धर्म एवं दर्शन >> श्रीरामभक्त शक्तिपुंज हनुमान श्रीरामभक्त शक्तिपुंज हनुमानजयराम मिश्र
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इसमें हनुमान के जीवन पर प्रकाश डाला गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने कहा है-लोक पर जब कोई विपत्ति आती है
तब वह त्राण पाने के लिए मेरी अभ्यर्थना करता है परंतु जब मुझ पर कोई संकट
आता है तब मैं उसके निवारणार्थ पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। अवतार श्रीराम
का यह कथन हनुमान जी के महान् व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर प्रकाशन कर देता
है। श्रीराम का कितना अनुग्रह है उन पर कि वे अपने लौकिक जीवन के संकटमोचन
के श्रेय का सौभाग्य सदैव उन्हीं को प्रदान करते हैं और कैसे शक्तिपुंज
हैं हनुमान कि जो श्रीराम तक के कष्ट का तत्काल निवारण कर सकते हैं। भगवान
श्रीराम के प्रति अपने अपूर्व, अद्भुत, एकांत भक्ति के कारण अन्य की इसी
प्रकार की भक्ति का आलंबन बन जाने वाला हनुमान जैसा कोई अन्य उदाहरण विश्व
में नहीं। यही कारण है कि संस्कृत से लेकर समस्त मध्कालीन और आधुनिक
भारतीय भाषाओं में श्रीहनुमान के परम पावन चरित्र का गान किया जाता है और
उनके मंदिर भारत वर्ष के प्रत्येक कोने में पाये जाते हैं।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गई है। स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदास की कृतियाँ-रामचरित-मानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कम्बन रचित, ‘कंबरामायण’ (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है। इनके अतिरिक्त श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ रचित ‘आंजनेय’ कल्याण पत्रिका के ‘हनुमानांक’ (1975 ई.) तथा डॉ. गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक ‘हनुमान के देवत्व और मूर्ति का विकास’ आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गई है। स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदास की कृतियाँ-रामचरित-मानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कम्बन रचित, ‘कंबरामायण’ (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है। इनके अतिरिक्त श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ रचित ‘आंजनेय’ कल्याण पत्रिका के ‘हनुमानांक’ (1975 ई.) तथा डॉ. गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक ‘हनुमान के देवत्व और मूर्ति का विकास’ आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है।
प्राक्कथन
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने कहा है-लोक पर जब कोई विपत्ति आती है
तब वह त्राण पाने के लिए मेरी अभ्यर्थना करता है परंतु जब मुझ पर कोई संकट
आता है तब में उसके निवारणार्थ पवनपुत्र सा स्मरण करता हूँ। अवतार श्रीराम
का यह कथन हनुमान जी के महान् व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर प्रकाशन कर देता
है। श्रीराम का कितना अनुग्रह है उन पर कि वे अपने लौकिक जीवन के संकटमोचन
के श्रेय का सौभाग्य सदैव उन्हीं को प्रदान करते हैं और कैसे शक्तिपुंज
हैं हनुमान कि जो श्रीराम तक के कष्ट का तत्काल निवारण कर सकते हैं। भगवान
श्रीराम के प्रति अपने अपूर्व, अद्भुत, एकांत भक्ति के कारण अन्य की इसी
प्रकार की भक्ति का आलंबन बन जाने वाला हनुमान जैसा कोई अन्य उदाहरण विश्व
में नहीं। यही कारण है कि संस्कृत से लेकर समस्त मध्कालीन और आधुनिक
भारतीय भाषाओं में श्रीहनुमान के परम पावन चरित्र का गान किया जाता है और
उनके मंदिर भारत वर्ष के प्रत्येक कोने में पाये जाते हैं।
श्रीहनुमान् अजर-अमर हैं; अपने प्रभु के वरदान से कल्पांत तक इस पृथ्वी पर निवास करेंगे। जहाँ भी राम की कथा होती है, मान्यता है कि वहाँ हनुमान जी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे, श्रद्धा से हाथ जोड़े, उपस्थित रहते हैं। शंकर के अवतार हनुमान भक्त पर शीघ्र और सदैव कृपा करने वाले हैं। श्रीराम भक्त को राम का अनुग्रह प्राप्त कराना उनका अतिप्रिय कर्म है, इसमें वह परम आनन्द पाते हैं।
आधुनिक युग के संत-मनीषी श्री हनुमान की भक्ति, शक्ति, ज्ञान, विनय, त्याग, औदार्य, बुद्धिमता आदि से अत्यधिक प्रेरित प्रभावित रहे हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस हनुमान जी नाम-जप-निष्ठा का बराबर उदाहरण देते थे। भक्तों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘मन के गुण से हनुमान जी समुद्र लाँघ गये। हनुमान जी का सहज विश्वास था, मैं श्रीराम का दास हूँ और श्रीराम नाम जपता हूँ, अत: मैं क्या नहीं कर सकता ?’’ स्वामी विवेकानन्द ने भी गरजते हुए कहा था- ‘‘देश के कोने-कोने में महाबली श्री हनुमान जी की पूजा प्रचलित करो। दुर्बल जाति के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करो। देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से ? मेरी प्रबल आकांक्षा है कि घर-घर में बज्रांगबली श्री हनुमान जी की पूजा और उपासना हो।’’ महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि ने ऐसे ही उद्गार हनुमान जी के प्रति व्यक्त किये हैं।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गई है। स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदास की कृतियाँ-रामचरित-मानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कम्बन रचित, ‘कंबरामायण’ (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है। इनके अतिरिक्त श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ रचित ‘आंजनेय’ कल्याण पत्रिका के ‘हनुमानांक’ (1975 ई.) तथा डॉ. गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक ‘हनुमान के देवत्व और मूर्ति का विकास’ आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है।
सामग्री-संकलन में मेरे अनुज चि. बलराम मिश्र एवं डॉ. गंगासागर तिवारी ने पर्याप्त मदद की है; ये दोनों व्यक्ति मेरे स्नेह और आशीर्वाद के पात्र हैं।
पुस्तक-लेखन काल में पिता ब्रह्यलीन श्रीरामचन्द्र मिश्र की पावन स्मृति निरंतर शक्ति प्रदान करती रही। मेरे आग्रज श्री परमात्माराम मिश्र एवं अनुज श्री भृगुराम मिश्र मुझे निरंतर पुस्तक लेखन की प्रेरणा देते रहे हैं; अग्रज मेरी श्रद्धा एवं अनुज स्नेह के भाजन हैं। मेरे भतीजों-चि. अव्यक्तराम, सर्वेश्वरराम, योगेश्वरराम एवं अव्यक्तराम की सहधर्मिणी श्रीमती उषा ने लेखनकार्य के समय मेरी भलीभाँति सेवा-सुश्रूषा की है; इन सभी को मेरा हार्दिक आशीष। मेरे अन्य भतीजे डॉ. विभुराम मिश्र ने अत्यधिक श्रमपूर्वक पांडुलिपि को संशोधित किया है; उसे मेरा कोटिश: आशीष। पुस्तक लिखाने का श्रेय लोकभारती प्रकाशन के व्यवस्थापक को है, जिनका आग्रह मैं टाल न सका।
इस पुस्तक के लेखन में मेरी वृत्ति निरंतर भगवन्मयी बनी रही है। मैंने अनुभव किया कि भगवच्चरित की अपेक्षा भक्तचरित्र का लेखन कठिन है, फिर भी पूर्ण संतोष है कि मैंने निष्ठापूर्वक यह कार्य किया है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि पाठकगण हनुमान जी के परमोज्जवल लोकोत्तर चरित्र से निश्चय ही शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करेंगे।
श्रीहनुमान् अजर-अमर हैं; अपने प्रभु के वरदान से कल्पांत तक इस पृथ्वी पर निवास करेंगे। जहाँ भी राम की कथा होती है, मान्यता है कि वहाँ हनुमान जी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे, श्रद्धा से हाथ जोड़े, उपस्थित रहते हैं। शंकर के अवतार हनुमान भक्त पर शीघ्र और सदैव कृपा करने वाले हैं। श्रीराम भक्त को राम का अनुग्रह प्राप्त कराना उनका अतिप्रिय कर्म है, इसमें वह परम आनन्द पाते हैं।
आधुनिक युग के संत-मनीषी श्री हनुमान की भक्ति, शक्ति, ज्ञान, विनय, त्याग, औदार्य, बुद्धिमता आदि से अत्यधिक प्रेरित प्रभावित रहे हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस हनुमान जी नाम-जप-निष्ठा का बराबर उदाहरण देते थे। भक्तों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘मन के गुण से हनुमान जी समुद्र लाँघ गये। हनुमान जी का सहज विश्वास था, मैं श्रीराम का दास हूँ और श्रीराम नाम जपता हूँ, अत: मैं क्या नहीं कर सकता ?’’ स्वामी विवेकानन्द ने भी गरजते हुए कहा था- ‘‘देश के कोने-कोने में महाबली श्री हनुमान जी की पूजा प्रचलित करो। दुर्बल जाति के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करो। देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से ? मेरी प्रबल आकांक्षा है कि घर-घर में बज्रांगबली श्री हनुमान जी की पूजा और उपासना हो।’’ महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि ने ऐसे ही उद्गार हनुमान जी के प्रति व्यक्त किये हैं।
इस पुस्तक की रचना में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा आनंद रामायण से विशेष सहायता ली गई है। स्कंदपुराण, पद्मपुराणादि एवं महाभारत (वनपर्व) भी रचना में सहायक सिद्ध हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदास की कृतियाँ-रामचरित-मानस, विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली एवं कम्बन रचित, ‘कंबरामायण’ (तमिल रचना) से भी यत्र-तत्र सहायता ग्रहण की गई है। इनके अतिरिक्त श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ रचित ‘आंजनेय’ कल्याण पत्रिका के ‘हनुमानांक’ (1975 ई.) तथा डॉ. गोविन्दचन्द्र राय की पुस्तक ‘हनुमान के देवत्व और मूर्ति का विकास’ आदि से भी यथावसर सामग्री प्राप्त की गयी है।
सामग्री-संकलन में मेरे अनुज चि. बलराम मिश्र एवं डॉ. गंगासागर तिवारी ने पर्याप्त मदद की है; ये दोनों व्यक्ति मेरे स्नेह और आशीर्वाद के पात्र हैं।
पुस्तक-लेखन काल में पिता ब्रह्यलीन श्रीरामचन्द्र मिश्र की पावन स्मृति निरंतर शक्ति प्रदान करती रही। मेरे आग्रज श्री परमात्माराम मिश्र एवं अनुज श्री भृगुराम मिश्र मुझे निरंतर पुस्तक लेखन की प्रेरणा देते रहे हैं; अग्रज मेरी श्रद्धा एवं अनुज स्नेह के भाजन हैं। मेरे भतीजों-चि. अव्यक्तराम, सर्वेश्वरराम, योगेश्वरराम एवं अव्यक्तराम की सहधर्मिणी श्रीमती उषा ने लेखनकार्य के समय मेरी भलीभाँति सेवा-सुश्रूषा की है; इन सभी को मेरा हार्दिक आशीष। मेरे अन्य भतीजे डॉ. विभुराम मिश्र ने अत्यधिक श्रमपूर्वक पांडुलिपि को संशोधित किया है; उसे मेरा कोटिश: आशीष। पुस्तक लिखाने का श्रेय लोकभारती प्रकाशन के व्यवस्थापक को है, जिनका आग्रह मैं टाल न सका।
इस पुस्तक के लेखन में मेरी वृत्ति निरंतर भगवन्मयी बनी रही है। मैंने अनुभव किया कि भगवच्चरित की अपेक्षा भक्तचरित्र का लेखन कठिन है, फिर भी पूर्ण संतोष है कि मैंने निष्ठापूर्वक यह कार्य किया है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि पाठकगण हनुमान जी के परमोज्जवल लोकोत्तर चरित्र से निश्चय ही शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करेंगे।
गुरुपूर्णिमा,
सोमवार 21 जुलाई, 1986 ई.
सोमवार 21 जुलाई, 1986 ई.
जयराम मिश्र
41ए/15एम, तिलकनगर
अल्लापुर, इलाहाबाद-6
41ए/15एम, तिलकनगर
अल्लापुर, इलाहाबाद-6
प्रस्तावना
हनुमान जी असीम बल, परम शक्ति, अपूर्व और आश्चर्यजनक उत्साह के देवता माने
जाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के साथ उनका अन्योन्याश्रित
संबंध है। इसीलिये कहा जाता है ‘‘जब तक वसुंधरा पर
रामकथा
रहेगी, तब तक हनुमान जी की गुणगाथा भी रहेगी।’’
वास्तव में इस
तथ्य पर गंभीरता से विचार किया जाय, तो यह बात पूर्णरूप से स्पष्ट हो
जायेगी, कि भगवान श्रीराम की विश्वविश्रुत अक्षुण्ण कीर्ति एवं लोकपावनी
गुणगाथा के प्रचार और प्रसार में हनुमान जी महान् सहायक सिद्ध हुए। यदि
भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतार ग्रहण करके अवतीर्ण होते हैं,
तो यह ध्रुव सिद्धान्त है कि उनके साथ उनके लीला सहचर भी अवतीर्ण हुआ करते
हैं। श्री हनुमान जी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के लीला सहचरों
में से प्रमुख हैं।
आर्यों के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में हमें ‘हनुमान्’ शब्द तो नहीं मिलता, परन्तु ‘वृषाकपि’ अवश्य प्राप्त होता है। इस ‘वृषाकपि’ से ‘हनुमान्’ का कितना संबंध है, यह ठीक नहीं कहा जा सकता। तैत्तिरीय संहिता में भी ‘मयु’ को जंगल का निवासी कहा गया है, यह लंगूर प्रतीत होता है। यह ‘मयु’ शब्द वाजसनेयि संहिता में भी अश्वमेध के प्रकरण में मिलता है। यह ‘मयु’ शब्द लंगूर के हेतु प्रयुक्त होता है। एक दूसरे स्थान पर इसे मनुष्य के स्थान पर रखा गया है। इसी अर्थ में शतपथ में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। मर्कट शब्द भी वाजसनेयि संहिता तथा तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। अथर्ववेद में कई बार वर्णन आया है। इन्हें बालों से युक्त तथा कुत्तों का शत्रु कहा गया है।
छान्दोग्य उपनिषद् में हमें ‘कप्यआस’ पद मिलता है, जिससे ज्ञात होता है इस काल तक पहुँचते-पहुँचते ‘कपिपूजा’ प्रारंभ हो गयी थी तथा कपिपूजकों का एक पंथ भी बन गया था। काण्क संहिता में हमें ‘लुशाकपि’ प्राप्त होता है। यह ‘लुशाकपि’ शब्द हमें असीरिया के एक लेख में भी देखने को मिलता है, जिससे यह धारणा बनती है कि हिब्रू का ‘कोफ’ शब्द कपि से बना है, जो बन्दर का द्योतक है। इसी संहिता में ‘कापेय’ शब्द भी प्राप्त होता है जो चित्ररथ के पुरोहितों के लिए प्रयुक्त हुआ है।
‘मर्कट’ शब्द जो बंदरों के हेतु पीछे संस्कृत साहित्य में स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, सर्वप्रथम ऐतरेय तथा तैत्तिरीय अरण्यकों में मिलता है। जैमिनीय ब्राह्मण में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है। हो सकता है यह ‘मर्कट’ शब्द बंदरों की कोई दूसरी जाति का द्योतक रहा हो।
ऐसा ज्ञात है कि हनुमान् की पूजा जनता में प्रचलित होने के कारण बौद्ध-साहित्य में इन्हें बाद में अपनाना पड़ा, जैसे कुबेर, यक्ष, मणिभद्र यक्ष तथा श्री माँ देवी यक्षणियों को इन्होंने अपनाया था, जिनकी मूर्तियाँ भरहुत के स्तूप के चारों ओर बने पाषाण के वेस्टिका पर अंकित हैं।
जैन साहित्य में हनुमान् के विषय में विषद कथाएँ प्राप्त होती हैं परन्तु ये कथाएँ आज की प्रचलित विचारधाराओं से भिन्न हैं। यों हनुमान् का चरित्र यहाँ श्रीराम के चरित्र से संबंधित दिखाई देता है। हनुमान् का जो चरित्र जैन साहित्य में प्राप्त होता है वह वाल्मीक रामायण और संस्कृत साहित्य से भिन्न है। उनके आरंभिक जीवन की कथा जो जैन साहित्य में प्राप्त होती है वह कहीं नहीं है। यहाँ उन्हें विद्याधरों की श्रेणी में रखा गया है तथा वानर वंश की भी कल्पना की गयी है। उनके मुकुट में वानर चिह्न का वर्णन है तथा उसके रथ की ध्वजा पर भी एक वानर बैठाया गया है। उसके लांगूल को उनका पाश कहा गया है। उन्हें कामदेव का अवतार भी माना गया है। उसके नाम के विषय में यह तर्क किया गया है कि उनका पालन-पोषण हनुरुह द्वीप में हुआ, इस कारण उसका नाम हनुमान् पड़ा।
पुराणों में भी हनुमान् का चरित्र प्राप्त होता है। पुराणों में हनुमान् का चरित्र प्राय: राम के चरित्र से संबंधित है। पर पुराणों के विवरण और वाल्मीकि रामायण के विवरण में थोड़ा बहुत अंतर मिलता है। अग्निपुराण, ब्रह्मपुराण, स्कन्दपुराण, शिवमहापुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कूर्मपुराण, गरुणपुराण, श्रीमद्भावतपुराण, पद्मपुराण, नरसिंहपुराण, भविष्यपुराण आदि में हनुमान् की गाथा किसी न किसी रूप में पायी जाती है। पुराणों में हनुमान् का चरित्र प्राय: वाल्मीकि रामायण में दी हुई हनुमान्-कथा का विकास है। बहुत-सी कथाएँ उन स्थलों को पूर्ण करने हेतु भी लिखी गयी हैं, जहाँ वाल्मीकि मौन रह गये हैं। उदाहरणार्थ शिवमहापुराण में इनके शिव के वीर्य से उत्पन्न होने की बात कही गयी है और इनकी माता को गौतम की पुत्री कहा गया है।
कुछ तंत्रग्रंथों में तथा विशेष रूप से नारदपुराण में हनुमान् का मंत्र, उनका यंत्र, उनका कवच, उनकी तांत्रिक विधि से पूजा, उनका तंत्र के आधार पर ध्यान इत्यादि सब कुछ मिलता है। यह पद्धति प्राचीन यक्ष पूजा से बहुत कुछ मिलती है। यों इन्हें शिव का पुत्र, शिव का अवतार आदि सब कहा गया है। यक्षों की सर्वप्रदाता, सर्वसंकट हरण के रूप में पूजा होती थी तथा होती है, वैसे ही हनुमान् जी की पूजा इन तंत्रों में भी दिखायी देती है।
संस्कृत-साहित्य में हनुमान् का चरित्र विशद रूप में पाया जाता है। वाल्मीकि में आदि काव्य, रामायण, भासकृत अभिषेक नाटक, कालिदास के रघुवंश, भट्टिकाव्य में रामकथा, भवभूति कृत महावीरचरितम्, हरिभद्र सूरी रचित धूर्ताख्यान, सोमदेव कृत कथा-सरित्सागर, हनुमन्नाटकम्, जयदेवकृत प्रसन्नराघव, क्षेमेन्द्र कृत रामायणमंजरी राजशेखर विरचितबाल रामायण नाटक, अध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण आदि ग्रंथों में हनुमानजी-संबंधी सामग्री पायी जाती है। परन्तु इसमें रंचमात्र सन्देह नहीं कि इन सबका आधार वाल्मीकि का रामायण ही बना रहा। अत: हनुमान जी के जीवन, क्रियाकलाप और चरित्र के संबंध में वाल्मीकि रामायण विश्वस्त और प्रामाणिक सामग्री है। संस्कृत की हनुमान् संबंधी समग्र सामग्री किंचित् परिवर्तन और परिवर्धन के साथ वाल्मीकि के रामायण पर आश्रित मानी जा सकती है।
भाषा-साहित्य भी हनुमान् के चरित्र से अछूता नहीं है। बंगाली रामकथाओं में हनुमान् तथा श्रीराम की भेंट का वृत्तान्त अधिक विस्तारपूर्वक रचा गया है। इनमें ‘कंब रामायण’ और ‘कृतवासी रामायण’ विशेष प्रसिद्ध हैं। कृत्तिवास ने हनुमान् की जन्म-कथा का पूरा वर्णन किया है। रामनाथ त्रिपाठी ने ‘कृतवासी बंगला रामायण’ और तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ का तुलनात्मक अध्ययन किया है, जो अलीगढ़ से 1963 में प्रकाशित भी हो चुका है।
राजा कोन बुद्धा कृत तेलुगू रामायण है, जिसे रंगनाथ रामायण कहा जाता है। यह तेरहवीं शताब्दी की रचना है। इसका आधार वाल्मीकि रामायण है। परन्तु इसके कथानक में स्थान-स्थान पर वाल्मीकि-रामायण से भिन्नता दिखायी पड़ती है।
हिन्दी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस अनुपम पुस्तक है। परन्तु हनुमान जी के जन्मादि की कथा इसमें नहीं है। हाँ, उनके शौर्य, चरित्र आदि पर इस ग्रंथ से अत्यधिक प्रकाश पड़ता है। केशवदासकृत रामचन्द्रिका में हनुमान् का जो चरित्र मिलता है, वह प्राय: वाल्मीकि रामायण पर ही आधारित ज्ञात होता है। केशवदास संस्कृत के पण्डित थे और उन्होंने उस स्रोत से बहुत कुछ लिया है।
आर्यों के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में हमें ‘हनुमान्’ शब्द तो नहीं मिलता, परन्तु ‘वृषाकपि’ अवश्य प्राप्त होता है। इस ‘वृषाकपि’ से ‘हनुमान्’ का कितना संबंध है, यह ठीक नहीं कहा जा सकता। तैत्तिरीय संहिता में भी ‘मयु’ को जंगल का निवासी कहा गया है, यह लंगूर प्रतीत होता है। यह ‘मयु’ शब्द वाजसनेयि संहिता में भी अश्वमेध के प्रकरण में मिलता है। यह ‘मयु’ शब्द लंगूर के हेतु प्रयुक्त होता है। एक दूसरे स्थान पर इसे मनुष्य के स्थान पर रखा गया है। इसी अर्थ में शतपथ में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। मर्कट शब्द भी वाजसनेयि संहिता तथा तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। अथर्ववेद में कई बार वर्णन आया है। इन्हें बालों से युक्त तथा कुत्तों का शत्रु कहा गया है।
छान्दोग्य उपनिषद् में हमें ‘कप्यआस’ पद मिलता है, जिससे ज्ञात होता है इस काल तक पहुँचते-पहुँचते ‘कपिपूजा’ प्रारंभ हो गयी थी तथा कपिपूजकों का एक पंथ भी बन गया था। काण्क संहिता में हमें ‘लुशाकपि’ प्राप्त होता है। यह ‘लुशाकपि’ शब्द हमें असीरिया के एक लेख में भी देखने को मिलता है, जिससे यह धारणा बनती है कि हिब्रू का ‘कोफ’ शब्द कपि से बना है, जो बन्दर का द्योतक है। इसी संहिता में ‘कापेय’ शब्द भी प्राप्त होता है जो चित्ररथ के पुरोहितों के लिए प्रयुक्त हुआ है।
‘मर्कट’ शब्द जो बंदरों के हेतु पीछे संस्कृत साहित्य में स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, सर्वप्रथम ऐतरेय तथा तैत्तिरीय अरण्यकों में मिलता है। जैमिनीय ब्राह्मण में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है। हो सकता है यह ‘मर्कट’ शब्द बंदरों की कोई दूसरी जाति का द्योतक रहा हो।
ऐसा ज्ञात है कि हनुमान् की पूजा जनता में प्रचलित होने के कारण बौद्ध-साहित्य में इन्हें बाद में अपनाना पड़ा, जैसे कुबेर, यक्ष, मणिभद्र यक्ष तथा श्री माँ देवी यक्षणियों को इन्होंने अपनाया था, जिनकी मूर्तियाँ भरहुत के स्तूप के चारों ओर बने पाषाण के वेस्टिका पर अंकित हैं।
जैन साहित्य में हनुमान् के विषय में विषद कथाएँ प्राप्त होती हैं परन्तु ये कथाएँ आज की प्रचलित विचारधाराओं से भिन्न हैं। यों हनुमान् का चरित्र यहाँ श्रीराम के चरित्र से संबंधित दिखाई देता है। हनुमान् का जो चरित्र जैन साहित्य में प्राप्त होता है वह वाल्मीक रामायण और संस्कृत साहित्य से भिन्न है। उनके आरंभिक जीवन की कथा जो जैन साहित्य में प्राप्त होती है वह कहीं नहीं है। यहाँ उन्हें विद्याधरों की श्रेणी में रखा गया है तथा वानर वंश की भी कल्पना की गयी है। उनके मुकुट में वानर चिह्न का वर्णन है तथा उसके रथ की ध्वजा पर भी एक वानर बैठाया गया है। उसके लांगूल को उनका पाश कहा गया है। उन्हें कामदेव का अवतार भी माना गया है। उसके नाम के विषय में यह तर्क किया गया है कि उनका पालन-पोषण हनुरुह द्वीप में हुआ, इस कारण उसका नाम हनुमान् पड़ा।
पुराणों में भी हनुमान् का चरित्र प्राप्त होता है। पुराणों में हनुमान् का चरित्र प्राय: राम के चरित्र से संबंधित है। पर पुराणों के विवरण और वाल्मीकि रामायण के विवरण में थोड़ा बहुत अंतर मिलता है। अग्निपुराण, ब्रह्मपुराण, स्कन्दपुराण, शिवमहापुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कूर्मपुराण, गरुणपुराण, श्रीमद्भावतपुराण, पद्मपुराण, नरसिंहपुराण, भविष्यपुराण आदि में हनुमान् की गाथा किसी न किसी रूप में पायी जाती है। पुराणों में हनुमान् का चरित्र प्राय: वाल्मीकि रामायण में दी हुई हनुमान्-कथा का विकास है। बहुत-सी कथाएँ उन स्थलों को पूर्ण करने हेतु भी लिखी गयी हैं, जहाँ वाल्मीकि मौन रह गये हैं। उदाहरणार्थ शिवमहापुराण में इनके शिव के वीर्य से उत्पन्न होने की बात कही गयी है और इनकी माता को गौतम की पुत्री कहा गया है।
कुछ तंत्रग्रंथों में तथा विशेष रूप से नारदपुराण में हनुमान् का मंत्र, उनका यंत्र, उनका कवच, उनकी तांत्रिक विधि से पूजा, उनका तंत्र के आधार पर ध्यान इत्यादि सब कुछ मिलता है। यह पद्धति प्राचीन यक्ष पूजा से बहुत कुछ मिलती है। यों इन्हें शिव का पुत्र, शिव का अवतार आदि सब कहा गया है। यक्षों की सर्वप्रदाता, सर्वसंकट हरण के रूप में पूजा होती थी तथा होती है, वैसे ही हनुमान् जी की पूजा इन तंत्रों में भी दिखायी देती है।
संस्कृत-साहित्य में हनुमान् का चरित्र विशद रूप में पाया जाता है। वाल्मीकि में आदि काव्य, रामायण, भासकृत अभिषेक नाटक, कालिदास के रघुवंश, भट्टिकाव्य में रामकथा, भवभूति कृत महावीरचरितम्, हरिभद्र सूरी रचित धूर्ताख्यान, सोमदेव कृत कथा-सरित्सागर, हनुमन्नाटकम्, जयदेवकृत प्रसन्नराघव, क्षेमेन्द्र कृत रामायणमंजरी राजशेखर विरचितबाल रामायण नाटक, अध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण आदि ग्रंथों में हनुमानजी-संबंधी सामग्री पायी जाती है। परन्तु इसमें रंचमात्र सन्देह नहीं कि इन सबका आधार वाल्मीकि का रामायण ही बना रहा। अत: हनुमान जी के जीवन, क्रियाकलाप और चरित्र के संबंध में वाल्मीकि रामायण विश्वस्त और प्रामाणिक सामग्री है। संस्कृत की हनुमान् संबंधी समग्र सामग्री किंचित् परिवर्तन और परिवर्धन के साथ वाल्मीकि के रामायण पर आश्रित मानी जा सकती है।
भाषा-साहित्य भी हनुमान् के चरित्र से अछूता नहीं है। बंगाली रामकथाओं में हनुमान् तथा श्रीराम की भेंट का वृत्तान्त अधिक विस्तारपूर्वक रचा गया है। इनमें ‘कंब रामायण’ और ‘कृतवासी रामायण’ विशेष प्रसिद्ध हैं। कृत्तिवास ने हनुमान् की जन्म-कथा का पूरा वर्णन किया है। रामनाथ त्रिपाठी ने ‘कृतवासी बंगला रामायण’ और तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ का तुलनात्मक अध्ययन किया है, जो अलीगढ़ से 1963 में प्रकाशित भी हो चुका है।
राजा कोन बुद्धा कृत तेलुगू रामायण है, जिसे रंगनाथ रामायण कहा जाता है। यह तेरहवीं शताब्दी की रचना है। इसका आधार वाल्मीकि रामायण है। परन्तु इसके कथानक में स्थान-स्थान पर वाल्मीकि-रामायण से भिन्नता दिखायी पड़ती है।
हिन्दी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस अनुपम पुस्तक है। परन्तु हनुमान जी के जन्मादि की कथा इसमें नहीं है। हाँ, उनके शौर्य, चरित्र आदि पर इस ग्रंथ से अत्यधिक प्रकाश पड़ता है। केशवदासकृत रामचन्द्रिका में हनुमान् का जो चरित्र मिलता है, वह प्राय: वाल्मीकि रामायण पर ही आधारित ज्ञात होता है। केशवदास संस्कृत के पण्डित थे और उन्होंने उस स्रोत से बहुत कुछ लिया है।
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