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समग्र कहानियाँ - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :318
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2998
आईएसबीएन :068-228-56

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कोहली जी की समग्र कहानियों का दूसरा भाग...

Samagra Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शालिग्राम

हम दोनों-मैं और रीमा-अभी-अभी मिसेज़ शर्मा से मिलकर लौटे थे।
जब हम गए थे तो वह अकेली नहीं थीं। बाहर लान में ही चारपाई बिछाकर बैठी हुई थीं। उनके आस-पास ऊन की गुच्छियाँ, कुछ बुने–अधबुने स्वेटर कुछ पैटर्न बुक्स और दूसरी पत्रिकाएं बिखरी पड़ी थीं।
तीन कुर्सियों पर तीन संभ्रान्त महिलाएं बैठी थीं। उनके मध्य में एक तिपाई पड़ी थी जिस पर चाय के खाली कप पड़े थे। साथ में एक फुल-प्लेट थी। जिसमें थोड़ा-सा चिउड़ा और मूंगफली के दानों का मिक्सचर पड़ा हुआ था। वह पूरी प्लेट में इस प्रकार बिखरा हुआ था जैसे खानेवाले हाथों में से छूट-छूटकर गिरा हो। शुरू में प्लेट अवश्य भरी हुई होगी। पर वही बचा था जो उँगलियों से उठाया न जा सका हो।

दूसरी ओर एक छोटी मेज पर स्वेटर बुनने की जापानी मशीन पर एक लड़की काम कर रही थी । और सारे लान में बिखरे-बिखरे कुछ बच्चे खेल रहे थे कि मि० शर्मा की छोटी लड़की पल्लव भी उनमें थी। शेष बच्चे या तो वहाँ बैठी हुई उन संभ्रान्त महिलाओं के थे, या आस-पड़ोस से आए हुए होंगे।

यह दृश्य हमारे लिए नया नहीं था। मेरी कल्पना में तो यह दृश्य मि० शर्मा के इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि उनसे पृथक कर उन्हें देखा भी नहीं जा सकता।

सर्दियों के दिनों में धूप निकलने के पश्चात से वे बहुधा इसी प्रकार चारपाई निकालकर बाहर बैठा करती हैं। उनके साथ-साथ उनकी बुनाई की मशीन, ऊन के विभिन्न रंगों के गोले और पत्रिकाएं अवश्य होती हैं। यदि उनकी छोटी लड़की पल्लव स्कूल न गयी हो तो वह भी आस-पास ही होती है। उसके खिलौने चारपाई पर बिखरे होते हैं और वह हर पाँच मिनट बाद कोई-न-कोई फरमाइश लेकर आती है, ‘‘अम्मी ...’’
बुनाई की मशीन पर काम करती हुई इस लड़की को भी मैं बहुत दिनों से देखता आ रहा हूं। पहले-जब मि० शर्मा के पास यह मशीन नहीं थी- तब भी वह उनके आस-पास ही कहीं बैठी हुई सलाइयों पर कुछ-न-कुछ बुन रही होती थी।

वह हास्टल के पिछवाड़े में बने हुए नौकर-घरों में से किसी एक में रहती है। किसकी बेटी है-मैं नहीं जानता। जानने की चेष्टा ही नहीं की। पर उसे मैंने हमेशा मि० शर्मा के पास ही देखा है।

पहले वह उनके पास बैठी स्वेटर बुनना इत्यादि सीखा करती थी। घर का छोटा-मोटा काम कर दिया करती थी। और फिर धीरे-धीरे मि० शर्मा के माध्यम से उसे स्वेटर बुनने का काम मिलने लगा था। घर का काम उसने छो़ड़ दिया था। स्वेटर बुनने का ही ढेरों काम उसे मिल जाता था। शायद छह आने औंस के हिसाब से वह स्वेटर बुना करती थी तब।
फिर मि० शर्मा ने यह जापानी मशीन मंगवाई थी। पहले वह उस पर स्वयं सीखती रही थीं और वह लड़की उनको कभी ऊन पकड़ाती, कभी पैटर्न बुक, कभी क्रोशिया और कभी....
धीरे-धीरे वह स्वयं मशीन पर काम करना सीखने लगी और मि० शर्मा उसे सिखाती रहीं। अब मशीन पर वही काम करती थी। मि० शर्मा कभी-कभी ही मशीन पर बैठती थीं।
उनके पास कुरसियों पर बैठी संभ्रांत महिलाओं को मैं नहीं जानता था। पास पहुँचने पर, हमारा स्वागत करने के पश्चात् मि० शर्मा ने उनसे हमारा परिचय करवाया था-यह हमारे बेटे वीरेन्द्र ! पहले यहां पढ़ते थे, अब पढ़ाते हैं। फिर उन्होंने रीमा को अपनी बाहों में लेकर उसका परिचय दिया-यह रीमा। हमारा बेटी भी है और बहू भी। यह भी पढ़ाती हैं।

उन्होंने रीमा का परिचय थोड़ा बदल दिया था।
मुझे अच्छी तरह याद है कि वह कहा करती थीं-यह हमारे बेटे वीरेन्द्र। और यह हमारी बेटी रीमा।
एक बार मैंने ही हँसते हुए आपत्ति की थी-यदि मैं आपका बेटा हूँ तो रीमा आपकी बहू होगी। अगर आपकी बेटी है तो हम भाई-बहन बन जाएँगे और मुझे यह स्वीकार नहीं है।
यह बात शायद मैंने अपनी शादी से पहले कही थी- रीमा झेप गयी थी।  
रीमा का परिचय उन्होंने बदल लिया था। पर मेरा  वही था।

मैंने पहले दिन से ही उन्हें मि० शर्मा के रूप में जाना था। आज भी उनके लिए मैं और किसी संबोधन को अपना नहीं सका हूँ, इसलिए या तो संबोधन से ही कतरा जाता हूँ या फिर मि० शर्मा कहने की लाचारी को स्वीकार कर लेता हूं।

रीमा ने पहले ही दिन उन्हें आंटी कहना शुरू कर दिया था और आज भी मजे से कहे जाती है।
उन्होंने उन तीन महिलाओं का भी परिचय कराया, पर मैंने उन्हें जानने की चेष्टा की। इस प्रकार बहुत-से लोगों के साथ मि० शर्मा के यहाँ भेंट हो जाती है। बाद में कोई मिलता नहीं। किस-किसको कोई याद रखे !
और फिर मैं उनसे मिलने को आया नहीं था। इस प्रकार मिलने वालों को बहुधा मैं भूल जाया करता  हूँ।

परिचय तथा अन्य औपचारिक बातों के पश्चात हम दोनों बैठ गए थे। हमारे लिए भी कुरसियाँ मंगवा दी गयी थीं। मैं अपनी कुर्सी एक ओर कर, अमरूद के पेड़ के तने के साथ लगकर बैठ गया था।
 
अमरूद का यह पेड़ काफी पुराना है-इतना पुराना जितना पुराना इस घर में मैं हूँ; बल्कि मुझसे कुछ अधिक पुराना ही। क्योंकि जब मैं पहली बार आया था, तब यह पेड़ एक ऐसा पौधा था जो पेड़ो के देश के दरवाजे तक पहुँच चुका था। तब तक कोई फल नहीं लगा था। इसमें पहली बार फल मेरे आने के बाद ही लगे थे।
वैसे मि० शर्मा के लान में यह पेड़ बहुत महत्वपूर्ण रहा है।
जब कभी सर्दियों में वह बाहर धूप में बैठती और धूप कुछ तेज लगने लगती तो वह सूर्य की ओर पीठ कर  लेती थीं। धूप तपाने ही लगे तो सिर पर साड़ी के पल्लू की ओट कर लेतीं। और जब धूप बर्छियों-सी तीखी चुभने देने लगती तो इस पेड़ की ओट हो जाया करतीं।
मुझे याद है जब पल्लव का जन्म दिन मनाया गया था तो भी खाने के लिए मेजें इसी पेड़ के चारों ओर लगी थीं। जितनी देर लोग आते-जाते रहे थे, इस पेड़ की परिक्रमा होती रही थी। उस दिन इस पेड़ को सजाया भी तो बहुत गया था।
 
होली के हुड़दंग के पश्चात भी तो हम इसी पेड़ के नीचे बैठ जाया करते थे-और जब तक शर्मा साहब हमें कोई अच्छी चीज खाने को नहीं देते थे तब तक हम जमकर बैठे रहते थे। उन दिनों मेरा कोई महत्व नहीं था। निरीह-सा अनजान-अनचीन्हा मैं पीछे होकर बैठा रहता। पर ऐसे अवसरों पर शर्मा साहब के घर जाता जरूर था। सोचता-हास्टल में रहना है तो होली के मौके पर और लड़कों के समान वार्डन साहब के घर जरूर जाना चाहिए, न गया और वह बुरा मान गये, तो ?
एक बार और भी अमरूद का पेड़ महत्त्वपूर्ण हो उठा था। तब हमने वेदांत के भक्त विशाल जैन का मजाक उड़ाने के लिए उनके सामने स्वामी विवेकानंद का बर्थ-डे मनाने का विचार रखा था और वह तुरंत मान गया था। हमने सुझाया था कि विशाल के कमरे में ही वह बर्थ-डे मनाएँगे। कमरे को गुब्बारों से सजाएँगे। स्वामीजी का बर्थ-डे केक काटेंगे और गाएंगे-हैप्पी बर्थ-डे टू यू स्वामी विवेकानन्द ....और यह सब होगा श्री विशाल जैन के खर्च पर।

पर विशाल जैन शायद सारा खर्च करने को तैयार नहीं हुआ था। हमें लगा कि कहीं सारा तमाशा ही ठप्प न हो जाए, इसलिए सबने थोड़े पैसे देने स्वीकार कर लिए थे।
फिर तो बड़ा समारोह हुआ। मैं और विशाल रामकृष्ण मिशन गए। वहाँ से स्वामी विवेकानन्द की एक तसवीर, मोमबत्तियाँ खरीदीं और शाम को थक-हार कर हास्टल लौटे।
कुछ लोगों ने यह भी कहा कि हास्टल में ऐसा फंक्सन हो, वार्डन साहब उसमें न आएं-यह तो बुरी बात है।
यह बात मुझे भी जंची थी।
मैं और विशाल दोनों ही गए थे। शर्मा साहब को सपरिवार आमंत्रित करने। शर्मा साहब अनमने ढंग से यह तो मान गए कि आ जाएंगे पर मि० शर्मा को हास्टल में जाने की अनुमति वह कैसे दे सकते थे, जबकि हास्टल में स्त्रियों का प्रवेश ही निषिद्ध था।  पर हम इसे कैसे स्वीकार करते ? मैं तो इसके लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था।
शर्मा साहब वार्डन थे। वैसे भी हमारे अध्यापक थे। स्थान पद और आयु से हमारे अभिभावक या पिता के स्थान पर थे। मि० शर्मा हमारी मां के समान थीं। फिर यह कैसे हो सकता था कि वह हमारे फंक्शन में न आएं। केवल एक सामान्य नियम के कारण।
हम अड़ गए कि मि० शर्मा के बिना यह फंक्शन ही नहीं होगा। यदि वह विशाल के कमरे में नहीं आएँगी तो हम फंक्शन को ही उनके घर में ले आएंगे।
शर्मा साहब को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। और हम अपना सामान उठाकर शर्मा साहब के घर पर आ गये  थे।

पर बातों का रुख बदल गया था।
शर्मा साहब और मिसेज शर्मा फंक्शन में सम्मिलित हो गये थे। फिर उनके सामने न तो हम स्वामी का मजाक उड़ा सकते थे न विशाल जैन का। फिर हर चीज बड़े गरिमायुक्त ढंग से हुई। मोमबत्तियों की जगह मिसेज़ शर्मा ने पीतल के दीपक जलाए। ‘हैप्पी बर्थ डे ...... के स्थान पर संस्कृति के श्लोक पढ़े गये और कुछेक व्याख्यान भी हुए।
 फंक्शन की भी प्रशंसा हुई-उसकी व्यवस्था करने वालों की भी, और स्पिरिट की भी।.....और हास्टल में वेदांत समिति बनते-बनते रह गयी, बन जाती तो विशाल उसका प्रधान बनता और मैं सचिव.......
मेरे एलबम के अन्तिम पृष्ठ पर एक समूह चित्र भी लगा हुआ है जो इसी लान में खींचा गया है। उस चित्र की पृष्ठभूमि में वही अमरूद का पेड़ दिखाई पड़  रहा है।

मेरे एलबम के अन्तिम पृष्ठ पर है, इसका अर्थ है कि  वह बहुत पुराना नहीं है। यह तब का है जब मैं एम०ए के अन्तिम वर्ष में था सन् 1962 या सन् 1963 के आरंभ का। पूरी तरह से कुछ याद नहीं है। 1962 में भारत की उत्तरी और पूर्वी सीमा पर चीनियों का आक्रमण हुआ था। असम की सीमा तक आ गये  थे चीनी। हमारे हास्टल के स्वामी लड़के बहुत घबरा गये थे।
कुछेक की तबीयत भी खराब हो गयी थी। वे लोग असम के संसद सदस्यों से भी मिलने गये थे। शायद प्रधानमंत्री से मिले थे।
तब प्रधानमंत्री का अर्थ था केवल जवाहरलाल नेहरू ! क्योंकि भारत के इतिहास में दूसरा कोई प्रधानमंत्री हुआ ही नहीं था। इन लड़कों ने आकर बताया था—प्रधानमंत्री ने कहा है कि हमें खेद है कि हम असम को नहीं बचा सकेंगे। पता नहीं उन्होंने सच कहा था या.....
  दिल्ली में आए इन असमी लड़कों की बात मुझे बिलकुल पसंद नहीं थी। जरा-सी बात हुई और उठकर चल दिए अपने संसद सदस्यों से मिलने......

तो भी एक नाटक हुआ था हमारे कॉलेज में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए !

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