लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
हाल ही में कलकत्ता से किसी ने मुझे फोन पर खवर दी कि भारत की मुस्लिम बेंच ने यह फतवा जारी किया है कि 'तीन तलाक़' कहने भर में अब तलाक नहीं होगा। (सरकार ने मेरा पासपोर्ट छीन लिया है। ताकि मैं देश से बाहर न जा सकूँ। लेकिन इतनी मेहरबानी की है कि मेरी टेलीफोन-लाइन अभी भी अक्षत छोड़ दी है।) उसकी आवाज़ में खुशी छलकी पड़ रही है मानों उसे कोई बहुत बड़ी विजय नसीब हुई है! लेकिन उसकी खबर पर मैंने कोई उच्छ्वास प्रकट नहीं किया, मानो जिस दीवार को बिल्कुल ही तोड़ डालना ज़रूरी है उसमें महज एक सूराख कर पाने में कोई बहादुरी नहीं है। भारत के मुसलमान अभी भी शरीयत कानून मुताबिक चलते हैं। 'तलाक' उच्चारण करने भर से तलाक हो जाता है महज चाहने भर से चार-चार शादियाँ रचाई जा सकती हैं (हाँ, इस देश में एक अदद अनुमति लेने का नाटक भी रचा जाता है)। वैसे औरत को अपने शौहर को तलाक़ देने का कतई, कोई हक नहीं है।
हैदराबाद के एक गैर-बंगाली मुसलमान लड़की ने, हाल ही में मुसलमानों के घड़े में सार-तत्व की खबर देते हुए कहा-'बी. जे. पी. अगर सत्ता में आ गई, तो हम सबका भला ही होगा।'
मैं उसकी बात सुनकर आतंकित हो उठी! यह लड़की कहती क्या है? बी. जे. पी. मुसलमानों का अमंगल करने के बजाय, मंगल क्यों करने लगी?
उस लड़की ने कहा, 'बी. जे. पी. समूचे भारत में, सन् 1956 का हिंदू एक्ट लागू करेगी, जहाँ औरत मर्द के बराबर-बराबर हक़ की बात लिखी हुई है। अगर यह बात सच हो गई तो मुसलमानों के लिए ज़रूर यह खुशखबरी है। बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों जैसा हक मिलेगा; तलाक कहने भर से तलाक नहीं होगा; खाना-खुराकी, मेहर अदायगी का पाखंड ख़त्म होगा; बीवियों को अपने बर्बर पतियों को तलाक देने का हक होगा और एक से ज़्यादा बीवियों के साथ अपनी गृहस्थी बसाने का ऐशो-आराम, मर्दो को अब नसीब नहीं होगा।'
उस लड़की की वातों ने मुझे सोच में डाल दिया। ऐसे मामूली, निर्विरोध, प्रगति की पक्षधर लड़की को अगर औरत-मर्द के समान अधिकार के लिए बी. जे. पी. का समर्थन करना पड़े, तो यह शर्मिंदगी क्या अकेली सिर्फ उस लड़की की है या समूची मुसलमान बिरादरी की? अभी चंद दिनों पहले ही बी. जे. पी. के दिल्ली कार्यालय में भारत के मुसलमान नेताओं ने जुम्मे का नमाज़ अदा किया है। इसके पीछे राजनीतिक जलेबी की पेंच है। एक पार्टी की जब दूसरी पार्टी से मुठभेड़ होती है, तो ऐसा लगता है, वे एक-दूसरे को घास की तरह खचाखच काट डालेंगी! असल में यह सब कुछ ऊपर-ऊपर ही होता है, अंदर ही अंदर इसकी मंदिर में वह नमाज़ पढ़ता है। उसकी मस्जिद में यह पूजा करता है। वैसे यह सिर्फ नेताओं में ही होता है! दुर्योग तो आम आदमी का होता है, जो न गुत्थी समझते हैं न मुट्ठी समझते हैं।
बंगलादेश जैसे अशिक्षित, पिछड़े हुए और धर्मग्रस्त देश में भी, सन् 1961 में मुस्लिम पारिवारिक कानून के बारे में अध्यादेश जारी किया गया। शरीयत कानून और इस अध्यादेश में खास कोई फर्क नहीं है। फिर भी 'तलाक' शब्द उच्चारण करने भर से ही तलाक नहीं होता, यूनियन परिषद में नोटिस देना होती है। उस नोटिस की कॉपी बीवी को भी थमाते हैं और नोटिस देने के नब्बे दिन बाद, यह लागू होता है! (बीवी तीन बार ऋतुमती हो ले, तो नब्बे दिन के बाद, यह सुनिश्चित हो जाता है कि उसकी कोख में उसके पति का बच्चा नहीं है) इसमें से कोई भी शर्त अगर पूरी नहीं हुई तो नब्बे दिन यानी इद्दत की मियाद पार हो जाने के बाद भी तलाक मंजूर नहीं होता। 'बहु विवाह' के लिए भी सालिशी परिषद् यानी मध्यस्थ संस्था की अनुमति ज़रूरी होती है, बीवी या बीवियों की अनुमति ज़रूरी होती है। बंगलादेश में भी किसी ज़माने में शरियत कानून चलता था, आज उस कानून में जो छिटपुट परिवर्तन हुआ है, हैरत है कि इतने अर्से में भी, उसकी हवा तक भारत के बदन पर नहीं लगी। एक अदद धर्मनिरपेक्ष देश अपने सभी धर्म-विश्वासी नागरिकों के लिए अगर एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष कानून प्रतिष्ठित न कर सके तो इस देश की धर्म निरपेक्षता के प्रति कम से कम मेरा कोई पक्षपात नहीं है! अगर कोई यह कहे कि 'मुल्ले ही नहीं मानते, रुकावट डालते हैं।'–तो इसका भी जवाब मौजूद है- 'वे नहीं मानते, इसलिए राष्ट्र उन्हें पीट-पीटकर इंसान क्यों नहीं बनाता?' कमरे में अगर चूहा मरा पड़ा हो, तो नाक पर खुशबूदार रूमाल भर रख लेने से, बदबू नहीं जाती। पाठा को इंसान बनाने में बड़ा झमेला है-यह सब समझ-बूझकर हा कह रही हूँ कि ऐसे लोगों को इंसान बनाने के अलावा और कोई राह भी नहीं है। ये मुल्ले कब जरा-सी छुट देंगे, तो मसलमान औरतें राहत की साँस लेंगी (शरिया का पत्थर तो सिर्फ औरतों को ही दबाता-पीसता है), भारत जैसे अग्रसर देश में ऐसे नियम का चलन नहीं होना चाहिए।
इस देश की हालत भी वैसी की वैसी! औरतें तलाक दे सकती हैं या नहीं-काबिननामा में ऐसा ही एक सवाल जोड़ दिया गया है। पति अगर करुणा करे और औरत को तलाक़ देने का हक दे डाले, तभी अभागी औरत को वह अधिकार नसीब होता है, वर्ना तलाक़ देने के लिए अदालत दौड़ना पड़ता है। तलाक़ का कारण दर्शाना पड़ता है। उन कारणों का कानून के कारणों से मेल खाना ज़रूरी है। पति मज़ा नहीं देता, पति मुझे पीटता नहीं, पति मुझे खाना-कपड़ा तो देता है, लेकिन मैं उसे प्यार नहीं करती, इसलिए मैं पति को छोड़ना चाहती हूँ-ये सब बातें कोई सुनेगा। तलाक नहीं होगा! देश की बड़ी-बड़ी नायिका-गायिका को भी तलाक़ का हक़ नहीं होता। उन लोगों को भी अदालत में मामला दायर करके ही, अपने बर्बर पति से तलाक देना पड़ता है। मुसलमान सब छोड़ देते हैं, धर्म तक छोड़ देते हैं, मगर शरियत कानून नहीं छोड़ते।
धर्म के नाम पर इन सब अनाचारों के खिलाफ जोरदार आंदोलन गढ़ना होगा, वर्ना मुसलमानों की ही नहीं, इंसान की मुक्ति भी असंभव है! समूचे उपमहादेश में इन असभ्य बेअदब इंसानों ने धर्म को लेकर जो तांडव शुरू किया है, इंसान को तर्कहीन, बोधहीन, मूंगा-बहरा बनाने की जो हीन साजिश जारी है, अगर उसका अभी ही, जड़ से विनाश न किया गया, तो भविष्य में विकराल अँधेरा मुँहबाए हुए, हमें यूँ निगल लेगा कि हम अपने अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार तो क्या, खुद अपने को भी पहचानना भूल जाएँगे और खुदकुशी कर लेंगे।
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