वैज्ञानिक >> नवभारत नवभारतवी. रा. जगन्नाथन
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भविष्य में भारतवर्ष में जीवन कैसा होगा? हिन्दी में वैज्ञानिक गल्प
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1
नंबर 4-3 म 35 नियमानुसार अपने चिंतन सत्र से उठा और दफ़्तर जाने की
तैयारी करने लगा। 35 (उसके सहयोगी उसे इसी नाम से बुलाते थे) के लिए आज का
दिन और दिनों से कोई भिन्न नहीं था। रोज़ की तरह उसकी पत्नी से 35 (अर्थात
4-3 से 35) कुछ देर पहले दफ़्तर चली गयी थी और जाते समय उसे नवक्रांति
चिंतन की शुभकामना दे गयी थी। उसके दोनों बच्चे रोज़ की तरह शिक्षा सत्र
पूरा करके अंदर खेल रहे थे। आख़िर छोटे बच्चे ही तो थे। बड़ी लड़की 35 स अ
की उम्र होगी कोई 24 साल; छोटा बच्चा 35 म अ करीब 18 साल का था। दोनों के
लिए संगणक में दिन भर के लिए सारे नियम भरे जा चुके थे। दिमागी खेल के बाद
वे दोनों कुछ देर आराम से हुड़दंग मचा सकते थे। संगणक बच्चों की ओर से
किसकी दौड़ी-दौड़ी के ख़िलाफ़ नहीं था, बशर्ते बच्चे नियत समय में अपना
कार्य कर ले, ठीक से पठन, स्वास्थ्य परीक्षण आदि कार्य पूरे कर लें। खेल
के बाद संगणक उन्हें आराम करने का आह्वान देता और दोनों अपने सिरहाने
संगणक का प्रशमन तंतु रखकर सो जाते। वे दुपहर को तब तक सोते रहते, जब तक
संगणक उन्हें पुनः भोजन के लिए जगा न देता।
35 घर से निकलने ही वाला था। दीवार पर उसका यान आने वाला था। इसी बीच घर के अंदर किसी के ज़ोर से गिरने और अचानक चीख़ने की आवाज़ आयी।
35 का सिलसिला टूटा। वह यान में जाने की जगह तेज़ी से बच्चों के कमरे की ओर भागा। 35 म अ नीचे गिर गया था और उसे ठुड्डी में चोट लग गयी थी। वह तुरंत टर्मीनल के पास बच्चे को लेकर गया और जाँच करवायी। संगणक टर्मीनल ने जाँच करके बताया कि चोट मामूली है और बाकी सब शारीरिक क्रियाएँ सामान्य हैं। थोड़ा-सा खून निकला था। संगणक ने मलहम क ऊ 13 द लगाने की ताकीद की और हर चार घंटे में जाँच की सलाह दी। 35 ने रोते बच्चे को चुप करने के लिए उसे संगणक के पीड़ा शमन तंतु से जोड़ा। बच्चा चुप हो गया। उसने बटन दबाकर मलहम की माँग की, जो कुछ ही क्षणों में उसे मिल गया। उसने बच्चे को मलहम लगाया फिर संगणक में हर चार घंटे में जाँच के आह्वान की ताकीद भरी। इन सारे कार्यों में उसे मुश्किल से 5-6 मिनट का समय लगा होगा। लेकिन उसे बेचैनी होने लगी। और दिन होता तो वह किसी तरह निभा लेता। आज ठीक 11 बजे अंतरार्ष्ट्रीय संगणनवेत्ताओं का विश्व अधिवेशन शुरू होने वाला था। ठीक 10.59.52 पर विश्व के चारों देशों के 3,642 संगणन विभागों के 58,415 संगणनवेत्ता उद्घाटन के लिए एक दूसरे से जुड़ जाते और ठीक 11 बजे नवभारत के प्रधानमंत्री उन्हें संबोधित करते। क्या यह कभी संभव था कि एक बच्चे की चोट की वजह से इतने महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम में कोई व्यवधान आए।
बच्चे की देखरेख किये बिना वह जा भी नहीं सकता था। अगर बच्चे की हालत में कुछ भी बिगाड़ आता, तो स्थानीय प्रशासन उसके ख़िलाफ़ गैरज़िम्मेदारी और कर्तव्यच्युति का आरोप लगाता और उसे कर्त्तव्यपारायणता का सत्र पूरा करना पड़ता। लेकिन इस देरी को बचाने के लिए वह कुछ भी नहीं कर सकता था। अगर खाना छोड़ता है, तो टर्मीनल का पूर्वनियोजित क्रम टूट जाता और आगे के कार्यक्रमों में खलल पड़ जाती। फिर स्थानीय प्रशासन भी उससे जवाब तलब करता। अधिवेशन के आयोजन में उसके अपने कार्य को देखने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति भी नहीं मिल सकता था। सब लोग अपने-अपने कार्य में व्यस्त होते। जब तक सारा कार्य अवरुद्ध होने की स्थिति न आ जाती, किसी को यह मालूम भी न होता कि वह अपनी जगह उपस्थित नहीं है।
उसने देखा कि उसका यान वापस जा चुका है। यान किसी के यहाँ दस सेकेंड से ज़्यादा रुकता नहीं था। उसे कई घरों से लोगों को ले जाना होता था। अगर वह समय से घरों से न निकले, तो समय पर लोगों को दफ़्तर पहुँचा नहीं सकता था। उसकी घबराहट और बढ़ गयी। देर से पहुंचने के परिणाम की कल्पना कर वह सिहर उठा। उसके लिए यह अनुभूति बिल्कुल नयी थी। आशंका, आतुरता और चिंता की यह अनुभूति बता रही थी कि अब भी वह एक व्यक्ति है। जीवन के मशीनी क्रम के रहते अब भी उसे अपना रास्ता या उपाय सोचने की आवश्यकता पड़ा रही है। उस सोचने में उसे मानसिक भावनाओं के वशीभूत होना पड़ा, जो उसके लिए नया अनुभव था। उसने सोचा कि वह इस पहलू पर विचार करेगा और अगले चिंतन सत्र में संगणक से सवाल करके हल पाने की कोशिश करेगा। इस समय उसके सामने समय पर दफ़्तर पहुँचने की समस्या थी। उधेड़बुन की इस अवस्था में उसने अपने कलाई टर्मीनल से आपत्कालीन वाहन की माँग की और किसी तरह समय पर अपने कार्यालय पहुँच गया।
35 घर से निकलने ही वाला था। दीवार पर उसका यान आने वाला था। इसी बीच घर के अंदर किसी के ज़ोर से गिरने और अचानक चीख़ने की आवाज़ आयी।
35 का सिलसिला टूटा। वह यान में जाने की जगह तेज़ी से बच्चों के कमरे की ओर भागा। 35 म अ नीचे गिर गया था और उसे ठुड्डी में चोट लग गयी थी। वह तुरंत टर्मीनल के पास बच्चे को लेकर गया और जाँच करवायी। संगणक टर्मीनल ने जाँच करके बताया कि चोट मामूली है और बाकी सब शारीरिक क्रियाएँ सामान्य हैं। थोड़ा-सा खून निकला था। संगणक ने मलहम क ऊ 13 द लगाने की ताकीद की और हर चार घंटे में जाँच की सलाह दी। 35 ने रोते बच्चे को चुप करने के लिए उसे संगणक के पीड़ा शमन तंतु से जोड़ा। बच्चा चुप हो गया। उसने बटन दबाकर मलहम की माँग की, जो कुछ ही क्षणों में उसे मिल गया। उसने बच्चे को मलहम लगाया फिर संगणक में हर चार घंटे में जाँच के आह्वान की ताकीद भरी। इन सारे कार्यों में उसे मुश्किल से 5-6 मिनट का समय लगा होगा। लेकिन उसे बेचैनी होने लगी। और दिन होता तो वह किसी तरह निभा लेता। आज ठीक 11 बजे अंतरार्ष्ट्रीय संगणनवेत्ताओं का विश्व अधिवेशन शुरू होने वाला था। ठीक 10.59.52 पर विश्व के चारों देशों के 3,642 संगणन विभागों के 58,415 संगणनवेत्ता उद्घाटन के लिए एक दूसरे से जुड़ जाते और ठीक 11 बजे नवभारत के प्रधानमंत्री उन्हें संबोधित करते। क्या यह कभी संभव था कि एक बच्चे की चोट की वजह से इतने महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम में कोई व्यवधान आए।
बच्चे की देखरेख किये बिना वह जा भी नहीं सकता था। अगर बच्चे की हालत में कुछ भी बिगाड़ आता, तो स्थानीय प्रशासन उसके ख़िलाफ़ गैरज़िम्मेदारी और कर्तव्यच्युति का आरोप लगाता और उसे कर्त्तव्यपारायणता का सत्र पूरा करना पड़ता। लेकिन इस देरी को बचाने के लिए वह कुछ भी नहीं कर सकता था। अगर खाना छोड़ता है, तो टर्मीनल का पूर्वनियोजित क्रम टूट जाता और आगे के कार्यक्रमों में खलल पड़ जाती। फिर स्थानीय प्रशासन भी उससे जवाब तलब करता। अधिवेशन के आयोजन में उसके अपने कार्य को देखने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति भी नहीं मिल सकता था। सब लोग अपने-अपने कार्य में व्यस्त होते। जब तक सारा कार्य अवरुद्ध होने की स्थिति न आ जाती, किसी को यह मालूम भी न होता कि वह अपनी जगह उपस्थित नहीं है।
उसने देखा कि उसका यान वापस जा चुका है। यान किसी के यहाँ दस सेकेंड से ज़्यादा रुकता नहीं था। उसे कई घरों से लोगों को ले जाना होता था। अगर वह समय से घरों से न निकले, तो समय पर लोगों को दफ़्तर पहुँचा नहीं सकता था। उसकी घबराहट और बढ़ गयी। देर से पहुंचने के परिणाम की कल्पना कर वह सिहर उठा। उसके लिए यह अनुभूति बिल्कुल नयी थी। आशंका, आतुरता और चिंता की यह अनुभूति बता रही थी कि अब भी वह एक व्यक्ति है। जीवन के मशीनी क्रम के रहते अब भी उसे अपना रास्ता या उपाय सोचने की आवश्यकता पड़ा रही है। उस सोचने में उसे मानसिक भावनाओं के वशीभूत होना पड़ा, जो उसके लिए नया अनुभव था। उसने सोचा कि वह इस पहलू पर विचार करेगा और अगले चिंतन सत्र में संगणक से सवाल करके हल पाने की कोशिश करेगा। इस समय उसके सामने समय पर दफ़्तर पहुँचने की समस्या थी। उधेड़बुन की इस अवस्था में उसने अपने कलाई टर्मीनल से आपत्कालीन वाहन की माँग की और किसी तरह समय पर अपने कार्यालय पहुँच गया।
2
ग्यारह बजने से ठीक आठ सेकेंड पहले सभी देशों के संगणक सर्किट से जोड़े
गये। छह सेकेंड पहले राष्ट्रीय सर्किटों की जाँच की गयी, चार सेकेंड पहले
अंतर्राष्ट्रीय सर्किट की जाँच की गयी। तीन सेकेंड पहले दृश्य पटल की जाँच
की गयी और दो सेकेंड पहले उद्घाटन की घोषणा की गयी। एक सेकेंड था, तब
दृश्य पटल प्रकाशवान हुआ। ठीक ग्यारह बजे नवभारत के प्रधानमंत्री 1-1 म 1,
जो कि संगणन विश्लेषण विभाग भी सम्हाले हुए थे, संगणक के दृश्य पटलों पर
आये और अधिवेशन के शुभारंभ की घोषणा की। उसके बाद नवभारत के संगणन
उपमंत्री ने अपने देश की तथा अन्य तीनों देशों के मंत्रियों या
उपमंत्रियों ने अपने-अपने देश की स्थिति का ब्योरा दिया। अधिवेशन का
मुद्दा यही था कि किस तरह देश का प्रशासन खाद्योत्पादन, यातायात, जलवायु
नियंत्रण, मनुष्योत्पादन आदि क्षेत्रों में संगणन विश्लेषण और नियंत्रण
क्या कार्य कर रहा है और क्या कोई समस्या रह गयी है, जिसे सुलझाने में
संगणक की सहायता ली जा सकती है।
बाद में नवभारत के प्रधानमंत्री अपने अभिभाषण में कहने लगे-‘‘मित्रों, अक्सर संगणनवेत्ताओं से यह सुनने में आता है कि हम मशीन बनते जा रहे हैं या मशीनें हम पर शासन कर रही हैं। ऐसे कथनों का तात्पर्य मेरी समझ में नहीं आता। हमीं ने मशीनों की ईजाद की है और मशीनों से हमीं काम ले रहे हैं। कुछ ही हज़ार साल पहले की बात है। तब आदमी के पास मशीनों का अधिक सहारा नहीं था। उस समय लोग अपने जीवन को नियंत्रित नहीं कर पाये थे। रोग से मौत, खाद्यान्न का अभाव, वाहनों की दुर्घटनाएँ और लोगों की मौत-ये सब बातें सुनने में कितनी अजीब लगती हैं ! आज हम इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते। पता नहीं, लोग कितनी आदिम अवस्था में थे ! आप सुनेंगे तो विश्वास भी नहीं करेंगे। उस समय लोग कभी बारिश से मर जाते थे, कभी घर में आग लगने से मर जाते थे बहुत से लोग तो खाना खाने से उत्पन्न कई बीमारियों से मर जाते थे। आप सोचेंगे कि आदमी खाना खाने से मर कैसे सकता है ! वे हमारी तरह पोषक तत्त्व नहीं लेते थे, बल्कि जानवरों की तरह अपने पेट में पेड़-पौधे और कभी-कभी जिंदा जानवरों को भी डाल लेते थे। हम उस आदिम अवस्था से बहुत आगे आ गये हैं। क्या आप लोग चाहते हैं कि हम अपने विकास को छोड़कर फिर से उस आदिम अवस्था में पहुँच जाएँ ?
शिक्षा में सुधार के कारण हमारी नयी पीढ़ी शुरू से ही जीवन के नये मूल्यों को अपना लेती है और जीवन के सहज, सामान्य रास्ते पर चलती है क्या आप चाहेंगे कि हम उस बर्बर अवस्था में पहुँचें, जिसमें कई ख़राबियाँ थीं ? चोरी, हत्या, भुखमरी, बलात्कार, यौन रोग, देशद्रोह, आंदोलन, युद्ध आपमें से कई लोग इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानते होंगे। ये सिर्फ़ शब्द नहीं हैं, उस युग के जीवन की रीति के परिचायक हैं। अगर आप आज का जैसा आनंद युग चाहें, जिसमें शांति है, और परेशानियाँ नहीं है, तो आप मशीनों संस्कृति से मुँह नहीं मोड़ सकते। हाँ, यह तो संभव नहीं है कि हम उन्नति, समृद्धि और जीवन की शांति भी चाहें और साथ ही उच्छृंखल व्यक्ति-स्वातंत्रय और वैचारिक अराजकता भी.....।’’
प्रधानमंत्री का भाषण चलता रहा। उसका मन भाषण में नहीं लगा। इसलिए नहीं कि वह यह भाषण कई बार सुन चुका था और उसके लिए कोई नई बात नहीं थी, बल्कि इसलिए कि वह अपने बच्चों के बारे में सोचने लगा था। उसे लगा कि वह घर से संपर्क कर बच्चों की स्थिति मालूम करे और पत्नी को चोट लगने की सूचना भी दे दे। फिर उसे यह सोचकर हँसी भी आयी कि पत्नी क्या सोचेगी। वह तो उसकी तरह बिल्कुल विचलित नहीं होगी, क्योंकि वह जानती है कि संगणक नियंत्रण के रहते उसके चिंतित होने की न कोई आवश्यकता है, न ही कोई मतलब। मनुष्य परेशान होकर कर भी क्या सकता है ? चिंतित होने पर उसकी पत्नी यह भी सोच सकती है कि 35 के मन में कोई अप्राकृतिक विकृति आ गयी है। वह संगणक के साथ किसी सत्र में इसकी चर्चा भी कर सकती है। 35 ने पत्नी से बात करने की इच्छा को रोका और अधिवेशन की कार्रवाई में मन लगाने का यत्न करने लगा। उसे खुद यह सोचकर परेशानी हो रही थी कि उसके मन में इन दिनों ऐसी कमज़ोरी क्यों आने लगी है। मनुष्य जीवन में ऐसी भावनाओं का स्थान नहीं होना चाहिए। ये माया तत्त्व मनुष्य के व्यक्तित्व को नष्ट कर देते हैं और राष्ट्र को कमज़ोर कर देते हैं। उसे बचपन से यही शिक्षा मिली थी। लेकिन उसने अनुभव किया कि वह प्रेम, दया आदि कमज़ोरियों के वशीभूत हो जाता है। कुछ वर्षों से उसके मन में ऐसी कमज़ोरियाँ बढ़ने लगी हैं। उसने मन की कुलबुलाहट पर रोक लगायी और अधिवेशन समाप्त होने का इंतज़ार करने लगा।
बाद में नवभारत के प्रधानमंत्री अपने अभिभाषण में कहने लगे-‘‘मित्रों, अक्सर संगणनवेत्ताओं से यह सुनने में आता है कि हम मशीन बनते जा रहे हैं या मशीनें हम पर शासन कर रही हैं। ऐसे कथनों का तात्पर्य मेरी समझ में नहीं आता। हमीं ने मशीनों की ईजाद की है और मशीनों से हमीं काम ले रहे हैं। कुछ ही हज़ार साल पहले की बात है। तब आदमी के पास मशीनों का अधिक सहारा नहीं था। उस समय लोग अपने जीवन को नियंत्रित नहीं कर पाये थे। रोग से मौत, खाद्यान्न का अभाव, वाहनों की दुर्घटनाएँ और लोगों की मौत-ये सब बातें सुनने में कितनी अजीब लगती हैं ! आज हम इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते। पता नहीं, लोग कितनी आदिम अवस्था में थे ! आप सुनेंगे तो विश्वास भी नहीं करेंगे। उस समय लोग कभी बारिश से मर जाते थे, कभी घर में आग लगने से मर जाते थे बहुत से लोग तो खाना खाने से उत्पन्न कई बीमारियों से मर जाते थे। आप सोचेंगे कि आदमी खाना खाने से मर कैसे सकता है ! वे हमारी तरह पोषक तत्त्व नहीं लेते थे, बल्कि जानवरों की तरह अपने पेट में पेड़-पौधे और कभी-कभी जिंदा जानवरों को भी डाल लेते थे। हम उस आदिम अवस्था से बहुत आगे आ गये हैं। क्या आप लोग चाहते हैं कि हम अपने विकास को छोड़कर फिर से उस आदिम अवस्था में पहुँच जाएँ ?
शिक्षा में सुधार के कारण हमारी नयी पीढ़ी शुरू से ही जीवन के नये मूल्यों को अपना लेती है और जीवन के सहज, सामान्य रास्ते पर चलती है क्या आप चाहेंगे कि हम उस बर्बर अवस्था में पहुँचें, जिसमें कई ख़राबियाँ थीं ? चोरी, हत्या, भुखमरी, बलात्कार, यौन रोग, देशद्रोह, आंदोलन, युद्ध आपमें से कई लोग इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानते होंगे। ये सिर्फ़ शब्द नहीं हैं, उस युग के जीवन की रीति के परिचायक हैं। अगर आप आज का जैसा आनंद युग चाहें, जिसमें शांति है, और परेशानियाँ नहीं है, तो आप मशीनों संस्कृति से मुँह नहीं मोड़ सकते। हाँ, यह तो संभव नहीं है कि हम उन्नति, समृद्धि और जीवन की शांति भी चाहें और साथ ही उच्छृंखल व्यक्ति-स्वातंत्रय और वैचारिक अराजकता भी.....।’’
प्रधानमंत्री का भाषण चलता रहा। उसका मन भाषण में नहीं लगा। इसलिए नहीं कि वह यह भाषण कई बार सुन चुका था और उसके लिए कोई नई बात नहीं थी, बल्कि इसलिए कि वह अपने बच्चों के बारे में सोचने लगा था। उसे लगा कि वह घर से संपर्क कर बच्चों की स्थिति मालूम करे और पत्नी को चोट लगने की सूचना भी दे दे। फिर उसे यह सोचकर हँसी भी आयी कि पत्नी क्या सोचेगी। वह तो उसकी तरह बिल्कुल विचलित नहीं होगी, क्योंकि वह जानती है कि संगणक नियंत्रण के रहते उसके चिंतित होने की न कोई आवश्यकता है, न ही कोई मतलब। मनुष्य परेशान होकर कर भी क्या सकता है ? चिंतित होने पर उसकी पत्नी यह भी सोच सकती है कि 35 के मन में कोई अप्राकृतिक विकृति आ गयी है। वह संगणक के साथ किसी सत्र में इसकी चर्चा भी कर सकती है। 35 ने पत्नी से बात करने की इच्छा को रोका और अधिवेशन की कार्रवाई में मन लगाने का यत्न करने लगा। उसे खुद यह सोचकर परेशानी हो रही थी कि उसके मन में इन दिनों ऐसी कमज़ोरी क्यों आने लगी है। मनुष्य जीवन में ऐसी भावनाओं का स्थान नहीं होना चाहिए। ये माया तत्त्व मनुष्य के व्यक्तित्व को नष्ट कर देते हैं और राष्ट्र को कमज़ोर कर देते हैं। उसे बचपन से यही शिक्षा मिली थी। लेकिन उसने अनुभव किया कि वह प्रेम, दया आदि कमज़ोरियों के वशीभूत हो जाता है। कुछ वर्षों से उसके मन में ऐसी कमज़ोरियाँ बढ़ने लगी हैं। उसने मन की कुलबुलाहट पर रोक लगायी और अधिवेशन समाप्त होने का इंतज़ार करने लगा।
3
शाम को वह पत्नी के आने से पहले ही घर पहुँचा। बच्चे-ठीक-ठाक थे, अध्ययन
सत्र में रत थे। उसे सही हालत में देखकर वह शांतिचित्त हो गया था। संगणक
के सूचना तंत्र से मालूम हुआ था कि बच्चे की चोट ठीक होने लगी है। कटी
कोशिकाओं के स्थान पर नयी कोशिकाएँ बनने लगी हैं और रक्त संचार ठीक से चल
रहा है। लड़के की स्थिति को देखकर उसके मन में जो व्याकुलता पैदा हुई थी,
वह उसके लिए एक नयी, सुखद अनुभूति थी। उसने लड़के के पास जाकर उसके सिर पर
हाथ फेरा। लड़का शिक्षण सत्र के बीच में बाधा उपस्थित किये जाने पर अपने
भावशून्य चेहरे पर उभरी प्रश्न मुद्रा से उसकी ओर देखने लगा। उन बच्चों ने
माता-पिता से भावात्मक स्तर पर व्यवहार की अपेक्षा नहीं की थी, न ही वे
भावाभिव्यक्ति के आदी थे। पिता कभी-कभी ममता का भाव प्रकट करता था, लेकिन
बच्चे उस स्थिति से अपरिचित से थे। वे अपने समाज में किसी से भाव प्रकटन
की अपेक्षा नहीं करते थे। बच्चों को 50 साल की उम्र तक घर में रहना होता
था। इस व्यवस्था में माता-पिता घर के दो अन्य सदस्य थे, बस।
थोड़ी देर में उसकी पत्नी दफ़्तर से लौटी, तो उसने उसे दिल का हाल कह सुनाया और अपनी व्याकुलता की चर्चा की। पत्नी ने उसकी मानसिक अवस्था पर विस्मय प्रकट किया। उसने कहा, ‘‘संगणक के रहते तुम्हें चिंतित होने की क्या ज़रूरत थी ? और चिंतित होकर तुम कर भी क्या सकते थे ?’’ 35 ने पत्नी से कहा, ‘‘सवाल यह नहीं है कि हम क्या कर सकते हैं। मेरी चिंता यह भी नहीं थी कि हम क्या कर सकते हैं या नहीं कर सकते। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरा बेटा बीमार हुआ। मैं उसके सुख की कामना करता हूँ। बच्चों से प्यार करता हूँ न, इसलिए।’’ पत्नी कुछ कठोर स्वर में बोली, ‘वे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं। वे राष्ट्र के बच्चे हैं। तुम बेकार ही भावनाओं के बहाव में बह रहे हो। यह नहीं जानते कि नवजीवन के दर्शन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है ?’’ क्या प्यार करना भी गलत बात है ? मैं तुमसे प्यार करता हूँ ? क्या तुम कह सकती हो कि तुम मुझसे प्यार करती हो ?’’ 35 ने पत्नी से सवाल किया। एक क्षण के मौन के बाद उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘इसमें प्यार की बात कहाँ से आ गयी ? हर स्त्री को एक पुरुष चाहिए। इसलिए हम दोनों साथ हैं। हो सकता है कि कल मुझे दूसरा पति दे दिया जाए। फिर मैं उसके साथ रहूँगी। दोनों साथ में रहेंगे, एक दूसरे से यौन तुष्टि पाएँगे, मैं उसके बच्चों के साथ रहूँगी। ऐसी स्थिति में जीवन में भावनाओं का क्या स्थान है ?’’
35 कुछ रुष्ट-सा होकर बोला, ‘‘यही तो परेशानी है। हम मानव हैं, हमने अपने जीवन की सुविधाओं के लिए इन मशीनों का निर्माण किया है। लेकिन अब...? हम इन मशीनों के अंग बन गए हैं। हमारी सारी भावनाएँ, विचार, व्यवहार सब मशीनों से नियंत्रित होते जा रहे हैं। मैं इन मशीनों से अलग एक व्यक्ति हूँ, एक स्वतंत्र मनुष्य मेरी अपनी भावनाएँ हैं। लेकिन विकसित समाज का यह तात्पर्य नहीं है। कि मनुष्य भी मशीनों की तरह राग द्वेष से परे हो जाए। प्यार, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, ममता ये सब मनुष्य के सहज भाव हैं। इन्हीं से जीवन का सुख-दुख भी जुड़ा है। इनके अभाव में मुझे लगता है ज़िंदगी वीरान और नीरस हो गयी है।’’ पत्नी ने कुछ अविश्वास से उसकी बातें सुनीं। फिर उसे झिड़कते हुए से कहा, ‘‘तुम्हारे आधुनिक युग से मेल नहीं खाते। हम यह मानकर चल रहे हैं कि व्यक्तिगत भावनाओं और विचारों का राष्ट्र के लिए कोई महत्व नहीं है। हमें उन्हीं रास्तों पर चलना है, जो राष्ट्र ने हमारे लिए निश्चित किये हैं। अच्छा हुआ तुमने सिर्फ़ मुझसे ये बातें कहीं। अगर सत्र में तुमने ऐसे विचार प्रकट किये, तो तुम्हारे लिए बड़ी परेशानी हो जाएगी। तुम यह भूल जाते हो कि हम सब एक उन्नत, आधुनिक समाज के ज़िम्मेदार सदस्य हैं और समाज की व्यवस्था हमारे लिए सर्वोपरि है।
किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह स्वतंत्र रूप से अपने विचार रखे और भावना आदि की दुहाई दे।’’ उसने पत्नी से इससे अधिक कोई चर्चा करना नहीं चाहा। नहीं तो वह चिंतन सत्र में अपने पति के मानसिक असंतुलन और वैयक्तिक विचारों की बात कह देती और फिर उससे बेकार में जवाब तलब किया जाता। रह-रहकर उसके मन में यह बात आती, रही कि आख़िर समाज में उसका अस्तित्व क्या है ! वह जिस समाज का सदस्य है, वह उसे इतना क्यों बाँध देता है कि वह अपने ढंग से कुछ सोच न सके, अपनी बात न कह सके और अपनी इच्छा से कोई कार्य न कर सके। आख़िर वह मनुष्य है, सोच-विचार कर सकने वाला चिंतनशील प्राणी है।
भोजन से पहले वह पत्नी के साथ चिंतन सत्र में शामिल हुआ। दोनों ने अपने को संगणक संपर्क तंतु से जोड़ लिया। चिंतन सत्र में लोग बीस मिनट तक संगणक से बातचीत करते थे। वे अपने सारे सवाल संगणक के सामने रख सकते थे और संगणक उनके हर सवाल का उचित जवाब देता था। उसने संगणक से प्रश्न किया-समाज में व्यक्ति का क्या स्थान है ? संगणक ने उत्तर दिया-आधुनिक समाज व्यक्तियों का संगठित समूह है। उसमें रहने वाला हर व्यक्ति समाज का अंग है और उसे समाज की स्वीकृत पद्धति के अनुसार जीना है। इसी में विश्व कल्याण है। 35 ने फिर सवाल किया–इस पद्धति का निर्माता कौन वह व्यक्ति या संगठन है, जो लोगों के जीवन के तौर-तरीके निश्चित करता है, सारे नियम-कानून बनाता है ? उत्तर मिला-नवभारत का प्रशासन तंत्र, जिसके तुम भी सदस्य हो। उसने पूछा-लेकिन मैं कभी नियम बनाने की प्रक्रिया से नहीं जुड़ा था। न ही कभी किसी ने मुझसे नियम बनाने के संबंध में कोई राय माँगी। संगणक ने प्रताड़ना के शब्दों में कहा-ये नियम रोज़-रोज़ नहीं बना करते, न ही हर व्यक्ति से इसकी राय ली जाती है। ये लंबे समय से चले आ रहे हैं और समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं।
समाज में हर व्यक्ति का धर्म है कि वह नियमों का पालन करे। तुम्हारा व्यक्तिगत कर्त्तव्य है कि तुम व्यवस्था में बने रहो और इस व्यवस्था को बनाये रखने में राष्ट्र का साथ दो। 35 ने अंत में पूछा-क्या मैंने जान सकता हूँ कि पुराने समय में किस तरह की सामाजिक व्यवस्था थी और लोगों को कितना या किस तरह का व्यक्ति-स्वातंत्रय प्राप्त था ? संगणक ने संक्षिप्त उत्तर दिया-चिंतन सत्र में पुराने ज़माने की कोई ख़बर नहीं दी जाती। आगे से ऐसा सवाल मत करना। उसका सत्र समाप्त हो गया था। उधर उसकी पत्नी भी अपना सत्र समाप्त करके उठ गयी थी। दोनों भोजन के लिए उठ गये।
थोड़ी देर में उसकी पत्नी दफ़्तर से लौटी, तो उसने उसे दिल का हाल कह सुनाया और अपनी व्याकुलता की चर्चा की। पत्नी ने उसकी मानसिक अवस्था पर विस्मय प्रकट किया। उसने कहा, ‘‘संगणक के रहते तुम्हें चिंतित होने की क्या ज़रूरत थी ? और चिंतित होकर तुम कर भी क्या सकते थे ?’’ 35 ने पत्नी से कहा, ‘‘सवाल यह नहीं है कि हम क्या कर सकते हैं। मेरी चिंता यह भी नहीं थी कि हम क्या कर सकते हैं या नहीं कर सकते। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरा बेटा बीमार हुआ। मैं उसके सुख की कामना करता हूँ। बच्चों से प्यार करता हूँ न, इसलिए।’’ पत्नी कुछ कठोर स्वर में बोली, ‘वे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं। वे राष्ट्र के बच्चे हैं। तुम बेकार ही भावनाओं के बहाव में बह रहे हो। यह नहीं जानते कि नवजीवन के दर्शन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है ?’’ क्या प्यार करना भी गलत बात है ? मैं तुमसे प्यार करता हूँ ? क्या तुम कह सकती हो कि तुम मुझसे प्यार करती हो ?’’ 35 ने पत्नी से सवाल किया। एक क्षण के मौन के बाद उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘इसमें प्यार की बात कहाँ से आ गयी ? हर स्त्री को एक पुरुष चाहिए। इसलिए हम दोनों साथ हैं। हो सकता है कि कल मुझे दूसरा पति दे दिया जाए। फिर मैं उसके साथ रहूँगी। दोनों साथ में रहेंगे, एक दूसरे से यौन तुष्टि पाएँगे, मैं उसके बच्चों के साथ रहूँगी। ऐसी स्थिति में जीवन में भावनाओं का क्या स्थान है ?’’
35 कुछ रुष्ट-सा होकर बोला, ‘‘यही तो परेशानी है। हम मानव हैं, हमने अपने जीवन की सुविधाओं के लिए इन मशीनों का निर्माण किया है। लेकिन अब...? हम इन मशीनों के अंग बन गए हैं। हमारी सारी भावनाएँ, विचार, व्यवहार सब मशीनों से नियंत्रित होते जा रहे हैं। मैं इन मशीनों से अलग एक व्यक्ति हूँ, एक स्वतंत्र मनुष्य मेरी अपनी भावनाएँ हैं। लेकिन विकसित समाज का यह तात्पर्य नहीं है। कि मनुष्य भी मशीनों की तरह राग द्वेष से परे हो जाए। प्यार, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, ममता ये सब मनुष्य के सहज भाव हैं। इन्हीं से जीवन का सुख-दुख भी जुड़ा है। इनके अभाव में मुझे लगता है ज़िंदगी वीरान और नीरस हो गयी है।’’ पत्नी ने कुछ अविश्वास से उसकी बातें सुनीं। फिर उसे झिड़कते हुए से कहा, ‘‘तुम्हारे आधुनिक युग से मेल नहीं खाते। हम यह मानकर चल रहे हैं कि व्यक्तिगत भावनाओं और विचारों का राष्ट्र के लिए कोई महत्व नहीं है। हमें उन्हीं रास्तों पर चलना है, जो राष्ट्र ने हमारे लिए निश्चित किये हैं। अच्छा हुआ तुमने सिर्फ़ मुझसे ये बातें कहीं। अगर सत्र में तुमने ऐसे विचार प्रकट किये, तो तुम्हारे लिए बड़ी परेशानी हो जाएगी। तुम यह भूल जाते हो कि हम सब एक उन्नत, आधुनिक समाज के ज़िम्मेदार सदस्य हैं और समाज की व्यवस्था हमारे लिए सर्वोपरि है।
किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह स्वतंत्र रूप से अपने विचार रखे और भावना आदि की दुहाई दे।’’ उसने पत्नी से इससे अधिक कोई चर्चा करना नहीं चाहा। नहीं तो वह चिंतन सत्र में अपने पति के मानसिक असंतुलन और वैयक्तिक विचारों की बात कह देती और फिर उससे बेकार में जवाब तलब किया जाता। रह-रहकर उसके मन में यह बात आती, रही कि आख़िर समाज में उसका अस्तित्व क्या है ! वह जिस समाज का सदस्य है, वह उसे इतना क्यों बाँध देता है कि वह अपने ढंग से कुछ सोच न सके, अपनी बात न कह सके और अपनी इच्छा से कोई कार्य न कर सके। आख़िर वह मनुष्य है, सोच-विचार कर सकने वाला चिंतनशील प्राणी है।
भोजन से पहले वह पत्नी के साथ चिंतन सत्र में शामिल हुआ। दोनों ने अपने को संगणक संपर्क तंतु से जोड़ लिया। चिंतन सत्र में लोग बीस मिनट तक संगणक से बातचीत करते थे। वे अपने सारे सवाल संगणक के सामने रख सकते थे और संगणक उनके हर सवाल का उचित जवाब देता था। उसने संगणक से प्रश्न किया-समाज में व्यक्ति का क्या स्थान है ? संगणक ने उत्तर दिया-आधुनिक समाज व्यक्तियों का संगठित समूह है। उसमें रहने वाला हर व्यक्ति समाज का अंग है और उसे समाज की स्वीकृत पद्धति के अनुसार जीना है। इसी में विश्व कल्याण है। 35 ने फिर सवाल किया–इस पद्धति का निर्माता कौन वह व्यक्ति या संगठन है, जो लोगों के जीवन के तौर-तरीके निश्चित करता है, सारे नियम-कानून बनाता है ? उत्तर मिला-नवभारत का प्रशासन तंत्र, जिसके तुम भी सदस्य हो। उसने पूछा-लेकिन मैं कभी नियम बनाने की प्रक्रिया से नहीं जुड़ा था। न ही कभी किसी ने मुझसे नियम बनाने के संबंध में कोई राय माँगी। संगणक ने प्रताड़ना के शब्दों में कहा-ये नियम रोज़-रोज़ नहीं बना करते, न ही हर व्यक्ति से इसकी राय ली जाती है। ये लंबे समय से चले आ रहे हैं और समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं।
समाज में हर व्यक्ति का धर्म है कि वह नियमों का पालन करे। तुम्हारा व्यक्तिगत कर्त्तव्य है कि तुम व्यवस्था में बने रहो और इस व्यवस्था को बनाये रखने में राष्ट्र का साथ दो। 35 ने अंत में पूछा-क्या मैंने जान सकता हूँ कि पुराने समय में किस तरह की सामाजिक व्यवस्था थी और लोगों को कितना या किस तरह का व्यक्ति-स्वातंत्रय प्राप्त था ? संगणक ने संक्षिप्त उत्तर दिया-चिंतन सत्र में पुराने ज़माने की कोई ख़बर नहीं दी जाती। आगे से ऐसा सवाल मत करना। उसका सत्र समाप्त हो गया था। उधर उसकी पत्नी भी अपना सत्र समाप्त करके उठ गयी थी। दोनों भोजन के लिए उठ गये।
4
वर्ष था 51/367, अर्थात नयी गिनती शुरू करने के बाद 51 सहस्राब्दियाँ बीत
चुकी थीं और 52 वीं सहस्राब्दी का 367 वाँ वर्ष चल रहा था। नयी गिनती
पुराने ज़माने की इक्कीसवीं शताब्दी से शुरू हुई थी, जब किसी मूर्ख शासक
के गलत निर्णय से कई परमाणु बम एक साथ फूटे और संसार का लगभग विध्वंस हो
चुका था। लेकिन मानव हार मानने वाला कहां ! उसने विकास की नयी शुरुआत की
थी। तभी से नये युग के वर्षों की गिनती भी शुरू हुई थी।
नवभारत का जीवन व्यवस्थित था, समाज बहुत सुसंगठित था। प्रशासन ने पिछले कई हज़ार वर्षों से देश की आबादी पर पूर्व नियंत्रण कर रखा था। आबादी में एक की संख्या से भी वृद्धि नहीं हो सकती थी। प्रशासन उतने ही बच्चों के जन्म की व्यवस्था करता था, जितने की आवश्यकता थी। देश की आबादी की ही बात नहीं, घर के सदस्यों की संख्या भी निश्चित थी। हर घर में पति, पत्नी और दो बच्चों के रहने की व्यवस्था थी। बच्चों में भी एक लड़का होना चाहिए और एक लड़की। परिवारों में सिर्फ़ इतना ही अंतर हो सकता था कि किसी घर में लड़की बड़ी होती तो किसी घर में लड़का बड़ा होता। लेकिन यह निर्णय भी प्रशासन का होता था कि पहले लड़का हो या लड़की। देश की पूरी आबादी को देखते हुए प्रशासन निश्चय करता था कि उस वर्ष देश में कितने लड़के होने चाहिए और कितनी लड़कियाँ। बच्चे लगभग 50 साल की उम्र तक अपने माँ-बाप के साथ रहते थे। तब तक उन्हें कोई कार्य नहीं करना पड़ता था। 50 साल बाद प्रशासन उन्हें अलग घरों में साथी के साथ बसा देता था और उन्हें देश के लिए किसी न किसी विभाग में कार्य करना पड़ता था।
घर में जीवन साथी का होना अनिवार्य था। जीवन साथी भी प्रशासन ही चुनता था। पति या पत्नी के चयन में व्यक्ति की रुचि या अरुचि का कोई सवाल नहीं था। विवाह का व्यक्ति के जीवन से कोई संबंध नहीं था, विवाह समाज के हित में होता था। यह भी तो बात थी कि नवभारत में एक दूसरे से संबंध प्रेम, घृणा आदि भावनाओं पर आधारित नहीं था। संबंधों का पहला और प्रमुख आधार था आवश्यकता और उसकी पूर्ति। इसीलिए व्यक्ति के कार्य और भूमिका का महत्त्व था, उसके व्यक्तित्व का नहीं। आम तौर पर पति-पत्नी का संबंध जीवन भर का साथ होता था। लेकिन किन्हीं कारणों से, आवश्यकता पड़ने पर प्रशासन एक साथी को हटाकर दूसरे साथी की व्यवस्था कर सकता था। इस परिवर्तन से किसी को कोई दुख नहीं होता था, क्योंकि लोग लगाव या किसी भावना के बिना साथ रहने के आदी थे।
संगणक ने लोगों के जीवन का पूर्ण प्रबंध कर रखा था। जीवन की हर आवश्यकता की पूर्ति संगणक द्वारा या उसकी देखरेख में होती थी और जीवन के समस्त कार्यकलाप संगणक केंद्र द्वारा नियंत्रित होते थे। देश में लोगों का जन्म-मरण, लालन-पालन भोजन वस्त्रादि की आवश्कताएँ, भवन निर्माण तथा भवनों की देखरेख शिक्षा इन सारी बातों का नियंत्रण संगणक संचालित करता था। संगणक ही लोगों को खुराक तथा आवश्यकता के अनुसार दवाइयाँ आदि देता था। वह नियमित रूप से लोगों का स्वास्थ परीक्षण करता था। और खुराक की मात्रा घोषित करता था। उसके बताये निर्देशों के अनुसार लोग आवश्यक सामगी की माँग करते थे। संगणक के साथ लगी नली से ख़ुराक की गोलियाँ प्राप्त हो जाती थीं।
संगणक लोगों के मानसिक विकास के लिए घर में कई सत्रों का आयोजन करता था। वही बच्चों के लिए शिक्षा का साधन था, बच्चों को शिक्षा देता था। शिक्षा सत्र में बच्चे विविध विषयों की जानकारी प्राप्त करते थे। वे अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विषय में आगे बढ़ सकते थे। बड़े बच्चों की प्रगति और आवश्यकता के अनुसार संगणक उन्हें उच्च अध्ययन की दिशा सुझाता था। इस तरह वे वयस्क होते-होते किन्हीं क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे और देश के योग्य नागरिक बनते थे। सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं, उन्हें जीवन मूल्यों की भी जानकारी दी जाती थी, जिससे वे उस उन्नत समाज के योग्य सदस्य भी बन सकें। बड़े लोगों के लिए संगणक के साथ चिंतन सत्र की व्यवस्था थी। इन सत्रों में लोग संगणक से अपनी समस्याओं का समाधान माँग सकते थे, शंकाओं निवारण हेतु सलाह ले सकते थे। देश की नीति और व्यवस्था के विरुद्ध सवालों को छोड़कर संगणक सभी सवालों का जवाब देता था। इसी तरह अन्य कई उपयोगी सत्र थे-मनोरंजन सत्र, घृणा सत्र, यौन तुष्टि सत्र आदि, जो नियत समय पर होते थे। लोगों का इन सत्रों में भाग लेना अनिवार्य था।
इन सत्रों में संगणक सही व्यवहार के तरीके सूचित करता था। लोगों के लिए इन हिदायतों के अनुसार कार्य करना आवश्यक था। व्यवहार में चूक होने पर संगणक उन्हें प्रताड़ित भी करता था। लोग संगणक के दंड से बहुत घबराते थे, क्योंकि उसकी प्रताड़ना का मतलब था प्रशासन का व्यक्ति से रुष्ट हो जाना। प्रशासन जिससे रुष्ट हो जाता था, उस व्यक्ति को अपनी जगह से हटाकर कहीं दूसरी जगह भेज देता था। फिर उस व्यक्ति के बारे में कभी कोई ख़बर ही नहीं मिलती थी। लोग यह भी नहीं जान पाते थे कि उसका क्या हुआ। लेकिन ऐसी नौबत कम ही आती थी। लोगों की शिक्षा ही कुछ ऐसी थी कि लोग प्रशासन की विचारधारा के ख़िलाफ़ कुछ सोच नहीं सकते थे। नवभारत उस युग के चार देशों में एक था। कह भी सकते हैं कि चारों में प्रमुख था। पूरा देश एक गुंबद के अंदर था, जो काँच जैसी पारदर्शी वस्तु से बना था। देश के लोग गुंबद के भीतर आकाश का निरीयण कर सकते थे। सूरज, चाँद, तारे सभी व्योम मंडल में देखे जा सकते थे। लेकिन गुंबद के अंदर भूरे रंग के मकानों की लंबी श्रृंखला थी, मकानों के बीच सँकरी सी, लंबी दीर्घाएँ थीं, जिनमें कहीं कुछ चलता नज़र नहीं आता था। इन गलियारो का उपयोग संगणक के तारे बिछाने, लोगों को अन्न पहुँचाने वाली नलियों को दीवारों की आड़ में लगाने के काम में किया जाता था। पूरे देश में कहीं कोई प्राणी नहीं दिखायी पड़ता था; न कहीं कोई पेड़-पौधा न जमीन पर कहीं घास की हरियाली। यहाँ तक कि देश में हवा भी नहीं आती थी। लगता था जैसे यान जो दीवारों पर बड़ी द्रुत गति से चलते दिखायी पड़ते थे।
देश में लोगों को कहीं आने-जाने की आवश्यकता ही नहीं थी। बच्चे कभी घर से बाहर नहीं निकलते थे। इसी तरह बूढ़े भी कभी घर से या विश्रामलय से बाहर नहीं निकलते थे। बहुत से व्यक्ति प्रशासन का कार्य अपने घरों में बैठे ही करते थे। निकलना पड़ता था, केवल कुछ कार्यालयों में काम करने वाले कुछ लोगों को। वे भी सवेरे यान से दफ्तर जाते और शाम को घर लौट आते। इसके बाद उन्हें कहीं आना-जाना न पड़ता। यही नहीं, कहीं आना-जाना वर्जित भी था। लोगों से मिलने-मिलाने के लिए लोग साल में सिर्फ़ तीन बार यानों का प्रयोग कर सकते थे। यान दीवारों पर चलते थे। नीचे ऊपर की दिशा में और गंतव्य दोनों संगणक के नियंत्रण के अधीन थे। अन्य स्थितियों में यान प्राप्त करना संभव ही नहीं था। कुछ वरिष्ठ अधिकारी आपत्तिकालीन वाहन की माँग कर सकते थे। शेष व्यक्ति पूर्वनिर्धारित व्यवस्था के अनुसार ही यान का प्रयोग कर सकते थे।
नवभारत का जीवन व्यवस्थित था, समाज बहुत सुसंगठित था। प्रशासन ने पिछले कई हज़ार वर्षों से देश की आबादी पर पूर्व नियंत्रण कर रखा था। आबादी में एक की संख्या से भी वृद्धि नहीं हो सकती थी। प्रशासन उतने ही बच्चों के जन्म की व्यवस्था करता था, जितने की आवश्यकता थी। देश की आबादी की ही बात नहीं, घर के सदस्यों की संख्या भी निश्चित थी। हर घर में पति, पत्नी और दो बच्चों के रहने की व्यवस्था थी। बच्चों में भी एक लड़का होना चाहिए और एक लड़की। परिवारों में सिर्फ़ इतना ही अंतर हो सकता था कि किसी घर में लड़की बड़ी होती तो किसी घर में लड़का बड़ा होता। लेकिन यह निर्णय भी प्रशासन का होता था कि पहले लड़का हो या लड़की। देश की पूरी आबादी को देखते हुए प्रशासन निश्चय करता था कि उस वर्ष देश में कितने लड़के होने चाहिए और कितनी लड़कियाँ। बच्चे लगभग 50 साल की उम्र तक अपने माँ-बाप के साथ रहते थे। तब तक उन्हें कोई कार्य नहीं करना पड़ता था। 50 साल बाद प्रशासन उन्हें अलग घरों में साथी के साथ बसा देता था और उन्हें देश के लिए किसी न किसी विभाग में कार्य करना पड़ता था।
घर में जीवन साथी का होना अनिवार्य था। जीवन साथी भी प्रशासन ही चुनता था। पति या पत्नी के चयन में व्यक्ति की रुचि या अरुचि का कोई सवाल नहीं था। विवाह का व्यक्ति के जीवन से कोई संबंध नहीं था, विवाह समाज के हित में होता था। यह भी तो बात थी कि नवभारत में एक दूसरे से संबंध प्रेम, घृणा आदि भावनाओं पर आधारित नहीं था। संबंधों का पहला और प्रमुख आधार था आवश्यकता और उसकी पूर्ति। इसीलिए व्यक्ति के कार्य और भूमिका का महत्त्व था, उसके व्यक्तित्व का नहीं। आम तौर पर पति-पत्नी का संबंध जीवन भर का साथ होता था। लेकिन किन्हीं कारणों से, आवश्यकता पड़ने पर प्रशासन एक साथी को हटाकर दूसरे साथी की व्यवस्था कर सकता था। इस परिवर्तन से किसी को कोई दुख नहीं होता था, क्योंकि लोग लगाव या किसी भावना के बिना साथ रहने के आदी थे।
संगणक ने लोगों के जीवन का पूर्ण प्रबंध कर रखा था। जीवन की हर आवश्यकता की पूर्ति संगणक द्वारा या उसकी देखरेख में होती थी और जीवन के समस्त कार्यकलाप संगणक केंद्र द्वारा नियंत्रित होते थे। देश में लोगों का जन्म-मरण, लालन-पालन भोजन वस्त्रादि की आवश्कताएँ, भवन निर्माण तथा भवनों की देखरेख शिक्षा इन सारी बातों का नियंत्रण संगणक संचालित करता था। संगणक ही लोगों को खुराक तथा आवश्यकता के अनुसार दवाइयाँ आदि देता था। वह नियमित रूप से लोगों का स्वास्थ परीक्षण करता था। और खुराक की मात्रा घोषित करता था। उसके बताये निर्देशों के अनुसार लोग आवश्यक सामगी की माँग करते थे। संगणक के साथ लगी नली से ख़ुराक की गोलियाँ प्राप्त हो जाती थीं।
संगणक लोगों के मानसिक विकास के लिए घर में कई सत्रों का आयोजन करता था। वही बच्चों के लिए शिक्षा का साधन था, बच्चों को शिक्षा देता था। शिक्षा सत्र में बच्चे विविध विषयों की जानकारी प्राप्त करते थे। वे अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विषय में आगे बढ़ सकते थे। बड़े बच्चों की प्रगति और आवश्यकता के अनुसार संगणक उन्हें उच्च अध्ययन की दिशा सुझाता था। इस तरह वे वयस्क होते-होते किन्हीं क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे और देश के योग्य नागरिक बनते थे। सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं, उन्हें जीवन मूल्यों की भी जानकारी दी जाती थी, जिससे वे उस उन्नत समाज के योग्य सदस्य भी बन सकें। बड़े लोगों के लिए संगणक के साथ चिंतन सत्र की व्यवस्था थी। इन सत्रों में लोग संगणक से अपनी समस्याओं का समाधान माँग सकते थे, शंकाओं निवारण हेतु सलाह ले सकते थे। देश की नीति और व्यवस्था के विरुद्ध सवालों को छोड़कर संगणक सभी सवालों का जवाब देता था। इसी तरह अन्य कई उपयोगी सत्र थे-मनोरंजन सत्र, घृणा सत्र, यौन तुष्टि सत्र आदि, जो नियत समय पर होते थे। लोगों का इन सत्रों में भाग लेना अनिवार्य था।
इन सत्रों में संगणक सही व्यवहार के तरीके सूचित करता था। लोगों के लिए इन हिदायतों के अनुसार कार्य करना आवश्यक था। व्यवहार में चूक होने पर संगणक उन्हें प्रताड़ित भी करता था। लोग संगणक के दंड से बहुत घबराते थे, क्योंकि उसकी प्रताड़ना का मतलब था प्रशासन का व्यक्ति से रुष्ट हो जाना। प्रशासन जिससे रुष्ट हो जाता था, उस व्यक्ति को अपनी जगह से हटाकर कहीं दूसरी जगह भेज देता था। फिर उस व्यक्ति के बारे में कभी कोई ख़बर ही नहीं मिलती थी। लोग यह भी नहीं जान पाते थे कि उसका क्या हुआ। लेकिन ऐसी नौबत कम ही आती थी। लोगों की शिक्षा ही कुछ ऐसी थी कि लोग प्रशासन की विचारधारा के ख़िलाफ़ कुछ सोच नहीं सकते थे। नवभारत उस युग के चार देशों में एक था। कह भी सकते हैं कि चारों में प्रमुख था। पूरा देश एक गुंबद के अंदर था, जो काँच जैसी पारदर्शी वस्तु से बना था। देश के लोग गुंबद के भीतर आकाश का निरीयण कर सकते थे। सूरज, चाँद, तारे सभी व्योम मंडल में देखे जा सकते थे। लेकिन गुंबद के अंदर भूरे रंग के मकानों की लंबी श्रृंखला थी, मकानों के बीच सँकरी सी, लंबी दीर्घाएँ थीं, जिनमें कहीं कुछ चलता नज़र नहीं आता था। इन गलियारो का उपयोग संगणक के तारे बिछाने, लोगों को अन्न पहुँचाने वाली नलियों को दीवारों की आड़ में लगाने के काम में किया जाता था। पूरे देश में कहीं कोई प्राणी नहीं दिखायी पड़ता था; न कहीं कोई पेड़-पौधा न जमीन पर कहीं घास की हरियाली। यहाँ तक कि देश में हवा भी नहीं आती थी। लगता था जैसे यान जो दीवारों पर बड़ी द्रुत गति से चलते दिखायी पड़ते थे।
देश में लोगों को कहीं आने-जाने की आवश्यकता ही नहीं थी। बच्चे कभी घर से बाहर नहीं निकलते थे। इसी तरह बूढ़े भी कभी घर से या विश्रामलय से बाहर नहीं निकलते थे। बहुत से व्यक्ति प्रशासन का कार्य अपने घरों में बैठे ही करते थे। निकलना पड़ता था, केवल कुछ कार्यालयों में काम करने वाले कुछ लोगों को। वे भी सवेरे यान से दफ्तर जाते और शाम को घर लौट आते। इसके बाद उन्हें कहीं आना-जाना न पड़ता। यही नहीं, कहीं आना-जाना वर्जित भी था। लोगों से मिलने-मिलाने के लिए लोग साल में सिर्फ़ तीन बार यानों का प्रयोग कर सकते थे। यान दीवारों पर चलते थे। नीचे ऊपर की दिशा में और गंतव्य दोनों संगणक के नियंत्रण के अधीन थे। अन्य स्थितियों में यान प्राप्त करना संभव ही नहीं था। कुछ वरिष्ठ अधिकारी आपत्तिकालीन वाहन की माँग कर सकते थे। शेष व्यक्ति पूर्वनिर्धारित व्यवस्था के अनुसार ही यान का प्रयोग कर सकते थे।
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लोगों की राय
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