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सरकार तुम्हारी आँखों में

पाण्डेय बेचन शर्मा

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3035
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है पाण्डेय बेचन शर्मा का एक मौलिक उपन्यास

Sarkar Tumhari Ankhon Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

कहावत है कि—‘नाई की बारात में जने-जने ठाकुर। और यह कहावत हिन्दी के नामधारी लेखकों पर खूब चस्पाँ है।
ऐसे लोग तो हैं असिल में कोई हज्जाम—मगर; वक्त की खूबी से ‘‘ठाकुर’’ बने तने हैं। रोज़ ही सरस्वती के आँगन में मोह-मयी-प्रमाद-मदिरा-से-पागल अनाप-शनाप बकते सुने जाते हैं...।
अन-जीवत-सम-चौदह-प्राणियों के ये सरदार स्वयं तो प्राण-हीन हैं। एक पन्ना भी ज़ोरदार या मौलिक या सरस नहीं लिख सकते। जो लिखते हैं वह भी महज़ पेटार्थ। जो सोचते हैं वो भी केवल स्वार्थ। मगर; वल्लाह ! ज़रा इन बेशर्मों की बातें तो सुनिए !
ये पैग़म्बरी और साधुत्व और दार्शनिकता और कलाकारिता का दावा करते हैं। जिमि, टिट्टिम पग सूत उताना...!
और अपने से कहीं श्रेष्ठ कलाकारों को निर्जीव या मुर्दा या समाप्त कहते न तो ये थकते हैं, न लज्जित होते। सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि, पार्टी-बन्दी के कारण ज़िम्मेदार लोग भी इनका भण्डा फोड़ने से हिचकते हैं ! सारे साहित्य में—यूरोपियन राजनीति की तरह—एक तहलक़ा मचा हुआ है ! जो जिस कोने में है वह—‘‘टेढ़ेख़ाँ’’ की तरह—वहीं से सर हिला रहा है कि, यदि संसार में कोई है, तो—‘‘सोहं !’’
फ़लतः कई बरसों से हिन्दी में ‘‘तू मरा...मी तुरा’’ या ‘अहो रूपमहोध्वनि’’ ही सुनाई पड़ रही है। किसी भी क्षेत्र में—दुनिया में मुँह दिखाने लायक़ कुछ काम नहीं हो रहा है। चारों ओर ज़रा आँखें खोलिए !—निविड़ान्धकार है। मण्डूक, गीदड़, चमगीदड़ और उल्लू बोल रहे हैं—कहाँ ?—वहाँ, जहाँ मानस-सलिल-सुधा-प्रति-पाली हिन्दी की भारती मराली मुक्तों में बैठकर नीर-क्षीर-विवेक किया करती थी ! आज यह निबन्धकार मुझे निहायत आशा-मय मालूम पड़ता है इसलिए कि; अपना दीपक मन्द, गुण क्षुद्र स्नेह स्वल्प है मगर; है अपना दीपक...!!

 

पाडेण्य बेचन शर्मा ‘उग्र’

 

सरकार तुम्हारी आँखों में

 

 

उस्तादजी...

 

 

‘‘दाने-दाने पर मुहर लगी है नादान !’’
‘‘सही है उस्ताद, मगर; रईस या राजा तो बगैर खुशामद खुश नहीं होता। बनियाँ भी दादा कहने से गुड़ देता है।’’
‘‘अफ़सोस है बेटा ! बेशक दुनिया ऐसी है चिकनी-चुपड़ी पसन्द है, फिर भी ! महज चापलूसी से खुश नहीं होने वाला रईस न तोगुनी होता है और न गुनवन्तों का वाजिब आदर-सत्कार ही कर सकता है।’’
‘‘लेकिन अपने सरकार तो खुशामद पसन्द नहीं है, हाँ; कुछ सरदार औ बेईमान हुजरे ऐसे हैं जिनकी सोहबत में महाराज भी ‘मामूली आदमी’ बन जाते हैं।’
‘‘मगर आपने से तो बीस बरस तक धरमपुर राज का नमक खाने पर भी, साहब या मुसाहब किसी भी खुशामद न हो सकी...’’
‘‘इसीलिए तो उस्ताद ! जब देश के सारे कलावन्त जुड़ गए तब हुजूर की बारी आई और पुकार हुई है। सो भी ऐसी रवारवी में कि, बहुत मुमकिन है मजलिस के वक्त तक हम दरबार में हाजिर न हो सकें और ऊपरी अहलकारों की तेज़ बातें सुननी पड़ें !’’
‘‘बातें तो चाकरी की वजह से सुननी पड़ती हैं—कहावत है ‘चाकर है तो नाचा कर !; ना नाचै तो ना चाकर’ मगर; बेटे अब जल्दी कर, एक अच्छा-सा ताँगा ला ! भागते जाइयो, पैसों का मुँह न देखियो।’’
‘‘बहुत खूब...’’
‘‘मगर; सुन तो, शायद मेरी सुरमेदानी ख़ाली हो गई है—देख ले बेटे ! हाँ, उसी सन्दूकची में है। अह रहीम ! अन्दर जाकर अपनी ख़ाला से दरियाफ़्त तो कर साफ़ा कोई साफ़ है ?’’
‘‘बहुत अच्छा जनाब...’’
तेज़ी से रहीम ने सन्दीकची खोल सुरमेदानी की जाँच की...
‘‘अभी तो बहुत सुरमा इसमें है उस्ताद !’’
‘‘ला ! मुजे दे...आइना भी भागता हुआ जा बेटे ! देख तेज़ ताँगा लाइयो, देर न करियो ! सात बजे से जलसा शुरू होने वाला है।
—जरा सुन तो ! मेरी घड़ी में कितने बजे ? मगर नहीं; तू ताँगा लाने जा ! फ़ीरोज़ी से घड़ी मँगाये लेता हूँ। जा...भागता जा !—फ़ीरोज़ी ! ओ बेटी !’’
‘‘आईअब्बा—जी !’’
अन्दर मकान से बाँसुरी-सी सुरीली आवाज़ आई, साथ ही; भागती हुई फ़ीरोज़ी भी बाहर आई।
‘इजाज़त !’’
‘‘धरमपुर जाना है, ज़रा अपनी अम्माँ से पूछ दरबार लायक़ कोई साफ़ा बकस में है ? और सुन—मेरी घड़ी भी लेती आइयो !’’
फ़ीरोज़ी झपके से अन्दर गई। इधर उस्तादजी निहायत सावधानी से आइने के सामने आँखों में सुरमा सजाने लगे...फिर चूड़ीदार पायजामा...फिर चिकन का बूटेदार कुरता और किनख़ाब के अचकन से वे लैस हुए। तब तक फ़ीरोज़ी भी घड़ी और जोधपुरी पगड़ी लिये आ गई।
‘‘रख रख दे बेटी ! अब जाकर अपनी अम्मा से पूछ शीशी में ‘दवा’ है या नहीं ?’’
‘दवा’ उस्तादजी दारू को कहा करते थे— फ़ीरोज़ी पुनः मकान में चली आई। अब उस्तादजी पगड़ी सँवारने लगे—बाँकी, पेंचदार ! अच्छी तरह सज और आइने में बार-बार अपनी छवि निहारकर उस्तादजी ने अब बीन पर नज़र डाली। उसको खोल के बाहर किया औ झाड़-पोंछ कर मशरिफ़ की ओर मुँह कर उन्होंने उस साज को माथे से लगाया—न जाने क्या मन्त्र-सा कुछ बुदबुदाने लगे और फिर; कई बोसे उस्ताद ने बीन के लिये !
‘‘उस्ताद !’’ रहीम भागता आया-‘‘ताँगे तो सभी धरमपुर चले गए...!’’
‘‘तब तो मार डाला ! एक भी—?’’
‘‘एक ताँगा मिला है मगर; निहायत ख़राब। सारे रास्ते वह चर्रखचूँ चिल्लाएगा-वे-सुरा, और उसका मरियल टट्टू-क़सम खुदा की उस्ताद !—कम से कम साढ़े तीन दिन में ढाई कोस चलेगा।’’
‘‘भुस ग़नीमतस्त...शुक्र...है, कुछ तो लाया !’’
फ़ीरोज़ी आई—‘दवा’ की शीशी (ठर्रे की बड़ी बोतल) दोनों हाथ में सँभाले।
‘‘और गिलास ?’’—उजलत में उस्ताद ने फ़ीरोज़ी से पूछा-‘‘भूल गई ? जब करेगी आधा काम, खुदा करे गारंत न करे ? इसे कब शऊर होगा—ला ?’’
मुँह से बोतल लगा, बिना चखने, सोडा या पानी के आधी बोतल लहरीली आग उस्तदजी ने अपने पेट में फैला दी। फिर (बीड़ी सुलगा कर) मुँह भकाभक धुआँ बाहर फेंकने लगे, और अब; धरमपुर जाने के लिए उनका ‘अञ्जन’ तैयार हो गया—
‘चल बेटा !’’ —उस्ताद ने रहीम को ललकारा—‘‘साज को ताँगे में रख दे ! तू भी चलेगा न ?’’
‘‘जैसा हुक्म हो...’’
‘‘चल तू भी ! मौके-बे-मौके वहाँ दवा वगैरह घटे-बढ़े तो, तेरी जरूरत पड़ेगी।’’
क्षणभर बाद क़स्बा रसूलपुर से मरियल घोड़े वाले एक टुटहे ताँगे पर दो जन धरमपुर की ओर लुढ़कते नज़र आए—उनमें एक था सागिर्द रहीम और दूसरे थे मशहूर वीणकार और गुणी और गायक उस्ताद गुलाबख़ाँ ‘रसूलपुरी’।


 

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