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उपन्यास >> अकेला पलाश

अकेला पलाश

मेहरुन्निसा परवेज

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3064
आईएसबीएन :9789350002681

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...पलाश लाख सुन्दर हो, सुन्दर फूल हों, पर उसमें सुगन्ध नहीं न ! उसे जूड़े में सजाया नहीं जा सकता, वह किसी भी गुलदस्ते की शोभा नहीं बन पाता, पलाश सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और उसी पर मुरझाकर धरती पर गिर जाता है। वह सिर्फ अपने लिए अपनी डाल पर ही सीमित रहता है। कितना कड़वा सत्य है, जिसे उसने आज जाना, अभी..इसी क्षण !!

Akela Palash a hindi book by Mehrunnisa Parvez - अकेला पलाश - मेहरुन्निसा परवेज

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

वह मौन चुप सी, उस बोलते वातावरण को निहारने लगी। बायीं ओर जंगल में थोड़ी-ऊँचाई पर दो-चार मकान बने थे, जहाँ रंग-बिरंगी साड़ियाँ सूख रही थीं। तभी ऊँची टोकरी से ढेर सारी गाय-बकरियों का हेड़ उतरा और में...में की लगातार आवाज करता सड़क पार करने लगा। उसे यह सब बड़ा अच्छा लग रहा था। जंगल जो दूर-दूर तक झाड़कर नंगा हो गया था वहीं दूर से पलाश के लाल चटक दहकते फूल झाँक-झाँक कर अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। पलाश भी कितना प्यारा और जानदार फूल है, एक अकेला पेड़ सारे वीराने को अपने सौन्दर्य से भर देता है। काली आँखों में लिखा सौन्दर्य, जैसे किसी नवयौवना की कजरारी काली आँखों में उतरे नशीले, शराबी लाल-लाल खुमारी के डोरे हों।

...प्रकृति किसी तरह मन को बाँधने के लिए एक न एक बैसाखी का सहारा दे ही देती है। कल तक जो तहमीना सोचा करती थी कि इस, पलाश को देखकर वह प्रसन्न हो जाती है, अपना दुःख भूल जाती है, कल यह झड़ जाएगा तब क्या करेगी ? पर वहीं अब वह सोचने लगी है, नहीं अभी कुछ बचा है, अभी गुलमोहर के भूल अपने रंग बाँटते नजर आते हैं। वह फूल वीरानी में अपनी सौन्दर्य बिखेरेंगे और जब इन फूलों का भी अन्त हो जाएगा और बरसात अपने साथ ढेरों फूलों को लिए होगी। इस तरह प्रकृति भी कितनी पाबन्दी से अपना सौन्दर्य बनाये रखती है और मनुष्य भी बच्चे-सा बहल जाता है।

...पलाश अपनी टहनियों से झड़कर नीचे धरती पर बिखर गया था और पेड़ अपनी फिर वही कुरूपता लिए खड़ा था.....सुन्दरता का अन्त हो चुका था, हर सुन्दर चीज का यही अन्त है।...सपने भले लगते हैं पर बस आँख बन्द रहने तक ही।
...पलाश लाख सुन्दर हो, सुन्दर फूल हों, पर उसमें सुगन्ध नहीं न ! उसे जूड़े में सजाया नहीं जा सकता, वह किसी भी गुलदस्ते की शोभा नहीं बन पाता, पलाश सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और उसी पर मुरझाकर धरती पर गिर जाता है। वह सिर्फ अपने लिए अपनी डाल पर ही सीमित रहता है। कितना कड़वा सत्य है, जिसे उसने आज जाना, अभी..इसी क्षण !!


अकेला पलाश

 


आफिस में टेबल के सामने बैठते ही मन की कमजोरी, उदासी जैसे बटन दबाते ही गायब हो गयी थी कहीं। उसकी जगह धैर्य-दृढ़ता आ गयी थी। जिम्मेदारी के एहसास ने उसे बाँध लिया, कस के। चपरासी ने एक गिलास पानी उसके आगे रख दिया। पानी पीकर उसे अच्छा लगा। रुमाल से उसने चेहरा साफ किया। अब वह पूर्ण रूप से तैयार थी, आगे की स्थिति का सामना करने के लिए। चपरासी ने उसके आगे ढेर सारी डाक लाकर रखी दी। डाक छाँटते ही एक लिफाफे को देख उसके हाथ काँप गये। पहचाने अक्षरों की पहचान जो अभी फीकी नहीं हुई थी, उसे देखते ही वह चौंक पड़ी। पत्र खोलते ही वह काँप-सी गयी। तुषार का पत्र था—तहमीना, मैं तुम्हारे शहर में आ रहा हूँ...मिल सकोगी ?
पत्र पढ़कर वह जैसे काँप-सी गयी।

तभी सामने रोड से रजिया आती दिखी। उसने दूर से ही आदाब किया। जवाब में वह धीरे से मुस्करा दी और टेबल पर रखा पेपरवेट गोल-गोल घुमाती रही। हाथ में रखे पत्र को उसने पेरवट से दबा दिया।
‘‘हूँ, आओ रजिया, कैसी हो ?’’ उसने बिना उसकी ओर देखे पूछा। उस वक्त लहजा वैसा ही था जैसे मरीज को उसकी बड़ी बीमारी की सूचना देते समय टटोल कर देखना चाहती हो कि मरीज कितना धैर्य रखता है।
‘‘जी अच्छी हूँ...’’ कहते हुए रजिया ने सहम कर दीवार का सहारा ले लिया।
‘‘रजिया, तुम विनोद को कब से जानती हो ?’’ तहमीना ने बहुत अचानक से सवाल कर दिया।
‘‘जी...’’ वह घबरा-सी गयी, ‘‘जी मैं नहीं जानती, बस पढ़ाते थे, उन्हें मास्टर के रूप में जानती हूँ,’’ वह सतर्क होकर साफ झूठ बोल गयी।

‘‘देखो, रजिया, मेरे सामने झूठ बोलने की कोई आवश्यकता नहीं,’’ उसने टेबल पर से पेन उठा लिया और कोरे कागज पर लकीरें खींचते बोली—‘‘तुम्हें और मेरे सारे स्टाफ को मालूम है, मुझे झूठ कतई पसन्द नहीं, सच-सच बात कहो क्या तुम्हें मेरे सामने झूठ बोलने की आवश्यकता है ?’’
‘‘जी...’’ वह सहमकर उसे देखने लगी।

‘‘देखो रजिया, मैं ज्यादा नहीं पूछूँगी, न ही ज्यादा बोलूँगी। ठीक है तुम्हारी उम्र अभी कम है, तुम मुश्किल से बीस-इक्कीस वर्ष की हो और तुम्हारी उम्र ऐसी है कि तुम्हें सहारे की भी आवश्यकता है; पर रजिया मेरी बात ध्यान से सुनो। यह ठीक है कि तुम्हें धूप लगी है और तुम्हें छाया की सख्त जरूरत है, पर छाया के लिए ऐसे पेड़ के नीचे पनाह लो जो तुम्हें वास्तव में छाया दे सके। ऐसे पेड़ के नीचे मत खड़ी हो जो तुम्हें छाया भी न दे सके। बल्कि उलटा तुम्हारे ऊपर गिरे और तुम्हें तबाह कर दे। तुम क्या नहीं जानतीं, विनोद दो बच्चों का बाप है, उसकी पत्नी है, उसकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं, वह तुम्हें अपने घर नहीं रख सकता। ऐसे रिश्तों से क्या फायदा जो सहारा न दे सकें...। समझ रही हो न मेरी बात ?’’
‘‘जी,’’ रजिया सर झुकाकर रो पड़ी।
‘‘मत रो रजिया, मेरी बात को अकेले में सोचो और उस पर अमल करो। क्या फायदा, विनोद की पत्नी इधर-उधर बकती है, तुम्हें बदनाम करती है, पति से लड़ती है ! तुम्हें अब यहाँ रखना भी ठीक नहीं है। इसलिए मैंने तुम्हारा ट्रांसफर कर दिया है, और तुम कल ही यहाँ से चली जाओ और काम में अपना मन लगाओ।’’
‘‘जी...।’’

‘‘अब आँसू पोंछ लो और जाकर पानी पियो और अपना काम देखो और मेरी बात का मान रखना अब तुम्हारा काम है।’’
रजिया चली गयी। मीनाक्षी जो खिड़की के पास बैठी चुपचाप अब तक तमाशा देख रही थी, उसकी तरफ देख मुस्कुरायी और बोली—‘‘आपने तो बहुत थोड़े शब्दों में उसे अच्छी तरह समझा दिया है।’’
तहमीना मुस्कुरा दी, तभी चाय आ गयी और उसने हाथ बढ़ाकर चाय ले ली।
‘‘एक और केस है मैडम,’’ मीनाक्षी उसके पास आती हुई बोली।
‘‘किसका है ?’’

‘‘अपने यहाँ की ही है। उसका एक ग्राम-सेवक से प्रेम चलता है, उसका अपना पति मर गया है, पति की तरफ से दो-तीन बच्चे हैं, अब इस ग्राम-सेवक से भी उसे गर्भ है। मुझे पता चला तो मैंने उसे बुलाकर बहुत डांटा, मैंने उसे गर्भ गिराने और आपरेशन करवा लेने के लिए बहुत कहा, पर वह नहीं मानी। अब अपने यहाँ दो-तीन माह से तनख्वाह नहीं मिल पा रही है, पैसों की तंगी है, तो उसे एक दूसरे डिपार्टमेंट वाली ने अपने घर रख लिया है। आजकल वह अपने यहाँ ड्यूटी भी नहीं कर रही है। वह उसी महिला के पास रहती है और उसके घर का काम देखती है। उसने उसे दूसरी जगह काम पर लगवा देने का आश्वासन दिया है।’’

‘‘अच्छा,’’ तहमीना ने खाली कप टेबल पर रख दिया, ‘‘यह तो बहुत बुरा है कि हमारे डिपार्टमेंट के व्यक्ति को कोई दूसरा भड़काये,’’ तभी सामने से दुलारी बाई आती हुई दिखी, और उसके सामने नमस्ते कर खड़ी हो गयी।
‘‘कहो कैसी हो ?’’ तहमीना ने एकदम शान्त होकर उससे पूछा जैसे कुछ न जानती हो।
‘‘जी अच्छी हूँ, गाड़ी देखकर आपके पास आयी हूँ।’’
‘‘सुना है तुमने यहाँ का काम छोड़ दिया है और पंचायत में काम ढूँढ़ रही हो !’’
‘‘यहाँ तनखा कम है दीदी, फिर समय पर मिलती भी नहीं,’’ वह ढीठ होते हुए बोली।

‘‘देखो दुलारी बाई, इसी तनखा पर तुम दो साल से काम कर रही थीं, तब तनखा कम नहीं लगती थी, अचानक अब लग रही है। इसमें मैं क्या कर सकती हूँ, जैसा ऊपर के आदेश होते हैं वैसे ही काम होता है। हम अपनी मरजी से अधिक वेतन तो नहीं दे सकते। रही समय पर वेतन न मिलने की बात, तो देर-सबेर हर जगह होती है। तुमने यह कैसे सोच लिया कि उनके डिपार्टमेंट में समय पर वेतन मिलेगा ? वहाँ भी यही परेशानी होगी। यदि तुम्हें परेशानी थी तो यहाँ तुम किसी से कह सकती थी। यह तो बहुत बुरी बात है दुलारी बाई की कि अपने यहां की बात दूसरे के घर जाकर कहो। मैं तुम्हें यहाँ रहने पर जोर नहीं देती, पर इतना जरूर कहूँगी कि जिसका नमक खाओ उसके प्रति वफादार भी रहो।’’
‘‘जी,’’ घबराकर उसने देखा।

‘‘और सुना है तुम्हें गर्भ है ?’’
‘‘जी,’’ उसके माथे पर पसीना छलक आया।
‘‘देखो बनो मत, यह मत सोचो कि मैं कुछ नहीं जानती, मुझे अपने हर कमर्चारी के बारे में एक-एक बात मालूम रहती है। गर्भ किसका है, ग्राम-सेवक का न ?’’
‘‘................’’
‘‘आज तुम चुप रहोगी, पर कल तुम्हारी स्थिति जब सब से सब कह देगी कि तुम विधवा हो यह बात सारे लोग जानते हैं ! दुलारी बाई मैं जानती हूँ औरत मजबूरियों में हर काम करती है। तुम्हारे जो बच्चे हैं इन्हें अच्छे से पालो, भटको मत। कल यह तुम्हें सहारा देंगे, तुम्हें, सँभालेंगे।’’
‘‘जी...जी’’ कहती वह फूट-फूटकर रोने लगी—‘‘मैं भटक गयी थी, दूसरे के बहकावे में आ गयी थी, आपने मुझे रास्ता दिखा दिया, मुझे बचा लिया। अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी, पर मुझे उस गाँव से हटा दीजिए, कहीं और भेज दीजिये, वह ग्राम-सेवक मेरी जान के पीछे पड़ा है।’’

‘‘ठीक है हम तुम्हें दूसरे गाँव में भेज देंगे, तुम जाओ और अपना काम करो, दूसरों के बहकावे में मत आओ। दूसरों के दिखाये रास्ते पर चलने के बजाय अपना रास्ता चलना ठीक होता है न।’’
दुलारी बाई रोती हुई उठी और नमस्ते कर चली गयी।

‘‘मैडम कहीं वह उस महिला से जाकर कुछ कहेगी तो नहीं,’’ मीनाक्षी घबराती हुई बोली,’’ वरना वह मुझसे लड़ने आयेगी कि मैंने उसका नाम आपको बतला दिया।’’
‘‘बताने दो मीनाक्षी क्या फर्क पड़ता है; पर नहीं वह नहीं बतायेगी, उसका मन दुख गया है जहाँ मन दुखता है। औरत का, वह बात की तह तक पहुँच जाती है। वह अपनी गलती समझ गयी है, और वह किसी से कुछ नहीं कहेगी, और यहीं लौट आयेगी।’’
‘‘चलिये मैडम नाश्ते का टाइम हो गया है,’’ मीनाक्षी उठते हुए बोली।
‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है, खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है, बल्कि तुम जाओ और नास्ता कर आओ, मैं कुछ देर अकेले रहना चाहती हूँ।’’

मीनाक्षी उठकर बाहर चली गयी और वह ढीली होकर अपनी कुर्सी पर लेट-सी गयी। अपने बालों से खेलते हुए उसने छत को दखा। खपरैल की बड़ी पुरानी-सी छत थी, नीचे यहाँ से वहाँ तक सफेद कपड़ा लगा दिया गया था ताकि धूल न गिरे। कपड़ा सफेद था इसलिए काफी गंदा हो गया था।
रजिया और दुलारी को शान्त कर वह खुद भीतर से बहुत अशान्त हो गयी थी, आँखें वीरान हो गयी थीं। दूसरों के कष्ट के आगे अपने कष्ट बड़े नहीं लगते। आज उसे वैसा ही लग रहा था जैसे सूखी नदी के किनारों की तरह, नदी जब सूख जाती है तो उसका दर्द कितनों ने देखा था, कितनों ने परखा था ! वह अपने सारे दर्द को गर्भ में छुपाए वीरान, हैरान सी पड़ी रहती है।

धूप काफी तेज हो गयी थी, गर्म हवा को झोंकों से कमरा एक दम गर्म सा हो गया था। विचित्र बेचैनी वाली स्थिति थी। मन भी शान्त नहीं था, और कमरा भी मन को शान्ति नहीं दे पा रहा था। जबरदस्ती आँख मूँदकर वह पड़ी रही, पर सारी आहटें मन की भी, बाहर की भी, उसे आराम से बैठने नहीं दे रही थीं, उसे परेशान किये हुए थीं। तुषार का पत्र कितनी-कितनी स्मृतियों को जगा गया था। अब वह पहले की तरह कमजोर, लाचार, बात-बात पर रोने वाली तहमीना नहीं रह गयी थी। उसकी जगह ले ली थी एक अच्छे, ऊँचे व्यक्तित्व वाली तहमीना ने, जिसके पास आज अपना बँगला, गाड़ी, फ्रिज, वे सारी चीजें हैं, जिनके लिए वह कल तरसती थी, सपने सँजोये थे। आज इतने वर्षों बाद तुषार का पत्र पाकर उसकी इच्छा हुई कि मुड़कर एक बार फिर पुरानी तहमीना को निहारे, जो कच्ची धरती पर खड़ी व्याकुल-सी आगे के रास्ते को निहारती थी।...

सुबह अचानक पानी बरस गया था, जिससे ठंड काफी बढ़ गयी थी। समय ज्यादा नहीं हुआ था, पर वे लोग जब उस छोटे से निपट एकाकी बस स्टैंड में उतरे तो लगा दोपहर काफी भारी हो गयी है। अभी दिन का साढ़े ग्यारह ही बजा था। बस स्टैंड में उतरने के बाद पहली बार मन में ढेर सारा संकोच उतर आया था। कहाँ जायें...कैसे जायें ? कैसे वहाँ जाकर खुद से अपना परिचय दें ? पता नहीं वहाँ जाकर कैसे उनका स्वागत होगा... स्वागत होगा भी या नहीं ? बहुत गैर-जरूरी प्रश्न थे जो एकाएक सामने आ खड़े हुए थे, जिनकी तरफ देखने से भय लग रहा था।

छोटा-सा बस स्टैंड...छोटा-सा गाँव, लगा आँख को इस छोर से उस छोर तक घुमा लेने से ही गाँव की लंबाई देखी जा सकती है। बस स्टैंड के किनारे लगे, इमली के पेड़ों ने जोर-जोर से अपनी बाँहें हिलायी, हवा के साथ इमली के फूलों की खट्टी महक ने स्पर्श किया।
‘‘कुछ पता है किधर चलना है,’’ जमशेद ने तहमीना से पूछा।
‘‘नहीं, किसी से पूछ लो न,’’ उसने खीजे हुए लहजे में कहा। उसे इस तरह बेवकूफों की तरह खड़े रहना बड़ा अखर रहा था। वह चाहती थी वहाँ से जल्दी से जल्दी हट जाए, क्योंकि कुछ लोग उत्सुकता से उन्हें देखने लगे थे। रिंकू पास के घर में चरती हुई मुर्गियों को बहुत प्रसन्नता से निहार रहा था। धूप से उसका चेहरा लाल हो उठा था। तहमीना ने रूमाल से उसका चेहरा साफ किया और पर्स से लेमनजूस की एक गोली निकाल कर उसे दी।
‘‘मम्मी पानी,’’ रिंकू उसकी साड़ी को मुट्ठी में भरता हुआ रुआँसा-सा बोला।
‘‘बस अभी बेटा, अभी चलते हैं आफिस वहाँ पानी मिलेगा,’’ तहनीमा ने रिंकू को बहलाते हुए कहा।
‘‘नईं, अभी दो’’...वह ठुनकने लगा।

थरमस का पानी खत्म हो गया था और वह बच्चे को बाहर का पानी पिलाना नहीं चाहती थी। होटल के नाम पर वहाँ कुछ था भी तो नहीं, टी स्टाल तक नजर नहीं आया। तहमीना ने रोते हए, ठिनकते हुए रिंकू को गोद में उठा लिया, और सामने रोड पर नजर डाली। लाल मुरूम वाली सड़क थी। सड़क के आगे जाने पर शायद आफिस मिलता हो। वह बेचैनी से आगे बढ़ी, जमशेद भी शांत हो लिए। प्यास से धूप में, थकान से रिंकू रोने लगा था।
बस स्टैंड के पास एक बड़ा-सा एक आम का वृक्ष है, जहाँ एक औरत लाई चना और सस्ते किस्म के लाल-लाल बिल्कुट बेच रही थी। उसी के पीछे पान का एक ठेला। नाली के पार कुछ क्वार्टर बने थे, सड़क के इस पार कोई आफिस था शायद। वे लोग आगे बढ़ते गये।

कुछ आगे जाने पर तहमीना को अपने दफ्तर का बोर्ड दिखा, जिसे देखते ही उसे हँसी आयी। दफ्तर क्या, दो छोटे से कमरों का आफिस था, सामने छोटा-सा पत्थरों का बरामदा जो एक दम गंदा-सा पड़ा था, जिसकी किसी ने बरसों से सफाई नहीं की थी। वे लोग बरामदे में आकर खड़े हो गये। रिंकू बरामदे में दौड़ने लगा था। कमरों में ताला पड़ा था।

अचानक सामने से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और नमस्ते कर बोला, ‘‘मैं बड़े बाबू को अभी बुलाकर ला रहा हूँ।’’
वह शायद चपरासी होगा, तहमीना ने सोचा और बरामदे में टहलती रही। बरामदे के दोनों ओर जंगली झाड़ियाँ उग आयी थीं। वे इतनी बढ़ गयी थीं कि उनकी शाखाएँ बरामदे की दीवारों को घेरे हुए थीं। जंगली घास घुटनों-घुटनों तक उग आयी थी। सड़क के पार मेहंदी की कंपाउड से घिरा छोटा-सा पोस्ट आफिस था और उससे लगे पी. डब्ल्यू. डी. के नए क्वार्टर थे।

सामने से एक व्यक्ति दौड़ेते हुए आया। तहमीना ने सोच लिया—यही यहाँ का बाबू होगा। भूरे रंग की टेरी काट की फुलपैंट तथा पीले चेक की उसने बुश्शर्ट पहन रखी थी जो काफी गंदी-सी हो गयी थी। आते ही उसने बड़े अजीब अंदाज से हाथ हिलाकर नमस्ते किया, जैसे चेहरे पर बैठ आयी मक्खी उड़ा रहा हो। और आफिस का ताला खोलने लगा।
‘‘आपका आफिस कितने बजे खुलता है ?’’ तहमीना ने घड़ी पर नजर रखते हुए उससे पूछा।
‘‘ग्यारह बजे,’’ उसने घबराते हुए कहा, ‘‘आज देर हो गयी मैडम,’’ उसने दरवाजा खोलकर खादी का छींट वाला परदा नीचे गिरा दिया।
वे लोग अंदर कुर्सियों पर बैठ गये। वहीं तीन कुर्सियाँ, एक बेंच, आफिस टेबल तथा पीछे दीवार से लगी लकड़ी की दो आलमारियाँ और लोहे की तिजोरी रखी थी।

‘‘आपने मुझे कोई सूचना नहीं दी,’’ तहमीना ने बाबू से पूछा।
मैडम, वह हम समझे के आपकी तरफ से हमें कोई सूचना मिलेगी कि आप फलाँ दिन चार्ज लेने आ रही हैं।’’
‘‘खैर, नये-नये वातावरण में इस तरह की गलतफहमियाँ हो जाती हैं,’’ तहमीना ने कहा, ‘‘आप चार्ज तैयार कर लीजिये।’’
‘‘जी, बहुत अच्छा,’’ कहता हुआ बड़ा बाबू बाहर चला गया। जमशेद तहमीना के रोब को देखकर मुस्कुरा रहे थे, जवाब में तहमीना भी मुस्कुरा दी। तभी बाबू अन्दर आया और वे दोनों संजीदा हो गये। तहमीना ने दीवारों का निरीक्षण शुरू किया। दीवार पर इन्दिरा गांधी और नेहरूजी के बड़े-से चित्र टँगे थे। इन्दिरा गांधी का यह चित्र बहुत पुराना था। तब शायद वह जवान थी। पूरे मध्यप्रदेश का नक्शा, जो किसी के हाथ से बना हुआ था, टँगा था, जो बीच से लंबाई में भी फट गया था।
‘‘इतने अच्छे नक्शे की आप लोग हिफाजत न कर सके,’’ तहमीना ने बाबू से कहा। जवाब में बाबू ने झेंपकर नीचे सर कर लिया।

थोड़ी देर में एक लड़का गिलासों में चाय लेकर आया। बाबू ने स्टोर से बिस्कुट निकालकर एक पेपर पर रख दिये, जिस पर रिंकू ने शीघ्र से शीघ्र हाथ साफ करना शुरू कर दिया। वे लोग चाय पीने लगे। सामने से एक सफेद साड़ी पहने महिला ने प्रवेश किया, पास आने पर उसे महिला कहना गलत लगा। वह मुश्किल से बीस-बाईस साल की लड़की थी। उसके बाल विचित्र ढंग से घुटे थे। लगता था जैसे वह किसी बंगाली गुरू की शिष्या हो। तहमीना को उसे देख बड़ा विचित्र-सा लगा। आते ही उसने दोनों को नमस्कार किया और बड़े बाबू की कुर्सी पर बैठते हुए, ‘‘क्षमा काजियेगा, आपकी तारीफ ?’’
‘‘अरे, मैडम हैं,’’ बड़े बाबू ने एकदम घबराते हुए जल्दी से बतलाया।

‘‘अरे,’’ वह एकदम घबराकर उठी, जैसे उसे बिजली का करेंट छू गया हो, और दुबारा नमस्कार कर बोली, ‘‘क्षमा करियेगा मैडम, मुझसे गलती हो गयी। आप आने वाली हैं, यह तो बड़े बाबू ने भी नहीं बलताया मुझे। आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मैं यहाँ पर नयी ही आयी आयी हूँ, सिर्फ एक महीना हुआ है।’’
‘‘अच्छा, कहाँ से आयी हैं आप यहाँ ?’’
‘‘भोपाल से...मुझसे पहले जो यहाँ ड्यूटी पर थी उसकी मृत्यु के बाद मेरी पोस्टिंग यहाँ हुई है।’’
‘अच्छा, डैथ हो गयी ! क्या वह ज्यादा बूढ़ी थी ?’’ तहमीना ने पूछा।
‘‘नहीं, दीदी, एकदम यंग थी, कुँवारी थी और उसकी एबार्शन केस में डैथ हुई।’’

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