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आद्यन्त

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :83
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2909
आईएसबीएन :81-7055-646-5

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जिस दिन से तुमसे प्यार हुआ नयनों में छाए आँसू कन, भर गया दर्द से कोमल मन...

Aadhant a hindi book by Dharamvir Bharti - आद्यन्त - धर्मवीर भारती

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश


भारती जी की इन तमाम कविताओं में मार्क्सवाद से प्रभावित किशोरमन, देशभक्ति से ओत प्रोत, पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति विद्रोही, गरीबी, भूख और गुलामी से व्याप्त कवि हृदय के साथ ही साथ उम्र के तकाजे से जीवन में आये प्रेम के प्रति आकृष्ट युवा होते मन की आहटें भी सुनाई देती हैं। यही वह उम्र रही होगी जब उनके प्रथम उपन्यास, ‘गुनाहों का देवता’ की कथावस्तु भी भीतर-ही-भीतर आकार लेना शुरू हुई होगी। उम्र के उस पड़ाव पर निराशा बड़ी जल्दी घेरती है ‘मैंने प्यार किया-गलती की’ या फिर ‘प्रीति कर पूछता रहा हूँ’ जैसी कविताएँ उस समय के समाज में जीते युवक की स्पष्ट तस्वीरें पेश करती हैं। अजब मजेदार समय था वह-उस जमानें में प्यार की हिलोरें लेने के साथ ही साथ निराशा और विरह भी मन में घर करने लगते थे और कवि हृदय लोग बड़े शहीदाना अंदाज में विरह और दुःख व घुटन को जीते चलते थे। ‘जिस दिन से तुमसे प्यार हुआ नयनों में छाए आँसू कन, भर गया दर्द से कोमल मन !’ उस समय कितने स्तरों पर किस तरह भारती के कवि मन का निर्माण हो रहा था, यह जानने और समझने के लिए बड़ी रोचक सामग्री प्रस्तुत करती हैं ये कविताएँ।

भूमिका


भारती जी की पहली पुस्तक सन् 1946 में छपी थी। वह कहानी संग्रह था- ‘मुर्दों का गाँव’ और पहला काव्य संग्रह ‘ठण्डा लोहा’ 1952 में छपा था। जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा था कि ये कविताएँ पिछले छह वर्षों में लिखी कविताओं में से चुनी गयी हैं। यानी कि रचनाकाल वही लगभग 1945-46 के आसपास का। प्रस्तुत संग्रह के पहले खण्ड की जो कविताएँ हैं वह उससे भी पाँच-छः वर्ष पहले लिखी गयी थीं। मोटे तौर पर यह मान सकते हैं कि सन् 1940 के आसपास यह कविताएँ लिखी गयी होंगी जब भारती जी की उम्र मुश्किल से चौदह-पंद्रह साल की थी। सन् 1980 के आसपास का समय था जब उनके यत्र-तत्र रखे कगज़ों को सँभालते रखते वक्त मुझे एक छोटी-सी डायरी मिली-जिसमें बैंगनी रंग की स्याही से मोती जैसे अक्षरों में लिखी ये कविताएँ थीं। कई बार इन्हें छपाने की बात सोची पर अन्य कामों के कारण जीवन में व्याप्त अत्यधिक व्यस्तता के कारण इनका छपना मुल्तबी होता रहा। अब जब कवि की वाणी पर पूर्ण विराम लग चुका है तो सोचा आदि और अंत के दोनों सिरों को जोड़कर एक वृत्त पूरा कर दिया जाय-सो प्रस्तुत है यह ‘आद्यन्त’ !
सन् 1935 में छपी थी हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला। और देखते-देखते खूब लोकप्रिय हो गयी थी। यही वह समय था जब भारती जी का कवि मन अभिव्यक्त होने के लिए आकुल हो उठा था। पिता की मृत्यु हो चुकी थी और घनघोर ग़रीबी में दिन गुज़र रहे थे। छोटी-सी उम्र से ही ट्यूशनें करके, वजीफ़ों के सहारे पढ़ाई चल रही थी। दो जोड़ी कपड़ों में साल गुज़ारा जा सकता था, कभी-कभी भूखे पेट सोया जा सकता था, पर किताब ख़रीदने का शौक पूरा किये बिना चैन नहीं पड़ता था। आसपास के वाचनालय तो अड्डा बन ही चुके थे।-जितनी सम्भव हो सकती थीं किताबें पढ़ डाली गयी थीं और लिख-लिख कर अधिकतर फाड़ फेंकने और कुछ कुछ चीज़े सहेज रखने के दिन आ गये थे-उसी उम्र में लिखी गयीं ये कुछ कविताएँ बच रही थीं। बच्चन जी की भाषा और उन्हीं के जैसे भावभूमि पर कई कविताएँ लिखी गयी हैं। मधुशाला का जादू तब सबके सिर चढ़कर बोलता था। भारती जी की भी पहली ही कविता में ‘दोनों’ नयनों में प्यार की ‘शराब भर’ कर बात कही गयी है। एक ओर तो बच्चन जी की रोमांटिकता मन पर छायी थी दूसरी ओर ‘लाल सलाम’ विवेक पर तारी था। किशोर भारती का कच्चा मन कभी इधर कभी उधर झुकता-बढ़ता चल रहा था। लिखते हैं-‘खिज़ां की डाल पर बहार सा महक उठना, चाहते हैं पर रोशनी के तीर लाल चल रहे हैं’ अकेले ही नहीं जोशीली कविता के साथ साथियों का आह्वान भी करता चलता है किशोर कवि ‘ज़िंदगी की रेत ख़ूं से लाल मेरे साथियों’ या फिर ‘ज़िंदगी की आग में सुलग रहा इंसान, लाल रोशनी से भर रहा है ये ज़हान।’ उस समय के किशोर कवि भारती पर कई तरह के प्रभाव थे-एक ओर रोमांटिक रुझान, दूसरी ओर मार्क्सवाद से प्रभावित, तीसरी ओर चाँद के फाँसी अंक को गीता रामायण से बढ़कर प्यार करने वाले और चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के भक्त बन चुके भारती सुभाष की भी पूजा जैसी ही करते थे। पतले-दुबले, डेढ़ हड्डी के तो थे लेकिन खुद भी क्रांतिकारी बनने के सपने देखा करता थे। विश्वास था मन में कि ‘क्योंकि एक युग का विद्रोही, युग-युग का ईश्वर बन जाता।’
कच्ची-कच्ची कविताएँ गढ़ने वाला किशोर धीरे-धीरे एक लय पाने लगा था ‘कल्पने उदासिनी न मेघदूत वेश में....’ कविता तक आते-आते भाषा और भावों में अंदरुनी लय आने लगी थी और कविता में शनैः-शनैः उठान आता जा रहा था। धीरे-धीरे हाल यह हो गया कि ‘मेरे मस्तक पर नभगंगा वाणी में ललकार, मेरी ठोकर एक कि जिससे, चूर-चूर हो बिखर पड़ेंगे लोहे के संसार’ कविता में ही नहीं जीवन में भी एक नयी लय आ रही थी। गांधी जी के आह्वान पर कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी थी और उस समय के छात्र नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा के नेतृत्व में छात्रों की टोली के सक्रिय सदस्य बन गये थे। मामा-मामी के पास रहते थे सो मामी के मिट्टी के चूल्हे के पीछे मिट्टी का मोखा बनाकर उसमें हथियार छिपाये जाते थे- भले ही पतली कलाइयों में हथियार थामने की ताकत भी न हो पर मन के जोश का जवाब ही नहीं था यहीं बीज छिपा था उस भारती का जो बंगलादेश युद्ध के दौरान कर्नल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर की सेनाओं के साथ-साथ रणक्षेत्र में गया था-युद्ध को आँखों से देखा था, पूरे विवेक से जिया और जाना था।
भारती जी की इन कविताओं में मार्क्सवाद से प्रभावित किशोरमन, देशभक्ति से ओतप्रोत, पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति विद्रोही, ग़रीबी, भूख और गुलामी से व्याप्त कवि हृदय के साथ ही साथ उम्र के तकाज़े से जीवन में आये प्रेम के प्रति आकृष्ट युवा होते मन की आहट भी सुनाई देती है। यही वह उम्र रही होगी जब उनके प्रथम उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की कथावस्तु भी भीतर ही भीतर आकार लेना शुरू हुई होगी। उम्र के उस पड़ाव पर निराशा बड़ी जल्दी घेरती है ‘मैंने प्यार किया-ग़लती की’ या फिर ‘प्रीति कर पछता रहा हूँ’ जैसी कविताएँ उस समय के समाज में जीते युवक की स्पष्ट तस्वीर पेश करती हैं। अजब मज़ेदार समय था वह-उस ज़माने में प्यार की हिलोरें लेने के साथ ही साथ निराशा और विरह भी मन में घर करने लगते थे और कवि हृदय लोग बड़े शहीदाना अंदाज़ में विरह और दुःख व घुटन को जीते चलते थे। ‘जिस दिन से तुमसे प्यार हुआ नयनों में छाये आँसू कन, भर गया दर्द से कोमल मन !’
उस समय कितने स्तरों पर किस तरह भारती के कवि मन का निर्माण हो रहा था, यह जानने और समझने के लिए बड़ी रोचक सामग्री प्रस्तुत करती हैं यह छोटी-सी डायरी में बैंगनी स्याही से लिखी गयी कविताएँ।
खंड दो में संकलित कविताएँ उस समय की लिखी हुई हैं जब भारती जी का कच्चापन समाप्त हो चुका था। वे अपनी उम्र से अधिक परिपक्व और बड़े व्यक्तित्व वाले बन चुके थे। अन्य अनेक कहानी, उपन्यास, कविता, समीक्षा, निबंध, एकांकी आदि की पुस्तकें छप चुकी थीं। यहाँ तक कि अंधा युग जैसी कालजयी कृति भी लिखी जा चुकी थी तब किसी विशिष्ट फ़रमाइश पर स्वरलिपि में बद्ध करके हारमोनियम बजाकर गाये जाने योग्य गीत ज़िदपूर्वक लिखवाये गये थे। धर्मवीर भारती की कलम का यह अलग-सा मीठा-मीठा जादू था जिसे इस संकलन में शामिल करने के लोभ का मैं संवरण नहीं कर पा रही हूँ। दूध की नन्ही-नन्ही दंतुली चमकाती शिशु की भोली-भोली मुस्कान सरीखी कच्ची-कच्ची कविताओं और बिल्कुल अंतिम वर्षों की प्रौढ़तम रचनाओं के बीच एक सुखद अंतराल देंगी ये कविताएँ। मुझे लगा एकदम अनगढ़ कविताओं और फिर नितांत प्रौढ़तम कविताओं के बीच इन कविताओं के पुल के सहारे आप सहज होकर पहुँच सकेंगे। तीसरे खंड में केवल चार कविताएँ हैं जो भारती जी ने जीवन के अंतिम वर्षों में लिखी थीं। 1993 में ‘सपना अभी भी’ छपी थी। उसके बाद बस यही चार कविताएँ लिखी गयीं। पहली 25 दिसंबर 1993 को अपने जन्मदिन पर लिखी थी उन्होंने और अंतिम कविता 1997 में मेरे जन्मदिन पर लिखी गयी। 1989 की 13 जुलाई को मृत्युद्वार की चौखट छू कर चमत्कारिक ढंग से लौट आये थे भारती जी। हृदय की धड़कन बंद हो चुकी थी, साँस थम गयी थी, नब्ज़ बुझ गयी थी, शरीर निष्प्राण, ठंडा हो चुका था। डॉक्टरों द्वारा हृदय पिंड की मालिश आदि सभी क्रियाएँ व्यर्थ साबित हो चुकी थीं पर सहसा डॉ. बोर्जेस ने ठंडे पड़ चुके शरीर पर एक के बाद एक बिजली के शक्तिशाली झटके दिये और एकाएक धनुष की प्रत्यंचा की तरह तन गया शरीर और लौट आये प्राण ! फिर तीन महीने तक सघन चिकित्सा कक्ष में हर पल मौत से जूझते हुए केवल अपनी ‘उद्दाम’ इच्छा-शक्ति और प्यार करने वालों की प्रार्थनाओं का बल लेकर जीवन में लौट आये भारती जी। पर इस प्रक्रिया में शरीर एकदम जर्जर हो चुका था। लिखना-पढ़ना टूट-टूट कर ही चल पाया। छिटपुट लिखते रहे, पर जो भी लिखा अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर की टक्कर का ही लिखा। ‘कुछ चेहरे कुछ चिंतन’ और शब्दिता के लेख इसका प्रमाण हैं। वही भाषा, वही शैली, वही पैनापन, वही मार्मिक गहराई ! कविताएँ कम लिखीं पर जो भी लिखीं अपनी अप्रतिम प्रतिभा के अनुकूल ही लिखीं। कभी ऐसा लगा ही नहीं कि भारती की कलम अब चुक गयी। न जीवन में न साहित्य में-उनका स्तर कभी गिरा ही नहीं, उत्तरोत्तर निखरता ही गया। आपके हाथों भारती जी की काव्य यात्रा का यह ‘आद्यन्त’ सौंपते हुए मैं एक विनम्र सन्तोष का अनुभव कर रही हूँ।’
-पुष्पा भारती



1


जिन्दगी की डाल पर
कण्टकों के जाल पर-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !
कोयलों से सीखता जिन्दगी के मधुर गीत
बुलबुलों से पालता हिलमिल कर प्रेम प्रीत
पत्तियों के संग झूम
तितलियों के पंख चूम
चाँदी भरी रातों में-
चन्द्र किरण डोर का डाल कर मृदुल हिण्डोला।
कलियों के संग-संग धीमे-धीमे झूलता !
-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !
किरनें बन जाता मैं स्वर्णिम मधुमास में
शबनम उलझाता मैं मखमल की घास में
नेह से निथार कर
दोनों नयनों में प्यार की शराब भर
जिन्दगी के प्यासों के सूखे होठ सींचता।
उनके तन में बसी हुई टीस-पीर खींचता
उनके दिल का दर्द हर-उनके दिल का घाव भर
खुशी के खुमार में
मैं भी अपने दुख-दर्द की कहानी भूलता !!
-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !!

2


नये-नये विहान में
असीम आस्मान में-
मैं सुबह का गीत हूँ।
मैं गीत की उड़ान हूँ
मैं गीत की उठान हूँ
मैं दर्द का उफ़ान हूँ
मैं उदय का गीत हूँ
मैं विजय का गीत हूँ
सुबह-सुबह का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ
चला रहा हूँ छिप के
रोशनी के लाल तीर मैं
जगा रहा हूँ पत्थरों के
दिल में आज पीर मैं
गुदागुदा के फूल को
हँसा रहा हूँ आज मैं
ये सूना-सूना आस्मां
बसा रहा हूँ आज मैं
सघन तिमिर के बाद फिर
मैं रोशनी का गीत हूँ
मैं जागरण का गीत हूँ
बादलों की ओर से 
छिप के मुस्करा उठूँ
मैं जमीन से उड़ँ
कि आस्मां पे छा उठूँ
मैं उड़ूँ कि आस्मां के
होश संग उड़ चलें
मैं मुड़ूँ कि जिन्दगी
की राह संग मुड़ चलें
मैं जिन्दगी की राह पर
मुसाफ़िरों की जीत हूँ
स्वर्ण गीत ले
विहग कुमार-सा चहक कर
मैं खिजाँ की डाल पर
बहार-सा महक उठूँ
कण्टकों के बन्धनों में
फूल का उभार हूँ
मैं पीर हूँ मैं प्यार हूँ
बहार हूँ खुमार हूँ
भविष्य मैं महान् हूँ
अतीत हूँ, वर्तमान हूँ
मैं युग-युगों का गीत हूँ
युग-युगों का गीत
मैं सुबह का गीत हूँ !!

3


मैं कब हारा हूँ काँटों से, घबराया कब तूफ़ानों से ?
लेकिन रानी मैं डरता हूँ बन्धन के इन वरदानों से !
तुम मुझे बुलाती हो रानी, फूलों सा मादक प्यार जहाँ है
काली अँधियाली रातों में पूनम का संचार जहाँ है
लेकिन मेरी दुनिया में तो ताजे फूल बिखर जाते हैं
यहाँ चाँद के भूखे टुकड़े सिसक-सिसक कर मर जाते हैं
यहाँ गुलामी के चोंटों से दूर जवानी हो जाती है
यहाँ जिन्दगी महज मौत की एक कहानी हो जाती है
यह सब देख रहा हूँ, फिर भी तुम कहती हो प्यार करूँ मैं
यानी मुर्दों की छाती पर स्वप्नों का व्यापार करूँ मैं ?
यदि तुम शक्ति बनों जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम
यदि तुम भक्ति बनो जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम
लेकिन अगर प्यार के माने तुममें सीमित हो मिट जाना
लेकिन अगर प्यार के माने सिसक-सिसक मन में घुट जाना
तो बस मैं घुट कर मिट जाऊँ इतनी दुर्बल हृदय नहीं यह
अगर प्यार कमजोरी है तो विदा-प्यार का समय नहीं यह !!

4


ये प्यासे-प्यासे होठ ठण्डी आह मेरे साथियो,
ये नहीं है जिन्दगी की राह मेरे साथियों !
आस्मान चीरकर
उतर पड़ो जमीन पर
तुम प्रलय की धार बन कर बन्धनों को तोड़ दो
बह चले फिर जिन्दगी की धार मेरे साथियों !
नाश है निर्माण का सिंगार मेरे साथियों !!
रूप के उभार से
रंग के निखार से
कण्टकों की छोटी-छोटी जालियों को तोड़ दो
छोटे-छोटे बन्धनों के पार मेरे साथियों !
जिन्दगी का हर नया उभार मेरे साथियों !!
प्यस हो अगर लगी
प्यास हो अगर जगी
तो एक पाँव से दबा के आस्मां निचोड़ दो
जिन्दगी है मौत का सवाल मेरे साथियों !
जिन्दगी की रेत खूँ से लाल मेरे साथियों !!


5


गुलाब मत यहाँ बिखर
पराग मत यहाँ बिखर
यह गुलाम देश है !
ये दास भावना
ये गीले-गीले गीत औ’ उदास कल्पना
हैं यही गुलाम देश की निशानियाँ
बेहयाई का महज यहाँ गुजर बसर !
यह गुलाम देश है !
ये सूने-सूने गाँव
ये भूखे-सूखे पंजरों के लड़खड़ाते पाँव
ये नहीं है जिन्दगी ये मौत की छाँव
आदमी यहाँ पिये हैं मौत का ज़हर
ये गुलाम देश हैं।
तू बन यहाँ प्रसून
तेज कण्टकों का आज काम है यहाँ
टूटने से पहले चुभ कर चूस ले दो बूँद खून
है यहाँ रहम गुनाह भूल कर रहम न कर !
यह गुलाम देश है !!

6


ये जो पैर की धमक से काँप रहा है जहां
ये जो टूट-टूट कर बिखर रहा है आस्मां
चल रहा मनुष्य है !!
धूल जो उड़ी तो छा गया है आस्मान
मिट गये हैं आस्मान से प्रकाश के निशान
आज भूल कर विशाल स्वर्ग लोक को
भूमि के घृणा विषाद हर्ष शोक को
कुचल रहा मनुष्य है
कुचल रहा मनुष्य !!
है मनुष्य की न प्रेरणा परम्परा
हँस दिया मनुष्य स्वर्ग बन गयी धरा
हँस दिया मनुष्य छा गया नवल प्रभात
अब रही न भूख दासता न रक्त पात
बदल रहा मनुष्य है
बदल रहा मनुष्य !!
जिन्दगी की आग में सुलग रहा इन्सान
लाल रोशनी से भर रहा है ये जहां
औ धुआँ उमड़ के बन रहा है उफ़ान
पर निखर रहा मनु्ष्य स्वर्ण के समान
जल रहा मनुष्य है
जल रहा मनुष्य !!
पैर में मनुष्य के अतीत के निशान
सामने मनुष्य के भविष्य है महान्
चीरता मनुष्य है यथार्थ वर्तमान
और दोनों हाथ में दबा के आस्मान
चल रहा मनुष्य है
चल रहा मनुष्य !!!

7


इस दुनिया के कणकणों में बिखरी मेरी दास्तां
इस दुनिया के पत्थरों पर अंकित मेरा रास्ता
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
माना मैंने उस तरफ हरियाले कोमल फूल हैं
माना मैंने उस तरफ लहरों में बिखरे फूल हैं
माना मैंने इस तरफ बस कंकड़ पत्थर धूल हैं
किन्तु फिर क्या पत्थरों पर सर पटकता ही रहूँ !
खींच कर यदि ला सकूँ उस पार को इस पार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
पैरों में भूकम्प मेरी साँसों में तूफान है
स्वर लहरियों में मेरी हँसते प्रलय के गान हैं
मौत ही जब आज मेरी जिन्दगी का मान है
फिर दबा लूँ क्यों न दोनों मुट्ठियों में कूल को
बह चलूँ खुद क्यों न बन जलधार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
जिन्दगी की आस में लुटती यहाँ है जिन्दगी
जिन्दगी की आस में घुटती यहाँ है जिन्दगी
किन्तु फिर क्या बैठकर आकाश को ताका करूँ
तोड़ कर यदि ला सकूँ आकाश को इक बार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!!

8


न शान्ति के लिए मचल
जल निशा प्रदीप जल !
जल कि काली मौत वाली रात को जला !
जल कि खुद परवाना बनकर सूरज तुझ पर मँडराये
तेरी एक जलन में विहँसें सौ विहान उज्ज्वल !
जल शिक्षा प्रदीप जल !!
जिन्दगी की रात में मत प्रेत बन कर घूम
पतझड़ों में झूम
पीली-पीली पत्तियों के मुर्दा होठ चूम
धीमे से उन पर उढ़ा दे मौत का झीना कफ़न
किन्तु फिर उन पर सिसक कर मत तू मिट जा धूल में
जल उठ खिल उठ मेरे दीपक, जिन्दगी के फूल में
इस दुनिया की डालियों में
इन घुटती आँधी मालियों में
बन बसन्ती आग तू सुलगा दे जलती कोपलें
जिन्दगी की कोपलें
जिन्दगी है मेरे साथी-मरने की कला !
जल कि काली मौत वाली रात को जला !!!



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