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त्राहि-त्राहि - समग्र व्यंग्य 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :654
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2995
आईएसबीएन :81-7055-585-x

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नरेन्द्र कोहली का समग्र व्यंग्य का दूसरा भाग

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Trahi-Trahi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनासक्त विवेक जब न्याय के पक्ष में अपने आक्रोश को कलात्मक रूप में अभिव्यक्त करता है, तो व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्य की आत्मा है, उसकी प्रखरता और तेजस्विता। हास-परिहास विनोद, कटाक्ष इत्यादि उसके सहयोगी हो सकते हैं किन्तु उसका असंतुलित प्रयोग उसकी प्रखरता की हानि भी कर सकता है, जैसे पक्षपात तथा पूर्वाग्रह उसके तेज को नष्ट कर देता है।

विधा के रूप में व्यंग्य का केन्द्रीय स्वरूप यद्यपि व्यंग्य निबंध के शिल्प में ही उभरा है किन्तु कथा तथा काव्य के ही समान व्यंग्य एक ऐसा तत्त्व हैं, जिसमें व्यंग्य-निबंध, व्यंग्य-कथा, व्यंग्य-उपन्यास तथा व्यंग्य-नाटक का जन्म होता है।
नरेन्द्र कोहली के सृजन में कथा तथा व्यंग्य दोनों का ही संयोग है। उसकी आरंभिक कहानियों में भी व्यंग्य की झलक देखी जा सकती हैं किन्तु इस संकलन में केवल वे ही रचनाएँ सम्मिलित की गई है, जो व्यंग्य के रूप में लिखी गई हैं-उनका शिल्प चाहे निबंध का हो, उपन्यास का हो, कथा का हो, आत्मकथा का हो, उपन्यास का हो, नाटक का हो। उनकी रचनाओं में मौलिक प्रयोगों का अपना महत्त्व है। वे प्रयोग फंतासी तथा अवश्रद्ध कथा-रूपों में भी हो सकते हैं।

 

त्रासदी एक कामना की

पिछले महीने कालेज के ‘विशाल-परिषद’ के लिए ‘वे’ संसद सदस्य को पकड़ लाये थे। संसद सदस्य साहब ने ‘विज्ञान-परिषद’ का उदघाटन तो किया है, साथ विज्ञान के मूल स्वरूप का भी उदघाटन कर डाला। उन्होंने बताया - ‘‘विज्ञान वह है, जिसने एक चीज बनाई है जिसका नाम बिजली है। बिजली से बहुत बड़े-बड़े काम होते है....’’
लड़कों को जब लगा कि यह विज्ञान-परिषद का उदघाटन न होकर बिजली चालित को बनाने वाली किसी फर्म का विज्ञापन है, तो उन्होंने शोर मचाना आरंभ कर दिया ‘वे’ उठ खडे़ हुए बोले ‘‘अप्पी साहब को बोलने दीजिए। वे आपको बड़ी अच्छी बातें बताएंगे।’’ अर्थात बुरी बातें स्वयं तक ही सीमित रखेंगे)।
‘एप्पी’ चले गये और ‘वे’ उदास हो गये।

‘‘आप क्यों उदास हैं मैंने पूछा ?, ‘‘नहीं सुना गया तो एम० पी० का भाषण नहीं सुना गया। संसद में भी उनकी कोई नहीं सुनता। आपकी बात तो फिर भी लड़के क्लास में सुन लेंगे।’’
‘‘मेरा तो इम्प्रेशन खराब हो गया है न !
‘वे’ उदास ही रहे। कई दिनों तक उदासी-ही खाते-पीते ओढ़ते-बिछाते रहे मुझे किसी ने बताया कि उनकी उदासी का कारण युवा-लेखक के समान जेनुइन है। लड़कों के हुल्लड़ ने, निकट भविष्य नें उनके घर लगने वाले टेलीफोन के तार काट दिए थे। भाषण के लिए कालेज की ओर आते समय ‘अम्पी’ उनके घर टेलीफोन लगवाने के लिए संस्तुति-पत्र टाइपिस्ट को देकर आए थे, पर हुल्ल्ड़ के पश्चात् लौटकर उन्होंने उस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था।

पर ‘वे’ उदास रहकर भी जानते थे कि कालेज की एकमात्र संस्था ‘विज्ञान-परिषद ही नहीं थी। उन्होंने तुलसी-जयंती के अवसर पर ‘एम्पी’ को बुला लाने का अपना स्थायी प्रस्ताव दुहरा दिया।
‘‘तुलसी-जयंती जैसे साहित्यिक उत्सव में उस अनपढ़ एम० पी० का क्या काम ?’’ मैंने पूछ लिया।

‘‘काम ‘एम्पी’ का नहीं, काम तो मेरा है।’’ वे’ बोले।
उनकी ‘चातक-रट’ को सुनकर, उनके काम में मैं कैसे बाधा दे सकता था। मैं उनका सम्मानित सहकर्मी होने के कारण बाध्य शोर मचाकर उनके तार काट सकते थे, पर मैं लड़का था। मैं देख रहा था, वे कालेज का पैसा अपने घर टेलीफोन लगवाने में खर्च कर रहे थे, पर शऱीफ आदमी की हैसियत से इन टुच्ची और छिछली बातों की ओर से मेरी आँखें बन्द थीं।
‘तुलसी जयंती’ पर ‘एम्पी’ आए। उन्हें फूलमालाएँ थोक के भाव पहनाई गईं। देश में प्रचलित, भगवान की प्रसिद्ध आरतियाँ तनिक संशोधन के साथ ‘एम्पी’ के लिए गायी गई; और उसने तुलसीदीस के विषय में ‘दो शब्द’ कहने का निवेदन किया गया। जो कुछ कहने को था, वह तो ‘एम्पी’ के विषय में कह दिया गया, निश्चित रूप से तुलसी के लिए ‘दो शब्द’ ही नहीं बचे थे।

‘एम्पी’ उठे। बोले, ‘‘वे जो टेलीफोन की एप्लिकेशन लेकर आए थे, उन्होंने मुझे बताया था कि आप मेरा अभिन्नदन करना चाहते हैं, क्योंकि आज मेरा हैप्पी बर्थडे है। पर लगता है, आप तुलसीदास की जयंती मना रहे हैं। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि हमारे देश में साहित्यिक पात्रों को भी इतना मान दिया जाता है। निराला जी मेरे घनिष्ठ मित्र रहे हैं। मुझे किसी ने बताया था कि निराला जी ने ‘तुलसीदास’ नामक एक पोथी लिखी है, जिसके हीरो तुलसीदास हैं। तो आप उनकी जयंती...।’’
लड़कों ने फिर शोर मचा दिया। लड़के तो लड़के ही हैं; चाहे विज्ञान-परिषद’ के नाम पर एकत्र हुए हों या ‘तुलसी-जयंती’ के नाम पर। शोर में ‘एम्पी’ बोल नहीं सके और ‘वे’ टेलीफोन के जुड़ते तारों के पुनः कट जाने पर भयंकर रूप से उदास हो गए।
फोटोग्राफिक क्लब की वार्षिक प्रदर्शनी पर ‘वे’ फिर एक ‘एम्पी’ को पकड़ लाए।
मैंने पूछा, ‘‘इनका भाषण करवाओगे ?’’
‘वे’ बोले ‘‘नहीं। इनके साथ अपनी फोटो खिचवाऊँगा।’’

‘‘इनको फोटोग्रफी की पहचान है ?’’
‘वे’ बोले, ‘‘किसको नहीं होती। किसी फोटोग्राफ में अपने आप को कौन नहीं पहचानता। हमारा मुनुआ भी पहचान लेता है। और अभी कुल मिलाकर छः बरस का है।’’ वे कुछ भेदभरी आवाज में बोले, ‘‘इन ‘एम्पी की एक विशेषता और भी है। ये दूसरे एम्पियों से भिन्न है। ये चित्र में अपने साथ खड़े व्यक्ति को भी पहचान लेते है भाषण वाले प्रोग्राम में बड़ा घपला रहता है। लड़के हर बार मेरे तार काट देते है। पता नहीं क्यों मेरे साथ वैर पाल रहे हैं ! वैसे एक बात है कोहली साहब ! मैंने इस विषय में थोड़ी-सी रिसर्च भी की है। आपने कभी ध्यान नहीं दिया कि हर देश में हर काल में, जब कभी गड़बड़ हुई लड़कों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ीं, टेलाफोन के तार काटे पता नहीं इन लोगों को टेलीफोन से इतना वैर क्यों है ?’’..मैं दो निष्कर्षों पर पहुँचा हूँ एक यह कि टेलीफोन बड़ी मेच्योर चीज है, क्योंकि इम्मेच्योर लड़के उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते; और दूसरी बात यह टेलीफोन अहिंसक और शांतिप्रिय चीज है, क्योंकि हिंसा और गड़बड़ के होते हुए बेचारा कट जाता है।’’

प्रदर्शनी शांतिपूर्वक समाप्त हो गयी। ‘एम्मी’ जाते-जाते एक फोटोग्राफ को एक विशेष पुरस्कार दे गए। उस फोटोग्राफ की विशेषता यह थी कि उसमें जो लड़का था, उसने गांधी-टोपी पहन रखी थी। एम्पी को युवा पीढ़ी के सिर यह टोपी देखकर हार्दिक प्रसन्न्ता हुई थी।
‘वे’ फिर सफल हो जाए। उन्होंने प्रिंसिपल को मना लिया और कालेज के वार्षिक खेलकूद पर अध्यक्षता करने के लिए एक ‘एम्पी’ मैंने पूछा ।
‘‘ये फुटबाल-जैसे दीखते है।’’ ‘वे’ बोले, ‘‘आप हर चीज का सम्बन्ध क्यों पूछते रहते हैं ? सम्बन्ध जो है, वह मैं जानता हूँ।’’
सम्बन्ध तो खैर मैं भी जानता था, पर पूछने पर कोई टैक्स तो नहीं। मास्टर लोग क्लास में लड़कों से पूछते रहते हैं। संसद मन्त्रियों से पूछते रहते है, पूछने में क्या हर्ज है ?
‘उनकी’ जिह्या ने चाहे ‘एम्पी’ को फुटबाल-जैसा बताया था; पर मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उनके अन्तचश्क्षुओं को ‘एम्पी’ टेलीफोन एक्सचेंज ही देख रहे होंगे। ..... पर इस टेलीफोन एक्सचेंज से भी उनके, घर तक तार जुड़े नहीं, पता नहीं, यह ‘एम्पी’ किस कारण नाराज हो गए।

यहाँ से ‘उनके’ जीवन में वैसा ही एक अदभुत मोड़ आरंभ हुआ जैसा पुराण-पुरुषों के जीवन में कनपटी पर श्वेत बाल आ जाने पर तथा फिल्मी नायकों के जीवन में इंटरवल के बाद आरंभ होता है। उन्होंने कालेज में ‘अम्पियों को लाना छोड़ दिया। उनका अधिकाश ध्यान अपनी वेषभूषा पर केंन्द्रित होने लगा। पहले उन्होंने टाई का त्याग किया। कमीज-पतलून की जगह चूड़ीदार कुरता पहनना आरंभ किया। वास्कट पहनने लगे। हाथ में चमड़े का बैग भी लटकाने लगे। खासे ‘आफिशियल’ आदमी लगने लगे थे।
मैं पूछ बैठा, ‘‘इधर बहुत दिनों से कालेज में कोई एम्पी’ को नहीं लाए ?’’
‘’अब आवश्यकता नहीं रही।
‘‘क्यों ?’’

‘‘मैं ‘एम्पी’ फ्लैट्स में शिफ्ट कर गया हूँ न। अब वहीं उन लोगों से भेंट हो जाती है।’’
मैं चकरा गया उन्होंने तो टेलीफोन के स्थान पर एम्पी फ्लैट पर ही हाथ मार दिया। उस फ्लैट में टेलीफोन तो होगा-ही होगा। जिज्ञासा मुझे हुई तो कुछ और लोगों को भी हुई होगी।
यार लोगों ने पता लगाया कि वे किसी एम० पी० के आउट हाउस में शिफ्ट कर गये थे। उस फ्लैट के साथ लगी जमीन में आलू-पालक उगाते और उन्हीं सब्जियों की डालियाँ पहुँचाकर ‘एम्पी को प्रसन्न कर देते थे। पता नहीं मियां यह समझ रहे थे कि नहीं, कि उन्हीं की जूती उन्हीं के सिर पर बज रही है। साथ ही साथ ‘वे’ एम्पी के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ‘एम्पी की अगली पीढ़ी को एम्पी बनाने से वंचित कर रहे थे।
इन दिनों ‘उन्हें’ अपने स्वास्थ्य का भी बहुत ध्यान रहने लगा था। आजकल रोज सवेरे सैर करने जाते थे और सड़क पर टहलते हुए मिलने वाले प्रत्येक ‘एम्पी’ –नुमा व्यक्ति को तो सलाम करते ही थे, उनके नौकरों, बावर्चियों तथा मालिकों तक को भी नहीं बख्शते थे।

‘‘क्या इतना कुछ एक टेलीफेन के लिए कर रहा है?’’ मैंने उनके एक जानकार से पूछा।
‘नहीं।’’ जानकार ने बताया, टेलीफोन का विचार उन्होंने छोड़ दिया है आउट हाउस में टेलीफोन नहीं लग सकता।’’
‘‘तो यह सब किसलिए है ?’’
‘‘ऊँची चाल है।’’ जानकार बोला, ‘वे’ ‘एम्पी’-कोटे में से स्कूटर लेने के चक्कर में हैं।’’


त्रासदी कहने वाले की

बहुत सोच-विचार और माथापच्ची के बाद विज्ञापन का बोर्ड तैयार हो पाया था। फिर भी मिल के प्रचार-विभाग का चित्रकार जो चाहता था, चित्रित नहीं कर पाया था। वह चाहता था कि चित्र में अपनी प्रेमिका को, अपने मिल के बने हुए कपड़े पहने हुए दिखाए। इसमें मिल का विद्यापन तो होगा ही, साथ ही अपनी प्रेमिका का सुन्दर-सा चित्र बनाने और उसे दिल्ली के सबसे बड़े चौराहे पर प्रतिष्ठित करने की अपनी इच्छा भी पूरा कर पाएगा। किंतु उसके मैंनेजर ने उसे अपने मन का नहीं करने दी थी। मैनेजर का विचार था कि दिल्ली की सड़कों पर इतनी सुन्दरियाँ खुलेआम घूमती है कि सुन्दरी को एक विद्यापन में देखने के लिए कोई देहाती भी एक क्षण को नहीं रुकेगा। मैनेजर चाहता था कि कोई बहुत ही आकर्षण चित्र बने ऐसा कि चलता आदमी तो रुक ही जाए; लोग अपने मित्रों को अपनी कारों में भर-भर कर लाए और पोस्टर दिखाएँ। प्रचार अधिकारी का विचार था कि ऐसा तो तभी होगा जब उस लड़की के साथ एक लड़का भी बनाया जाए। उसने भी उन्हीं की मिल के बने हुए कपड़े पहने हो। और लड़की लगभग लड़के की गोद में बैठी हो। चित्रकार को उनके विचार सुनकर बहुत बुरा लगा था। उसने अपने मन में तभी तय कर लिया था कि अब वह उस लड़की का चेहरा अपनी प्रेमिका के समान बनाकर, मैनेजर की पत्नी के समान बनाएगा।

मैनेजर और प्रचार-अधिकारी की बातचीत और आगे बढ़ी थी और वे लोग निष्कर्षों पर सहमत हो गये थे। पहला निष्कर्ष यह था कि उन लोगों ने सूटों कपड़ा बनाने वाली मिल चलाकर, विज्ञापन की दृष्टि से बहुत बड़ी भूल की है। उन्हें तो भीतरी कपड़े बनाने की मिल चलानी चाहिए थी; और दूसरा नगर निगम की, अश्लील विज्ञापनों की रोकथाम की नीति के विषय में था। उनका हार्दिक मत था कि नगर-निगम नंगे विज्ञापनों का निषेध कर विज्ञापन दाताओं की धार्मिक स्वतन्त्रता पर रोक लगा रहा है। विज्ञापनकर्ता आलिंगन, चुम्बन या उसके आगे की प्रक्रिया न दिखाएँ तो फिर विज्ञापन का ही क्या अर्थ ?

अंत में विज्ञापन का एक नमूना तैयार हुआ एक लड़का का और लड़की ही बनाए गए। दोनों ने उसी मिल के बने हुए कपड़े के सूट पहन रखे थे। दोनों अत्यन्त निकट खड़े थे। दोनों ने मिलकर अपने हाथों में एक साफ्टी आइसक्रीम पक़ड़ रखी थी और दोनों के होंठ आइसक्रीम को छू रहे थे। यह आइसक्रीम के माध्यम से लिया गया चुंबन था।
मैनेजर, प्रचार अधिकारी और चित्रकार–तीनों ही बहुत ही बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने नगर-निगम तथा अन्य विभागों के अधिकारियों की समस्त सावधानियों को अंगूठा दिखा दिया था और अब वे इस विज्ञापन को चौराहे पर प्रतिष्ठित करने जा रहे थे।



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