्थ, अशिक्षित राजनीतिक वर्ग, चेहरे पर रंग-रोगन पोते, बालों में काकुले निकाले, गुड़िया के तौर पर उन्हें सत्ता पर बिठाया है। हमारे बुड्ढे-मुन्ना लोग, इस गुड़िया से खेल रहे हैं। लड़कियाँ सिर्फ भोग की ख़ास सामग्री ही नहीं हैं, खेलने का खिलौना भी हैं। लड़कियों या औरतों से खेलने में मर्द को काफी मज़ा आता है। मशीनी-गुड़िया तो कभी-कभी बिगड़ भी जाती है, लेकिन जीती-जागती लड़की-गुड़िया कभी नहीं बिगड़ती। उन लोगों से जैसा कहा जाता है, वे लोग वैसा ही करती हैं। दाहिने कहो, दाहिने चल पड़ती हैं। बायें इशारा करो, बाईं तरफ बढ़ जाती हैं। ये गुड़ियाँ नाचती भी अच्छा हैं। गुड़ियों का नाच देखना, किसे भला नहीं लगता?
बंगलादेश की प्रधानमंत्री तो नाम से भी कठपुतली हैं, काम से भी कठपुतली हैं! वैसे समाज की बाकी औरतें भी महज कठपुतली ही हैं। जो औरत, पुरुष-निर्मित समाज में कठपुतली जैसी न चले, मतलब उसे जैसे चलाया जाए, अगर वह न चली, तभी गड़बड़ी मचती है! गड़बड़ी से छुटकारा पाने के लिए, जिनमें सिमी की तरह मान-सम्मान का अहसास है, वे लोग जान दे देती हैं। जिनमें नहीं है, वे जिंदा रहती हैं। कोई-कोई शायद आंदोलन का भी जिक्र करती हैं। लेकिन बंगलादेश में आंदोलन करके, कुछ भी होने-हवाने को नहीं है। इस देश ने कान में रुई लूंस रखी है, आँखों पर पट्टी बाँध रखी है! मध्ययुग की बर्बरता, इस देश में महासमारोह के साथ विराजमान है। लोग-बाग अल्लाह का नाम लेकर जैसे गाय जिबह करते हैं, वैसे ही इंसान भी जिबह करते हैं। खुलेआम! इस कसाई-पुरुष के देश में हर औरत किसी न किसी तरह से बलि होती है। ऐसे सड़े-गले-नष्ट समाज में, इंसान में अगर आत्मसम्मान है, तो वह आत्महत्या कर लेता है! जैसा सिमी ने किया। आत्महत्या करके उसने बाकी औरतों को राह दिखाई है। औरतें या तो इस देश से निकलकर अन्य किसी भी देश के किसी भी स्वस्थ समाज में जा बसें या फिर खुदकुशी कर लें। वह मर ही जाए! सब मर जाएँ। बचे रहें, नष्ट समाज के सिर्फ नष्ट मर्द! वह जो कहते हैं न कि 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट!' इस समाज में मर्द की निष्ठुरता, मर्द को ही शोभा देती है। गंदगी और गलीजपन, इन्हीं मर्दो को ही सजती है।
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