लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
हाँ, यह सोचते हुए वाकई शर्म आती है कि जब समूची पश्चिमी दुनिया, गणतंत्र, मानवतावाद, वाकस्वाधीनता, व्यक्तिस्वाधीनता वगैरह का जयघोष कर रही है, तब मध्य-प्राच्य के एक देश में, सबकी निगाहों के सामने, हाइ-टेक बम और मिसाइलें बरसाई जा रही हैं। बम बरसाते विमानों ने उस देश का आकाश दखल कर लिया है। वहाँ की सड़कों पर हजारों-हजार विध्वंसी टैंक चहलकदमी कर रहे हैं। निहत्थी जनता पर अंधाधुंध गोलियाँ दागी जा रही हैं। इसका नाम क्या जंग है? नहीं इसे जंग नहीं, हमला कहते हैं। इसका नाम-नृशंसता है! इसका नाम हिंसता है। अमेरिका की खौफनाक सारिक ताकत, किसी एक देश और देश की निरीह जाति को ध्वंस किए दे रही है। इस दौरान, उसने कितने सहस्र लोगों की हत्या की है, कितने सहस्र लोगों को ज़ख्मी कर चुकी है, अमेरिका की संत्रासी सरकार, इसका कोई हिसाब नहीं दे रही है। देगी भी नहीं। वियतनाम के साथ भी यही किया था; मृत्यु-संख्या छिपाए रखा था। अपनी घिनौनी बर्बरता की कहानी भी गुप्त रखी; गाँव पर गाँव जला डालने के दृश्य पर भी पर्दा डाल दिया; असहाय, गरीब किसानों की आत-चीत्कार, आँखों के आँसू और हाहाकार भी गुम कर दिया। तीन-तीन युद्धों में अमेरिका ने अपना रसायनिक हथियार-नापाम का इस्तेमाल किया। वियतनाम में उसकी मनमानी के किस्से सभी जानते हैं। उपसागर के युद्ध में उसने यूरेनियम का प्रयोग किया। इराक के बाद कैंसर की संख्या सात सौ गुने ज़्यादा बढ़ गई है। विकलांग शिशुओं की जन्म दर कई सौ गना ज्यादा हो गई है। इन सबका हिसाब कौन देता है? कम से कम साम्राज्य-शक्तियों की प्रोपेगंडा मशीनें. इनका जिक्र भी नहीं करतीं! करेंगी भी नहीं। फौज की छत्रछाया में जो पत्रकार इराक में दाखिल हुए थे, उन लोगों को सबकुछ देखने का हक है, लेकिन सबकुछ प्रचार करने का हक नहीं है! कतार का अल-ज़जीरा टेलीविजन, चूँकि सच्चा प्रचार कर रहा है, इसलिए इसकी हड्डी-पसली चकनाचूर कर देने का इंतजाम किया जा रहा है। अमेरिकी हैकरों के गिरोह ने इंटरनेट से अल-ज़जीरा का वेबसाइट गायब कर दिया है।
सवाल यह उठता है कि यह हमला आखिर क्यों? अमेरिका की संत्रासी सरकार ने तरह-तरह के झूठ से लोगों को बहला-फुसला रखा है। पहले तो यह कहा कि ग्यारह सितंबर के साथ इराक का संबंध है। बाद में कहा कि वहाँ अल-कायदा का अड्डा है! उसके वाद उसने फरमाया कि इराक के पास गणसमूह की तबाही के हथियार मौजूद हैं। जब एक-एक करके सारे झूठ साबित हो गए, तो उसने कहा कि इराक में वह गणतंत्र लाएगा; इराक को आजादी देगा। अभी उस दिन मैंने देखा, कोई अमेरिकी फौजी, एक मिसाइल पर लिख रहा था-नाइन इलेवन! क्यों? वह बंदा गस्से से आगभभखा था। बीस या इक्कीस साला उस फौजी ने कहा, 'उन लोगों ने हमारा ‘विन टावर' ध्वंस किया है। हम उन सबको ध्वंस कर देंगे। मिसाइल के जरिए यह चेतावनी भेज रहा हूँ।' बुश सरकार ने अपने फौजियों के भोथरे दिमाग़ में यह झूठ भर दिया है।
झूठ से इन लोगों की मुक्ति नहीं है। खैर, झूठ का खरीद-फरोख्त हर दिन जारी है। ऑकुपाइड अब सिक्योर्ड हो गए हैं। अबाध दखल को सुरक्षा या स्वाधीनता नाम देकर, अमेरिकी सामरिक शक्ति, लोगों को बहलाने की कोशिश कर रही है। झूठ से लोग बहल भी जाते हैं, वर्ना पचहत्तर प्रतिशत अमेरिकी जनता, इराक हमले के लिए कतई राजी नहीं होती। अमेरिका चाहे कितना भी दावा करे कि इराक-हमले में उसे चालीस-पैंतालीस देशों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन असल में दो देशों को छोड़कर, किसी देश ने भी इसका समर्थन नहीं किया। सिर्फ दो देशों के संख्याबहुल नागरिकों ने इराक-हमले के लिए हरी झंडी दिखाई है। अमेरिका और इज़राइल ! बाकी जिन देशों की सरकारों ने बुश के इस ध्वंसात्मक खेल में समर्थन दिया है, उन देशों की अस्सी से नब्बे भाग जनता ने इस हमले के खिलाफ अपनी राय दी है। अमेरिका की मित्र-शक्ति ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया, हमले में शामिल ज़रूर हुए, लेकिन उन देशों की अस्सी प्रतिशत जनता इसके खिलाफ है। अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करके, राष्ट्रसंघ के अनुमोदन के बिना, दुनिया की संख्या बहुल जनता की राय पर थूककर, अमेरिका, इराक पर टूट पड़ा है। हर रोज़ वहाँ की निरीह जनता पर लगातार अन्याय, अविचार, अत्याचार वरसाए जा रही है, मानों ये लोग इंसान नहीं, ये लोग विचित्र दोपाए जंतु हैं। इन लोगों पर हँसते-हँसते गोली दागकर, मार डाला जा सकता है और शान से सीना फुलाकर, सबके सामने कबूल किया जा सकता है, कि हाँ, मैंने ही मारा है। इसमें इज़्ज़त पर बट्टा नहीं लगता, सिर पर इल्ज़ाम नहीं मढ़ा जाता, बल्कि बहादुरी जाहिर होती है। इन सब बहादुर (!) फौजियों पर अमेरिका के गर्व का अंत नहीं है। वैसे अमेरिकी सरकारी फौज के किसी भी बेटे को अपनी बहादुरी दिखाने के लिए, युद्ध में नहीं भेजा गया। इन सब जोखिम से सरकार बड़ी होशियारी से, अपने को बचा-बचाकर चलती है। वियतनाम युद्ध में दीन-गरीब और काले छोकरों को पकड़-पकड़कर, ज़ोर-ज़बर्दस्ती युद्ध लड़ने भेजा गया था! मरना ही है, तो काले लोग मरें! मरना है, तो गरीब-गुरबा ही मरें।
अमेरिकी सरकार को झूठ बोलते हुए शर्म नहीं आती। उसने झूठ बोल-बोलकर, और-और देशों पर हमले किए हैं। अपना आधिपत्य विस्तार किया। अब समूची दुनिया उनके अधीन है। उसने सामरिक या अर्थनैतिक तरीके से उन लोगों पर दखल जमा रखा है, इसलिए उनके मन में जो आएगा वही करेंगे। जो जी चाहेगा, बोलेंगे। लोग चाहे उन्हें बुरा कहें, भले सड़कों पर उतरकर आंदोलन छेड़ें, इन सबसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हाइ-टेक सामरिक शक्ति उन्हीं लोगों के हाथों में है। वे लोग रक्षा खाते में साढ़े तीन सौ विलियन डॉलर ख़र्च करते हैं। दुनिया के बाकी सब देशों के सामरिक खाते में जितना कुल खर्च होता है, उतना अमेरिका अकेले ही खर्च करता है! किसमें इतना साहस है कि इस सामरिक शक्ति के सामने सिर न झुकाए? तमाम देश तो महज छिटपुट पूँटी मच्छी हैं, इसलिए विशाल तिमी के पीछे खड़ी-खड़ी पूँछ हिलाया करती हैं। ये पूँटी मच्छियाँ नहीं जानतीं कि तिमी मछली को जब भूख लगेगी, तो वह प्रभुभक्त पूँटी मच्छियों को हरगिज नहीं छोड़ेगी। खासकर अरब देशों की अमेरिकापंथी कठपुतली सरकारों को यह जो अमेरिकी सरकार का रुपए देकर खरीदना है, अमेरिका के भेजे हुए हथियारों से इज़राइली सरकार हर रोज़, निरीह फिलिस्तीनियों का खून कर रही है। तोप दाग़ रही है, बुलडोज़र तले पीस-कुचल रही है। यह सब देखकर भी अरब की अधिकांश सरकारें, जुबान पर ताला जड़े हुए हैं। अभी भी क्या वक्त नहीं आया कि खुद अपने ही कल्याण के लिए ये अरब देश एकबद्ध हो जाएँ? अमेरिका की विदेश नीति के खिलाफ पैर जमाकर खड़े हो जाएँ? अरब की मिट्टी से अमेरिकी फौज को खदेड़ दें? अभी भी वक्त नहीं आया कि इज़राइल के निर्यातन के खिलाफ विरोध करें? कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका की बद्नज़र उन पर दुबारा पड़ जाए और उसे अपनी सुरक्षित गद्दी दुबारा न खोना पड़े, इस डर से अरब नेतागण अपनी-अपनी जुबान पर ताला जड़े हुए हैं। अमेरिका के जोड़ीदार साथी, ये अरब नेता अगर अड़ गए होते, तो तीस करोड़ अरबों के इलाके में, कुल अड़तालीस लाख यहूदी, इस तरीके से निर्यातन न चला रहे होते। दूसरे महायुद्ध के समय, हिटलर के अत्याचारों से साठ लाख यहूदी मारे गए थे। यहूदी जिओनिस्ट दल अब अरब देशों में हिटलर की भूमिका निभा रहा है। अमेरिकी सरकार इस नये हिटलर को हर तरह का सहयोग और समर्थन दे रही है। आज जो दिया है, कल ही उसे दुश्मन बनाने में अमेरिकी सरकार ज़रा भी दुविधा नहीं करती। ईरान-इराक युद्ध के समय, सद्दाम हुसेन अमेरिका के परम मित्र थे। अमेरिका ने सद्दाम हुसेन को बायोलॉजिकल, केमिकल वगैरह हथियार देने में ज़रा भी दुविधा नहीं की! सद्दाम ने जब इस युद्ध में रसायनिक हथियार इस्तेमाल किए, तब अमेरिका ने जूं तक नहीं किया। बल्कि आज के डोनाल्ड रम्सफील्ड, जो उन दिनों भी रक्षा-सचिव थे, दुनिया के अन्यान्य देशों से इराक के लिए समर्थन माँगते फिरे थे। ईरान में शाह के पतन के बाद, इस्लामी कट्टरवादी शक्ति, जब सत्ता में आई और उसने इराक को भी इस्लामी प्रजातंत्र बनाने के पैंतरे कसने लगा तो सद्दाम भड़क गए। अमेरिका तो इसलिए नाराज़ था कि ईरान का इस्लामी कट्टरवादी दल, अमेरिका-विरोधी था। वाकई, तेल-समृद्ध देशों पर कब्ज़ा न रखे, तो अमेरिका का दिमाग तो ख़राब होना ही था! कुवैत पर दखल ज़माने को आमादा अमेरिका ने सद्दाम हुसेन को दोस्त से दुश्मन बना लिया। यह भी अमेरिका की एक चाल थी। अमेरिका ने चोरी-छिपे सद्दाम को हरी झंडी दिखाई थी कि जब वह कुवैत दख़ल करने जाएगा, अमेरिका पहले की तरह ही उन्हें समर्थन देगा। कुवैत गुपचुप पाइप लगाकर, इराक के तेल-खदान से तेल चुरा रहा था, सद्दाम इस चोरी के खिलाफ, एकदम से भड़क गए। अटोमान साम्राज्य के कुवैत, इराक प्रदेश को अपने कब्जे में लेने के लिए, सिर्फ सदाम ही नहीं, उनके पुरखे भी काफी कोशिश करते आ रहे थे।
ब्रिटेन ने अपने लिए तेल के स्वार्थ में, कुवैत को जाने कब ही इराक से अलग कर दिया था। कुवैत पर झपटकर सद्दाम फँस गए! अमेरिकी फौज ने हजारों-हज़ार इराकी फौजियों को कत्ल कर डाला; इराक का इन्फ्रास्ट्रक्चर बम मारकर उड़ा दिया। आश्रय-छावनी में भी उसने जान-बूझकर बम बरसाया और चार सौ इराकियों का खून कर डाला। उसके बाद दिया, आर्थिक अनुमोदन! तेल के बदले खाद्य! इराक में लाखों-लाखों इंसान, पिछले दस सालों से, खाद्य के अभाव में, भूखों मर रहे थे; इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे थे। अमेरिका ने उनकी तरफ पलटकर भी नहीं देखा। 'मानवाधिकार के स्वत्वाधिकारी' अमेरिका के मानवीय मन पर लाखों-लाखों मौतें भी कोई असर नहीं डाल सकीं। जो अमेरिकी सरकार, गणतंत्र और मानवाधिकार की रट लगाते हुए, मुँह से झाग उगल रही थी, दरअसल वे लोग क्या इन सबकी परवाह करते हैं? एक जुमले में इसका जवाब है-नहीं। गणतंत्र और मानवाधिकारहीन, अगर कोई देश है, तो वह है-सऊदी अरब! अमेरिका ने क्या कभी सऊदी लोगों का विरोध किया है? ना! ग्यारह सितंबर की वारदात में, उन्नीस अपहरणकर्ताओं में, पंद्रह सऊदी नागरिक ज़रूर थे। मगर अमेरिका ने क्या कभी कहा कि वह अरब पर बम बरसाएगा? नहीं! इसकी वजह यह थी कि सऊदी अरब उसकी हाथ की मुट्ठी में था। जो देश उसके हाथ की मुट्ठी में नहीं है। बम तो उन देशों पर बरसाया जाता है! किसी ज़माने में ओसामा बिन लादेन उसकी मुट्ठी में था। नहीं, सिर्फ वही मुट्ठी में नहीं था। समूचा इस्लामी कट्टरवादी-तालिबान दल अमेरिका ने ही गढ़ा है। चार मुजाहिदीन नेताओं को प्रेसिडेंट रीगन अपने व्हाइट हाउस में ले गए और उनकी काफी खातिर-तवाजो की। उन्होंने यह भी मंतव्य दिया कि-'ये लोग नैतिकरूप से अमेरिकी राष्ट्रपति के समकक्ष हैं।' ओसामा बिन लादेन को दोस्त से दश्मन बनने में वक्त नहीं लगा। पूरे शीत-युद्ध के दौरान, अमेरिका मुस्लिम देशों में इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा देता रहा। ताकि ये कट्टरवादी दल, नास्तिक कम्यूनिस्ट को हाथ के करीब पाते ही, उनकी गर्दन नाप दें। साम्राज्यवादी ताकतों का चरित्र ही यही होता है।
वे लोग एक दल को दूसरे दल के पीछे भिड़ा देते हैं। अमेरिका जब सद्दाम हुसेन के पीछे हाथ धोकर पड़ गया तो उसने इराक के दक्षिणी शिया लोगों को और उत्तर में कुर्द लोगों को, सुन्नी सद्दाम के खिलाफ भिड़ा दिया। उसने इस्लामी कट्टरवादियों को भी उसके खिलाफ यह कहकर भिड़ा दिया कि सद्दाम काफिर है। शिया और कुर्द लोगों ने सोचा कि अमेरिका उनका मित्र है। कैसे बुद्ध थे वे लोग! अमेरिका, कभी किसी का दोस्त नहीं होता। ज़रूरत पड़ने पर कुर्दो को भी क़त्ल करने में, अमेरिका ज़रा भी दुविधा नहीं करेगा। तुर्की फौज पहुँचेगी और कुर्दो को ध्वंस कर देगी। उस वक्त अमेरिका जुबान से जूं तक नहीं करेगा, जैसा कि उसने हालाबजा में सद्दाम के गैस-बम के दौरान भी कुछ नहीं कहा।
अपना चरित्र बदलने और दोस्त को दुश्मन घोषित करने में अमेरिका कभी दुविधा नहीं करता। अपने स्वार्थ और आर्थिक सुविधा के लिए, जितनी भी तरह का अपकर्म और संत्रास संभव है, अमेरिका बेहद खामोशी से उसे अंजाम देता रहता है! अंतर्राष्ट्रीय कानून को झाड़ मारकर, जो देश, किसी और देश पर हमला करता है, वह देश अब जेनेवा कॉन्वेंशन की वात करता है। किस मुँह से, कैसी बातें! इराकी टेलीविजन ने अमेरिका के युद्धबंदियों की तस्वीरें क्यों दिखाईं? मरी हुई लाशों के चेहरे दिखाए! छिः-छिः यह तो जेनेवा कॉन्वेंशन का उल्लंघन है! उधर गुयानतानामो में क्या हो रहा है? अल-कायदा के सदस्य बताकर, अफ़ग़ानिस्तान से वह जो हाथ-पाँव में हथकड़ी-बेड़ी डालकर लोगों को ले गया, जैसे अफ्रीका के जंगल से अफ्रीकी लोगों को ले जाता था और ज़रखरीद गुलाम बना लेता था। उसके बाद उन लोगों पर कैसे भयंकर अत्याचार करता था, वह देखने-जानने की मजाल है किसी में? वे सब कैदी अमेरिकी फौज के अत्याचार से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं, दम तोड़ रहे हैं। इन लोगों को कानून का सहारा लेने का कोई हक़ नहीं है! युद्धबंदियों के लिए जितने भी अंतर्राष्ट्रीय कानून हैं, अमेरिका ने अन्यायपूर्ण तरीके से, उन सबको ठकरा दिया। अभी भी काननी-खिलाफी करता जा रहा है। मानवाधिकार संस्थाएँ कुछेक दिन चीखती-चिल्लाती रहीं, अब वे सब भी चुप हो गई हैं।
दुनिया के बहुतेरे देशों में गणतांत्रिक प्रणाली नहीं है। सिर्फ एक नायक देश पर शासन कर रहे हैं। अब क्या अमेरिका उन सभी देशों पर एक-एक करके बम बरसाएगा? यह सवाल बहुत-से लोगों ने किया है। गणतंत्र कोई ऐसी चीज़ नहीं, जो बाहर से आरोपित कर दिया जाए। गणतंत्र को जनगण की माँग पर आना पड़ता है! गणतंत्र का मतलब ही क्या कोई अच्छी चीज़ है? इतिहास तो यह भी कहता है कि दुनिया का सबसे बड़ा, घृणित, अत्याचारी शख्स, हिटलर, चुनाव में जीतकर, सत्ता में आया था। दरअसल गणतंत्र को लेकर अमेरिका को कोई सिर-दर्द नहीं है। अमेरिका यह बिल्कुल नहीं चाहता कि गणतंत्र की प्रतिष्ठा हो, खासकर, जिन देशों में अमेरिका-पंथी एक नायक बहाल है! गणतंत्र का सवाल, अमेरिका तभी आएगा, जब उस देश से उसका कोई स्वार्थ जुड़ा हो। सऊदी अरब में गणतंत्र की प्रतिष्ठा के मामले में, अमेरिका कोई कदम नहीं उठाएगा, क्योंकि सऊदी सरकार वही करेगी, जो अमेरिका कहेगा। अरब देशों में अगर गणतंत्र आ गया तो अमेरिका की कठपुतली सरकार को विदा लेना होगा। अमेरिका के लिए यह कतई सुखद ख़बर नहीं है? पाकिस्तान कट्टरवाद का अखाड़ा है और पाकिस्तान सरकार हमेशा से ही अमेरिका का जोड़ीदार है। इसलिए पाकिस्तान, पाकिस्तान जैसा ही रहे। बंगलादेश में इस्लामी कट्टरवाद बढ़ रहा है। इस देश में दुर्नीति का राज है! अमेरिका क्या पलटकर उसकी तरफ देखेगा? नहीं! हाँ, वह देखता, अगर इस देश में भी इराक की तरह तेल के खान होते। इराक का तेल क्या जैसा-तैसा तेल है? इराक दुनिया का दूसरा वृहद्तम तेल का रिजर्वर है? सऊदी अरब के बाद ही उसका नंबर आता है! तेल का इतना धनी देश इराक, अमेरिका के कुचक्र का शिकार होकर, तीसरी दुनिया की कतार में उतर गया है!
अमेरिका क्या नहीं कर सकता? उसमें क्या-क्या क्षमता है। काफी कुछ यह दिखाने के लिए ही इतना सारा आयोजन है! युद्ध का आयोजन! उसका इरादा है कि आँखें चौंधिया देनेवाले मारणास्त्र दुनिया को दिखाकर, सबको डराए रखना। अरब देशों में जो सबसे ज्यादा सेकलर देश है, जिस देश में किसी कट्टरवाद के लिए जगह नहीं थी, वह देश है इराक! अमेरिका की सामाजिक शक्ति ने आज उसी देश का मेरुदंड तोड़ दिया है। सद्दाम हुसेन चाहे जितना भी बुरा इंसान हो, वह शख्स पैन अरब मूवमेंट का अन्यतम नेता है! मिस्र के नासिर और जॉर्डन के हुसेन की तरह! सद्दाम की बाथ पार्टी अरब देशों में सर्वाधिक प्रोग्रेसिव यानी तरक्की पसंद पार्टी है, जो पार्टी दूसरे महायुद्ध के तीन आदर्शों पर गढ़ी गई थी-एकता, स्वाधीनता और समाजतंत्र! औपनिवेशिक शासन के खिलाफ, इसी बाथ पार्टी ने आंदोलन किया था। उसने ब्रिटिश लोगों को खदेड़ दिया। इसी ने तेल की खानों को ब्रिटिश कंपनी के चंगुल से मुक्त कराया और सबका राष्ट्रीयकरण किया। बाथ पार्टी का आदर्श, साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए वाकई धमकी है! ब्रिटिश के चरणचिन्हों पर चलते हुए, अब अमेरिका-इस एकता, स्वाधीनता और समाजतंत्र का मेरुदंड तोड़ डालने को आगे बढ़ आया है। यह सच है कि सद्दाम, अमेरिका की सामरिक ताकत के आगे टिक नहीं सकेंगे। इसके बाद इराक का क्या होगा? वैसे इस्लामी कट्टरवादी दल ही सत्ता पर आसीन होगी। खैर, इस्लामी कट्टरवाद में अमेरिका को कोई एतराज नहीं है, बल्कि उसे तो शिक्षित बुद्धिमान जातीयतावादी, जाति अभिमानी सेकुलर पार्टी के सत्ता में आने में, उसे सख्त एतराज है। ये लोग किसी शर्त पर भी अमेरिका को अपना प्रभु समझने को राजी नहीं है। कुल पाँच लाख अमेरिकी फौज, अरब की मिट्टी पर स्थायी अड्डा गाड़कर इँटी हुई हैं। इराक में भी अपना खूटा गाड़ेगा।
इस मौके का फायदा उठाते हुए, इज़राइल बड़े एहतियात से, निरीह फिलिस्तीनी, अरब लोगों पर अत्याचार बरसाता रहेगा।
इराक-हमले का उद्देश्य है, बुश के तेल-व्यापारी घनिष्ठ लोगों को खुश करना; इज़राइल को खुश करना; अमेरिका के कॉर्पोरेट अपराधियों को खुश करना। इसी बीच अमेरिकन कंपनी को इराक रीकंस्ट्रक्शन का काम भी मिल गया है। वैसे, बुश को और भी एक फायदा है-आगामी चुनाव में जीतना! अमेरिकी जनगण के लिए सुरक्षा का विधान करने के लिए ही, बुश ने इराक पर आक्रमण किया है। यह खबर, अमेरिका के संख्या गरिष्ठ, भोथरे दिमाग में बड़े आकर्षक ढंग से गुँथ गया है। इसलिए नो चिंता, डू फुर्ती! फुर्ती करो और दूसरों की जमीन दख़ल करके, उस ज़मीन के लोगों का मनमाने ढंग से खून करो! हत्या किए जाओ।
हमले के शुरू में कहा गया था, सिर्फ सद्दाम पर हमला किया जाएगा। वैसे अमेरिका की मंशा सिर्फ सद्दाम को ही हटाने की होती, तो विभिन्न देशों में अमेरिका के सी आइ ए ने जैसे बहुतरे नेताओं की हत्या की है, उसी तरह सी आइ ए सद्दाम का भी खून कर सकता था। लेकिन अमेरिका ने सद्दाम का अलग से खून नहीं किया, बल्कि इतने विराट-विराट हाइ-टेक अस्त्रों का प्रयोग करके. मध्य यग जैसे बर्बर लोग दूसरे देशों पर आक्रमण करते थे, उसी तरह से इराक पर हमला बोला है। इराक की मिट्टी इराकियों के खून में बही जा रही है! शुरू-शुरू में यही कहा गया था कि सद्दाम को क़त्ल करने में बहुत कम समय लगेगा। लेकिन अब समय अनिर्दिष्ट है। अब मिलिटरी टार्गेट बाद देकर, सुनियोजित तरीके से इराकी जनता को टार्गेट किया जा रहा है। कहा यह गया था कि हथियार फेंककर, हाथ में सफेद पताका लहराते हुए, इराकी फौजी अगर आत्मसमर्पण कर दें, तो उन लोगों को रिहाई दी जाएगी, लेकिन रिहाई नहीं दी जा रही है! उन लोगों की या तो हत्या की जा रही है या हाथ-पाँव तोड़कर युद्धबंदी बनाकर रखा गया है। बगदाद के भीड़-संकुल रिहायशी इलाके के बाजार पर मिसाइल हमला करके। बासठ आम जनता की हत्या करने के बाद, यह कहा जा रहा है कि यह हमला अमेरिकी मिसाइल से नहीं, इराकी मिसाइल से हुआ है! लेकिन वहाँ मिसाइल का एक टुकड़ा मिला है, जिस पर लिखा हुआ है 30003-704 ए एस बी 7492, एम एफ आर 9621409 ! अब यह जानकारी पक्की हो गई कि यह अमेरिकी मिसाइल ही है। लेकिन सच्चाई को दबाने के लिए अमेरिका जी-जान से जुटा हुआ है! अमेरिका ने यह भी कहा था कि दक्षिणी इराक की शिया जनता, अत्याचारी सद्दाम सरकार के खिलाफ एकदम से टूट पड़ेगी। लेकिन कहाँ? कोई भी आगे नहीं आया। बल्कि शिया जनता ने भी अमेरिका को हर दुश्मन माना है! सन् 1991 में, अमेरिका ने शिया जनता को, सद्दाम के खिलाफ आंदोलन करने को भड़का दिया। शिया लोग अमेरिका भी गए। लेकिन सद्दाम के अत्याचार से किसी भी उग्र शिया नेता को रिहाई नहीं मिली। अब अमेरिका एक बार फिर सद्दाम-विरोधी शिया लोगों का समर्थन चाहता है। लेकिन अमेरिका का हिसाब-किताब गड़वड़ा गया है। शिया लोग इस बार अमेरिकी दल में भिड़ने को तैयार नहीं हैं। सद्दाम उनका दुश्मन है, मगर अमेरिका उससे भी बड़ा दुश्मन है। शिया जनता के हिसाब-किताब में यह सच्चाई पकड़ में आ गई है। इन दिनों सबसे ज़्यादा विस्मय अमेरिका पर यह होता है कि जिस इराकी ने अपने आत्महता बम से इराक की मिट्टी पर, चार अमेरिकी फौजी की हत्या की, वह खुद भी शिया या। सार्जेंट अली जाफर भस हमादी और नोमानी! सदाम जो काम कभी नहीं कर पाए यानी शिया-सन्नी लोगों में एकता, वह अमेरिका के इस इराक-हमले ने संभव कर दिया। शिया-सुन्नी अब एकबद्ध होकर, अमेरिका के खिलाफ लड़ रहे हैं।
अमेरिका के इस हमले की चूँकि काफी निंदा हो रही है, इससे मुक्त होने के लिए, ये लोग किसी भी पल, इराक में कोई रसायनिक कारखाने में खुद ही हथियार रखकर, यूरेका! यूरेका! का शोर मचाएँगे। इससे निंदा तो मिट जाएगी। इस झूठ का सहारा लेने में अमेरिका को क्या ज़रा भी झिझक होगी? नहीं! इस तरह का झूठ बोलते हुए और अन्याय का काम करते हुए, इंसान पर अबाध अत्याचार बरसाते हुए, अमेरिका को कभी हिचकिचाहट नहीं हुई। इस अगले झूठ के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। सद्दाम के पास मास-डिस्ट्रक्शन यानी सामूहिक तबाही के हथियार अगर हों भी, तो कितने होंगे? इज़राइल से तो ज़्यादा नहीं, अमेरिका से तो ज़्यादा नहीं। अगर उनके पास न्यूक्लिअर बम भी मौजूद हों, तो एकाध होंगे या एकाध भी नहीं। इजराइल के पास ऐसे दो सौ बम हैं; अमेरिका के पास बीस हज़ार! इज़राइल के पास मास-डिस्ट्रक्शन के प्रचुर हथियार हैं! राष्ट्रसंघ के अस्त्र पर्यवेक्षण दल की फर्माइश, इज़राइल उपेक्षा से उछाल फेंकता रहा, लेकिन उसके खिलाफ तो राष्ट्रसंघ का कोई निषेधाज्ञा जारी नहीं किया। इज़राइल नाजायज़ तरीके से फिलिस्तीन का साठ प्रतिशत ज़मीन दखल किए बैठा है और संत्रास दमन के नाम पर वह फिलिस्तीनी जनता पर चरम संत्रास बरपा रहा है। कितने लोग इसके खिलाफ विरोध कर रहे हैं? आज जो यूरोप की सड़कों पर अमेरिका के युद्ध के खिलाफ प्रबल प्रतिवाद उठा है, इसका नतीजा क्या होगा? यूरोपीय देश क्या आखिरकार एकबद्ध होगा? इसका सीधा-सीधा जवाब है- ना!
आर्थिक स्वार्थ में ये पश्चिमी देश एक बार फिर गलबहियाँ डालेंगे। यूरोप की कोई भी सरकार हो अमेरिका के साथ, आखिरकार बंधन तोड़ देंगे? पीछे कौन पड़ा रहेगा? कौन लोग नियंतित होंगे? एशिया, अफ्रीकी लैटिन अमेरिका के गरीब-दरिद्र देश! इराक पर अमेरिका के हमले के फलस्वरूप मुस्लिम देशों में जो घटेगा, वह है इस्लामी कट्टरवादियों का उत्थान ! इससे क्या मुस्लिम देशों को सच ही कोई लाभ होगा? नहीं होगा। इस्लामी कट्टरवाद अशिक्षा, कुसंस्कार, दरिद्रता, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता को जन्म देगी। कट्टरवाद, समाज को कई हजार वर्ष पीछे धकेल देगा। यह कोई समाधान नहीं है। इस्लामी देशों को सेकुलर राष्ट्र बनाकर सेकुलर शिक्षा का प्रचार करके आर्थिक विकास करके, देश को आत्मनिर्भर वनाकर ही, साम्राज्यवादी अत्याचारी जन्तु के खिलाफ खड़ा हुआ जा सकता है। अमेरिका नामक देश की अर्थनीति पूरी तरह उसके सामानों की बिक्री पर निर्भर करती है। अब अगर पूरा एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, अमेरिकी सामानों का वर्जन कर दे तभी अमेरिका की अर्थनीति चरमराकर टूट जाएगी। अमेरिका की अर्थनीति तोड़ने का मतलब है, अमेरिका का दंभ तोड़ना। आज कोई भी निर्यातित इंसान, इस दंभ को तोड़ना चाहेगा। अमेरिका यह जो सुपर पावर सुपर पावर का जू जू दिखा-दिखाकर दुनिया भर को डरा रहा है, वह 'सुपर पावर' जाने कहाँ तो बह-बिला जाएगा, अगर हर कोई अमेरिकी सामान खरीदने से इनकार कर दें। अमेरिका-विरोधी होने के लिए इस्लामी कट्टरवादी नहीं होना पड़ता। इस्लामी कट्टरवादी हो जाएँ, तो इसमें अमेरिका का नुकसान नहीं, लाभ ही होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अरब देश के सेकुलर आंदोलन को अमेरिका ने किस तरह ध्वंस कर डाला। फिलिस्तीन में FATA, PLO. PELP, DELP, Force-17, मार्क्सवादी, लेनिनवादी दल पर बुलडोजर चलाकर, उसे पीस डाला है। अमेरिका तो यह चाहता है कि मुस्लिम देशों में कट्टरवाद बढ़े। कट्टरवाद देश की अवाम की शिक्षा, सचेतनता, बुद्धिमत्ता को तहस-नहस कर डाले। वहाँ कोई बड़ा वैज्ञानिक, बड़ा विशेषज्ञ, बुद्धिजीवी न हो। ऐसे अनुन्नत देशों पर अपनी सुपर-पावरी झाड़ते हुए, अमेरिका को सहूलियत ही होगी। इसके बजाय, बेहतर तो यह होता कि साम्राज्यवादी अपशक्ति के खिलाफ आंदोलन तैयार किया जाए, इंसान की सजगता, अधिकारबोध, राजनीतिबोध बढ़े। सच तो यह है कि हम सब बड़े दुःसमय में जी रहे हैं। अपनी भावी पीढ़ी के लिए रहने लायक एक खूबसूरत सी दुनिया का इंतज़ाम कर जाना होगा। इस वक्त दो महान् हस्तियों की उक्ति याद आ रही है-'द वर्ल्ड इज़ डेंजरस प्लेस टु लिव, नॉट बिकौज़ ऑफ द पिपुल, हू आर एविल। बट बिकौज़ ऑफ द पिपुल, हू डोण्ट डू एनीथिंग एबाउट इट!'-अल्वर्ट आइन्स्टाइन। 'आवर लाइफ बिगिन टु एंड द डे वी बिकम साइलेंट एबाउट थिंग्स दैट मैटर?' मार्टिन लूथर किंग।
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- उत्तराधिकार-2
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- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
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- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
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- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
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- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
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- पूर्व का प्रेम
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