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दिन एक नदी बन गया

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 1984
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3041
आईएसबीएन :17.1-07-784/N

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कविताओं के संग्रह का वर्णन...

Din Ek Nadi Ban Gaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारे हाथ में
सोने की नहीं
सरकंडे की कलम है
सरकंडे की कलम
खूबसूरत नहीं, सही लिखती है
वह विरोध के मंच लिखती है
प्रशस्ति-पत्र नहीं लिखती है
हम कठघरे में खड़े हैं, खड़े रहेंगे
और कठघरे में खड़े हर उठे हुए हाथ को
अपने हाथ में ले लेंगे
राजा कौरव हों या पांडव
हम तो सदा वनवास ही झेंलेगे।

नदी बहती है


हमेशा आकाश से झरती है एक नदी
और हमेशा ऊपर ही ऊपर कोई पी लेता है
धरती प्यासी की प्यासी रहती है
और कहने को आकाश से नदी बहती है।

28-7-77

कलम


हमारे हाथ में सोने की नहीं
सरकंडे की कलम है।
सरकंडे की कलम
खूबसूरत नहीं, सही लिखती है
वह विरोध के मंच लिखती है
प्रशस्ति-पत्र नहीं लिखती है
हम कठघरे में खड़े हैं, खड़े रहेंगे
और कठघरे में खड़े हर उठे हुए हाथ को
अपने हाथ में ले लेंगे
राजा कौरव हों या पांडव—
हम तो सदा वनवास ही झेलेंगे।

29-7-77

पता


चारों ओर काँटों का जंगल है
और भीतर कहीं
एक डरी हुई लता है।
जाओ, चले जाओ
यही उसके घर का पता है।

5-1-80

मौसम


पेड़ पर बैठी हुई चिड़िया
जब गाते-गाते एकाएक रुक गयी
और बिना फल के बोझ के ही
डाल
एक बार काँपी और झुक गयी
तो मुझे लगा कि मौसम बदल रहा है।

7-1-80

घरौंदे


हर दिन आता है
कुछ नये संकल्प लेकर
और शाम को छोड़ जाता है
रेत ही रेत
और हम हर सुबह
उस रेत में घरौंदे बनाते हैं।

10-1-80

वह


बजबजाती हवाओं के बीच
कच्ची दीवार की टूटी छाया
उसके तले
उसी तरह बैठा हुआ वह....
उसके साथ एक कुत्ता, एक बकरी
और उसका साया।

सामने के राजमार्ग से
बार-बार गुजरते
हाथी-घोड़ों के जुलूस की
वह जय बोलता है।

15-1-80

माँ


चेहरे पर
कुछ सख्त अँगुलियों के दर्द-भरे निशान हैं
और कुछ अँगुलियाँ
उन्हें दर्द से सहलाती हैं।
कुछ आँखें
आँखों में उड़ेल जाती हैं रात के परनाले
और कुछ आँखें
उन्हें सुबह के जल में नहलाती हैं।

ये दर्द-भरी अँगुलियाँ
ये सुबह-भरी आँखें
जहाँ कहीं भी हैं
मेरी माँ हैं।
माँ, जब तक तुम हो
मैं मरूँगा नहीं।

5-2-80

सेमल


प्रिय
तुम आये तो
मैं अपना हाड़-हाड़ फोड़कर
तुम्हारे लिए फूट पड़ा
और मेरा सारा रक्त फूल बनकर दहकता रहा।
अब इसमें मेरा क्या कसूर
कि मेरे सर्वस्व-समर्पण को भी
तुम अपनी गंध नहीं दे सके
और औरों का अधूरा समर्पण भी
तुम्हारी दी हुई साँस से महकता रहा।

14-2-79

सड़क


सड़क ने कहा-
‘‘चलोगे ?’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘दायरे से बाहर जहाँ देश है।’’
और मैं खुश होकर उसके साथ हो लिया।
कितना अच्छा लगा था दायरे से बाहर निकलना
वह वसंत का दिन था
और सड़क मुझे लिए जा रही थी।
पहली बार का असीम यात्रा-कौतूहल मेरी आँखों में था
और मैं पुलकित होकर देख रहा था-
सड़क के आसपास
ऊष्मित गंध से लदे खेतों का विस्तार
बौरों से लदी अमराइयाँ
चहचहाते पक्षी
खेलते बच्चों से छोटे-छोटे नाले
माँ की ममता की तरह बहतीं निथरी नदियाँ
तट से रेत लेकर बिखेरतीं छोटी बहन की तरह
छोटी-छोटी हवाएँ....
छोटे-छोटे बाजारों का आत्मीय कोलाहल
खेतों में से ताकतीं
खुरदरे प्यार से भरी परिवार-सी आँखें
जिंदगी से लदी बैल गाड़ियाँ
टूटे-फूटे घर
उनमें से फूटते प्यार और मेहनत के गीत
कि मेरे भीतर मेरा गाँव ही
फैलता और बड़ा होता जा रहा है।
मैं इस सड़क को कितना प्यार करने लगा था
यह सड़क नहीं, मेरा देश है।

पता नहीं, कब तक चलता रहा
पता नहीं कितने तरह की मिट्टी की गंध
मेरी साँसों में समाती रही
रंग मेरी आँखों में उतरते रहे
स्पर्श मेरे प्राणों में धुलते रहे
और एकाएक एक दिन
इसने लाकर मुझे
एक जगमगाते कोलाहल के किनारे खड़ा कर दिया।

और मैं भौंचक-सा देखने लगा-
कहाँ आ गया हूँ मैं ?
उसने कहा-
‘‘आओ आगे बढ़ो-यही तुम्हारा देश है।’’
मैं घबराया-सा आगे बढ़ा
लेकिन मेरी नजरें आकाश में टँगी रहीं
ऊँची-ऊँची इमारतें इमारतें..इमारतें
पत्थरों के इतने रंग
इतने आकार
इतना गौरव
और मशीनों पर भागते चिकने-चुपड़े लोग
किसीको किसीकी सुनने की फुर्सत नहीं
मैंने अपने नंगे धूल-धूसरित पैर देखे
काँख में दबी फटी गंदी पोटली देखी

अपना गाढ़े का कुरता देखा
और लगातार भागते एक अलग किसिम के लोगों को
देखने लगा
कहाँ हैं वे लोग
जिन्हें अब तक देखता आया था
यदि यह देश है, तो वह क्या था ?

‘‘मुझे कहाँ ले आयी ओ सड़क !’’
मैं जोर से चिल्लाया
लेकिन वहाँ सड़क थी कहाँ ?
वह तो मुझे छोड़कर गली-गली भागने लगी थी।
और देखा-
देहात से आने वाली वैसी ही अनेक सड़कें
गली-गली भाग रही हैं।
कहीं वे आपस में मिल जाती हैं
कहीं वे एक-दूसरे से टकराती हुई निकल जाती हैं।
इधर भी सड़क, उधर भी सड़क
दायें भी सड़क, बायें भी सड़क
‘‘ओ सड़क !’’
मैं चिल्लाता हुआ दौड़ने लगा
और वह छिप-छिप कर भागती रही
और देखा कि
वह अंत में जाकर एक बहुत बड़ी इमारत
में समा गई।
मैं अपनी पोटली गोद में लिये हुए
उस इमारत के विशाल आंतककारी दरवाजे से कुछ दूर
थक कर बैठ गया
और बैठा हूँ इस इंतजार में
कि शायद सड़क फिर बाहर निकले।

4-4-79

मकान : चार कविताएँ
एक


चिड़िया फिर टाँग गयी है तिनके
घोंसला बनाने के लिए
और मैं फिर उजाड़ दूँगा
मैं कितना असहाय हो गया हूँ
इस लड़ाई में उसके आगे
मुझे अपने कमरे की बाँझ सफाई की चिंता है
और उसे आने वाले अपने बच्चों की।

दो


धीरे-धीरे कुछ हाथ
उगा रहे हैं एक छोटा-सा मकान
ईंट और लोहे से
रचना का एक संगीत उठ रहा है
और कुछ दूर पर रह-रहकर
मशीनों की घड़घड़ाहट के साथ
मकानों के अरराकर टूटने की आवाजें आ रही हैं
हाथ थोड़ा रुकते हैं
फिर डूब जाते हैं मकान का संगीत रचने में।

तीन


जी श्रीमान्,
गंदगी यहाँ का सबसे बड़ा मर्ज है
और इस शहर को साफ रखना
आपका बुनियादी फर्ज है
जी हाँ
इसे साफ रखने के लिए
आपको चारों ओर फैलना ही चाहिए
आप जितना फैलिएगा
आपके लिए रास्ते बनाये जायेंगे
आपके पवित्र शौचालयों के लिए
गंदे मकान गिराये जायेंगे
यह शहर तो आपका ही है।
गंदी जनता का क्या
वह तो जिंदा होकर भी मरी हुई है
देखिए न
वह आपके शहर की होकर भी
आपके शहर के किसी पेड़ की छाँह में भी
डरी हुई है।

चार


नंगे आसमान की बेशर्म आँखें
हर पल हमारे प्यार को निहारती हैं
आवारा हवाएँ हमारे नंगे शरीर से गुजरकर
ताना मारती हैं
मैं ऊँची इमारतों के इस शहर में
एक छोटा-सा मकान खोज रहा हूँ
भीड़ से बचकर अकेले में
अपने को देखने की एक अतृप्त इच्छा
कब से ढो रहा हूँ

मुझे एक मकान चाहिए
जिसकी छोटी-सी क्यारी में
एक नन्हा-सा बिरवा रोप सकूँ
जो केवल अपना हो
जिसकी छत के नीचे लेटूँ
तो सदियों से जगी मेरी आँखों में भी
एक निजी सपना हो
मैं एक छोटा-सा मकान खोज रहा हूँ
ऊँची इमारतों वाले इस शहर में।

5-5-81

बच्चा
[1]


हम बच्चे से खेलते हैं
हम बच्चे की आँखों में झाँकते हैं
वह हमारी आँखों में झाँकता है
हमारी आँखों में
उसकी आँखों की मासूम परछाइयाँ गिरती हैं
और उसकी आँखों में
हमारी आँखों के काँटेदार जंगल।
उसकी आँखें
धीरे-धीरे काँटों का जंगल बनती चली जाती है
और हम गर्व से कहते हैं-
बच्चा बड़ा हो रहा है।

[2]


मेरे बेटे,
मैं नहीं जानता
कि तुम्हारी आँखों के आकाश में क्या-क्या है
हाँ, इतना जानता हूँ कि
मेरी मुट्ठी में कुछ नहीं है
पता नहीं, तुम्हें कहाँ तक पहुँचना है
मैं तो तुम्हें आँगन से
सड़क तक पहुँचा सकता हूँ
आओ मेरे बेटे,
मेरी अँगुली पकड़ लो
इसके सिवा मेरे पास है ही क्या ?
विधाता ने
जब तुम्हें मेरा बेटा बनाया होगा
तो बहुत खुश हुआ होगा-
चलो, भाग्य लिखने से छुट्टी मिली
सोचा होगा
यह तो आदमी है नहीं
बस, आदमी-सा दिखेगा
और लिखना होगा
तो खुद अपना भाग्य लिखेगा।

[4]


तुम चकित होकर देख रहे हो
कि तुम मि्टटी से पैदा हुए
मि्टटी में पले
मिट्टी में भीगे, और मिट्टी में जले
मिट्टी के रूप, रस, गंध, स्पर्श को
अपने प्राणों में भरते रहे
हर मौसम के तले
अपने को मिट्टी से एक करते रहे
और अभी-अभी
सीधे आकाश से जो देवशिशु उतरा है
(जिसे ऊपर ही ऊपर लोक लिया गया है)
उसकी जय बोली जा रही है-
‘‘धरती-पुत्र की जय !’’
नहीं, मेरे बच्चे
उधर मत देखो
वह दिशा तुम्हारी नहीं है।

1-9-81

चूहे


सावधान
चूहे फिर उतरा गये हैं सड़क पर
जल्दी ही घरों में प्रवेश करेंगे
अपनी-अपनी किताबें सँभाल लो
ये गोदाम या तिजोरी नहीं काटते
केवल किताबें काटते हैं
क्योंकि उनमें इनसे बचने
या मारने के उपाय लिखे होते हैं।

27-5-80

इन्तजार


हर चौराहे पर
दुर्घटनाग्रस्त होकर तड़प रहा है एक देश
और हम
डाक्टर के बदले
पुलिस का इन्तजार कर रहे हैं।

30-5-80

अस्पताल


डाक्टर हड़ताल पर हैं
और पुलिस ड्यूटी पर
देखिए, इस अस्पताल का क्या होता है !

30-5-80





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