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खामोशी के उस पार

उर्वशी बुटालिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3058
आईएसबीएन :81-7055-993-6

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भारत के बँटवारे पर आधारित उर्वशी बुटालिया का कहानी संग्रह...

Khamusi Ke Us Par

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंसक तथा आप्लावनकारी घटनाओं की यादें अब जन स्मृति की चुप्पियों में खोई हुई हैं। देश विभाजन से प्रभावित असंख्य लोग, लेकिन जब अपने अकेले पन के साथ होते हैं, इन चुप्पियों के परदे हटने लगते हैं और भयावह दिनों की दस्तक सुनाई देने लगती है- क्योंकि इनकी देहों और आत्माओं पर उन जख्मों की खरोंचें अभी भी बनी हुई हैं जो 1947 के उन खूनी दिनों की देन है।
उर्वशी बुटालिया की यह विलक्षण पुस्तक लगभग एक दशक के शोध कार्य, सैकड़ों स्त्रियों, प्रौढ़ों और बच्चों से लम्बी अंतरंग बातचीत और ढेर सारे दस्तावेजों, रिपोर्टों, संस्मरणों, डायरियों तथा संसदीय रिकार्डों के आधार पर लिखी गई है। इसके पन्ने पर उन बेशुमार आवाजों और वृत्तान्तों को संवेदनशीलता के साथ उकेरा गया है जो आजादी हासिल करने के पचास साल बाद भी ह्रदयहीनता और उपेक्षा के मलबे में दबी पड़ी थीं-क्योंकि उनसे मुठभेड़ करने का साहस हम नहीं जुटा पाये हैं।
इस मुठभेड़ के बगैर यह समझ पाना मुश्किल है कि किन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर विभाजन स्वीकार किया गया था और हकीकत में क्या-क्या घटित हुआ- खासकर महिलाओं के साथ।भारत का बँटवारा (1947) इतिहास के चंद गम्भीरतम झंझावातों में से एक । एक करोड़ बीस लाख लोग बेघर हो गये, दस लाख जानें गईं, पचहत्तर हजार स्त्रियों के बारे में कहा जाता है कि वे अगवे और तरह-तरह की जबरदस्तियों का शिकार हुईं, परिवार बिखरे, सम्पत्ति छूटी और घर उजड़े।

 

अपनी माँ सुभद्रा के लिए और अपने पिता जोगिन्दर के लिए जिन्होंने मुझे विभाजन के बारे में बताया। अपने मामा, राणा मामा के लिए जो दिन-प्रतिदिन विभाजन को भोगते हैं; और अपनी नानी दयावन्ती/आयशा के लिए जिनके जीवन को विभाजन ने उनकी मौत की तरह ही गढ़ा।

 

आभार

 

इस पुस्तक को लिखने के विचार से ज्यादा, मैंने आभार व्यक्त करने के विचार से जी चुराया है। मैं उन बहुत-से मित्रों का शुक्रिया किस तरह से अदा करूँगी जिन्होंने मेरा हाथ थामा है, और इस पूरी कवायद के दौरान केवल हिमायती बने रहने से काफी अधिक रहे हैं ? मैं उन्हें याद भी कैसे करूँगी ? और भूलती हूँ, तब मैं क्या करूँगी ? बहुत साल हो गए जब मैंने इस परियोजना पर काम करना आरम्भ किया था। तब मैं यह भी नहीं जानती थी कि यह अन्ततः एक पुस्तक की शक्ल ले लेगा, लेकिन अब जब यह एक पुस्तक के रूप में सामने है, तो मुझे उन विभिन्न तरीकों को याद करने के लिए अपनी स्मृति को बरसों पीछे ले जाने की जरूरत है, जिसमें मेरे मित्रों द्वारा इस काम को प्रभावित किया गया है-हालाँकि निःसन्देह, मैं यह सामान्य स्वत्वत्याग अवश्य करूँगी कि गलतियाँ सारी मेरी हैं।

मेरा पहला धन्यवाद पीटर चैपल और सत्ती खन्ना को जाता है जिनकी फिल्म ‘ए डिवीज़न ऑफ हार्ट्स’ ने मुझसे यह काम शुरू कराया था। मैं अपने मित्र, सी.वी. सुब्बाराव की बहुत अधिक अहसानमन्द हूँ और मेरे लिए, सबसे अधिक दुखद बात यह है कि मेरे काम की आलोचना करने, तर्क करने, मेरी गलतियाँ खोजने और मेरी सहायता करने के लिए अब सुब्बा मौजूद नहीं हैं। मैं यह कसरत जारी नहीं रख सकती थी यदि मेरी बहुत प्यारी मित्र और पुरानी हमसफर सुदेश वैद्य न होती, जिसने उस समय उदारतापूर्वक इस कार्य में शामिल होने और मदद करने का प्रस्ताव किया, जब ऐसी दुखद घटना की कहानियाँ सुनना विशेष रूप से भारी लगने लगा था। सारी दुनिया में फैले हुए मेरे अनेक परिवार हैं। बिल्कुल शुरुआत से ही मेरे लन्दन परिवार के लोग-ऑलिविया बेनेट, स्टीफन क्लूस, सारा हॉब्सन, अपर्णा जैक, नैला कबीर, मुन्नी कबीर, मैरियन और राबर्ट मॉल्टेने, बन्नी पेजे, अन्ने रॉडफोर्ड, रूपर्ट स्नेल और पॉल वेस्टलेक मेरे लिए प्रोत्साहन के ऐसे स्रोत रहे हैं कि मेरे लिए उन्हें शुक्रिया अदा करने को शब्द खोजना कठिन है। न केवल उन्होंने मुझे, मेरे अपने घर से दूर, इतने सारे घर उपलब्ध कराए, बल्कि उनके जीवन में मेरे अनगिनत अतिक्रमणों और मेरे द्वारा उनका मूल्यवान समय लेने को भी बर्दाश्त किया, और सुबह, शाम या काम पर जाने से पहले किसी भी समय ‘भूमिका के केवल पाँच पन्ने’ पढ़ने के लिए बड़ी विनोदशीलता के साथ स्वयं को मजबूर होने दिया। उनकी मैं तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। लन्दन में ही, मेरे परिवार के दूसरे और भी बहुत प्यारे सदस्य हैं : इयान जैक, डेविड पेजे और रॉल्फ रसेल, जो खासतौर पर पुनर्निवेशन (फीडबैक) देने में, और हल्की (कभी-कभी इतनी हल्की भी नहीं)। आलोचना करने तथा मेरा उत्साह बढ़ाने में काफी उदार रहे हैं। मैं ग्रांटा के सम्पादकों की भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने भारत पर जारी किए गए अपने विशेषांक में मेरे काम का कुछ भाग प्रकाशित किया था, क्योंकि इसी ने, कई मायनों में, मुझे यह काम जारी रखने के लिए आत्मविश्वास दिया।

मेरे लन्दन परिवार में मेरा हांगकांग परिवार भी शामिल है : मैं गीता चन्दा की ई-मेल पर भेजी वाहवाहियों, और मेरे काम में भरोसा बनाए रखने के लिए उनकी और इस पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए नयन चन्दा की बहुत शुक्रगुजार हूँ। अरेना में मेरे मित्रों-अह किंग, एड, जेम्स, जीनी, कैथी, नेंग, सूमी, टिटोस और विशेषकर और सबसे खासतौर पर, लाऊ किन ची को अपना काम बाँटने और मेरे काम में भरोसा रखने के लिए मेरा धन्यवाद। अपने पाकिस्तान परिवार को भी मैं धन्यवाद करती हूँ। फरीदा, फरहाना, लाला, नीलम और उनके माता-पिता को उनकी हार्दिकता, आतिथ्य और अत्यन्त आवश्यक सहयोग उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया ! मोरक्को में मेरी मित्रों-फातिमा मरनिस्सी और लैला चाऊनी ने मुझे लिखते समय एक कमरे में बन्द कर दिया और मुझे भोजन कराया तथा मेरी देखभाल की। हर रोज शाम को जब मैं फातिमा को पुस्तक की एक और संशोधित योजना दिखाती तो वह मुझेसे सवाल पूछती और मुझे इस ‘परीक्षा’ की तैयारी में दिन बिताना पड़ता था।

और घर पर : मैं कहाँ से आरम्भ करूँ ? इतने सारे लोगों ने इस काम के अंशों को पढ़ा है। साल का एक भी सप्ताह ऐसा नहीं गया है जब मेरे अनेक अच्छे मित्रों में से किसी न किसी ने मुझे फोन न किया हो। कब समाप्त करने जा रही हो इसे ? तुम इसके साथ और आगे क्यों नहीं बढ़तीं ? इसे देखने के लिए कोई चाहिए तुम्हें ? अगर लोगों का इतना प्रोत्साहन न होता, और कभी-कभी उनकी धमकी भी, तो मुझे सन्देह है कि मैं पाण्डुलिपि को पूरा भी कर पाती कि नहीं। मैं इन लोगों के सहयोग, और उनके बार-बार कभी इसे, कभी उसे पढ़ते रहने के लिए भी बहुत आभारी हूँ, कई साल तक ठीक से काम नहीं करने के लिए रोबी चटर्जी और गौरी चटर्जी के उलाहने के प्रति, इस पुस्तक की अभिदिशा बनाने के मेरे अनेक प्रयासों पर इला दत्ता और बीट्राइस काचुक के विस्तृत पुननिर्वेशन (फीडबैक) के प्रति, इस पुस्तक के शीर्षक के बारे में अनुराधा कपूर, अरविन्द कुमार, चार्ल्स लेविस, मीनाक्षी और सुजीत मुखर्जी, मंजुला पद्मनाभन, रजनी पालरीवाला, विनोद रैना, संजीव सेठ, कुमकुम संगारी, राधिका सिंघा ड्रैगो स्टैमबक के सुझावों के प्रति जिन्हें मैंने नहीं माना, और रम्या सुब्रमन्यन, रवि वासुदेवन के प्रति भी। मेरे संपादक उदयन मित्रा को मेरा धन्यवाद, मेरे प्रकाशक डेविड डेविडर को उनके भरोसे, उनके सब्र और मेरी पाण्डुलिपि की बारीकियों पर उनकी सलाह, और ज़मीर अंसारी को इसे बिना पढ़े ही मेरे काम पर इतना विश्वास करने के लिए मेरा बहुत-बहुत शुक्रिया ! विभिन्न मौकों पर सुभद्रा सान्याल और रामनारायण ने बहुत मूल्यवान शोध सहायता उपलब्ध कराई; उन्होंने नई और लगातार मोहक सामग्री खोजी और प्रायः मुझे सही दिशा में संकेत किया। अपने साथियों-भीम सिंह, एल्सी, जया, रितु और सतीश को उन चीजों के लिए जिनके बारे में वे जानते भी नहीं। हेनरी एरोनसन को अपनी छुट्टियाँ देने और इस ‘बाहर’ से पढ़ने के लिए, और, खासकर मेरे मित्र, क्लॉडियो नैप्पो को, मुझमें और मेरे काम में विश्वास करने के प्रति मेरा आभार।

तीन बड़े आभार बाकी हैं। इनमें से पहला उन दोस्तों के एक छोटे ग्रुप के प्रति जिनके बिना मैं इस कार्य से निबट पाने में समर्थ नहीं हो पाती। न केवल उन्होंने इसके प्रत्येक पृष्ठ, प्रत्येक अध्याय को बार-बार पढ़ा है, बल्कि उन्होंने मुझे सलाह भी दी, इसकी आलोचना भी की, दिन-रात हर समय मेरे लिए उपलब्ध रहे। आभार एक मामूली चीज है : मुझे पता नहीं मैं उन्हें किस तरह से पर्याप्त धन्यवाद दे सकती हूँ, लेकिन मेरे पास केवल एक आभार ही तो है, इसलिए मैं इसी को बड़ी कृतज्ञता के साथ उमा चक्रवर्ती, प्रिमिला लेविस, तनिका और सुमित सरकार और हर्ष सेठी को पेश करती हूँ।

इतना ही मैं उन अनेक लोगों को धन्यवाद करती हूँ जो मुझसे बात करने के लिए राजी हुए थे, जिन्होंने मुझे अपना समय और भरोसा दिया था। अगर वे लोग, और उनकी कहानियाँ न होतीं, तो यह पुस्तक कभी भी नहीं लिखी जा सकती थी। उनके नाम इतने अधिक हैं कि उनका उल्लेख यहाँ सम्भव नहीं है, और कुछ लोग स्वयं ही अपने नाम का जिक्र शायद नहीं चाह सकते होंगे, लेकिन उन लोगों को मेरी सच्ची कृतज्ञता।

और अन्त में, सबसे महत्त्वपूर्ण रूप से, मेरा अपना परिवार : मेरी माँ, पिता, बेला, मेरी बहन और सम्पादक विशेष; कॉफी (बहुत जरूरी और जिसके बिना मैं इन पूरे वर्षों को केवल सोकर ही गुजार देती) और बहुत-सी चर्चाओं और पाठ्यों के लिए पंकज और नीलोफर; दिन और रात, हर समय ई-मेल ऐक्सेस और उनके सामान्य परिहास के लिए राहुल और मीरा, और मेरे सबसे प्यारे भतीजे और भतीजियों-दामिनी, ईशानी और विदुर को, जिनके बिना इस पुस्तक के साथ बिताया गया समय अकथनीय रूप से नीरस होता, मेरा हृदय से आभार। सीमा पार से राणा मामा, जिनके चारों ओर इस काम का काफी हिस्सा रचा-बुना गया है, पूरी पुस्तक में मेरे साथ रहे हैं, और मुझे आशा है कि एक दिन मैं उन्हें यह दिखाने में समर्थ होऊँगी और बताऊँगी कि मेरे लिए इसका क्या मतलब रहा है, और दूसरी दुनिया से मेरी नानी दयावन्ती/आयशा, जिसकी आत्मा इस पूरी पुस्तक के दौरान मेरे साथ रही है।

 

धन्यवाद !

 

1‘द न्यू हिस्ट्री ऑफ सिफॉलोनिया’ मुसीबत बनती जा रही थी; अपने मनोभावों और पूर्वाग्रहों के अनुचित हस्तक्षेप के बिना लिखना असम्भव-सा लगा। वास्तविकता को प्राप्त करना काफी मुश्किल लगा, और उसने यह महसूस किया कि इसे लिखने की उसकी गलत शुरुआतों ने अवश्य ही इतना अधिक कागज बरबाद कर दिया होगा, जितना इस द्वीप में पूरे एक साल में भी इस्तेमाल नहीं किया गया था। उसके वर्णन से जो स्वर निकला, वह आवश्यक रूप से स्वयं उसका अपना स्वर था; यह कभी भी ऐतिहासिक स्वर नहीं था। इसमें भव्यता और निष्पक्षता का अभाव था। यह शानदार नहीं था।
वह बैठ गया और उसने लिखा : ‘‘यह द्वीप अपने ही वासियों के साथ महज विद्यमान होने के कार्य में ही विश्वासघात करता है।’’ उसने लिखा, और फिर कागज को मचोड़ा और कमरे के कोने में फेंक दिया। इस तरह कभी नहीं लिखा जाएगा: वह इतिहासों के एक लेखक की तरह क्यों नहीं लिख सका ? वह बिना मनोविकार के क्यों नहीं लिख सका ? बिना क्रोध के ? बिना विश्वासघात और उत्पीड़न की भावना के ? उसने कागज उठाया, जो पहले ही कोनों पर मचोड़ा हुआ था, जिस पर उसने सबसे पहले लिखा था। यह शीर्षकवाला पन्ना था : ‘दॅ न्यू हिस्ट्री ऑफ सिफॉलोनिया।’ उसने पहले दो शब्द काटे और उनकी जगह ‘ए पर्सनल’ लिख दिया। अब वह वही भारी-भरकम यथार्थ और प्राचीन ऐतिहासिक मनमुटावों को छोड़ देने की बात भूल सकता था, अब वह रोमनों, नॉरमनों, वैनोशियनों, तुर्कों ब्रिटिशों और यहाँ तक कि स्वयं द्वीपवासियों के लिए अत्यन्त कटु भाषा का प्रयोग कर सकता था। और उसने लिखा...
लुईस डी बरनियर्स : कैप्टन कोरेलीज़ मैंडोलिन

2 क्या आप सचमुच सोचती हैं, कोई आपके टेपों को सुनकर बदलेगा ? हाँ, यह अनुभव पकड़ में आएगा, जो यहाँ रहेगा कि विभाजन के समय इस तरह की चीज हुई थी, एक तरह की पीड़ा तो है कि लोग जानते नहीं हैं या भूल गए हैं। और लोग यह भी नहीं जानते कि केवल तभी जाकर हमें आजादी मिली थी। इसलिए यह इसे याद करने में मदद कर सकता है, लेकिन इसके अलावा मैं नहीं सोचता कि इससे किसी को कोई फर्क पड़ेगा।
मान लीजिए सरकार आपके कुछ रिकार्डों को बजाती है। अगर आप पचास इण्टरव्यू लेती हैं, और वे एक को बजाते हैं, और वह एक आदमी ऐसा है जिसके सरकार के साथ कड़वे अनुभव रहे हों-और यह पूरी तरह मुमकिन भी है-और वह सरकार की आलोचना करता है। क्या आप सोचती हैं कि वे इसे सहन करेंगे ? और एक चीज और है। आप इन टेपों को रखती हैं, कौन जानता है ये किस चीज के बारे में हैं। आप यह कहकर इन पर लेबल लगाएँगी कि यह भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बारे में हैं। आप एक कार्ड बनाएँगी, नम्बर के साथ, और यह विभाजन के समय तकलीफ झेलनेवाले व्यक्ति का अनुभव बताएगा...सच्चाई यह है कि यह अनुभव हमारे साथ बहुत लम्बे समय से रहा है। क्या आप सोचती हैं, इन टेपों से राज करनेवालों की अगली मण्डली को कोई फर्क पड़ेगा ?

 

मनमोहन सिंह, गाँव थमाली

 

1
प्रारम्भ

 

भारत का राजनीतिक विभाजन इतिहास की भारी मानवीय उथल-पुथल में से एक का कारण बना। न कभी इससे पहले और न कभी इसके बाद इतने अधिक व्यक्तियों ने इतनी तेजी से अपने घरों और देशों की अदला-बदली की है। कुछ महीनों के अन्तराल में, करीब एक करोड़ बीस लाख लोगों ने नए, कटे-छँटे भारत और नए बने पाकिस्तान के दो हिस्सों, पूर्व तथा पश्चिमी के बीच निवास-परिवर्तन किया। इन शरणार्थियों के सबसे बड़े हिस्से ने-इनमें से एक करोड़ से भी अधिक लोगों ने-पश्चिमी सीमा को पार किया जिसने ऐतिहासिक पंजाब राज्य को बाँटा था। मुसलमान पश्चिम की ओर पाकिस्तान गए, और हिन्दू एवं सिख पूर्व में भारत की तरफ आए। बीच में कभी-कभी नरसंहार हुए और इसने यदा-कदा उनकी गति को प्रेरित किया; दूसरे बहुत से लोग कुषोपण और छूत की बीमारी से मर गए। मरनेवालों की संख्या का अनुमान दो लाख (तत्कालीन ब्रिटिश आँकड़ा) से बीस लाख (बाद का एक भारतीय अनुमान) तक भिन्न-भिन्न लगाया जाता है, लेकिन अब करीब दस लाख के आसपास लोगों के मरने की बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है। हमेशा की तरह यहाँ भी बड़े पैमाने पर यौन-पाशविकता हुई थी : समझा जाता है कि करीब 75,000 महिलाओं का उनके अपने धर्मों से भिन्न धर्मों के पुरुषों-और वास्तव में कभी-कभी उनके अपने ही धर्म के पुरुषों-द्वारा अपहरण और बलात्कार किया गया। हजारों परिवार बाँट दिए गए, घर बरबाद कर दिए गए, फसलें सड़ने के लिए छूट गईं, गाँव वीरान हो गए। आश्चर्यजनक रूप से, और कई चेतावनियों के बावजूद, भारत और पाकिस्तान की नई सरकारें इस उथल-पुथल के लिए तैयार नहीं थीं : उन्होंने यह पूर्वानुमान नहीं लगाया था कि धार्मिक पहचान की गणनाओं-अनेक हिन्दू बनाम अनेक मुसलमान-पर आधारित खींची गई सीमाओं द्वारा उत्पन्न भय और अनिश्चितता लोगों को उन स्थानों की तरह भागने को विवश कर देगी जिन्हें वे सुरक्षित समझते हैं, जहाँ वे अपने ही जैसे लोगों से घिरे होंगे। लोगों ने बसों में, कारों में, रेलगाड़ी में यात्रा की, लेकिन अधिकतर लोग विशाल झुण्डों में काफिलों की शक्ल में पैदल ही चले, जो मीलों-मीलों तक फैल सकते थे। इनमें से सबसे लम्बे काफिले ने, जिसमें पश्चिमी पंजाब से पूरब की ओर चलकर भारत आ रहे लगभग 4,00,000 शरणार्थी थे, अपने मार्ग में किसी भी निश्चित स्थान को पार करने में आठ दिनों का समय लिया।

यह विभाजन की सामान्य बात है : यह इतिहास की पुस्तकों में सार्वजनिक रूप से मौजूद है। विशेष को खोजना अधिक कठिन है; यह भारत और पाकिस्तान में इतने अधिक घरों के भीतर बार-बार सुनाए जानेवाले किस्सों में गुप्त रूप से विद्यमान है। मैं उन्हीं के साथ पली-बढ़ी हूँ: अपनी पीढ़ी के अनेक पंजाबियों की तरह, मैं भी विभाजन के शरणार्थियों के एक परिवार से हूँ। विभाजन की स्मृतियाँ समय की बर्बरता और विभीषिका, एक ऐसे अतीत को (प्रायः मनगढ़ंत) ध्यान से सुनना जहाँ हिन्दू और मुसलमान और सिख एक साथ आपेक्षिक शान्ति और सद्भाव से रहते थे, आदि ने उन कहानियों का मुख्य विषय रचा है जिनके साथ मैं रही हूँ। मेरे माता-पिता, पाकिस्तानी सीमा केवल बीस मील अन्दर स्थित, लाहौर शहर से हैं जहाँ के बाशिंदों को अपने शहर से बहुत प्यार और भावनात्मक लगाव है। मेरी माँ लाहौर वापस जाने की उन दो खतरनाक यात्राओं के बारे में बताती है जो उसने अपने छोटे भाइयों और बहनों को भारत लाने के लिए की थीं। मेरे पिता बन्दूकों की गूँज और दहकती आग के बीच लाहौर से भागने की बात याद करते हैं। मैं अपने भाइयों और बहनों के साथ इन कहानियों को सुनती और शायद ही कभी इन पर विश्वास करती। हम मध्यवर्गीय भारतीय थे जो आपेक्षित शान्ति और सम्पन्नता के उस दौर में पले-बढ़े थे, जब सहिष्णुता और ‘धर्मनिरपेक्षता’ का बोलबाला लगता था। ये कहानियाँ-लूट, आगजनी, बलात्कार हत्या की-दूसरे काल से आई थीं। ये मेरे लिए कोई खास अर्थ नहीं रखती थीं।

फिर, अक्तूबर 1984 में, प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी को उनके ही दो सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या कर दी गई, जो दोनों ही सिख थे। इसके बाद कई दिनों तक पूरे भारत में सिखों पर हिंसा और बदले के आधिक्य में हमले हुए थे। बहुत से घर तबाह कर दिए गए और हजारों लोग मर गए। दिल्ली के बाहरी अर्धशहरी इलाकों में ही तीन हजार से भी अधिक लोग मारे गए थे, अकसर मिट्टी के तेल से सराबोर करके और आग लगा करके। वे डरावनी बीभत्स मौत मरे थे। जमीन पर जलने के काले निशानों ने वह जगह दिखाई जहाँ उनकी लाशें पड़ी थीं। सरकार-जिसके मुखिया अब श्रीमती गाँधी के पुत्र राजीव थे-उदासीन रही, लेकिन कई नागरिक संगठन पीड़ितों को राहत, भोजन और आश्रय उपलब्ध कराने के लिए आगे आए। मैं भी उन सैकड़ों लोगों में शामिल थी जिन्होंने इन समूहों में कार्य किया। हर रोज जब हम खाना और कम्बल बाँट रहे होते, मृतकों और लापता लोगों की सूची तैयार कर रहे होते, और मुआवजे के दावों में लोगों की मदद कर रहे होते, तब हम उन व्यक्तियों की विपदाएँ सुनते थे जिन्होंने यह सब झेला था। प्रायः अधिक बूढ़े लोग, जो 1947 में शरणार्थियों के रूप में दिल्ली आए थे, याद करते कि वे ऐसे ही आतंक से पहले भी गुजर चुके हैं। ‘‘हमने सोचा भी नहीं था, अपने ही देश में हमारे साथ ऐसा हो सकता है, यह बिल्कुल फिर से विभाजन होने के समान है।’’ वे कहते।

यहाँ, यमुना नदी के पार, जहाँ मैं रहती थी, यहाँ से महज कुछ ही मील दूर, सीधे-सादे, शान्तिप्रिय लोगों ने अपने ही पड़ोसियों को उनके घरों से निकलने को बाध्य किया था और बिना किसी स्पष्ट कारण के, सिर्फ यही कि वे एक भिन्न धार्मिक समुदाय के लोग थे, उन्हें मार डाला था। तब विभाजन की कहानियाँ बहुत अधिक पुरानी नहीं लगीं : एक ही देश, एक ही कस्बे, एक ही गाँव के लोग उनकी धार्मिक भिन्नता की राजनीति से अब भी बाँटे जा सकते थे, और एक बार बँट जाने के बाद, एक दूसरे के विरुद्ध भयावह कांड कर सकते थे। दो साल बाद, एक ब्रिटिश टेलीविजन चैनल के लिए विभाजन से संबंधित एक फिल्म पर काम करते समय, मैंने विभाजन के बाद इसके उत्तरजीवियों (बचे हुए लोगों) से कहानियाँ बटोरनी शुरू कीं। कई कहानियाँ बहुत भयावह थीं और उन कहानियों जैसी ही थीं, जिन्हें मैंने, जब मैं किशोरावस्था में थी, दूसरे या तीसरे लोगों की जुबानी सुनकर विश्वास कर पाना कठिन समझा था। मैंने सुना था, बहुत-सी औरतें अपने साथ बलात्कार या बलात धर्म-परिवर्तन से बचने के लिए स्वयं को डुबोने हेतु कुओं में कूद गई थीं; पिताओं ने अपने ही बच्चों की गरदनें उड़ा दी थीं, ताकि वे ऐसी ही अपमानजनक नियति से बचते। अब मैं इन्हीं किस्सों को उन चश्मदीद गवाहों से सुन रही थी जिनकी कटुता, क्रोधोन्माद और नफरत-जो एक बार सामने आने पर डरावने हो सकते थे-ने मुझे बताया कि वे सच बोल रहे हैं।

उनकी कहानियों ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। जहाँ तक मैं जानती थी, मेरे अपने परिवार में भी इतना क्रूर और इतना रक्तरंजित ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, लेकिन मैंने अनुभव करना आरम्भ कर दिया था कि विभाजन, मेरे अपने परिवार में भी, इतिहास का एक बन्द अध्याय नहीं था-क्योंकि इसके सहज, बर्बर राजनीतिक भूगोल ने हमें अभी भी उकसाया और बाँटा हुआ था। यहाँ रोजमर्रा की जिन्दगी में विभाजन थे, साथ ही विभाजन के विरोधी भी थे : कितनी ही बार मैंने अपने माता-पिता, अपनी दादी को लाहौर के अपने मुस्लिम मित्रों के बारे में प्यार और उत्कण्ठापूर्वक बात करते हुए सुना है, और कितनी ही बार उन्हें ‘उन मुसलमानों’ के बारे में विवेकहीन द्वेष के साथ बात करते हुए सुना है; कितनी ही बार मैंने अपनी माँ को अपने भाई के विश्वासघात की अनुभूति के साथ बात करते हुए सुना था, जिसने एक मुसलमान लड़की से शादी कर ली थी...। हमारी जिन्दगियों में भी विभाजन किस कदर हमेशा मौजूद था यह समझने में, और इसे इतनी आसानी से इतिहास की किताबों के अन्दर बन्द नहीं किया जा सकता, यह पहचानने में मुझे 1984 तक का समय लग गया। अब मैं और अधिक समय तक यह स्वाँग नहीं कर सकती थी कि यह इतिहास किसी और काल से, किन्हीं और लोगों से सम्बन्धित था।

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