श्रंगार - प्रेम >> माटी मटाल माटी मटालगोपीनाथ महान्ती
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उड़िया के यशस्वी उपन्यासकार गोपीनाथ महान्ती का ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘माटीमटाल’...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उड़िया के यशस्वी उपन्यासकार गोपीनाथ महान्ती का ज्ञानपीठ पुरस्कार से
सम्मानित उपन्यास है ‘माटीमटाल’। यह रचना उड़ीसा ही नहीं,
समूचे भारत के ग्राम्य-जीवन का गौरव ग्रन्थ है। गोपीनाथ महान्ती के
कथा-संसार के प्रेरणास्रोत उनके देखे-भोगे यथार्थ हैं, यह निर्विवाद है।
चाहे आदिवासियों के चाहे दलित वर्ग के और चाहे सुविधाभोगियों के सन्दर्भ
में हो-उनके कथानकों में जीवन और कर्मठता की एक विशेष प्रकार की सहज
अभिव्यक्ति है।
विभिन्न प्रकार के विषयों और मनोभावों के अम्बार में और भिन्न-भिन्न सामाजिक परिवेशों में जी रहे पात्रों के चरित्र-चित्रण में गोपी बाबू परिस्थितिजन्य संकीर्णता और दैनन्दिन जीवन के सुपरिचित स्वार्थों की निर्लिप्तता से ऊपर उठकर मानव की अजेय चेतना की कीर्ति फैलाने में अत्यंत सफल हुए हैं। शोषण के विभिन्न रूपों को दिखाते हुए उनकी कथाएँ शोषक और शोषण के संबंधों को इतनी निर्ममता और सच्चाई से चित्रित करती हैं कि पाठक को इससे किसी एक वर्ग के प्रति रोष और दूसरे वर्ग के लिए सहानुभूति उपजने से अधिक जटिल मानवीय स्थिति का बोध होता है। यह सब गोपीनाथ महान्ती की कलात्मक दृष्टि के कारण ही सम्भव हुआ है। और यही है उनके शिल्प की विशिष्टता। इसके माध्यम से यह एक सामाजिक स्थिति को मेटाफिजिकल स्तर पर उठाकर ला रखते हैं, जहाँ ‘‘शोषित वर्ग का विद्रोह केवल किसी अन्य वर्ग से सामाजिक न्याय पाने की प्रक्रिया मात्र न रहकर मनुष्य का नियति की क्रूरता से अपनी रक्षा करने का सार्वभौमिक प्रयास बन जाता है।’’
प्रस्तुत है ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित एक महान् औपन्यासिक कृति।
विभिन्न प्रकार के विषयों और मनोभावों के अम्बार में और भिन्न-भिन्न सामाजिक परिवेशों में जी रहे पात्रों के चरित्र-चित्रण में गोपी बाबू परिस्थितिजन्य संकीर्णता और दैनन्दिन जीवन के सुपरिचित स्वार्थों की निर्लिप्तता से ऊपर उठकर मानव की अजेय चेतना की कीर्ति फैलाने में अत्यंत सफल हुए हैं। शोषण के विभिन्न रूपों को दिखाते हुए उनकी कथाएँ शोषक और शोषण के संबंधों को इतनी निर्ममता और सच्चाई से चित्रित करती हैं कि पाठक को इससे किसी एक वर्ग के प्रति रोष और दूसरे वर्ग के लिए सहानुभूति उपजने से अधिक जटिल मानवीय स्थिति का बोध होता है। यह सब गोपीनाथ महान्ती की कलात्मक दृष्टि के कारण ही सम्भव हुआ है। और यही है उनके शिल्प की विशिष्टता। इसके माध्यम से यह एक सामाजिक स्थिति को मेटाफिजिकल स्तर पर उठाकर ला रखते हैं, जहाँ ‘‘शोषित वर्ग का विद्रोह केवल किसी अन्य वर्ग से सामाजिक न्याय पाने की प्रक्रिया मात्र न रहकर मनुष्य का नियति की क्रूरता से अपनी रक्षा करने का सार्वभौमिक प्रयास बन जाता है।’’
प्रस्तुत है ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित एक महान् औपन्यासिक कृति।
प्रस्तुति
(प्रथम संस्करण से)
श्री गोपीनाथ महान्ती की भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार-जयी कृति
‘माटीमटाल’ का नाम भारतीय उपन्यास साहित्य की शीर्षक
कृतियों
में आता है। ‘माटीमटाल’ को 1973 का ज्ञानपीठ पुरस्कार
इस आधार
पर प्राप्त हुआ है कि सन् 1962 में 1966 के बीच प्रकाशित सम्मत भारतीय
साहित्य में इसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ की समकक्षता का गौरव
प्राप्त
हुआ है। ‘समकक्षता’ इसलिए कि इस वर्ष का ज्ञनपीठ
पुरस्कार डॉ.
दत्तात्रेय रामचन्द्र बेन्द्रे के कन्नड़ काव्य-संग्रह ‘नाकु
तन्ति’ (चार तार) के साथ सह-विभाजन है। ज्ञानपीठ के पुरस्कार
समर्पण
सामारोह है कि जहाँ तक सम्भव हो पुरस्कार कृति का हिन्दी अनुवाद समारोह के
अवसर पर प्रकाशित किया जाय ताकि राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से सभी
भारतीय भाषाओं को कृति के महत्त्व की जानकारी मिले और साहित्य के
राष्ट्रीय स्तर को प्राप्त करनेवाली कृति के रचयिता को देश के सभी
साहित्यकारों और अनगिनत पाठकों का प्रेम और आदर प्राप्त हो।
श्री गोपीनाथ महान्ती का जन्म 4 अप्रैल 1914 में उड़ीसा के कोरापुट जिले में हुआ। एम. ए. तक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त जब उन्हें उड़ीसा ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के अन्तर्गत विभिन्न पदों पर कार्य करने का अवसर मिला तो उन्हें उड़ीसा के ग्रम्य जीवन और आदिवासियों की जीवन-पद्घति, उनके-विचार, उनकी संस्कृति, तथा उनकी समस्याओं को जानने-समझने का अवसर मिला। गाँवों का धरती, धूल-मिट्टी हवा-पानी से विकसित मानव के देह-प्राण ने अपनी सामाजिक संरचना को तो रूप दिया और व्यक्ति तथा समूह के जीवन की सुरक्षा तथा उन्नति के लिए जिन संस्कारों को आत्मसात् किया उनका स्पन्दन उनकी अनुगूँज ‘माटीमटाल’ के पन्ने –पन्ने और शब्द-शब्द में है।
जीवन कभी ठहरता नहीं परिवेश कभी एक-से नहीं रहते, मिट्टी और हवा-पानी का रंग-रूप-गन्ध भी बदलने लगती हैं। नये परिवेश नये संकटों और संघर्षों के जन्म देते हैं, और मनुष्य की जिजीविषा इन चुनौतियों पर विजय पाने के लिए सदा उत्साहित करती रहती है। बहुत कुछ नया बनता है, और पुराना टूटता है साथ ही बहुत कुछ ऐसा रहता है जो संस्कारों की अन्तःसलिला के रूप में प्राणों के रस से सिंचित करता रहता है। तथ्य के रूप में इसे जानना एक बात है किन्तु सृष्टि नाटक को जीवन रूप देकर चित्रित करना दूसरी बात है। श्री गोपीनाथ; महान्ती ऐसे ही रस-सिद्ध साहित्य-स्रष्ट्रा हैं जिन्होंने गद्य की भाषा को कविता का लालित्य दिया और मानव भावों-भावनाओं की सूक्ष्मता को, उसके और विकारों को, अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता क्षमता और चारूता।
‘माटीमटाल’ (उड़िया में) लगभग एक हजार पृष्ठों का उपन्यास है। कथा का विस्तार पात्रों की बहुलता, उनके मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों का संसार, क्रिया-प्रतिक्रियाओं का प्रसार-प्रकृति के नाना रूपों का निखार, इस उपन्यास को गद्य का ‘महाकाव्य’ प्रमाणित करते हैं। उपन्यास का एक-एक चरित्र सजीव होकर मानस-पलट पर अंकित होता चलता है; तूलिका के चित्र-विचित्र रंग पाठक को मन्त्र-मुग्ध करते रहते हैं।
उपन्यास के अनगिनत पात्रों में मुख्य हैं नायक रवि और नायिका छवि। स्पष्ट है कि ‘माटीमटाल’ की कथा इन दोनों के प्रेम संबंधों को केन्द्र में रखकर चलती है। किन्तु, आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस बृहतकाय उपन्यास में दोनों के प्रेम को तूलिका के कितने कोमल स्पर्श मिले हैं कि लाज से ढंका रहता है और जब अनेक संघर्षों, विडम्बनाओं अपवादों को झेलकर विवाह में प्रतिफलित होता है तो वह जीवन की सिम्फॉनी का प्रमुख स्वर न होकर कोमल गान्धार-सा अन्तर्व्याप्त रहता है। प्रमुख स्वर होता है जीवन की उद्देश्य-साधना का, नव-निर्माण का, मानव सहयोग पर आधारित नव निष्पत्तियों के स्वप्न का। उपन्यास के प्रारम्भ में वर्णित जिस ढलती सन्ध्या की विरागी लालिमा में रवि अकेला चला जा रहा है।, उपन्यास का समापन भी एक ऐसी सन्ध्या में होता है जहाँ सार्थकता की अनुरागी रश्मि से पुलकित छवि पथ पर बढ़ी चली जा रही है। अपने लक्ष्य की ओर। जिस पेड़ की बाँह थामकर उसकी छाया में वह क्षण-भर खड़ी रहना चाहती है उस छाया का सुख उसे ठहरने नहीं देता। उसे अपनी सखी की आवाज सुनाई देती है जो कहती है: ‘पगली, कहाँ रुक गयी, देख तो कितना लम्बा रास्ता है और तुझे किस महान लक्ष्य तक पहुँचना है।’
पुरस्कार समर्पण सामारोह के अवसर पर श्री महान्ती को जो प्रशस्ति-फलक भेंट किया गया है वह सार रूप में इनकी इस उपलब्धियों का चित्रण इस प्रकार करता हैः ‘‘आदर्श और यथार्थ के समन्वयी; शक्तिशाली उपन्यासकार श्री महान्ती के कथा साहित्य का परिदृश्य अधिवासित है प्रायः पददलित हरिजन और मूक आदिवासी द्वारा, चिरशोधित कृषक और नगर-पले बाबूवर्ग द्वारा जो अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष में ही निःसत्त्व हो रहता हैः निरंकुशता और उत्पीड़न के नाना रूपों को अनावृत करते भी, उन्होंने तिक्त नारों या वर्ग-संघर्ष का कभी सहारा नहीं लिया। मनुष्य यहाँ अन्धकार में घिरा यातनायों की दलदल में धँसा है, किन्तु दृष्टि उसकी फिर भी टिकी है सितारों पर श्री महान्ती का अर्थ का स्पर्श पाकर समाजत्व भी लोकोत्तर हो उठता है। वे सम्पोषण और सम्बन्धन करते हैं, विखण्डन या अस्वीकरण नहीं। उनकी शैली में महाकाव्य की गरिमा है और भाषा में लोकवाणी की सरलता। ... पुरस्कार-जयी उपन्यास ‘माटीमटाल’ उड़ीसा के ग्राम्य जीवन का गौरवग्रन्थ हैः एक अविराम खोज वहाँ के लाख-लाख जन द्वारा अपनी सामुदायिकता को साकर करने की। यह प्रतीक है समाजत्व में प्रवेश का जो प्राप्त होता है आधुनिक विज्ञान की ‘मैं’ और ‘तू’ और आधुनिक विज्ञान की ‘मैं’ और ‘वह’ की द्वैत भावना के अतिक्रमण से। तीन से अधिक कृतियों के बहुमुखी प्रतिभायुक्त रचयिता, श्री महान्ती नवनवीन विषयवस्तु और शैली के सतत अन्वेषी हैं।’’
श्री गोपीनाथ महान्ती का जन्म 4 अप्रैल 1914 में उड़ीसा के कोरापुट जिले में हुआ। एम. ए. तक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त जब उन्हें उड़ीसा ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के अन्तर्गत विभिन्न पदों पर कार्य करने का अवसर मिला तो उन्हें उड़ीसा के ग्रम्य जीवन और आदिवासियों की जीवन-पद्घति, उनके-विचार, उनकी संस्कृति, तथा उनकी समस्याओं को जानने-समझने का अवसर मिला। गाँवों का धरती, धूल-मिट्टी हवा-पानी से विकसित मानव के देह-प्राण ने अपनी सामाजिक संरचना को तो रूप दिया और व्यक्ति तथा समूह के जीवन की सुरक्षा तथा उन्नति के लिए जिन संस्कारों को आत्मसात् किया उनका स्पन्दन उनकी अनुगूँज ‘माटीमटाल’ के पन्ने –पन्ने और शब्द-शब्द में है।
जीवन कभी ठहरता नहीं परिवेश कभी एक-से नहीं रहते, मिट्टी और हवा-पानी का रंग-रूप-गन्ध भी बदलने लगती हैं। नये परिवेश नये संकटों और संघर्षों के जन्म देते हैं, और मनुष्य की जिजीविषा इन चुनौतियों पर विजय पाने के लिए सदा उत्साहित करती रहती है। बहुत कुछ नया बनता है, और पुराना टूटता है साथ ही बहुत कुछ ऐसा रहता है जो संस्कारों की अन्तःसलिला के रूप में प्राणों के रस से सिंचित करता रहता है। तथ्य के रूप में इसे जानना एक बात है किन्तु सृष्टि नाटक को जीवन रूप देकर चित्रित करना दूसरी बात है। श्री गोपीनाथ; महान्ती ऐसे ही रस-सिद्ध साहित्य-स्रष्ट्रा हैं जिन्होंने गद्य की भाषा को कविता का लालित्य दिया और मानव भावों-भावनाओं की सूक्ष्मता को, उसके और विकारों को, अभिव्यक्ति की प्रामाणिकता क्षमता और चारूता।
‘माटीमटाल’ (उड़िया में) लगभग एक हजार पृष्ठों का उपन्यास है। कथा का विस्तार पात्रों की बहुलता, उनके मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों का संसार, क्रिया-प्रतिक्रियाओं का प्रसार-प्रकृति के नाना रूपों का निखार, इस उपन्यास को गद्य का ‘महाकाव्य’ प्रमाणित करते हैं। उपन्यास का एक-एक चरित्र सजीव होकर मानस-पलट पर अंकित होता चलता है; तूलिका के चित्र-विचित्र रंग पाठक को मन्त्र-मुग्ध करते रहते हैं।
उपन्यास के अनगिनत पात्रों में मुख्य हैं नायक रवि और नायिका छवि। स्पष्ट है कि ‘माटीमटाल’ की कथा इन दोनों के प्रेम संबंधों को केन्द्र में रखकर चलती है। किन्तु, आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस बृहतकाय उपन्यास में दोनों के प्रेम को तूलिका के कितने कोमल स्पर्श मिले हैं कि लाज से ढंका रहता है और जब अनेक संघर्षों, विडम्बनाओं अपवादों को झेलकर विवाह में प्रतिफलित होता है तो वह जीवन की सिम्फॉनी का प्रमुख स्वर न होकर कोमल गान्धार-सा अन्तर्व्याप्त रहता है। प्रमुख स्वर होता है जीवन की उद्देश्य-साधना का, नव-निर्माण का, मानव सहयोग पर आधारित नव निष्पत्तियों के स्वप्न का। उपन्यास के प्रारम्भ में वर्णित जिस ढलती सन्ध्या की विरागी लालिमा में रवि अकेला चला जा रहा है।, उपन्यास का समापन भी एक ऐसी सन्ध्या में होता है जहाँ सार्थकता की अनुरागी रश्मि से पुलकित छवि पथ पर बढ़ी चली जा रही है। अपने लक्ष्य की ओर। जिस पेड़ की बाँह थामकर उसकी छाया में वह क्षण-भर खड़ी रहना चाहती है उस छाया का सुख उसे ठहरने नहीं देता। उसे अपनी सखी की आवाज सुनाई देती है जो कहती है: ‘पगली, कहाँ रुक गयी, देख तो कितना लम्बा रास्ता है और तुझे किस महान लक्ष्य तक पहुँचना है।’
पुरस्कार समर्पण सामारोह के अवसर पर श्री महान्ती को जो प्रशस्ति-फलक भेंट किया गया है वह सार रूप में इनकी इस उपलब्धियों का चित्रण इस प्रकार करता हैः ‘‘आदर्श और यथार्थ के समन्वयी; शक्तिशाली उपन्यासकार श्री महान्ती के कथा साहित्य का परिदृश्य अधिवासित है प्रायः पददलित हरिजन और मूक आदिवासी द्वारा, चिरशोधित कृषक और नगर-पले बाबूवर्ग द्वारा जो अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष में ही निःसत्त्व हो रहता हैः निरंकुशता और उत्पीड़न के नाना रूपों को अनावृत करते भी, उन्होंने तिक्त नारों या वर्ग-संघर्ष का कभी सहारा नहीं लिया। मनुष्य यहाँ अन्धकार में घिरा यातनायों की दलदल में धँसा है, किन्तु दृष्टि उसकी फिर भी टिकी है सितारों पर श्री महान्ती का अर्थ का स्पर्श पाकर समाजत्व भी लोकोत्तर हो उठता है। वे सम्पोषण और सम्बन्धन करते हैं, विखण्डन या अस्वीकरण नहीं। उनकी शैली में महाकाव्य की गरिमा है और भाषा में लोकवाणी की सरलता। ... पुरस्कार-जयी उपन्यास ‘माटीमटाल’ उड़ीसा के ग्राम्य जीवन का गौरवग्रन्थ हैः एक अविराम खोज वहाँ के लाख-लाख जन द्वारा अपनी सामुदायिकता को साकर करने की। यह प्रतीक है समाजत्व में प्रवेश का जो प्राप्त होता है आधुनिक विज्ञान की ‘मैं’ और ‘तू’ और आधुनिक विज्ञान की ‘मैं’ और ‘वह’ की द्वैत भावना के अतिक्रमण से। तीन से अधिक कृतियों के बहुमुखी प्रतिभायुक्त रचयिता, श्री महान्ती नवनवीन विषयवस्तु और शैली के सतत अन्वेषी हैं।’’
नयी दिल्ली
8 नवम्बर 1974
8 नवम्बर 1974
-लक्ष्मीचन्द्र जैन
माटीमटाल
माघ की धूप कैसी चुपके से चली जाने को हुई। फिर देखते-देखते साँझ भी
घिसटती-सी तैरती हुई जल्दी चली जाएगी। उसके बाद फिर रात चली जाएगी। यह
श्रीपंचमी की रात भीः वहीं जहाँ चले जाते हैं सब दिन, सारी रातें ! इसी
बात यह श्रीपंचमी की रात भीः वहीं जहाँ चले जाते हैं सब दिन, सारी रातें !
इसी बात को याद कराये दे रही है और यह ठण्डी हवा-हलके झकोरों से कमीज को
हिलाती हुई, सिर के बिखरे बालों को और भी अस्त-व्यस्त करती हुई, और
मुँह-आँख और गरदन पर सर्दीली चेतना की तूलि से सिहरनें आँकती हुई- कि आज
चली गयीः श्रीपंचमी चली गयी, और साथ ही हल्की-नरम धूप भी !
दूर क्यारियों में भरे सरसों के भूल जो कुछ देर पहले साफ दिखाई पड़ते थे- पीली धूप में टिमटिमाते हुए छोटे-छोटे दीयों जैसे- हठात् अब सघन होकर छाया में खोते हुए मलिन लगने लगे हैं; और उनके नीचे कागज की लम्बी रेखा-सी दिखनेवाली नदी भी लग रही है–मानो कोई बहुत लम्बी बत्ती हो, जो जल-झुलसकर काली पड़ गयी हो। ऊपर-ऊपर जो धुआँ-सा था, जान पड़ता है वहीं उसका आखिरी धुआँ है। थोड़ी देर बाद सब कुछ साफ दिखाई देता है।
बाद को यह धुआँ भी जैसे नहीं होगा, ऊपर शून्य में ऐसा टँगा रह जाएगा जैसे परत-परत काले कपड़े हों। फिर इतने बड़े काले सुरमई आकाश में श्रीपंचमी के चन्दा के चारों ओर तारों के फूल खिलेंगे और ऊपर से नीचे तक इस अपार विस्तार तले चिकना-चिकना अँधेरा और रुपहली उजास धीरे-धारे एक में एक घुल चलेगी। फिर, धीरे-धीरे रात भी चुपचाप सो जाएगीः उजले कोहरे का लिहाफ ओढ़कर, कुनमुनाती बैंजनी रात सो जाएगी-और खो जाएगी, ढूँढ़े भी कहीं मिलेगी नहीं।
यही सब सोचता चला जा रहा था वह अल्हड़ युवक अभी मसें भीग रही थीं और जो मन-ही-मन इस प्रयत्न में था कि सामने पसरे-फैले उस शून्य के फसल पर कहीं अपने को भी सुघड़ाई के साथ भाव-भावनाओ के रंगों में रँगकर अंकित कर दे-ठीक उसी तरह जैसे किनारे-किनारे हलका रंगीन होता जाता वह बादल का टुकड़ा उधर टिका हुआ है। आँखें मूँदकर उसने मन-ही-मन उस बादल को देखा; फिर आँखें खोलकर भी। उसे प्रतीति हुई कि कितना विशाल है यह आकाश और कितना लघु उसके एक कोने में टँगा वह बादल का टुकड़ा। कोई सत्ता नहीं उसकी यहाँ। देखते-देखते रूप बदल गया। अभी हाथी जैसी आकृति थी, अब उलटे हंस जैसा दिख रहा है। दो ही क्षण में नया रूप !
उसने फिर आँखें मूंद लीं। याद आया जैसे रास्ते में आज श्रीपंचमी के अवसर पर एक के साथ एक मिले कुँई के फूलों के नालों में ही आम के पत्तों से गुँथे हुए तोरण लटक रहे थे, उसी तरह तो ये दिन भी हुआ करते हैं। एक के बाद दूसराः अटूट ताँताः नपे-बँधे निर्दिष्ट कालखण्ड। प्रत्येक का अपना एक परिमाण है, एक सूर्योदय के बीच अपनी माँ के गर्भ से धरती पर और फिर पंचतत्त्वों में विलीन हो जाने तक का एक विशिष्ट प्रकाश काल-सबसे अलग, सबसे भिन्न।
फिर भी, कुछ तो चुक नहीं जाता, कहीं तो अन्त नहीं होता। आँखें मूँदकर सोचने पर जैसे लाल सेब और पके सन्तरे सब एक दिखाई देते हैं, लाल कुँई और हलद आभा लिये कनकचम्पा के फूल एक पर एक लदे हों तो उन्हें अलग-अलग गिना नहीं जा सकता, उसी तरह ये दिनः कितने-कितने आये हैं और कितने और आएँगे। अनगिनत सूर्योदय और सूर्यास्त चले गये अनगिनत और आकार चले जाएँगे। घुल मिलकर सब जैसे चेतना का एक अकूल सागर हो जाते हैं, जो पल-पल के बाद नये रंग का दिखता है, नये भाव में अनुभूत हुआ करता है।
कनकचम्पा के रंग का सूर्य भी चले जाने के लिए ही जा-जाकर फिर एक बार आता है और धीरे-धीरे पश्चिम से दक्षिण की ओर हटते हुए क्षितिज में झुक जाता है। उसके अपने तेईस वर्षों में आठ हजार से अधिक बार यह ऐसे ही झुकता हुआ डूबा है और फिर उगा है। छह वर्ष की उम्र से अब तक कम-से-कम छह हजार बार की तो उसे याद भी है। इसी प्रकार लाखों-करोंड़ों बार आगे-पीछे को आया है, गया है।
चलते से वह अटक गया है। मानो सोच ही सोच रहा था, पाँव नहीं चल रहे थे। मनुष्य ही जैसे न चल रहा हो, मात्र सरक रहा हो, कानों में यह क्या गूँजा ? आकाश में एक गम्भीर शब्द की लहरें सी बढ़ती आ रही हैं। लगता है कोई हवाई जहाज जा रहा है। उधर दूर चमकते बादल के टुकड़े के उस ओर जो गाढ़े नीले आकाश की स्थिर झील है, उसी की सतह पर उतरता चला जा रहा हैः जैसे कोई बड़ी-सी बेड़ौल मछली हो।
इधर कैसे सुन्दर हंस उड़ते जा रहे हैं ! झुण्ड के झुण्ड एक साथ एक दो तीन-चार .....ग्यारह....तेरह-ना, गोलमाल हो गया। एक के साथ एक सटे कितने पक्षी उड़े जा रहे हैं अनेक श्यामल छायाओं का एक भारी समूह ! इनके इकट्ठे उड़ने से जो एक आवाज होती है उसमें भी शायद एक आनन्द होता है, एक अनूठा आकर्षण-देखी-जानी हिसाबी-किताबी, और हानि-लाभ परखनेवाली सांसारिकता के लिए अदेखा-अजाना आकर्षण। दल के बाद दल ! ओह ! कितने हैं ये ! कहाँ छिप गये अचानक ? नहीं; चले गये ये भी जाते और जाते सूर्योदय और सूर्यास्त की ही तरह।
अब तो सामने से उड़ते जा रहे हैं कौए। मानो गाँव भर के कौए एक साथ उड़ने निकले हों। काला कौआ बस काँव-काँव करता है। मगर इस कर्कश ध्वनि और उसके पंख हिलाने की भंगिमा में भी एक छन्द है, उस आकाश और माटी के साथ एक समन्वय है और उसके साथ ही एक सन्देश भी, जो मन को छू-छू रहा है और जिससे लगता है कि मानो यह आकाश अपना हो, यह माटी भी उसकी अपनी हो। उड़ते हुए ये वहीं चले जा रहे है जहाँ पहले भी उड़कर गये हैं।
दूर क्यारियों में भरे सरसों के भूल जो कुछ देर पहले साफ दिखाई पड़ते थे- पीली धूप में टिमटिमाते हुए छोटे-छोटे दीयों जैसे- हठात् अब सघन होकर छाया में खोते हुए मलिन लगने लगे हैं; और उनके नीचे कागज की लम्बी रेखा-सी दिखनेवाली नदी भी लग रही है–मानो कोई बहुत लम्बी बत्ती हो, जो जल-झुलसकर काली पड़ गयी हो। ऊपर-ऊपर जो धुआँ-सा था, जान पड़ता है वहीं उसका आखिरी धुआँ है। थोड़ी देर बाद सब कुछ साफ दिखाई देता है।
बाद को यह धुआँ भी जैसे नहीं होगा, ऊपर शून्य में ऐसा टँगा रह जाएगा जैसे परत-परत काले कपड़े हों। फिर इतने बड़े काले सुरमई आकाश में श्रीपंचमी के चन्दा के चारों ओर तारों के फूल खिलेंगे और ऊपर से नीचे तक इस अपार विस्तार तले चिकना-चिकना अँधेरा और रुपहली उजास धीरे-धारे एक में एक घुल चलेगी। फिर, धीरे-धीरे रात भी चुपचाप सो जाएगीः उजले कोहरे का लिहाफ ओढ़कर, कुनमुनाती बैंजनी रात सो जाएगी-और खो जाएगी, ढूँढ़े भी कहीं मिलेगी नहीं।
यही सब सोचता चला जा रहा था वह अल्हड़ युवक अभी मसें भीग रही थीं और जो मन-ही-मन इस प्रयत्न में था कि सामने पसरे-फैले उस शून्य के फसल पर कहीं अपने को भी सुघड़ाई के साथ भाव-भावनाओ के रंगों में रँगकर अंकित कर दे-ठीक उसी तरह जैसे किनारे-किनारे हलका रंगीन होता जाता वह बादल का टुकड़ा उधर टिका हुआ है। आँखें मूँदकर उसने मन-ही-मन उस बादल को देखा; फिर आँखें खोलकर भी। उसे प्रतीति हुई कि कितना विशाल है यह आकाश और कितना लघु उसके एक कोने में टँगा वह बादल का टुकड़ा। कोई सत्ता नहीं उसकी यहाँ। देखते-देखते रूप बदल गया। अभी हाथी जैसी आकृति थी, अब उलटे हंस जैसा दिख रहा है। दो ही क्षण में नया रूप !
उसने फिर आँखें मूंद लीं। याद आया जैसे रास्ते में आज श्रीपंचमी के अवसर पर एक के साथ एक मिले कुँई के फूलों के नालों में ही आम के पत्तों से गुँथे हुए तोरण लटक रहे थे, उसी तरह तो ये दिन भी हुआ करते हैं। एक के बाद दूसराः अटूट ताँताः नपे-बँधे निर्दिष्ट कालखण्ड। प्रत्येक का अपना एक परिमाण है, एक सूर्योदय के बीच अपनी माँ के गर्भ से धरती पर और फिर पंचतत्त्वों में विलीन हो जाने तक का एक विशिष्ट प्रकाश काल-सबसे अलग, सबसे भिन्न।
फिर भी, कुछ तो चुक नहीं जाता, कहीं तो अन्त नहीं होता। आँखें मूँदकर सोचने पर जैसे लाल सेब और पके सन्तरे सब एक दिखाई देते हैं, लाल कुँई और हलद आभा लिये कनकचम्पा के फूल एक पर एक लदे हों तो उन्हें अलग-अलग गिना नहीं जा सकता, उसी तरह ये दिनः कितने-कितने आये हैं और कितने और आएँगे। अनगिनत सूर्योदय और सूर्यास्त चले गये अनगिनत और आकार चले जाएँगे। घुल मिलकर सब जैसे चेतना का एक अकूल सागर हो जाते हैं, जो पल-पल के बाद नये रंग का दिखता है, नये भाव में अनुभूत हुआ करता है।
कनकचम्पा के रंग का सूर्य भी चले जाने के लिए ही जा-जाकर फिर एक बार आता है और धीरे-धीरे पश्चिम से दक्षिण की ओर हटते हुए क्षितिज में झुक जाता है। उसके अपने तेईस वर्षों में आठ हजार से अधिक बार यह ऐसे ही झुकता हुआ डूबा है और फिर उगा है। छह वर्ष की उम्र से अब तक कम-से-कम छह हजार बार की तो उसे याद भी है। इसी प्रकार लाखों-करोंड़ों बार आगे-पीछे को आया है, गया है।
चलते से वह अटक गया है। मानो सोच ही सोच रहा था, पाँव नहीं चल रहे थे। मनुष्य ही जैसे न चल रहा हो, मात्र सरक रहा हो, कानों में यह क्या गूँजा ? आकाश में एक गम्भीर शब्द की लहरें सी बढ़ती आ रही हैं। लगता है कोई हवाई जहाज जा रहा है। उधर दूर चमकते बादल के टुकड़े के उस ओर जो गाढ़े नीले आकाश की स्थिर झील है, उसी की सतह पर उतरता चला जा रहा हैः जैसे कोई बड़ी-सी बेड़ौल मछली हो।
इधर कैसे सुन्दर हंस उड़ते जा रहे हैं ! झुण्ड के झुण्ड एक साथ एक दो तीन-चार .....ग्यारह....तेरह-ना, गोलमाल हो गया। एक के साथ एक सटे कितने पक्षी उड़े जा रहे हैं अनेक श्यामल छायाओं का एक भारी समूह ! इनके इकट्ठे उड़ने से जो एक आवाज होती है उसमें भी शायद एक आनन्द होता है, एक अनूठा आकर्षण-देखी-जानी हिसाबी-किताबी, और हानि-लाभ परखनेवाली सांसारिकता के लिए अदेखा-अजाना आकर्षण। दल के बाद दल ! ओह ! कितने हैं ये ! कहाँ छिप गये अचानक ? नहीं; चले गये ये भी जाते और जाते सूर्योदय और सूर्यास्त की ही तरह।
अब तो सामने से उड़ते जा रहे हैं कौए। मानो गाँव भर के कौए एक साथ उड़ने निकले हों। काला कौआ बस काँव-काँव करता है। मगर इस कर्कश ध्वनि और उसके पंख हिलाने की भंगिमा में भी एक छन्द है, उस आकाश और माटी के साथ एक समन्वय है और उसके साथ ही एक सन्देश भी, जो मन को छू-छू रहा है और जिससे लगता है कि मानो यह आकाश अपना हो, यह माटी भी उसकी अपनी हो। उड़ते हुए ये वहीं चले जा रहे है जहाँ पहले भी उड़कर गये हैं।
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