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कविता मनुष्यों के लिए

मंगेश पाडगाँवकर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3001
आईएसबीएन :81-263-1262-9

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मराठी के शीर्षस्थ कवि मंगेश पाडगाँवकर के कविता-संग्रह 'कविता माणसांच्या माणसासाठी' की इकसठ कविताओं का हिन्दी रूपान्तर।

kavita manushyon ke liye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मराठी के शीर्षस्थ कवि मंगेश पाडगाँवकर के कविता-संग्रह ‘कविता माणसांच्या, माणसासाठी की इकसठ कविताओं का रूपान्तर है-‘कविता मनुष्यों के लिए’। पाडगाँवर ने अपनी इन कविताओं में व्यक्ति और उनसे सम्बद्ध चराचर जगत के विभिन्न रूपों और भावावस्थाओं को वाणी दी है। शब्द की गहरी पहचान और सूक्ष्म संवेदनात्मक अनुभव को मूर्त रूप देने वाली समुचित बिम्ब-योजना एवं अर्थ के गहरे संकेत देने वाली प्रतीकात्मकता पाडगाँवकर की कविता की विशेषता है।
मंगेश पाडगाँवकर की कविता जीवन, परिवेश और समय से तथा समाज और निचले तबके की वेदना से अपना भावात्मक रिश्ता जोड़ती है। उनकी कविता में कहीं विलक्षण ढंग की नाट्यात्मकता है तो कहीं व्यंग्य के साथ एक अजीब प्रकार का हास्य भी। संग्रह की अनेक कविताओं में पंचतन्त्र एवं हितोपदेश जैसी शैली अपनाई गयी है।

पाडगाँवकर किसी वाद या विचारधारा से बँधे नहीं है। यही कारण है कि उनका अनुभव-संसार व्यापक और गहरा है। जीवन की जटिलता को व्यक्त करते समय उन्होंने कविता को अनावश्यक रूप से न तो बोझिल होने दिया और न ही रहस्यमय।

जाने-माने लेखक और समीक्षक चन्द्रकांत वांदिवडेकर द्वारा अनूदित यह रचना मराठी मूल की तरह हिन्दी के सहृदय पाठकों को भी रसात्मक अनुभूति देगी, इसी विश्वास के साथ समर्पित है-‘कविता मनुष्यों के लिए’।

मंगेश पाडगाँवकर और उनकी कविता

1929 में जन्मे मंगेश पाडगाँवकर ने 1949 में पुणे में आयोजित मराठी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में अपनी कविताएँ सहृदय श्रोताओं के सामने प्रस्तुत कीं और एक ही रात में पूरे महाराष्ट्र में अपने सफल कवि होने की मुहर लगा दी। सम्मेलन के सभापति वरिष्ठ साहित्यकार विट्ठलराव घाटे से ‘कल का महत्त्वपूर्ण कवि’ के रूप में श्री पाडगाँवकर ने सार्वजनिक आशीर्वाद प्राप्त किया, जो निकट भविष्य में चरितार्थ भी हुआ। 1950 में प्रकाशित उनके पहले कविता-संकलन ‘धारानृत्य’ ने महान गांधीवादी नेता और मराठी के शीर्षस्थ लेखक आचार्य भागवत की प्रस्तावना पाकर हृदय से आशीर्वाद पाया। उन्होंने उनकी अनेक कविताओं को मानवीय जीवन का परम आनन्द प्राप्त करा देने वाली कविताओं में शुमार किया। मराठी को सर्वप्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान प्राप्त वि.स. खाण्डेकर ने ‘धारानृत्य’ पर समीक्षा लिखकर ‘काव्य क्षितिज पर उगा नया सितारा’, कहकर पाडगाँवकर के उज्ज्वल भविष्य का संकेत किया था।

1953 में प्रकाशित कविता-संग्रह ‘जिप्सी’ ने मराठी के सक्त कवि के रूप में पाडगाँवकर की कविता पर मुहर लगा दी। मराठी के शीर्षस्थ समीक्षक प्रा.कुलकर्णी नमे स्वतन्त्र, समर्थ, शक्तिशाली कवि के रूप में पाडगाँवकर की प्रशंसा की। उसके बाद श्री पाडगाँवकर के नये-नये कविता-संग्रह प्रकाशित होते रहे और मराठी पाठक-वर्ग ने उन्हें सिर आँखों पर बिठाया।
मंगेश पाडगाँवकर ने कविता के बीज अपनी माँ और पिता से ग्रहण किये, अपनी शैली और शिल्प की उर्वर भूमि में उन्हें वपन किया और मराठी के श्रेष्ठ कवि केशवसुत, बालकवि और बोरकर की कविताओं की प्रेरणा से उन्हें सींचा। मराठी कवियों की पुस्तकों से भरा पुराना धूल खाया टीन का सन्दूक पाडगाँवकर का सच्चा विद्यापीठ था।
मंगेश पाडगांवकर विलक्षण, संवेदनशील सौन्दर्यप्रेमी कवि हैं।

उन्होंने प्रकृति के विभिन्न रूपों, भावावस्थाओं को चित्रमय वाणी दी है। प्रेम की विभिन्न मनःस्थितियों की अत्यन्त तीव्र रागात्मक अभिव्यंजना पाडगाँवकर की कविता का महत्तवपूर्ण पहलू है। शब्द की गहरी पहचान, पकड़ और मर्मस्पर्शी क्रीड़ा, भावावस्था को तीव्रता देने वाली समुचित बिम्ब योजना, अर्थ के गहरे संकेत देनेवाली प्रतीकात्मकता पाडगाँवकर की कविताओं की विशेषताएँ हैं। उनके प्रभावी गीत अपनी आत्मा में अनुभवों की समृद्ध धरोहर को सँजोते हैं और इससे उनकी कविता और गीत के बीच का अन्तर कम होता है। उनके गीत सहृदयों की स्मृति में प्राणवन्त होकर अनायास जिह्वा पर नृत्य करने लगते हैं।

मंगेश पाडगाँवकर की कविता पर निरन्तर विकसित होते जाने वाले कवि-व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। इसलिए हर नये काव्य संकलन में उनकी कविता के नये तेवर परिलक्षित होते हैं। उनकी कविता ने अपने वैयक्तिक भावात्मक जीवन के प्रति ही नहीं, परिवेश और समय के साथ, समाज और निचले तबके की वेदना के साथ अपना भावात्मक रिश्ता जोड़े रखा है। इसलिए उन्होंने दिन-ब-दिन भयावह होते जानेवाले रूप को प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया है, अपनी कविता की पूरवर्ती सीमाओं को स्वयं सतत तोड़ा है और अपने कवि-व्यक्तित्व का निरन्तर नये रूप में गठन किया है।

लेकिन यह सीमा-विस्तार काव्य की शर्तों पर ही हुआ है इसलिए उनकी कविता में विलक्षण ढंग की नाट्यात्मकता है, व्यंग्यात्मक है, जब कभी डार्क ह्यूमर भी है। हास्यपरक तथा करुण जीवन-घटनाओं, प्रसंगों के शब्द-चित्रों को प्रतीकात्मक अर्थ गम्भीरता देकर समाज की स्थिति का रेखांकन किया गया है। उनका ‘विदूषक’ अनेक स्तरों पर तदनुकूल नया रूप लेता हुआ कभी मर्मघाती प्रहार करने से नहीं चूकता। वे किसी विशिष्ट विचारधारा से बँधे नहीं हैं और इसलिए उनका अनुभव-संसार व्यापकता और गहराई को समेटता हुआ जीवन की जटिलता और व्यामिश्रण को व्यक्त करते समय कभी अनावश्यक रूप से बोझिल तथा रहस्यमय नहीं बनता। जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को काव्यबद्ध करते समय अर्थ-ग्रहणता के परिणाम स्वरूप आयी अनायास प्रतीकात्मकता सरल भी लगती है और अनुभव समृद्ध भी। ‘कविता : मनुष्यों के लिए’ की अनेक कविताओं में पंचतन्त्र, हितोपदेश की शैली अपनाई गयी है। लेकिन यह सहजस्फूर्त अनुभव की अनिवार्य माँग है। यह एक परिपक्वता से उपजी सादगी है जो मँगेशपाडगाँवकर की कविता को समृद्ध बनाती है।
पाडगाँवकर ने शिशुओं के लिए भी कविताएँ लिखीं। उनमें बालकों का अमुभव संसार भाषिक क्रीड़ा के अद्भुत भाव से जगमगा उठा है।

पाडगाँवकर ने गीतात्मक नाटक लिखे। आकाशवाणी के लिए नाट्य रूपक लिखे। हिन्दी के महान कवियों सूर, मीरा, कबीर की चुनी हुई कविताओं के सशक्त अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किये। शेक्सपीयर के ‘टेम्पेस्ट’, ‘रोमियो ऐण्ड जूलियट’ और ‘जूलियस सीज़र’ के उत्तम अनुवाद किये। इन अनुवादों की दीर्घ भूमिकाएँ पढ़ते समय लगता है कि यह कवि एक परिश्रमी और समर्थ अनुवाद ही नहीं, बल्कि साहित्य के मर्म को पकड़ने वाला एक गम्भीर चिन्तक समीक्षक भी है।
पाडगाँवकर के 80 से अधिक गीत ध्वनित-मुद्रित हुए हैं और मराठी के काव्य-प्रेमी समाज की सराहना के बागी बने हैं। जो भी काम हाथ में लेना हो उसमें अपने आपको पूरी तरह से झांकना कवि पाडगाँवकर का स्वभाव बन गया है। इसीलिए उनकी ग़ज़लें खास मराठी वातावरण भाव-भूमि में सहज रूप से विकसित काव्य रूप का उत्कट अनुभव करती हैं।
उनकी व्यंग्यात्मक परन्तु गम्भीर कविताओं का एक संकलन ‘सलाम’ साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत हुआ है, हिन्दी में जिसका सुन्दर अनुवाद स्व. वसंत देव ने किया है।

लोकप्रियता, सहृदय-स्वीकृति और काव्य मर्मज्ञों की निष्पक्ष सराहना तीनों कसौटियों पर मंगेश पाडगाँवकर की कविता खरी उतरती है। सम्भवतः इसीलिए उनके काव्य-संकलनों के संस्करण लगातार प्रकाशित होकर सहृदय पाठकों को उपलब्ध हो रहे हैं।
मैं डॉ. रामजी तिवारी का आभारी हूँ जिन्होंने अनुवाद कार्य को समय निकाल कर पढ़ा और मूल्यवान सुझावों से उपकृत किया।

-चंद्रकांत बांदिवडेकर

गीत मनुष्यों का, मनुष्यों के लिए



मैं गीत गा रहा हूँ
सुन रहे हो न ?
ओ जी, कान वाले,
ओ जी, ध्यान वाले,
ओ जी गली के नुक्कड़ पर पान वाले।
कोई भी हो, थैली हो या गोली हो
पड़ोस हो या बाज़ार हो
मनुष्यों का गीत गा रहा हूँ।
सुन रहे हैं न आप ?
मैं गीत गा रहा हूँ।

मेरे अपने लोग हैं सब
मेरे अपने लोग—
उपासे, दुबले लोग
तपी धूप में नंगे सिर वाले लोग
रोआँसे लोग
चिड़चिड़े लोग
डरपोक लोग
पियक्कड़ लोग
नियति के द्वारा कूड़े पर फेंके गये लोग
मन्दिरों के सामने
कतार बाँधकर झुके हुए लोग
मंडप छवा कर भोज ठूंसने वाले लोग
मैदान पर भीड़ के सामने गुर्राने वाले लोग
कुछ ऐसे लोग जो प्यादे होते हैं
कुछ लोग जो उबाऊ सूची होते हैं
पाँव तले चूड़ियों की भाँति चटखने वाले लोग
फिर भी राख से उठने वाले लोग
मेरे लोग हैं सब
मेरे अपने लोग
उन्हीं का गीत गा रहा हूँ
सुन रहे हो न ?
मैं गीत गा रहा हूँ।

बगीचे में बेंच पर
अकेले-अकेले कौन रो रहा है ?
गले तक पानी आ गया है,
साँस घुट कर कौन डूब रहा है ?
रोते कलपते कौन आया था ?
राम नाम सत्य है—कौन गया ?
सब कुछ सब कुछ देख रहा हूँ मैं
सब कुछ सब कुछ जी रहा हूँ मैं
इस देखने का इस जीने का
गीत गा रहा हूँ मैं
सुनते हो न ?
मैं गीत गा रहा हूँ।

बिजली झेलने वाले सीने से
शब्द आते हैं मनुष्य के लिए
अकुराई गीली मिट्टी से
शब्द आते हैं मनुष्यों के लिए
आँसू पोंछते हुए शब्द आते हैं मनुष्य के लिए
मनुष्य पर विश्वास कर
शब्द आते हैं मनुष्य के लिए
इन शब्दों का,
विश्वास का गीत गा रहा हूँ
सुन रहे हो न ?
मैं गीत गा रहा हूँ।


मनुष्य



सही है कि गाँव-गाँव
घूमता नाचता रहता हूँ मैं;
जमा हुई चारों ओर मेरे
भीड़ की गठरी को
हलके हाथ से मुक्त करते हुए

सामने भीड़ हुई...
नाचते-नाचेते गाने भी लगता हूँ मैं !

लपेट लिये होते हैं मैंने
अपनी कमर के इर्द-गिर्द
मोर के पंख,
हाथ लिये मोर पंख झुलाता रहता हूँ :
अन्यथा सामने वाली भीड़ को
नहीं सम्भव झुलाना
यह अनुभव मेरा हमेशा का !

भीड़ सुस्ताती है
धीरे-धीरे बनती है खुशनुमा
और फिर सामने वाले चेहरे
भीड़ के नहीं रहते :
हर चेहरा मनुष्य का दिखने लगता है
और इसका पता भी नहीं होता उनको !
नाचते-नाचते
नाचते-नाचते
मुझे जब दिखने लगते हैं
सामने वाले चेहरे मनुष्यों के
तब मैं बताता हूँ अनुरोधपूर्वक उनको :
मायबाप, मोर ने खुशी से गिरा दिए हों पंख
तो करो इकट्ठा,
किस्मत मान कर अपनी !
और फिर चाहो जितना लपेटो
कमर और सिर के इर्दगिर्द।

मनुष्यों के चेहरे उजले से
रुन झुन करते दिखते हैं सामने,
उस समय नाच रहा होता है
मेरे मन में नादमग्न
घन नीला एक मोर !
नाच-नाच कर
आता हूँ जब घर थक कर
तब भी मोर मेरे मन का
नीला-गहन नृत्य अपना बिखेरता होता है
और मैं हँस कर कहता हूँ अपने ही से :
सामने वाले एक भी आदमी ने अगर
धारदार लोभ का अपना हँसिया
मोर की गर्दन पर फेरना रोक दिया
और अपने मन का
कोमल झरना
नाचेने वाले मोर के पैरों तक पहुँचने दिया
तभी मेरा नाचना-गाना मुझे हुआ मुबारक

कितनी भी हो भीड़
फिर भी उस भीड़ में
मनुष्य का चेहरा रहता ही है शेष...
अपने इस विश्वास के कन्धे पर
मैं अपनी थकी गर्दन रख देता हँ !

गीली-सी मुँदी मेरी आँख में एक मोर विश्वास के साथ
नाचता रहता है।


बल



खून और बलात्कार करने वालों की टोली की
युद्ध की
राजनयिक रंडीबाज़ी की
सजी संवरी खबरें पढ़कर
उसका मन म्लान हुआ...
किसी अदृश्य हाथ से
उभरनेवाला डंठल मूल में ही खोंटे जाने की
हताशा उसने अनुभव की,
खड़े होकर
चल ही नहीं सकेंगे हम
ऐसा ही क्षण भर लगा उसे
लूलेपन के बिल में उसका दम घुट गया।
हैंगर पर टँगे कपड़े उसने
यान्त्रिक ढंग से चढ़ाये शरीर पर
उसी स्थिति में वह
भ्रान्त-सा बाहर आया....
कुछ देर चला, तो पुटपाथ पर
चार साल का एक बच्चा मिला भिखारी का
अकेला तिलमिला कर रोता हुआ,
दोनों घुटने खून से सने फटे हुए
बच्चा उँगली से बता रहा था :
‘‘रास्ते के उस पार जाना है’’
निरपराध उँगली की भाषा


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