लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
पश्चिम का प्रेम
दुनिया में यौन-आकांक्षा का अभाव, कभी, किसी काल में ही नहीं रहा। ग्रीक पुराण में अफ्रोदिति का पुत्र, इरोस, इंसान और देव-देवियों की छाती पर निशाना लगाकर, तीर छोड़ता था। वह तीर जिसकी भी छाती पर जा लगता, उसका किसी न किसी के साथ यौन-संपर्क होता था। यह इरोस ही रोमन पुराण में वेनस की कोख से जन्म लेकर, पीठ पर पाँखों वाला एक हट्टा-कट्टा, नंगा बच्चा, क्यूपिड नाम धारण करता है और उसी तरह तीर-धनुष ताने, उड़-उड़कर जिस पर भी उसका दिल आता, उसपर तीर बरसाना शुरू कर देता। सोने का तीर छोड़कर वह यौनाकांक्षा जगाता था और सीसा का तीर छोड़कर, इन सबमें वितृष्णा जगाता था। मुझे वह दृश्य याद है-एपोलो सोने का तीर खाकर दौड़ रहा है। उधर दाफनी सीसे का तीर खाकर दौड़ रही है। वह एपोलो के हाथ से बचने के लिए पागलों की तरह भाग रही है। रोमन देव-देवियों की पीठ पर पाँखें लगी होती हैं। मगर भारतीय पुराणों के देव-देवियों की पीठ पर पाँखों का नामोनिशान नहीं है। वे लोग इंसान की तरह ही, इंसान के घर में निवास करते हैं; मक्खन-मट्ठा चुराते हैं; लेकिन अंदर ही अंदर भगवान हैं। कृष्ण के हाथ में तीर-धनुष नहीं था। वह वंशी बजाकर ही सारा मुहल्ला-टोला मात कर देते थे। सिर्फ राधा के साथ ही लीला-क्रीड़ा करके ही चैन नहीं लेते, और चाहिए! और चाहिए! का गुहार लगाते हुए, पूरी सोलह हजार ललनाओं के साथ, सोलह कला पूर्ण होते हैं। यह सब भगवान लोगों को ही शोभा देता था। भगवान द्वारा सबकुछ ही संभव है। इंसान द्वारा इतना कुछ संभव नहीं था। इंसान ने तो प्रेम का पाठ पढ़ा, कुल आठ-नौ सौ साल पहले। इससे पहले इंसान, इंसान को प्यार नहीं करता था, ऐसी बात भी नहीं है। इससे पहले भी इंसान प्यार करता था, यौन-संपर्क भी होते थे! खैर यह तो होना ही था, वर्ना बहुत पहले ही इस धरती से इंसान का नामोनिशान ही मिट जाता। ग्रीस का ही प्रसंग लिया जाए।
प्राचीन ग्रीस में, ईशू के जन्म से बहुत सालों पहले से ही विवाह-प्रथा चालू हो गई थी। पुरुष वर्ग विवाह करता था, लेकिन उस विवाह में प्यार का कोई रिश्ता-नाता नहीं होता था। पत्नी इसलिए होती थी कि वह बच्चे पैदा करे। उनका लालन-पालन करे और घर-गृहस्थी चलाए। घर की पत्नी से रूप-गुण-विद्या-बुद्धि में वारवनिताएँ ही, समाज में उच्च श्रेणी की औरतें मानी जाती थीं। समाज के जाने-माने प्रतिष्ठित लोग वारांगनाओं का साहचर्य पाने के लिए आकुल-व्याकुल रहते थे। रोम के कवि, पब्लिओस अभिडिओस नासो, 'मेटामॉरफोसिस' लिखकर नाम कमाने वाले कवि ने उन्हीं दिनों ईशू के जन्म से दो साल पहले, अविश्वसनीय किस्म की एक आधुनिक किताब लिखी- 'आर्स एमेटोरिया' ! उस किताब में उन्होंने यौनता के साथ प्यार को भी मिलाया। यहाँ तक कि यौन-संगम के कछेक आसन को उन्होंने अहमियत दी है, जिनके बारे में उनका विश्वास है कि औरत-मर्द एक ही साथ संगम में चरम तृप्ति और ऑर्गज्म का आनंद पा सकते हैं। इसके बाद ढाई-तीन सौ साल बाद, भारत में 'कामसूत्र' की रचना हुई। काम की चौंसठ कला के बारे में वात्स्यायन ने खुले दिल से ज्ञान-दान किया। वात्स्यायन जैसा, काम का ऐसा शब्दशः वर्णन और कोई नहीं कर सका। दुनिया शायद इसी तरह चलती रहती, अबाध यौनता में डूबी रहती, अगर ईसाई धर्म का उदय नहीं होता और वह यह घोषणा न करता कि यह पाप है! मध्य-प्राच्य से यह धर्म खुद चलकर, रोम में दाखिल हुआ, खून-क़त्ल वगैरह बलबा मचाने के बाद, जब ज़रा थिर होने पर उसने औरतों के कुँवारेपन का जयगान गाना शुरू किया, तब सन् तीन सौ पचासी में गिर्जे के पुरोहित, जोवीनियन ने प्रस्ताव दिया-आजीवन कुँवारी रहने से बेहतर है, लड़कियाँ विवाह कर लें। जैसे ही उन्होंने यह प्रस्ताव किया, पोप ने जोवीनियन को निर्वासन दे डाला। संत अगस्तीन की तरह विराट संत ने भी 'स्वीकारोक्ति' और 'ईश्वर का शहर' नामक दो किताबें लिखीं। इन दोनों किताबों का मूल वक्तव्य था-विवाह और यौनता जैसा घृणित काम, इस दुनिया में और कोई नहीं है। कुल कुछेक सौ सालों में ही ईसाई धर्म ने धूम मचा दी। औरतें महज टुकड़ा भर जायदाद हो उठीं। वह भी ऐसी जायदाद, जिसकी कोई कीमत नहीं थी। गिर्जा ने बीवियों के मारने-पीटने को अपराध नहीं माना। हाँ, अगर कोई मर्दकिसी लडकी या औरत की हत्या कर दे. तो सजा के तौर पर मामलीसा जुर्माना देना होगा, बस! विवाह का मामला गिर्जा के नेतृत्व में चला गया। जोवीनियन के खिलाफ जो शख्स सबसे ज़्यादा शोर मचा रहे थे, उन्हीं सेंट जेरोम ने नई घोषणा की-अगर कोई पुरुष अपनी विवाहिता बीवी के प्रति किसी किस्म का प्यार जाहिर करे, तो उस पुरुष को भी व्यभिचारी कहा जाएगा। यानी सिर्फ संतान पैदा करने के लिए 'संगम' को मान लिया गया। तिरसठ आसनों को वर्तन की तरह उछालकर तोड़-फोड़ डाला गया, सिर्फ एक आसन को वैध किया गया, (मिशनरी आसन-पुरुष ऊपर, नारी नीचे), लेकिन प्रायश्चित्त के दिनों में संगम निषिद्ध कर दिया गया। इसके अलावा, रवि, बुध, शुक्र और छुट्टी के दिनों में संगम नहीं चलेगा।
इसी बीच एक भीषण कांड घट गया। यह वारदात फ्रांस के दक्षिण में, ट्रबाडुर लोगों के प्रावेन्स नामक राज्य में हुई। टूबर लोग मूलतः गायक होते हैं। खुद ही गीत रचते हैं और विभिन्न अंचलों में वही सब गीत गाते फिरते हैं। ये लोग केल्ट जाति के होते हैं। खैर भले वे किसी भी जाति के हों, प्रेम के पहले प्रवर्तक ये ही लोग हैं। यह प्रेम कोई ईश्वर-प्रेम नहीं होता, प्रकृति-प्रेम भी नहीं है, यह औरत-मर्द का प्रेम है। लेकिन इस प्रेम का उद्देश्य रमण नहीं होता। अब हम जिस अहसास को प्रेम के रूप में जानते हैं, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं-'रोमांटिक लव', रूमानी प्यार, इस प्रेम की शुरुआत उन्हीं दिनों हुई। पश्चिमी सभ्यता में उन दिनों जो चीज़ अनुपस्थित थी, वह औरत मर्द दरमियान, दिल का रिश्ता! वैसे यह बात उन दिनों भी नहीं सोची जा सकती थी कि यह प्रेम पति-पत्नी में संभव है। इस प्रेम में, औरत के रूप पर मुग्ध होना, गुणों पर विस्मित होना, औरत को न पाने की तकलीफ, हताशा में दर्द से झुकना तो मौजूद होगा। लेकिन इसके बावजूद प्रेम की यह उपलब्धि असहनीय किस्म का आनंद देगी। प्रेम में पड़कर, मेरा जो कुछ भी है, सब उजाड़कर दे सकता हूँ, आत्महत्या भी कर सकता हूँ-ऐसे-ऐसे जुमले भी कहे जाने लगे। उन दिनों इसी प्रेम को ही सच्चा प्यार समझा जाता था, यौन-संपर्क को झूठ ही समझा जाता था। सचमुच के प्यार में था-स्पर्श, आलिंगन, चुंबन! यह विश्वास किया जाता था कि देह अगर अतृप्त रहे और दिल आवेग और उत्तेजना से भरा-भरा हो, तभी इंसान का चरित्र ऊँचा होता है। प्यार ही इंसान को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है काम करने की ताकत जुटाता है। पहली बार प्यार के साथ व्यक्ति-चरित्र जुड़ गया। टूबाडुर कविगण अपनी औरतों से प्रार्थना करते थे एक उन्हें किसी तरह की यौनता न दी जाए। बिएनिस के प्रति दाते का प्यार, इसी तरह का प्यार था। एक्वीटेन के ड्यूक, विलियम द्वितीय, टूबाडूर का आदर्श ग्रहण करके, नई शैली का जीवन गुज़ारना शुरू कर दिया। विलियम द्वितीय की नातिन एलेनर, सन् 1122 में जब इंगलैंड और फ्रांस की रानी बनी, उन्होंने पूरे दम से प्यार का प्रचार शुरू कर दिया। एलेनर के दरबार से 'प्रेम की शर्त' नामक एक पुस्तिका निकाली गई-प्यार में औरत-मर्द, दोनों के आवेग मौजूद रहेंगे। दोनों का एक-दूसरे के प्रति श्रद्धाबोध और मुग्धता होगी। औरत को दासी की जगह से उठाकर, मर्द के दिल में बिठा दिया गया। लेकिन एलेनर का यह प्रेम-बग़ावत ज़्यादा दिनों नहीं टिका, इंगलैंड के राजा, हेनरी द्वितीय ने एलेनर के प्रेम का दरबार तोड़-ताड़कर, चकनाचूर कर दिया।
उसके बाद, सन् 1300 से एक-एक करके जो घटा, वह था प्रेम-प्यार के खिलाफ, गिर्जाघरों का पीछे पड़ जाना! मर्द अगर किसी किस्म की यौन-इच्छा के बिना ही, किसी औरत को स्पर्श करता है, उसका चुंबन लेता है, तो उसे गुनाह माना गया। धर्मांध लोग एक शहर से दूसरे शहर घूम-घूमकर, अपने पर चाबुक बरसाते-बरसाते, अपने को रक्ताक्त करते हुए, अपने पाप का प्रायश्चित्त करने लगे। गिर्जा के लोगों
ने धार्मिक अदालत का गठन कर डाला और जिन औरतों में यौन-आकांक्षा मौजूद है, उन पर भूतनी का असर हो गया है। यह फतवा जारी करके उन लोगों ने उन पर अकथनीय अत्याचार शुरू कर दिया। तीस हज़ार औरतों को गिर्जाघर के मालिक-मुख्तारों ने जलाकर मार डाला। दूसरा धर्म का घुप्प अँधेरा हटाकर चारों तरफ रेनेसां की हल्की-हल्की रोशनी की टिमटिमाहट नज़र आने लगी। नहीं, अब कोई विस्मय नहीं रहा, अब धर्म को लेकर सवाल उठाए जाने लगे। गिर्जा की परवाह न करके, फ्रांस की रानी, मार्गरेट, कामगंधहीन प्यार चलाती रही। किसी एक के साथ नहीं, एक साथ बारह-बारह लोगों के साथ। उन्होंने अपनी बहत्तर कहानियों का 'हेपटामेरन' नामक एक संकलन निकाला वह रेनेसां का दौर था! लेकिन उस समय तक विवाह, प्रेम की शर्त नहीं था। विवाह जिंदगी भर के लिए नितांत ही देह और रुपए-पैसों से संबंधित मामला भर था। किंग हेनरी अष्टम ने पोप और पादरियों के खिलाफ लंबी जंग लड़कर, विवाह को प्रेम से जोड़ दिया। रानी एलिज़ाबेथ प्रथम की माँ ने जब ऐन से विवाह कर लिया, उस समय तो तलाक भी नहीं होते थे। ऐन को तलाक देकर किसी दूसरी औरत से विवाह करने के लिए, उन्होंने तलाक की व्यवस्था भी पक्की कर ली। इस तरह औरत की स्थिति थोड़ी-बहुत ज़रूर बदली।
कवि-साहित्यकारों ने इस परिवर्तन के पक्ष-विपक्ष में कलम थाम ली। शेक्सपियर का रोमिओ जूलिएट, द टेमिंग ऑफ द शू, इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। प्यार में सिर्फ हृदय मौजूद रहेगा और विवाह में सिर्फ शरीर-यह आदर्श अब बदल गया। रेनेसां से आलोकित लोगों ने यौनता को गुनाह मानने से इनकार किया। प्रेम और विवाह के क्षेत्र में मन और तन, दोनों ही समर्पित किया गया। मध्यवित्त लोगों में भी जागरण का उदय हुआ। उन लोगों ने भी तन और मन के मिश्रण से उपजे, प्रेम के इस नए परिवर्तन को खुद आगे बढ़कर समेट लिया। मध्य युग के मुकाबले रेनेसां के दौरान, औरत की मर्यादा, थोड़ी-बहुत बढ़ी। पति लोगों ने प्यार को 'वस्तु' के तौर पर सम्मान देना सीख लिया। इसके बावजूद सारी संपत्ति पति के अधिकार में बीवियों को पीटना, उन दिनों भी कानूनी तौर पर निषिद्ध नहीं था।
इधर ईसाई धर्म में बग़ावत फूटने लगी। मार्टिन लूथर, जो इस बगावत के सूत्रधार थे, वे खुद भी काफी खुशमिज़ाज शख्स थे। खाओ-पीओ-फुर्ति करो-जर्मनी में वे इसी शैली का जीवन गुजारते थे। कैथलिक ईसाइयों से उनका विरोध शुरू हो गया। ईश्वर को खुश करने के लिए, आजीवन कुँवारी रहने वाली औरतों के बारे में उन्होंने साफ़ घोषित कर दिया कि वे लोग शैतान की सृष्टियाँ हैं। उन्होंने कैथलिक मुल्लों को सलाह दी कि वे लोग उनका जल्द से जल्द विवाह करा दें। यहाँ तक कि ईशु का मेरी मैग्डालेन और अन्यान्य बहुतेरी लड़कियों से नाजायज़ यौन संपर्क भी था-उन्होंने ऐसी बातें करने का भी साहस दिखाया। लूथर की तरफ से मूल बात यह थी कि यौनता पूरी तरह स्वाभाविक मामला है, इसके दमन में कोई तुक नहीं होता। ईसाई धर्म में लूथर का यह सुधार-संस्कार, उत्तरी-यूरोप में तेजी से फैल गया। लूथर की मौत के बाद, जॉन केल्विन, जॉन नक्स ने सख्त-सख्त कानून तैयार किया। यौन-संगम सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए है, किसी मौज-मज़े के लिए नहीं है। यौनता पति-पत्नी की चौखट कहीं भी लाँधी न जाए-यही साफ़ बात थी! जहाँ कहीं ऐसे रिश्ते नज़र आए, हमले होने लगे। रविवार के दिन धूम्रपान, मद्यपान, जुएबाज़ी, भड़काऊ पोशाक निषिद्ध कर दिए गए। प्योरिटन लोगों के हृदयहीन और यौनताहीन होने की खबरें जोर पकडने लगीं। प्योरिटन लेखक. जॉन मिल्टन ने 'पैराडाइज लॉस्ट' में आदम और ईव की प्रेम-कहानी बयान करके यह साबित कर दिया कि सभी एक जैसे नहीं हैं। उदारपंथी प्योरिटन लोगों ने विवाह को गिर्जे के हाथों से मुक्त कराया और इसे सिविल-समझौते में शामिल किया। पति के अत्याचारों की शिकार पत्नियों को यह अधिकार मिला कि वे लोग ऐसे पति से अलग हो सकें। यहाँ तक कि औरतों ने पति को तलाक देने का अधिकार भी अर्जित कर लिया।
इसके बाद चिंतन-मनन का दौर शुरू हुआ। सन् 1700-1800 का समय। इस शती के मध्य में उच्चवित्त और उच्च शिक्षित लोगों ने आवेग, संयत करके, तर्क, बुद्धि के सहारे चिंतन-मनन शुरू कर दिया। उन्होंने विज्ञान की तरफ ध्यान केन्द्रित किया। धर्म धीरे-धीरे अपना आधिपत्य खोने लगा। फ्रांस के चौदहवें लई, अपनी बुद्धि के दम पर जन-साधारण में लोकप्रिय हो उठे। इंसान के आचार-व्यवहार में शराफत, नम्रता वगैरह शामिल हुई। जिस-तिस पर पापी होने का इल्ज़ाम लगाने और इंसान को पापबोध का अहसास दिलाकर, शर्मिंदा करने के दिन अब ख़त्म होने को आए। मर्द अब बुद्धिमती औरतों के संग-साथ की चाह करने लगे। लेकिन उन दिनों भी औरतें, मर्दो के घरों में मुख्यतः शोभा और सजावट के रूप में ही इस्तेमाल होती रहीं। प्रेम-प्यार सिर्फ राजपरिवारों के लिए ही नहीं, मध्यवित्त और जनसाधारण लोगों के जीवन का भी हिस्सा हो उठा। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने पापबोधहीन यौनता का प्रचार शुरू कर दिया। इस शती में जो औद्योगिक क्रांति शुरू हुई, उसने अगली शती में चरम रूप अख्तियार किया। झुंड-झुंड में गरीब लड़कियाँ उद्योग के काम के लिए घर से बाहर निकल पड़ीं। लेकिन उच्चवित्त घरों की औरतें उस वक्त भी घर के अंदर ही कैद रहीं! मलका विक्टोरिया के ज़माने में शुद्धता पर बहस छिड़ गई। चारों तरफ नीति की जयजयकार गूंजने लगी। आदर्श परिवार रचने-गढ़ने का आह्वान। अब लज्जावती और कुंवारी लड़कियाँ मर्दो की चाहत बन गईं। मर्दो ने सती साध्वी, आदर्शवादी औरतों का गुणगान शुरू कर दिया। मर्द के प्रस्ताव पर औरतों को सिर्फ सहमति या असहमति जताने भर का अधिकार था। इसके अलावा औरत की और कोई भूमिका नहीं होती थी। विवाह के मौके पर भी औरत को शर्म से आरक्त दिखने और होठों पर मंद-मंद मुस्कान झलकाते रहने के अलावा, और किसी बात की अनुमति नहीं थी। यह भी औरत के लिए पहले से कुछ ज़्यादा ही सम्मान अर्जन था। लेखक जैक रूशो, हताश, भावुक, काफी कुछ आत्मविश्वास खो देनेवाले इंसान थे। उन दिनों यूरोप के शिक्षित बुद्धिजीवी और उदारपंथी राजनीतिज्ञों में रूशो का गहरा प्रभाव था। वे लोग यौनता, मौज-मज़ा, फुर्ती, होहल्ला वगैरह का वर्जन करने लगे। सन् 1807 में टॉमस बोदलेयर ने 'फैमिली शेक्सपियर' नामक जिस किताब का सम्पादन किया, उस किताब में उन्होंने बड़े आराम से शेक्सपियर की रचना उड़ा दी। उन्होंने तर्क यह दिया कि वे हिस्से परिवार के सभी लोगों में पढ़ना-पढ़ाना शोभन नहीं है। दार्शनिक इमैनुएल कांट का अस्सी साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया। वे अविवाहित थे। उस ज़माने में शोक-प्रदर्शन करते हुए बेहाल हो जाना, आँखों से धार-धार आँसू बहाना वगैरह एक किस्म के गौरव की बात थी। आइरिश कवि, टॉम मूर, सड़क के पत्थर देखकर भी भावुकता से उमड़ आते थे। नैतिकता कायम रखने में समाज की साँसें घुटने लगीं। पितृतंत्र, कुत्सित चेहरा लिए, औरतों पर हमले पर हमले करता रहा। सन् 1842 में अमेरिका के डॉक्टर, विलियम हमंड ने कहा, 'संगम के समय किसी भी शरीफ लड़की की बूंद भर भी तृप्ति महसूस करना गुनाह है।' अनगिनत डॉक्टरों ने औरतों में यौनाकांक्षा जागने को, शारीरिक रोग बताया। यह विश्वास भी प्रचलित हो गया कि संगम की चाह औरत को हमेशा-हमेशा के लिए बाँझ बना सकती है। एक तरफ कठोर नीति और आदर्श, जिसके पालन की जिम्मेदारी प्रमुखतः औरतों की भी थी, दूसरी तरफ पोर्नोग्राफी और वेश्यालयों की संख्या धाँय-धाँय करके बढ़ती जा रही थी। अकेले लंदन में ही, सन् 1850 में पचास हज़ार वेश्याएँ और पोर्नोग्राफी की किताब की तीन लाख प्रतियाँ उपलब्ध थीं।
मेरी वलस्टनक्राफ्ट ने नारी-शिक्षा के समर्थन में कलम थामी थी। उन्होंने अपनी किताब, 'विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वीमेन' में उन्होने जोर देकर कहा-औरत की जिंदगी, सिर्फ पुरुषों को आनंद देने के लिए ही नहीं है। सन् 1837 में लड़कियों का पहला कॉलेज प्रतिष्ठित हुआ। सन् 1850 में वोट का आंदोलन छिड़ गया, जो सन् 1920 तक जारी रहा। सन् 1949 में प्रकाशित, सिमोन द बोउआ का 'सेकंड सेक्स' किताब ने पूर्वी-पश्चिमी दुनिया की औरतों को एकदम से जागरूक कर दिया। औरतों ने मर्दो की बराबरी के हक की माँग करते हुए, समूचे यूरोप में आंदोलन की धूम मच गई। बेटी फ्रेडेन की रचनाओं ने साठ के दशक में, औरतों को बेतरह उबुद्ध किया। तलाकों की संख्या बढ़ती गई। औरतों ने दल बाँधकर, झुंड-झुंड में जुलूसों में हिस्सा लिया। विवाह-प्रथा के विरुद्ध भी औरतों ने आंदोलन शुरू कर दिया। नारीवादी वर्ग इस विषय में एकमत हुआ कि-
'All the discriminatorypractices against women are patterned and rationalized by this slavery like practice. We can't destroy the inequities between men and women until we destroy marriage.'
अधिकांश औरतों ने विवाह का वर्जन किया। विषमताहीन रिश्ते के लिए अगर राजी हो, तो रहो वर्ना रास्ता नापो! प्यार में अब औरत की परोक्ष भूमिका नहीं थी। अब वह सिर्फ लज्जावती औरत या पुरुषों के हाथ खिलौना भर नहीं थी। यौन-स्वाधीनता के पक्ष में छेड़े गए आंदोलन में औरतों की जीत हुई। अब औरत का तन-मन पूरी तरह उसके अपने अख्तियार में आ गया। पितृतंत्र, धार्मिक अनाचार वगैरह सभी तरह के फासले और अनाचार के खिलाफ, औरत पैर जमाकर अड़ गई। सन् सत्तर के दशक में नारीवादी आंदोलन, चरम पर जा पहुँचा। प्यार का चेहरा-मोहरा बदल गया! बदलना तो खैर यकीनी ही था। जेन ऑस्टिन की तरह मिनमिनाते हुए नहीं, दो सौ साल बाद, आन्द्रिया डरकिन की आवाज़ में तीखी झुंझलाहट थी-
'We have a double standard, which is to say, a man can show how much he cares by how much she's. Willing to be hurt, by how much she will endure; how suicided she is prepared to be.'
Men use sex to hurt us. An argument can be made that men have to hurt us, diminish us, in order to be able to have sex. With us-break down barriers to our bodies, aggress, he invasive, push a little, shone a little, express verbal or physical hostality or condescension. An argument can be made that in order for men to have sexual pleasure with women, we have to be inferior and dehumanized, which means controlled, which means less autonomous, less free, less real.
सिर्फ औरतें ही नहीं, बहुत पहले से ही, विवाह के बारे में मर्द लेखकों में भी एक किस्म की वितृष्णा काम कर रही थी। युरिपिडिस ने कहा है-ईसा के जन्म के साढ़े चार. सौ वर्ष पहले, यह बात कभी अपनी जुबान पर न लाना कि विवाह में पीड़ा से ज़्यादा आनंद है। सुकरात ने कहा-अगर तुम्हें कोई भली औरत मिल गई, तो तुम सुखी होगे और अगर कोई बुरी औरत तकदीर में आ जुटी, तो दार्शनिक हो जाओगे। फ्रान्सिक बेकन ने कहा- 'औरतें जवान पति की प्रेमिका होती हैं, अधेड़ उम्र पति की संगिनी और बूढ़े पति की नर्स!' बोदलेयर ने कहा-'प्रेमिका बोतल भर शराब की तरह होती है। और औरत, शराब की एक बोतल की तरह।' ऑस्कर वाइल्ड की राय में-'मर्द इसलिए विवाह करता है, क्योंकि वह थका हुआ होता है। औरत इसलिए विवाह करती हैं, क्योंकि उसमें कौतूहल होता है। वैसे विवाह के बाद, दोनों को ही हताश होना होता है।' जॉर्ज बर्नार्ड शा ने इंसान के विवाह करने के कारणों का उल्लेख किया है-
'When two people are under the influene of the most voilent, most insane, most delusive, and most transistent of passions. They are exhausity condition continuously until death do them part.'
कोई लेखक हो या कवि, मर्द रूप-गुणों से भरपूर, पतिव्रता औरत न पाकर अनगिनत औरतों के साथ उन . लोगों के लीला-खेल की आज़ादी नष्ट होने पर वे क्षुब्ध हो उठते थे। टेड ह्यूज जैसा पति पाकर भी, सिल्विया प्लाथ को काफी झेलना पड़ा था। उनका विश्वास था कि औरतें विवाह करके फिजूल जिंदगी का वक्त बर्बाद करती हैं।
कहाँ पइहौं कलसी-बिटिया, कहाँ पइहौं डोरी
तुम बन जइयो गहिन गांग, हम डूब मरी
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- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
- मुनीर, खूकू और अन्यान्य
- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
- उत्तराधिकार-1
- उत्तराधिकार-2
- अधिकार-अनधिकार
- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार