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तिरिछ

उदय प्रकाश

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3013
आईएसबीएन :9788181437143

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उदय प्रकाश की नौ कहानियों का संग्रह...

Tirichh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उदय प्रकाश के बारे में यह कहना काफी नहीं है कि वे हमारे समय के सबसे अच्छे युवा कहानीकार हैं,बल्कि सच यह है कि उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दी कहानी के परिदृश्य में अपने लिए मुकम्मल जगह बना ली है। जब-जब लोग प्रेमचन्द्र,अमरकान्त,रेणु और रामनारायण शुक्ल आदि को याद करेगें,तब-तब उदय प्रकाश का उल्लेख भी आयेगा। उनका यह कहानी-संग्रह इस बात की पुष्टि करता है। हमारे यहाँ हिन्दी में अच्छे कहानीकारों की आज भी कमी नहीं है। कम से कम एक दर्जन ऐसे नाम हैं जिनका जिक्र करते हुए हमें खुशी हो सकती है। लेकिन ‘तिरिछ’ ‘छप्पन तोले का करधन’ या ‘हीरालाल का भूत’ जैसी कहानियाँ लिखने के लिए कला ही नहीं,कलेजा भी चाहिए। प्रेमचन्द्र ने ‘कफन’ में यथार्थ के ऐसे रूप को प्रस्तुत किया था, जो न केवल विचलित और विह्रल कर देने वाला था,बल्कि असहनीय भी था। उसे स्वीकार करना,पचाना और दिखाना किस प्रकार लगभग संभव है,यह बाद की कहानी का इतिहास बताता है। लेकिन उदय ने अपनी इन कहानियों में औपन्यासिक विजन के साथ इस असहनीय यथार्थ को प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में अद्भुत किस्सागोई है लेकिन मजे लेकर वर्णन करने का अभाव है। इनमें हमारे समाज की भर्त्सना भी है और उसकी गरुण गाथा भी। ये कहानियाँ सधी और तनी हुई कविता भी हैं और ऐसी कहानियाँ भी, जो अपनी वस्तु ही नहीं,पूरी आंतरिकता में भारतीय हैं। ये कहानियाँ विराट् फंतासी भी हैं और निर्मम, वस्तुपरक बयान भी।

 

नेलकटर

सावन में घास और वनस्पतियों के हरे रंग में हल्का अँधेरा-सा घुला होता है। हवा भारी होती है और तरल। वर्षा के रवे पर्तों में तैरते हैं।
 मैं नौ साल का था ।
इसी महीने राखी बँधती है। कजलैयाँ होती है। नागपंचमी में गोबर की सात बहनें बनाई जाती हैं। धान की लाई और दूध दोने में भरकर हम साँपों की बाँबियाँ खोजते फिरते हैं।
हरियरी अमावस भी इसी महीने होती है। मैं बाँस की खूब ऊँची जेंड़ी बनाकर उस पर चढ़कर दौड़ता था। मेरी ऊँचाई कम से कम बारह फुट की हो जाती होगी।

माँ दक्षिण की ओर के कमरे में रहती थीं। बम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल से उन्हें ले आया गया था। सिर्फ अनार का रस पीती थीं। वे बोलने के लिए अपने गले में डॉक्टरों द्वारा बनाई गई छेद में उँगली रख लेती थीं। वहाँ एक ट्यूब लगी थी। उसी ट्यूब से वे साँस लेती थीं।
बहुत बारीक, ठंडी और कमज़ोर आवाज़ होती थी वह। कुछ-कुछ यंत्रों जैसी आवाज़। जैसे बहुत धीमे वाल्यूम में कोई रेडियो तब बोलता है जब बाहर खूब ज़ोरों की बारिश हो रही हो और बिजलियाँ पैदा हो रही हों, या तब जब सुई किन्हीं बहुत दूर के दो स्टेशनों के बीच कहीं अटक गई हो।

माँ को बोलने में दर्द बहुत होता होगा। इसलिए कम ही बोलती थीं। उस यंत्र जैसी आवाज़ में हम माँ की पुरानी अपनी आवाज़ खोजने की कोशिश करते। कभी-कभी उस असली और माँ जैसी आवाज़ का कोई एक अंश हमें सुनाई पड़ जाता। तब माँ हमें मिलती, जो हमारी छोटी-सी समृति में होती थी।
लेकिन माँ सुनना सब कुछ चाहती थीं। सब कुछ। हम बोलते, लड़ते, चिल्लाते या किसी को पुकारते तो व्याकुलता से वे सुनतीं। हमारे शब्द उन्हें राहत देते होंगे।
उनकी सिर्फ आँखें बची थीं, जिन्हें देखकर मुझे उम्मीद बँधती थी कि माँ कहीं जाएगी नहीं मेरे पूरे जीवन भर रही आएँगी। मैं हमेशा के लिए उनकी उपस्थिति चाहता था। चाहे वे चित्र की तरह या मूर्ति की तरह ही रही आयें। और न बोलें।

लेकिन उनके जीवित होने का विश्वास भी रहा आये, जैसा कि चित्रों के साथ नहीं होता।
मैं कभी-कभी बहुत डर जाता था और रोता था। अपने जीवन में अचानक मुझे कोई एक बहुत खाली-बिल्कुल खाली जगह दिख जाती थी। यह बहुत डरावना होता था।
उस दिन माँ ने मुझे बुलाया। बाहर मैदान में घास का रंग गहरा हरा था। बादल बहुत थे और हवा में भार था। वह भीगी हुई थी।
माँ ने अपनी हथेली मेरे सामने फैला दी। दायें हाथ की सबसे छोटी उँगली की बगलवाली ऊँगली का नाखून एक जगह से उखड़ गया था। उससे उन्हें  बेचैनी होती रही होगी।
इस उँगली को सूर्य की उँगली कहते हैं।
मैं समझ गया और नेलकटर लाकर माँ की पलंग के नीचे फर्श पर बैठ गया। नेलकटर में लगी रेती से मुझे उनकी उँगली का नाखून घिसकर बराबर करना था। माँ यही चाहती थीं। वह नेलकटर पिताजी इलाहाबाद से लाए थे, कुंभ के मेले से लौटने पर, दो साल पहले। नेलटकर में नीले काँच का एक सितार बना था।

माँ की उँगलियाँ बहुत पतली हो गई थीं उनमें रक्त नहीं था। पीली-सी त्वचा। पतंगी कागज़ जैसी। पीली भी नहीं, ज़र्द। और बेहद ठंडी। ऐसा ठंडापन दूसरी, बेजान चीज़ों में होता है। कुर्सियों, मेज़ों, किवाड़ों या साइकिल के हैडिल जैसा ठंडापन।
और हाथ उनका इतना हल्का कैसे हो गया था ? कहाँ चला गया सारा वज़न ? वह भार शायद जीवन होता है, जिसे पृथ्वी अपने चुबंक से अपनी ओर खींचा करती है। जो अब माँ के पास बहुत कम बचा था। उन्हें पृथ्वी खींचना छोड़ रही थी।
मैंने उसकी हथेली थाम रखी थी। और नाखून को रेती से धीरे-धीरे घिस रहा था। मैं उनके नाखून को बहुत सुन्दर, ताज़ा और चिकना बना डालना चाहता था।

मैं एक बार हँसा। फिर मुस्कराता ही रहा। माँ को ढांढस बँधाने और उन्हें खुश करने का यह मेरा तरीका था। मैंने देखा, माँ को नाखून का हल्का-हल्का रेती से घिसा जाना बहुत अच्छा लग रहा है। उसके चेहरे पर एक सुख था, जो एक जगह नहीं बल्कि पूरे शरीर की शान्ति में फैला हुआ था, उन्होंने आँखें मूंद रखी थीं।
एक घंटा लगा। मैंने उनकी एक उगली ही नहीं, सारी उँगलियों के नाखून खूब अच्छे कर दिये। माँ ने अपनी उँगलियाँ देखीं। यह कितना कमजोर और हार का क्षण होता है, जब नाखून जीवन का विश्वास देते हैं। कितने सुदंर और चिकने नाखून हो गये थे।

माँ ने मेरे बालों को छुआ। वे कुछ बोलना चाहती थीं। लेकिन मैंने रोक दिया।
वे बोलतीं तो पूछतीं कि मैं सिर से क्यों नहीं नहाता ? बालों में साबुन क्यों नहीं लगाता ? इतनी धूल क्यों है ? और कंघी क्यों नहीं कर रखी है ?

रात में ठंड थी। बाहर पानी ज़ोरो से गिर रहा था। सावन में रात की बारिश की अपनी एक गम्भीर आवाज़ होती है। कुछ-कुछ उस तरह जैसे दुनियाँ की सारी हवाएँ किसी बड़े से घडे़ के अन्दर घूमने लग गयी हों। हर तरफ से बन्द।
सुबह पाँच बजे आँगन में पाँच औरतें रो रही थीं। यह रोना नहीं था, विलाप था, पता चला माँ रात में नींद में ही खत्म हो गयीं। माँ खत्म हो गयीं।
 
मैंने फिर कभी उनके घिसे हुए नाखून नहीं देखे। मैंने उस रात सोने से पहले अपने तकिए के नीचे वह नेलकटर रख दिया था। उसे मैंने बहुत खोजा। बल्कि आज तक। कई वर्षों बाद भी। लेकिन वह आज भी नहीं मिला। वह पता नहीं कहाँ खो गया था।
हो सकता है वह किसी बहुत ही आसान-सी जगह पर रखा हुआ हो और सिर्फ़ मेरे भूल जाने के कारण वह मिल नहीं पा रहा हो। मैं अक्सर उसे खोजने लगता हूँ।
क्योंकि चीज़े कभी खोती नहीं हैं वे तो रहती ही हैं। अपने पूरे अस्तित्व और वज़न के साथ। सिर्फ़ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं।

 

डिबिया

 

 

 डिबिया अभी तक मेरे पास है। कई वर्षों से मैंने उसे खोलकर भी नहीं देखा। लेकिन उसे खोजने का निर्णय पूरी तरह मुझ पर निर्भर करता है। समाज या कोई और, कोई दोस्त भी, मुझ पर यह दबाव नहीं डाल सकता कि मैं उसका ढ़क्कन सिर्फ़ इसलिए खोल दूँ कि इससे मेरी बातों के प्रति उसका विश्वास पैदा हो जाएगा। नहीं तो, मैं कभी भी, जीवन भर, विश्वसनीयता नहीं हासिल कर सकूँगा।
 
यानी, अगर मुझे अपने अनुभव की सत्यता को प्रमाणित करना है तो मैं उन लोगों के सामने अपनी  उस डिबिया का ढक्कन हटा दूँ, जो वर्ना मुझ पर विश्वास नहीं करते। मेरे अनुभव जिन्हें, वर्ना अविश्वनीय लगते हैं।
लेकिन समस्या यह है कि यह कैसे पता चले की उन लोगों का विश्वास हासिल करना, मेरे लिए इस डिबिया को खोलने से जोखिम और दांव से ज़्यादा मूल्यवान है ? यह भी तो हो सकता है कि उन सबको मेरी बात से प्रमाणित हो जाने पर सिर्फ मेरे एक इस अनुभव पर विश्वास हो जाये, लेकिन दूसरे बाकी अनुभवों को वे फिर भी अविश्नीय मानते रहें।
 
ऐसे में तो अपनी बातों को उन तमाम लोगों के सामने प्रमाणित करते-करते ही मैं बूढ़ा हो जाउँगा। मर भी जाऊंगा। और तब भी मेरे बहुत से अनुभव अप्रमाणित ही रहे आयेगें। यानी अन्ततः मैं उन लोगों के लिए अविश्सनीय ही नहीं बना रहूँगा।

फिर एक सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि अपने दूसरे बाकी अनुभवों का प्रमाण देने के लिए मेरे पास दूसरी डिबिया भी नहीं हैं। मैं किस तरह से अपने जीवन की सत्यता को इतने सारे लोगों के लिए प्रमाणित करता रहूँ ?
यही कारण है कि मैं उस डिब्बी का ढक्कन नहीं हटाता। अकेले में भी, दूसरों के सामने भी। क्योंकि संदेह मुझे कभी-कभी अपने ऊपर भी होता है। इतने वर्षों बाद मैं भी तो, उस एक अनुभव के लिए, एक दूसरा आदमी बन चुका हूँ।

वह डिब्बी बचपन से मेरे पास है। उसकी कहानी बहुत छोटी-सी है ऐसी भी नहीं कि वह अरुचिकर हो।

तो, था यह कि उस समय मेरी उम्र आठ साल की रही होगी। सातवें साल से दूधियां दाँत टूटने लगते हैं लेकिन तब तक दाढ़ दाढ में वे दाँत नहीं उग पाते, जिनसे अक्ल पैदा होती है।

हमारा घर गाँव में है। पहले मिट्टी का घर था। छप्पर खपड़ैल की होती थी। अभी भी खपड़ैल की ही होती है। गाँव से लगा हुआ जंगल था। जंगल में लंगूर बहुत होते थे। बल्कि लंगूर शब्द मैंने काफी बाद में सीखा, किताबों से। हम उन्हें काले मुँह का बन्दर कहते थे।
और कौए बहुत होते थे। हमारी दादी खाना खाने के बाद दोपहर आँगन में कौओं को बुलाती थीं, खाना देने के लिए, तो वे पूरे आँगन में भर जाते थे।

लंगूर और, कौए, दोनों हमारे घर की छप्पर के दुश्मन थे। लंगूर छप्पर पर दौड़ते तो खपड़े फूट जाते। कौए भी जगह-जगह से खपड़ैलों को हटा देते थे।
जहाँ-जहाँ खपड़ैलें फूट गयी होती थीं, वहाँ बरसात का पानी घर के अन्दर टपकने लगता था। हम वहाँ खाली बाल्टी रख देते थे।

लेकिन जब बारिश न होती तो उन छेदों से धूप कमरे  के भीतर फर्श पर गिरती थी। फर्श पर धूप के वे गोल टुकड़े बहुत रहस्यपूर्ण आकर्षण और कुछ-कुछ जीवित लगते थे। वे टुकड़े सूर्य के साथ-साथ सरकते थे और उनका आकार भी बदलता जाता था। जिस टुकड़े को सुबह मैं किसी मछली के रूप में देख जाता था, दोपहर वह हाथी के रूप में होता। या मुँह फाड़े हुए राक्षस की तरह। कभी-कभी किरणों का कोण या सूर्य की स्थिति बदलने से कोई टुकडा अदृश्य भी हो जाता। देखते-देखते वह छोटा होता जाता और फिर अंतर्धान हो जाता। अगले दिन ठीक उसी समय पर प्रकट होने के लिए। कभी-कभी कमरे में कई ऐसे टुकड़े दिखने लगते। फिर धीरे-धीरे छोटेवाले टुकड़े सब गायब हो जाते और जो सबसे बड़ा होता, वह सबसे देर तक टिकता।

इन टुकड़ो के साथ एक बात और भी थी। कमरे के अँधेरें में, जिस जगह वह गिरते, वहाँ अपने चमकदार अस्तित्व के चारों ओर, वृत्ताकार रोशनी का एक मद्धिम दायरा और बनाते थे। उस दायरे में आकाश का धुँधला प्रतिबिंब होता था। उल्टा आकाश और हल्के नीले रंग का। चिड़ियाँ कभी अगर ऊपर से जातीं तो कमरे के अन्दर उनकी उड़ती हुई परछाईं गुजर जाती। रेंगते हुए बादल दिखते। कभी-कभी ये बादल उस टुकड़े को ही ढांक लेते। तब ऐसे में कुछ भी न बचता। न प्रतिबिंब, न टुकड़ा।
वे टुकडे मुझे बहुत जीवित और जादुई लगते थे। मैं उन्हें अपने साथ वहाँ से दूसरी किसी जगह ले जाने के फेर में रहता। इतना तो निश्चित था कि इनमें जीवन था और उनके साथ मैं सिर्फ किसी पराये दर्शक जैसा सम्बन्ध नहीं रखना चाहता था। मैं उनके साथ इस पूरे दिन भर के खेल में शामिल होना चाहता था।

मैं बहुत कोशिश करता लेकिन वे अपनी जगह से कहीं नहीं जाते थे। जिस चीज़ को मैं उनके नीचे रखता, वे उसके ऊपर आ तो जाते लेकिन उसे खींचते ही थे वे वहीं रह जाते। हथेली में वे रहते है लेकिन मुट्ठियाँ बाँधते ही वे उँगलियों के ऊपर आ जाते और मेरा हाथ खाली ही लौट आता।
कई बार हारकर गुस्से में मैं उन्हें ज़ोरो से पीटता। लात मारता। लोहे से ज़मीन खोद डालता। लेकिन वे बिल्कुल अप्रभावित रहते थे। मेरे प्रति उनकी यह तटस्थता मेरे बर्दाश्त के बाहर थी।
फिर उस दिन ऐसा हुआ। मैं अकेला था। यह रसोई थी। एक बड़ा-सा, सुन्दर-सा टुकड़ा वहाँ गिरा हुआ। खेल रहा था। माँ खाना बनाकर कहीं चली गई थीं। मैंने उस टुकड़े को खूब प्यार करने की कोशिश की। उसे चूमा फिर मैंने भात और दाल निकालकर उसे दिया।
रसोई में बेना रखा हुआ था। चूल्हे की आग को हवा करने के लिए उसी का इस्तेमाल होता है। मैंने बेने के ऊपर उस टुकड़े को रखा और उसे खींचा।

मैंने देख लिया कि वह बेने के साथ-साथ सरक रहा है। वह आ रहा था। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी। वह अब छप्पर से मुक्त हो चुका था। सूर्य से भी। मेरे साथ उसका सम्बन्ध बन चुका था और उसने अपने बाकी सारे सम्बन्ध तोड़ दिये थे। वह मेरा था। सिर्फ मेरा।
मैं उसे रसोई घर के दूसरे कोने तक ले गया। फिर मैंने उससे प्यार से कहा-‘मेरा इन्तजार करना मैं अभी आया।’ और मैं भागा। टिन की यह डिबिया, जिसमें पहले माँ का काजल था, उसे लेकर मैं लौटा। वह मेरा इन्तजा़र कर रहा था, बेने के ऊपर। धीरे-धीरे काँपता हुआ।
मैंने तभी से उसे इस डिबिया में बन्द कर रखा है। मैं जानता हूँ कि वह वहीं हैं, वह हमेशा वहीं है, वह हमेशा वहीं रहेगा। और यह बात सच है।
 
क्या इस डिबिया का ढक्कन हटाकर उसे खो देने का इतना बड़ा खतरा मैं सिर्फ इसलिए मोल लूँ, कि इससे उन लोगों को मेरे इस अनुभव पर विश्वास हो जायेगा। वर्ना मैं उनका विश्वास कभी हासिल नहीं कर सकूँगा।
लेकिन जो नहीं है, उसके लिए, जो है, उसे दाँव पर लगाना क्या कोई समझदारी है !

 

अपराध

 

 

मेरे भाई मुझसे छह साल बड़े थे। आश्चर्य था कि पूरे गाँव में सभी लड़के मुझसे छह वर्ष बड़े थे। मैं इसलिए सबसे छोटा था और अकेला था। सब खेलते तो उनके पीछे मैं लग जाता।
मेरे भाई बचपन से अपाहिज थे। उनके एक पैर में पोलियो हो गया था। लेकिन वे बहुत सुदंर थे। देवताओं की तरह। वे आसपास के कई गाँवों में सबसे अच्छे तैराक थे और उनको हाथ के पंजों की लड़ाई में कोई नहीं हरा सकता था। घूँसे से नारियल और ईंटें तोड़ देते थे।
जबकि मैं दुबला-पतला था। कमज़ोर और चिड़चिड़ा। मुझे अपने भाई से ईर्ष्या होती थी क्योंकि उनके बहुत सारे दोस्त थे।
मैं सबसे छोटा था इसलिए मैं भाई के लिए एक उत्तरदायित्व की तरह था। वे मुझसे प्यार करते थे और मेरे प्रति उनका रूख एक संरक्षक की ज़िम्मेदारी जैसा था।

सब खेलते और मैं छोटा होने के कारण अकेला पड़ जाता तो भाई आकर मेरी मदद करते। जोड़ी और पानी वाले कई खेलों में वे मुझे अपनी पाली में शामिल कर लेते थे। कोई दूसरा लड़का अपनी पाली में मुझे शामिल करके हार का खतरा नहीं उठाना चाहता था। अक्सर भाई मेरी वजह से ही हारते। फिर भी वे मुझसे कभी कुछ नहीं कहते थे। मैं उनकी ज़िम्मेदारी था और वह उसे निभाना चाहते थे। जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कभी मुझे नहीं मारा।

जो कुछ मैं बताने जा रहा रहा हूँ उसका सम्बन्ध भाई और मुझसे ही है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है। ऐसी घटना जो जीवन भर आपका साथ नहीं छोड़ती और अक्सर स्मृति में, बीच-बीच में, कहीं अचानक सुलगने लगती है। किसी अंगारे की तरह।

हुआ उस दिन यह कि मैं भाई के साथ खेलने गया। उस दिन बारिश हो चुकी थी और शाम की ऐसी धूप फैली हुई थी जो शरीर में उल्लास भरा करती है। ऐसे में कोई भी खेल बहुत तेज़, रतिमय और सम्मोहक हो जाता है।
सभी लड़के खड़ब्बल से खेल रहे थे। लकड़ी की छोटी-छोटी डंडियाँ हर लड़के के पास थीं। पूरी ताकत से खड़ब्बल को ज़मीन पर, आगे की ओर गति देते हुए, सीधे मारा जा रहा था। ताकत और संवेग से नम धरती पर गिरा हुआ खड़ब्बल गुलटियाँ खाते हुए बहुत दूर तक जता था।
 
मुझमें न इतनी ताकत थी, न मैं इतना बड़ा था कि खड़ब्बल उतनी दूर तक पहुँचाता, जबकि वहाँ एक होड़, एक प्रतिद्वंद्विता शुरू हो चुकी थी। कोई भी हारना नहीं चाहता था। यह एक ऐसा खेल था जिसमें कोई पाली नहीं होती, कोई किसी का जोड़ीदार नहीं होता। हर कोई अपनी अकेली क्षमता से लड़ता है।
 
भाई भी उस खेल में डूब गये थे। वे कई बार पिछड़ जाते थे। इसलिए गुस्से और तनाव में और ज़्यादा ताकत से खड़ब्बल फेंक रहे थे।

वे मुझे भुला चुके थे। और मैं अकेला छूट गया था। छह वर्ष पीछे। कमज़ोर। उस दिन, उस खेल में शामिल होने के लिए मुझे छह वर्षों की दूरी पार करनी पड़ती, जो मैं नहीं कर सकता था।
भाई जीतने लगे थे। उनका चेहरा खुशी और उत्तेजना में दहक रहा था। उन्होंने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा। वे मुझे पूरी तरह भूल चुके थे।
 
मुझे पहली बार यह लगा कि मैं वहाँ कहीं नहीं हूँ।
मुझे रोना आ रहा था और भाई के प्रति मेरे भीतर एक बहुत ज़बर्दस्त प्रतिकार पैदा हो रहा था। मैं अपने खड़ब्बल को, अकेला अलग खड़ा हुआ था एक पत्थर पर पटक रहा था। मैं ईर्ष्या, आत्महीनता, उपेक्षा और नगण्यता की आँच में झुलस रहा था।

तभी अचानक मेरा खड़ब्बल चट्टान से टकरा कर उछला और सीधा मेरे माथे पर आकर लगा। माथा फूट गया और खून बहने लगा। मैं चीखा तो भाई मेरी ओर दौड़े। खेल बीच में ही रुक गया था।
 
‘क्या हुआ ? क्या हुआ ?’ भाई घबरा गये थे और मेरे माथे को अपनी हथेली से दबा रहे थे मेरा गुस्सा मिटा नहीं था। मैं भाई को अपनी उपेक्षा का दंड देना चाहता था।   

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