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जंगल के जुगनू

देवेश ठाकुर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3063
आईएसबीएन :81-8143-222-3

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यह समाज सेवा पर आधारित एक प्रतिष्ठित उपन्यास है...

Jangal Ke Juganu

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

अभी कुछ देर पहले कॉलेज से लौटी हूँ।
बारिश फिर तेज़ हो गयी है। घड़ी देखती हूँ, साढ़े छह बज रहे हैं। सामने अमलतास की भीगी हुई फुनगियाँ लाइट-पोल के प्रकाश में खूब चमक रही हैं। पिंजड़े की लव-बर्ड्स एकदम खामोश और डरी-डरी सी हैं। अब सुबह ही इनकी चहचहाट सुनने को मिलेगी। तब रोज की तरह मैं जागूँगी। किचन में जाकर गैस पर चाय का पानी रखूँगी। चाय पीकर फिर नित्य कर्म शुरू हो जाएगा। आज कल ऐसा ही होता है। इस बार कॉलेज जल्दी खुल गए हैं।

दो-तीन दिन से सामने टेबल लैम्प के पास यह पत्र पड़ा है। कई बार उसे उलट-पुलट कर पढ़ गयी हूँ। पत्र मेरी बहुत पुरानी विद्यार्थी ममता केलकर का है। अब वह कोल्हापुर में एक अंधशाला चलाती है। लिखा है कि वहाँ के ‘संकल्प प्रतिष्ठान’ ने सामाजिक सेवा के लिए मेरा नाम ‘महाराष्ट्र मनीषा’ पुरस्कार के लिए ‘शार्ट लिस्ट’ किया है। और उसे उम्मीद है कि अन्ततः यह पुरस्कार अगले वर्ष के गणतंत्र दिवस पर मुझे ही मिलेगा।

मैं आश्चर्यचकित हूँ। जिस कॉलेज में मैं पिछले 36 सालों से पढ़ा रही हूँ; जिसके प्रिंसिपल और कार्यकारिणी के लोग मेरे अध्ययन-अध्यापन, मेरी निष्ठा, मेरी ईमानदारी, मेरी कर्त्तव्य परायणता और मेरी समाजसेवा इतने सालों से देखते और जानते रहे हैं, उन्होंने किसी भी मीटिंग में मेरे प्रति प्रशंसा या प्रोत्साहन के दो बोल नहीं बोले। इतना ही नहीं, बाद के अधिकारियों ने तो मुझे हमेशा हाशिए पर रखने का टुच्चा षड्यंत्र तक रचा और मुझे खिजाने के लिए ऐसे-ऐसे अध्ययन विरोधी अध्यापकों को बढ़ावा दिया जिन्होंने कॉलेज के किसी काम में कोई हिस्सा नहीं लिया, जिन्होंने अध्ययन के नाम पर लाईब्रेरी से सालों तक एक भी किताब इश्यू नहीं करवाई। और तो और जिन्होंने हफ्तों तक अपनी क्लास तक नहीं ली। ऐसे में राज्य की सर्वोच्च सामाजिक संस्था मेरे कार्यों की नोटिस ले रही है, सचमुच मैं आश्चर्य चकित हूँ।

जिंदगी भी क्या अजब चीज है। कहाँ से शुरू होती है। कहाँ-कहाँ भटकती है और फिर कहाँ पहुँच जाती है। लगता है, नदी की धारा है जिंदगी। एक उद्गम होता है जहाँ से वह शुरू होती है। फिर पहाड़ों से झरती हुई, चट्टानों से टकराती हुई समतल पर आ पहुँचती है और अपना पाट फैलाकर कभी द्वीप बनाती हुई, कभी गहन गंभीर मुद्रा में, कभी बाढ़ का उग्र रूप धारण कर और फिर कभी अठखेलियाँ करती हुई सागर बन जाती है। ज़िंदगी भी ऐसी ही होती है। बस, नदी में और जिंदगी में थोड़ा-सा फ़र्क होता है। नदी अपने स्वभाव में, या यों कहो, सभी स्वरूपों में सौंदर्य की अनुभूति कराती है। लेकिन जिंदगी नदी से ज्यादा ऊबड़-खाबड़ होती है। उसमें सुख, संतोष और सौंदर्य के क्षण कम होते हैं; झंझावातों, संघर्षों और विडम्बनाओं का परिणाम ज्यादा होता है। अपनी जिंदगी का जायजा लेती हूँ तो यही सच सामने आता है। कितने अभाव, कितने अपमान कितनी उपेक्षाएँ और कितना अकेलापन जिया है मैंने। लेकिन अन्ततः जीवन में सार्तकता की अनुभूति के बीच मैं उन सभी अभिशापों को भूल-सी गयी जो 58 वर्ष की यात्रा में मुझे झेलने पड़े। सद्भावना और सहयोग का एक हाथ आगे बढ़ और मेरी अंधियारी दिशा आलोकपंथी हो गयी। तब सारे कलुष मिट जाते हैं, सारी वर्जनाएं अर्थहीन हो जाती हैं और सारा संघर्ष एक नए प्रकार की अर्थवत्ता प्राप्त कर लेता है। लेकिन इस सबके लिए वहाँ चाहिए एक अनुराग भरा विश्वास और चाहिए सारी आपदाओं की भीड़ को चीर कर अपने संकुचन से बाहर आने का संकल्प...। तब जीवन को वही अनुकूलता मिलती है जो एक नदी के सागर हो जाने में होती है। इस पत्र को पाकर मुझे लगता है कि मैं भी सागर हो गयी हूँ।

कभी-कभी सोचती हूँ, अब समतल पर आने के बाद भी मैं इतना क्यों सोचती हूँ। फिर सोचती हूँ, यह तो मेरा संस्कार है। संस्कारों से जल्दी मुक्ति नहीं मिलती। अलग-अलग क्षणों को एक साथ जोड़ूँ तो मैंने जिंदगी के कितने ही वर्ष अपने निपट एकाकीपन में बिताए हैं। बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर आज की इस प्रौढ़ावस्था तक। कितना अकेलापन, अपमान और उपेक्षा जी है मैंने। इसका गणित लगाने बैठूं तो कितने और वर्ष उसी तरह के अकेलेपन के अहसास में बीत जाएंगे। अकेला व्यक्ति सिर्फ सोचता है। अपने अभागेपन को, अपने दुर्भाग्य को और...और अपनी निरन्तर निस्पंद होती चेतना को। तब उस मानसिकता के तहत उसे अपना सुख याद नहीं आता। अपने कठिन, न बीतनेवाले लम्बे दिन याद आते हैं। मेरे साथ भी यही होता आया है। इसीलिए आज भी जब अकेली होती हूँ तो किसी न किसी सोच में खो जाती हूँ। आज, इस डूबती-भीगी, संध्या में भी कुछ ऐसा ही लग रहा है।...कि अपनी बीती हुई जिंदगी के बारे में सोचूँ...उसके उतार-चढ़ाव के बारे में, उसकी जीत-हार के बारे में और उसकी अब तक अनकही कथनी-करनी के बारे में...।

पिछले वर्ष जब से बिटिया राजश्री की शादी हुई है, कई बार मैं अपने अकेले क्षणों में अपना अतीत जीने लगती हूँ। दिन तो लोगों के बीच बीत जाता है। उनसे मिलने-जुलने में, उनके लिए कुछ करने में, अपनी बात उन तक पहुँचाने में, उनके दुख-दर्द सुनने में। लेकिन जब दिन ढलने लगता है और मैं वापिस अपने घर लौटती हूँ तो उसके साथ मेरे अतीत के श्यामल क्षण भी लौटने लगते हैं। और आगामी कल के सारे आयोजनों की व्यस्तता के बावजूद मैं किसी कोने में अकेली हो जाती हूँ। यह अकेलापन कभी-कभी बहुत डसने लगता है और दिन भर की सारी अर्थवत्ता और उपलब्धि उदास शाम-सी एक खालीपन में बदलने लगती है। यह ढलती हुई उदास शाम तब मेरी सहेली बन जाती है और मैं खाली मन और सूनी आँखों से सामने की पहाडियों को देखती रहती हूँ। देखती रहती हूँ, उस समय तक, जब तक रात के पहले पहर का अँधेरा उनको लील नहीं लेता। तब तक एक क्षण के लिए उस अंधकार की छाया मेरे व्यक्तित्व को भी लील लेती है और मैं, मैं नहीं रहती, एक अंधेरा शून्य बनकर रह जाती हूँ।

अकेले क्षणों में अक्सर ऐसा ही होता है। व्यक्ति का सारा व्यक्तित्व या तो शून्य बनकर रह जाता है या अतीत की घटनाओं में कहीं खो जाता है। साधारण से साधारण व्यक्ति के जीवन में भी कुछ ऐसी घटनाएँ घटती अवश्य हैं जिन्हें वह चाहकर भी भूल नहीं पाता। भूलने के लिए भी तो याद रखना होता है कि इसे भूलना है। तब भूलने की मानसिकता और कोशिश बैकग्राउन्ड में चली जाती है और स्मृतियाँ आँखों के सामने पुराने दृश्य-न भूल सकनेवाले दृश्य दोहराने लगती हैं। मेरे साथ ये दोनों स्थितियाँ बनती-बिगड़ती रहती हैं। जिंदगी उतार-चढ़ावों की श्रृंखला रही है। सोचने के लिए लम्बी-लम्बी शामें और रातें मिलती रही हैं। सो, सोचना एक अनंत परम्परा और अभ्यास बन गया है मेरे लिए !

दरवाजे की घंटी बजी है। शायद महरी आई हो। मैं विचारों में भटकना छोड़कर उठती हूँ और दरवाजा खोलती हूँ। महरी ही है। आज उसने धुली साड़ी पहन रखी है। माथे पर बड़ा सा टीका है, ब्लाउज भी नया है। आँखों में रोज की तरह उदासी नहीं, बल्कि चमक है। आज वह खुश दीखती है।
मैं पूछे बिना नहीं रहती-नन्दू, आज बड़ी बन-ठन के आई है। क्या बात है।’
उत्तर में नन्दू शरमा जाती है।
मैं फिर कहती हूँ : बता न क्या बात है ?’
-कुछ खास नहीं मैडम।’
-फिर भी ?’
-आज मेरे मर्द की नौकरी लग गयी है। पांच महीने बेकार बैठने के बाद लगी है यह नौकरी।’

-अच्छा, यह तो बडी अच्छी बात है। कहाँ लगा है ?’
-म्युनिसिपैलिटी अस्पताल के मुर्दाघर में।’
-मुर्दाघर में ?’ मैं सहसा चुप हो जाती हूँ। विचार फिर उमड़ने लगते हैं। मुर्दनगी-सी जिंदगी बिताने वाले परिवार के लिए मुर्दाघर में नौकरी लगना कितनी बड़ी खुशी की बात हो गयी है। मैं उसके माथे की चमकती बिंदी को देखती रह जाती हूँ और उसके गालों पर छायी हुई मुस्कान को भी। फिर अपने सर और अपने विचारों को झटकती हुई उससे कहती हूँ-नंदू, एक कप चाय बना देगी ?’
-अभी बनाती हूँ मैडम।’

-अपने लिए भी बना लेना।’ मैं कहती हूँ-तेरा बच्चा तो अब ठीक है न।’ मैं पूछती हूँ।
-हाँ, अब ठीक है। बुखार उतर गया है।’
-दवाई है न।’ मैं कहती हूँ। ‘पाँच दिन देनी है। अभी तो तीन ही दिन हुए हैं न।’
-हाँ...।’ कहती हूँ वह रसोई में चली जाती है।
मन भी क्या चीज है। कभी शांत नहीं बैठता। मैं फिर सोच में खो जाती हूँ। नंदू का खिला-शरमाता चेहरा और माथे पर चिपकी हुई बड़ी-सी बिंदी आँखों के सामने बार-बार घूम जाती है। उसकी बिंदी में मुझे अपनी माँ के माथे की बिंदी दिखाई देने लगती है। माँ के साथ-साथ मुझे अपनी बहन-सब्बू-भी याद आ जाती है। मन कड़ुवा हो जाता है।

तब हम दोनों बहनें ननिहाल में रहती थीं। माँ बरसों पहले बम्बई आ गयी थी। अपने मामा के पास। म्युनिसिपैलिटी के एक स्कूल में उसे नौकरी दिला दी थी मामा ने। अप्पा पहले से ही बम्बई में थे। एक मिल में मैकेनिक। बाद में मामा की कोशिशों से ही अप्पा की शादी अम्मा के साथ हुई थी।

मेरा ननिहाल तिरची में था। चिरची छोटा सा शांत कस्बा था तब। कस्बे का एक मोहल्ला। अब उसका नाम भी याद नहीं आ रहा। खैर...नाम में क्या रखा है। उसी मोहल्ले में हम सभी बहनें बड़ी हो रही थी। मौसी के साथ। मोहल्ले से सटी झुग्गी-झोंपड़ियों की एक बस्ती थी। हम उस बस्ती के बच्चों के साथ खेला करती थीं। उस दिन बस्ती की कृष्णा हमारे घर आई थी मौसी को कपड़े की थैली से निकाल कर एक लड्डू दे गयी थी।

मौसी ने पूछा था-कृष्णा, यह लड्डू किस लिए ?’
कृष्णा बोली थी-मेरे अक्का मेरी नयी माँ लाए हैं।’ कहती हुई वह भाग गयी थी। इसे पास के दूसरे घरों में लड्डू बाँटने थे।
हम सब ने उस लड्डू को बांट कर खाया था।

नन्दू अपने मर्द की नौकरी लगने की खुशी में कोई लड्डू नहीं लाई थी। लेकिन मैं देर तक अपने मुँह में मिठास का अहसास करती रही थी। मैं भी कितनी अजीब हूँ। पलक झपकते ही कहाँ की कहाँ पहुँच जाती हूँ।

धनी तो हमारा परिवार था ही नहीं, लेकिन उसे गरीब भी नहीं कहा जा सकता। मामा की कुछ जमीन थी। उसमें परिवार का पेट भरने लायक अनाज हो जाता। कॉफी, गुड़ नमक वगैरह के लिए मामा बम्बई से मनीऑर्डर कर देते। माँ भी महीने दो महीने में कुछ पैसा भेज देती...। सो खाने-पीने, पहनने का अभाव हमें कभी महसूस नहीं हुआ।

तब मैं सातवीं क्लास में थी। मेरी एक मित्र थी शर्मिला। शर्मिला का एक दोस्त था बालचन्द्रन। हम उसे बालू कहकर पुकारते। शर्मिला बहुत सम्पन्नवर्ग के माता-पिता की अकेली संतान थी। अच्छे, महंगे कपड़े पहनती, बढ़िया टिफन लाती और हमेशा चहचहाती रहती। जब सिर्फ़ मेरे साथ होती तो बालू की ही बातें करती कि वह कितना पढ़ाकू है, क्लास में फर्स्ट आता है। टीचरों का फेवरेट है, उसकी कोई बुरी आदत भी नहीं है। अपनी उम्र से ज्यादा सीरियस रहता है। और पल्ली, उसकी आँखें कितनी बड़ी-बड़ी हैं और होंठ कितने पतले-पतले हैं, मेरे जैसे।

कई बार ऐसा होता कि हम तीनों स्कूल से साथ-साथ लौटते। रास्ते भर बालू चुप ही रहता लेकिन शर्मिला चहचहाती रहती। बीच में मैं कुछ बोलती तो वह मुझे देखने लगता। ज्यादातर कनखियों से देखता। एक चौक के पास से मेरा रास्ता अलग हो जाता।
एक बार शर्मिला स्कूल नहीं आई। उस दिन छुट्टी के बाद मैं बालू साथ-साथ घर लौट रहे थे। वह हमेशा की तरह चुप था। उसकी चुप्पी तोड़ने के लिए मैंने पूछ लिया-

-आज तेरी सहेली नहीं आयी।’
-सहेली तो वह तेरी भी है। किसी रिश्तेदार की शादी में गयी है।’
-हाँ सहेली तो मेरी भी है लेकिन तेरी ज्यादा है। तभी तो मुझे पता है, कहाँ गयी है। तुझे भी वह इतनी अच्छी लगती है। है कि नहीं बालू।’ मैंने उसकी ओर हँसते हुए कहा। बालू ने मेरी तरफ देखा और बोला-पल्ली, मुझे तो तू सबसे अच्छी लगती है।’
-धत्।’ मैं बोली और तेज़-तेज़ चलने लगी। चौक पर आकर मैंने देखा, पीछे आ रहा बालू मुझे ही देख रहा था। मुझे देखकर उसने मेरी तरफ हाथ हिला दिया।

उसके बाद बहुत दिनों तक मैं उसके सामने आने का साहस ही नहीं कर पायी। लेकिन मैं क्यों न मानूँ कि उस दिन को मैं अभी तक नहीं भुला पाई हूँ। न उस दिन को और न बालू के उस वाक्य को। इसका कारण शायद यही हो कि बालू पहला और अंतिम व्यक्ति था जिसने मुझसे इतनी अच्छी बात कही हो।

मौसी और तिरची। और वहाँ बिताए गए बचपन के वे दिन। मस्ती और अल्हड़पन के वे दिन। वे दिन याद आते हैं तो आज भी होंठों पर मुस्कराहट की एक रेखा खिंच जाती है क्या दिन थे वे..
उन दिनों की कुछ बातें अभी तक याद हैं।

महीने के पहले और तीसरे हफ्ते में मेरी ड्यूटी राशन की दुकान पर लग जाती। बड़ी बहन बब्बो मौसी का हाथ बँटाने के लिए घर में ही रहती। कभी-कभी सब्बू भी मेरे साथ होती।

जब कभी वह मेरे साथ होती, मैं उसे लाइन में खड़ा करके अपनी सहेली के घर भाग जाती और देर तक उसके साथ गिट्टियाँ खेलती रहती। वापस दुकान पर लौटती तो सब्बू का बुझा-बुझा सा चेहरा देखकर सहम जाती। अनाज मिलता और कभी अपना नम्बर आने से पहले राशनवाला दुकान बंद कर देता। निराश, फिर दूसरे दिन आने के लिए हम लौट जातीं। रास्ते में सब्बू को मनाने की कोशिश करती तो वह रोने लगती। मैं उसे किसी तरह फुसलाकर चुप कराती और वादा करती कि अगली बार पूरे टाइम मैं ही लाइन में खड़ी रहूँगी। लेकिन अगली बार भी वही होता। जब तक हम मौसी के साथ रहे, हमेशा यही होता रहा। लेकिन इस सब के बावजूद सब्बू मेरे साथ ही चिपकी रहती। मुझी से लड़ती-झगड़ती और मेरे ही गले में बांहे डालकर झूलती भी। इस पर बब्बो कुढ़ती और कई बार मुझसे झगड़ने के लिए कोई बहाना बनाकर उलझ भी जाती। मौसी से मेरी शिकायत करती। मौसी बनावटी गुस्से से मुझे डांटती और मैं डरने का नाटक करके भीतर कमरे में जाकर मुँह बंद करके हँसती रहती। आज वे दिन, वे बातें सब सपनों की बातों-सी लगती हैं। लेकिन तब ये छोटी-छोटी बातें, ये छोटे-छोटे सुख बड़ा सुख दे जाते थे।

सुख की कल्पना बड़ी व्यक्तिगत और सापेक्षित होती है। एक स्थिति में यदि किसी को सुख मिलता है। तो वही स्थिति दूसरे के लिए भी सुख देनेवाली हो, यह जरूरी नहीं है। सुख का संबंध तो मन और मानसिकता से होता है। मुझे बरसात का मौसम बड़ा भाता है। फूलों, पत्तियों पर पानी की मोती सी बूंदों को देखकर मन उछाह जाता है लेकिन उस साल बरसात में जब बीमार पड़ी थी तो खिड़की से बाहर बरसती हुई बारिश को देखकर मन एक पीड़ा से भर जाता था। लगता था, बरामदे में खड़ा यह आम का पेड़ और उससे लिपटी बोगनविला की लतर मुझे चिढ़ा रही है। तब मैं बहुत उदास हो जाया करती थी। सोचती थी, काश यह बरसात न होती और यह हरियाली इतनी हरियाली नहीं होती तो कितना अच्छा होता।

-चाय अच्छी बनी है मैडम ?’ नंदू मुझसे पूछ रही थी।
मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा, सामने तिपाई पर चाय की प्याली रखी है। नंदू कब चाय रख गई, मुझे पता ही नहीं चला।
-हाँ, अच्छी बनी है।’ मैंने प्याला उठाते हुए कहा।
-आपने पी तो हैई नहीं।’ मैं इसे मुस्कुराता हुआ देखती हूँ। अपनी झेंप मिटाने के लिए उससे झूठ कह देती हूँ : एक घूंट ली थी। अच्छी बनी है।’
-बरतन हो गए। मैं जाऊँ ?’
-हाँ जा...।’ अपने आप शब्द निकल जाते हैं।
वह दरवाजे की ओर बढ़ती है और धीरे से दरवाजा बंद करके बाहर निकल जाती है।
मैं फिर अकेली रह जाती हूँ।
उस अकेलेपन से राहत पाने के लिए मैं ठंडी चाय सुड़कने लगती हूँ। तभी फोन की घंटी बज उठती है।

मैं लपक कर उठती हूँ। और फोन उठाती हुई सोचती हूँ कि अब कुछ समय के लिए यह खालीनपन तो टूटेगा।

 

2

 

 

नौकरी लगने के बाद एक साल बाद माँ ने मुझे और सब्बू को अपने पास बुला लिया था। मैंने आठवीं पास कर ली थी और सब्बू ने पाँचवीं। उसी साल बड़ी बब्बो की शादी हमारे छोटे मामा से मद्रास में हो गयी। तब यह वह 15-16 साल की थी। मामा उम्र में कुछ ज्यादा बड़े थे। उनकी तरफ से ही ऑफर आई थी। रेलवे के क्लर्क थे। परम्परा के अनुसार बड़ी पर उनका हक भी था। शादी के बाद ही मैं और सब्बू बंबई आए थे। तिरची के एक छोटे से मौहल्ले से उठकर मैं बम्बई के विस्तार में खो-सी गयी। मुझे बहुत दिनों तक यहाँ आकर बड़ा अजीब सा लगता रहा। अंधेरी की चाल के एक अंधे कमरे में, जो अप्पा ने पहले से ही ले रखा था, मैं बड़ी घुटन का अनुभव करती। मुझे बार-बार तिरची का अपना घर, वहाँ का खुलापन, अपने साथी, अपनी बब्बो, अपनी मौसी याद आती। वहाँ की जिंदगी, सारी मुश्किलों के बावजूद यहाँ की भीड़-भाड़ से कहीं ज्यादा खूबसूरत महसूस होती थी। मौसी बार-बार याद आती। इसलिए नहीं कि हमारा बड़ा ध्यान रखती थी बल्कि इसलिए कि उसने अपने व्यवहार से हमें कभी यह महसूस ही नहीं होने दिया कि हम उसकी सन्तान नहीं हैं। मौसी विधवा थी। हमारे अलावा उसका कोई अपना नहीं था। उसकी सारी शक्ति, सारी क्षमता हमारी सुख-सुविधा का ख्याल रखने में ही व्यतीत होती थी। माँ का स्वभाव उससे बिल्कुल विपरीत था।

अम्मा टीचर थी और घर में भी वही अनुशासन चाहती थी जो स्कूल में अपने विद्यार्थियों से चाहती थी। हर बात में टोका-टोकी करती थी, तिरची में मैं आजाद पक्षी की तरह थी। जो चाहती, करती। मुझे याद नहीं आता, वहाँ मौसी ने हमें कभी डांटा तक हो। यहाँ माँ की डाँट रोज की बात हो गयी थी। ऐसा करो, ऐसा मत करो। यहाँ जाओ, यहाँ मत जाओ। यह खाओ, यह मत खाओ। उससे मिलो, उससे मत मिलो...। यानी हमारे लिए आदेश ही आदेश थे। हम क्या चाहती हैं, इससे उससे कोई सरोकार नहीं था। वह अप्पा से भी इसी तरह का व्यवहार करती। अप्पा खुले दिलवाले इंसान थे। आस-पास, पास-पड़ोस में उनकी अच्छी इज्जत थी लेकिन घर में, माँ के सामने वे चुप्पे बने रहते। मैंने बचपन में कभी भी अप्पा को माँ से विवाद करते या झगड़ते नहीं देखा। लेकिन माँ हमेशा उनसे झगड़ने के लिए कोई न कोई कारण खोज ही लेती। आज सोचती हूँ तो लगता है, इसका कारण था। माँ प्राइमरी स्कूल की टीचर होने के बावजूद उनसे ज्यादा कमाती थी। उसे लगता था कि घर उसी के कारण चल रहा है। बात-बात में वह इस बात का उलाहना भी देती रहती कि वह किस मर्द से बंध गयी है। उसे तो कोई अफसरनुमा पति चाहिए था। माँ मैकेनिक पति को बड़ी तुच्छ निगाह से देखती थी। माँ की इस मानसिक तुच्छता का अप्पा ने कभी प्रतिवाद नहीं किया और यों ही समय बीतता रहा। जब कभी माँ अपने खास व्यंग्यात्मक अंदाज में अप्पा पर कोई ताना कसती तो मैं भीतर तक डर जाया करती थी। धीरे-धीरे यह डर मेरे व्यक्तित्व का एक अंग बन गया। हमेशा एक अजीब तरह की असुरक्षा की भावना मेरे भीतर पैठ गयी। अब राह चलते, स्कूल में पढ़ाई करते, घर में कोई छोटा-मोट काम करते मैं हमेशा डरी रहती कि कब कहीं मुझसे कोई गलती न हो जाये और कहीं मुझे डांट न खानी पड़े। यह डर मेरी जिंदगी का एक अभिन्न अंग बन गया था। बाद में इसी डर ने मुझे अनगिनत मुश्किलों में डाला।


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