कहानी संग्रह >> भाग्य रेखा भाग्य रेखाभीष्म साहनी
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जीवन की सच्चाइयों को उजागर करती कहानियाँ.....
Bhagya Rekha - A Hindi Book by Bhishma Sahni - भाग्य रेखा - भीष्म साहनी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भीष्मजी की कहानियों की विशिष्टता उनकी सहज स्वाभाविकता में पाई जाती है। लगता है वह अपनी ओर से कुछ भी न जोड़ते हुए जिंदगी के किसी पहलू पर से पर्दा उठा रहे हैं। वह जीवन में घटनेवाली किसी साधारण-सी घटना को उठाते हैं, धीरे-धीरे कहानी का रूप लेते हुए। वह घटना, मात्र घटना न रहकर एक कलाकृति में बदली जाती है, पर उसका मूल स्वर जीवन के ही किसी सत्य को प्रतिध्वनित करता है। उनकी कहानियाँ खुद बोलती हैं, उन पर कुछ भी आवेष्ठित, आरोपित नहीं होता।
भीष्मजी की कहानियों को सोद्देश्य कहानियाँ ही कहा जाएगा, पर उनका उद्देश्य जीवन की सच्चाई प्रस्तुत करना है। और यह उद्देश्य कहानी के सहज स्वाभाविक विकास में से फूट कर निकलता है।
भीष्मजी के अब तक प्रकाशित होनेवाले लगभग दस कहानी-संग्रह में यह पहला कहानी-संग्रह है जिसके साथ भीष्मजी ने साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रखा था। इसे आज लगभग चालीस वर्ष बाद फिर से प्रकाशित किया जा रहा है।
भीष्मजी की कहानियों को सोद्देश्य कहानियाँ ही कहा जाएगा, पर उनका उद्देश्य जीवन की सच्चाई प्रस्तुत करना है। और यह उद्देश्य कहानी के सहज स्वाभाविक विकास में से फूट कर निकलता है।
भीष्मजी के अब तक प्रकाशित होनेवाले लगभग दस कहानी-संग्रह में यह पहला कहानी-संग्रह है जिसके साथ भीष्मजी ने साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रखा था। इसे आज लगभग चालीस वर्ष बाद फिर से प्रकाशित किया जा रहा है।
जोत
जानकू ने चिलम को ठकेरते हुए एक बार फिर आसमान की तरफ देखा। बारिश हल्की तो हो गई थी, लेकिन बादल उसी तरह घने और, बोझल, सारे आसमान को ढके हुए थे। रात सलामती से गुजर जाए, ओले न पड़े, तो वह और इन्तज़ार नहीं करेगा, कटाई शुरू कर देगा।
जानकू ने अपने इष्ट देवता का नाम लिया और गले में बँधे हुए देवता के चिह्न चाँदी की ‘सिंघी’ को छुआ, ‘मालिक नज़र रखीं।’ फिर पास पड़े हुए मलमल के छोटे से काले कपड़े को तह करने लगा।
जानकू का खेत पहाड़ की ढलाई पर था। खेत तो कहना ठीक नहीं, खेत के छोटे-छोटे टुकड़ थे, जो सीढ़ियों की शक्ल में, एक के ऊपर दूसरा, तलाई को ढंके हुए थे। कांगड़े के सुदूर पहाड़ों में जंगलात को जो रास्ता ‘कोहड़’ से ‘नल्शेता’ की ओर, ऊँचे पहाड़ को कमर बंद की तरह घेरे हुए है, उसी के दामन में, यह ज़मीन का टुकड़ा था। एक कोने में छिपा हुआ होने के कारण जानकू की ज़मीन बाकी गाँव से अलग-थलग थी।
गाँव के खेत कट चुके थे और लोग मटोर-मेले की तैयारियों में थे। कांगड़े के हर गाँव वाले के लिए मटोर-मेला एक लंबें सफर के बाद अपने चिर-वांछित स्थान पर पहुँच जाने के बराबर था। खेत कट जाते और ‘हाड़’ महीने के पहले दिन, गाँव के लोग, नरसिंघों और नगारों को बजाते हुए, गाँव के देवता की पालकी उठाए हुए, कई पहाड़ियाँ पारक करके मटोर गाँव की ओर जाते, जहाँ अनाज के बड़े देवता का मंदिर था। दिन भर देवता की पूजा होती, और मंदिर के फर्श पर चढ़ावे के गेहूँ का एक बिछौना-सा बिछ जाता। फिर रंगरलियाँ होतीं, लुगड़ी के नशे में किसान झूमते हुए घरों को लौटते और अपने इष्ट देवता को फिर से मंदिर में स्थापित कर देते।
पर जानकू इस मेले पर हमेशा हाँफता हुआ ही पहुँचता था। उसकी ज़मीन, छिपे हुए कोनों में होने के कारण, सूरज के धूप से वंचित ररहती थी। जहाँ औरों के खेत पहाड़ के विशाल वक्ष पर फैले हुए, दिन भर खिली हुई धूप का का रस लेते, वहाँ जानकू के खेत पर केवल दोपहर की ढलती हुई धूप पड़ती–और इसी कारण बरसात के शुरू हो जाने तक खेत तैयार न हो पाता। इसलिए जेठ महीने के आखिरी दिन हमेशा जानकू की नींद उचाट किए रहते जहाँ और लोग मेले की तैयारियों में व्यस्त रहते, वहाँ जानकू की आँखें आसमान को तकती रहतीं कि ओले न पड़ें और खेत बच जाएँ !
यह थी जानकू की ज़मीन। अन्यमनस्क, मलमल के कपड़े को सहलाते हुए, उसकी आँखों के सामने कई दृश्य घूम रहे थे, वह दृश्य जब भी उसने इस ज़मीन को खरीदने का निश्चय किया था। उसे ऐसा जान पड़ा जैसे फिर उत्तमी का छोटा-सा सलोना हाथ उसके दिल को छूने लगा है, और उसके कंधे पर अपना सिर रखे उत्तमी कह रही है-ले लो न ज़मीन। मैं जो अब आ गई हूँ। मैं सब काम करूँगी।’
और जानकू ने उसका हाथ सहलाते हुए कहा-‘यह ज़मीन के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हैं उत्तमी, काम करते-करते हड्डियाँ टूट जाएँगी।’
‘मैं तीन घड़े पानी को उठाकर पहड़ी पर चढ़ा सकती हूँ। मैं सब काम कर लूँगी !’
और फिर धीरे से जानकू के सीने के साथ सटकर हँसती हुई, और अपनी चमकती हुई आँखों से उसे अवाक् करती हुई बोली, ‘यहाँ हमें कोई देखेगा भी नहीं। जब चाहेंगे काम करेंगे, जब चाहेंगे बैठकर बाते करेंगे। यहाँ तो गाँव के आदमी आते ही नहीं। तू कोठा बेचकर ज़मीन खरीद ले !’
और जानकू ने अपना पैतृक कोठा बेचकर यह ज़मीन खरीद ली ! दो ही महीने पहले सात पहाड़ियाँ दूर बैजनाथ से, जानकू उत्तमी को ब्याह कर लाया था। अढ़ाई सौ रुपये तो देने पड़े थे, लेकिन जैसे स्वर्ग खरीद के ले आया हो। उत्तमी गोड़ी करती तो हँसती हुई। और धीरे-धीरे इस ज़मीन की स्निग्ध ओट में, उत्तमी दो बच्चों की माँ भी हो गयी थी।
पर अब उत्तमी नहीं थी। उसे मरे भी आठसाल से अधिक बीत चुके थे। उत्तमी का श्वेत को मल हाथ, सहसा निर्जीव होकर, जैसे जानकू के कंधे पर से लुढ़क गया !
जानकू ने आँखें उठाकर देखा तो लम्बरदार सामने खड़ा था। कद का लम्बा और गठीला, सिर पर पगड़ी और कानों में सोने की बालियाँ। लम्बरदार की चाल-ढाल में ही रोब था। जब बात करता तो अपने आप ही माथे पर बल पड़ जाते। जानकू एक हाथ से अपने गले में बँधी हुई ‘सिंघी’ को छूता हुआ उठ खड़ा हुआ।
तेरी ज़मीन फिसल रही है जानकू और तू बैठे चिलम पी रहा है। ज़मीन रहे या जाए लगान देना होगा, पहले ही कह दूँ।’
और बिना कुछ कहे सुने, बिना जवाब-सवाल का मौका दिए, वह रास्ते पर आगे निकल गया।
जानकू की टाँगें लड़खड़ा गईं और वह हतबुद्धि घर की सीढ़ी पर बैठ गया। उसे ओलों का डर था, कि कहीं लहलहाते खेत को बरबाद न कर दें, ज़मीन के फिसलने का नहीं। लेकिन अक्सर वह दीवार टूटने लगती है जिस मनुष्य सबसे अधिक मजबूत समझता है।
लम्बरदार की आवाज़ सुनकर जानकू के दोनों बच्चे घर से बाहर निकल आए और हैरान आँखों से अपने बाप को देखने लगे। उनकी समझ में न आया क्यों उनका बाप एक वाक्य सुनने पर ही ज़मीन पर यूँ बैठ गया है। छोटे सोमी को तो फिसलती ज़मीन देखने की तीव्र उत्कंठा हुई, लेकिन पिता को चुपचाप बैठा देखकर मुँह में उँगली दबाए खड़ा रहा।
सीढ़ी पर से उतरकर जानकू मुँडेर के पास आ गया जहाँ पत्थरों से ही ढँकी हुई, देवता की छोटी-सी मूर्ति धरी हुई थी, और हाथ बाँधकर देवता के सामने खड़ा हो गया, ‘मालका नज़र रखीं, नज़र रखी महाराज !’
और फिर बार-बार देवता के चरणों में अपना माथा टेकने लगा।
जब से उत्तमी मरी थी, उसे देवता से डर लगने लगा था। उत्तमी की मौत पर पहली बार उसे देवता के क्रोध का आभास हुआ था, कि वह कितना दुर्दम और घातक हो सकता है। और जानकू मानने लगा था कि सब बात देवता के हाथ में है, जो उत्तमी मरे तो क्या और जो ओलो पड़े तो क्या। बल्कि जानकू तो मानता था कि उसने सचमुच देवता के चढ़े हुए तेवर देखे हैं, देवता के मुँह पर क्रोध की रेखा देखी है।
जानकू ने तब से अपने घर के बाहर, दीवार पर, देवता की हाथ भर ऊँची मूर्ति रख छोड़ी थी, जिसके पास देवता की खड़ाऊँ, एक टीन का छोटा-सा त्रिशूल, और मूर्ति के ऊपर, एक लकड़ी पर टँगी हुई देवता की पताका। आते-जाते जानकू देवता के चरण छू लेता, और उठते-बैठते अपने गले में बँधी हुई देवता की ‘सिंघी’।
कांगड़ में हर पहाड़ के दामन में एक गाँव है, और हर गाँव का अलग-अलग देवता। उसकी मूर्ति न केवल पहाड़ की ‘जोत’ पर (चोटी पर) ही आसीन रहती है जहाँ से वह गाँव के हर आदमी को देखती रहती है, बल्कि गाँव के मंदिर में, और गाँव के हर घर के बाहर भी, उसका स्थान है। जानकू हर त्यौहार जोत पर चला जाता और देवता को नमस्कार करता। और हर रोज मंदिर में और घर पर देवता की पूजा करता। उसकी चेतना में उत्तमी का स्थान देवता ने ले लिया था।
आज फिर जानकू को देवता के माथे पर बल नजर आए और उसका दिल काँप उठा। बार-बार याचना करने के बाद वह अपनी ज़मीन की तरफ भागा।
शाम हो चुकी थी जब वह ज़मीन पर पहुँचा। फटे हुए कंबल का घुटनों तक कोट, बकरी के बालों का कमर बंद, नंगे पाँव, और सिर पर एक कीच की सी मैली टोपी, विशालकाय पहाड़ों के दामन में अकेला खड़ा हुआ जानकू, बार-बार अपनी ज़मीन को देखरहा था।
बरसात के दिनों में पहाड़ों पर से अक्सर चट्टानें गिर करती हैं, हवा की तेजी में रीह और पोश के पेड़ टूट-टूट जाया करते हैं, और सड़कों और खेतों के हिस्से बारिश के थपेड़ों से बह बह जाते हैं। ज़मीन का फिसलना कोई नई बात न थी।
लेकिन, जानकू को यह देखकर संतोष हुआ कि ज़मीन अभी तक खड़ी थी, फिसली नहीं थी, केवल ज़मीन की सबसे निचली सीढ़ी टेढ़ी होकर नाले की ओर झुक गयी थी। पर पहाड़ की तलाई के निचले हिस्से में एक गहरा चीर आ गया था, और यह चीर चंद्राकार में फैलता हुआ जानकू के खेत के सारे खेत को घेरे हुए था। बारिश का पानी इसी दरार में से बह-बहकर नीचे आ रहा था और इसे और भी गहरा चौड़ा किया जा रहा था। डर इसी दरार से था। अगर वह गहरी हो गई तो सारी की सारी ज़मीन टूटकर बह जाएगी। ऐसे चीर जानकू पहले कई बार देखे थे। लेकिन इस तरह एक खेत का गला घोंटते हुए नहीं।
जानकू उलटे पाँव भागता हुआ गाँव की ओर दौड़ा। अगर खेत में चीर पड़ गया है तो वह भी बंद किया जा सकता है। अगर पटवारी ने दया की और लम्बरदार ने गाँव के आदमी साथ कर दिए तो यह चीर बंद हो जाएगा। और नहीं तो ऊपर से बारिश के पानी का रुख बदल दिया जा सकता है—
पटवारी खाना गाँव के दूसरे सिरे पर था। जब जानकू वहाँ पहुँचा तो गाँव के सब चौधरी, सायंकाल के सब अँधेर में बैठे, लम्बरदार का इन्तजार कर रहे थे। देवता की झाँकी तैयार हो रही थी। जानकू हाथ बाँधकर बोला, ‘मेरी ज़मीन बह चली है मालिको, कुछ करोगे तो बच जाएगी !’
और जब पटवारी ने आँख उठाकर जानकू की ओर देखा तो जानकू ने एक सांस में सारी बात कह डाली।
थोड़ी देर के लिए सब चुप रहे। फिर राधे दुकानदार बोला, ‘कल देवता का दिन है जानकू, और अभी-अभी मंदिर में पूजा होने वाली है। आज तेरे साथ कौन जाएगा ?’
‘जो तुम लोग दया करोगे तो बच जाएगी,’ जानकू ने याचना की।
फिर पटवारी ने सिर हिलाते हुए, अपनी छोटी-छोटी तीव्र आँखों से जानकी को देखते हुए, धीरे-धीरे कहना शुरू किया। पटवारी पूजा-पाठ करने वाला आदमी था, हर बात भाग्य पर विश्वास करके कहता था, ‘फिसलती ज़मीन को कौन रोक सकता है जानकू, और फिर जेठ की बारिश। तुझ पर देवता का कोप है। तेरी मदद कोई क्या करेगा ? पिछले साल तेरा भैंसा हल चलाते हुए मर गया। कभी भैंसे यूँ मरे हैं ? फिर सब के खेत कट जाते हैं, तो तेरे खेत का सिट्टा हमेशा हरा रहता है; कभी ऐसा भी हुआ है ?’
राधे दुकानदार ने भी, पटवारी की हाँ में हाँ मिलाते हुए हामी भर दी‘पहले देवता का कोप दूर कर दे फिर बरकत आएगी।
जानकू ने अपने इष्ट देवता का नाम लिया और गले में बँधे हुए देवता के चिह्न चाँदी की ‘सिंघी’ को छुआ, ‘मालिक नज़र रखीं।’ फिर पास पड़े हुए मलमल के छोटे से काले कपड़े को तह करने लगा।
जानकू का खेत पहाड़ की ढलाई पर था। खेत तो कहना ठीक नहीं, खेत के छोटे-छोटे टुकड़ थे, जो सीढ़ियों की शक्ल में, एक के ऊपर दूसरा, तलाई को ढंके हुए थे। कांगड़े के सुदूर पहाड़ों में जंगलात को जो रास्ता ‘कोहड़’ से ‘नल्शेता’ की ओर, ऊँचे पहाड़ को कमर बंद की तरह घेरे हुए है, उसी के दामन में, यह ज़मीन का टुकड़ा था। एक कोने में छिपा हुआ होने के कारण जानकू की ज़मीन बाकी गाँव से अलग-थलग थी।
गाँव के खेत कट चुके थे और लोग मटोर-मेले की तैयारियों में थे। कांगड़े के हर गाँव वाले के लिए मटोर-मेला एक लंबें सफर के बाद अपने चिर-वांछित स्थान पर पहुँच जाने के बराबर था। खेत कट जाते और ‘हाड़’ महीने के पहले दिन, गाँव के लोग, नरसिंघों और नगारों को बजाते हुए, गाँव के देवता की पालकी उठाए हुए, कई पहाड़ियाँ पारक करके मटोर गाँव की ओर जाते, जहाँ अनाज के बड़े देवता का मंदिर था। दिन भर देवता की पूजा होती, और मंदिर के फर्श पर चढ़ावे के गेहूँ का एक बिछौना-सा बिछ जाता। फिर रंगरलियाँ होतीं, लुगड़ी के नशे में किसान झूमते हुए घरों को लौटते और अपने इष्ट देवता को फिर से मंदिर में स्थापित कर देते।
पर जानकू इस मेले पर हमेशा हाँफता हुआ ही पहुँचता था। उसकी ज़मीन, छिपे हुए कोनों में होने के कारण, सूरज के धूप से वंचित ररहती थी। जहाँ औरों के खेत पहाड़ के विशाल वक्ष पर फैले हुए, दिन भर खिली हुई धूप का का रस लेते, वहाँ जानकू के खेत पर केवल दोपहर की ढलती हुई धूप पड़ती–और इसी कारण बरसात के शुरू हो जाने तक खेत तैयार न हो पाता। इसलिए जेठ महीने के आखिरी दिन हमेशा जानकू की नींद उचाट किए रहते जहाँ और लोग मेले की तैयारियों में व्यस्त रहते, वहाँ जानकू की आँखें आसमान को तकती रहतीं कि ओले न पड़ें और खेत बच जाएँ !
यह थी जानकू की ज़मीन। अन्यमनस्क, मलमल के कपड़े को सहलाते हुए, उसकी आँखों के सामने कई दृश्य घूम रहे थे, वह दृश्य जब भी उसने इस ज़मीन को खरीदने का निश्चय किया था। उसे ऐसा जान पड़ा जैसे फिर उत्तमी का छोटा-सा सलोना हाथ उसके दिल को छूने लगा है, और उसके कंधे पर अपना सिर रखे उत्तमी कह रही है-ले लो न ज़मीन। मैं जो अब आ गई हूँ। मैं सब काम करूँगी।’
और जानकू ने उसका हाथ सहलाते हुए कहा-‘यह ज़मीन के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हैं उत्तमी, काम करते-करते हड्डियाँ टूट जाएँगी।’
‘मैं तीन घड़े पानी को उठाकर पहड़ी पर चढ़ा सकती हूँ। मैं सब काम कर लूँगी !’
और फिर धीरे से जानकू के सीने के साथ सटकर हँसती हुई, और अपनी चमकती हुई आँखों से उसे अवाक् करती हुई बोली, ‘यहाँ हमें कोई देखेगा भी नहीं। जब चाहेंगे काम करेंगे, जब चाहेंगे बैठकर बाते करेंगे। यहाँ तो गाँव के आदमी आते ही नहीं। तू कोठा बेचकर ज़मीन खरीद ले !’
और जानकू ने अपना पैतृक कोठा बेचकर यह ज़मीन खरीद ली ! दो ही महीने पहले सात पहाड़ियाँ दूर बैजनाथ से, जानकू उत्तमी को ब्याह कर लाया था। अढ़ाई सौ रुपये तो देने पड़े थे, लेकिन जैसे स्वर्ग खरीद के ले आया हो। उत्तमी गोड़ी करती तो हँसती हुई। और धीरे-धीरे इस ज़मीन की स्निग्ध ओट में, उत्तमी दो बच्चों की माँ भी हो गयी थी।
पर अब उत्तमी नहीं थी। उसे मरे भी आठसाल से अधिक बीत चुके थे। उत्तमी का श्वेत को मल हाथ, सहसा निर्जीव होकर, जैसे जानकू के कंधे पर से लुढ़क गया !
जानकू ने आँखें उठाकर देखा तो लम्बरदार सामने खड़ा था। कद का लम्बा और गठीला, सिर पर पगड़ी और कानों में सोने की बालियाँ। लम्बरदार की चाल-ढाल में ही रोब था। जब बात करता तो अपने आप ही माथे पर बल पड़ जाते। जानकू एक हाथ से अपने गले में बँधी हुई ‘सिंघी’ को छूता हुआ उठ खड़ा हुआ।
तेरी ज़मीन फिसल रही है जानकू और तू बैठे चिलम पी रहा है। ज़मीन रहे या जाए लगान देना होगा, पहले ही कह दूँ।’
और बिना कुछ कहे सुने, बिना जवाब-सवाल का मौका दिए, वह रास्ते पर आगे निकल गया।
जानकू की टाँगें लड़खड़ा गईं और वह हतबुद्धि घर की सीढ़ी पर बैठ गया। उसे ओलों का डर था, कि कहीं लहलहाते खेत को बरबाद न कर दें, ज़मीन के फिसलने का नहीं। लेकिन अक्सर वह दीवार टूटने लगती है जिस मनुष्य सबसे अधिक मजबूत समझता है।
लम्बरदार की आवाज़ सुनकर जानकू के दोनों बच्चे घर से बाहर निकल आए और हैरान आँखों से अपने बाप को देखने लगे। उनकी समझ में न आया क्यों उनका बाप एक वाक्य सुनने पर ही ज़मीन पर यूँ बैठ गया है। छोटे सोमी को तो फिसलती ज़मीन देखने की तीव्र उत्कंठा हुई, लेकिन पिता को चुपचाप बैठा देखकर मुँह में उँगली दबाए खड़ा रहा।
सीढ़ी पर से उतरकर जानकू मुँडेर के पास आ गया जहाँ पत्थरों से ही ढँकी हुई, देवता की छोटी-सी मूर्ति धरी हुई थी, और हाथ बाँधकर देवता के सामने खड़ा हो गया, ‘मालका नज़र रखीं, नज़र रखी महाराज !’
और फिर बार-बार देवता के चरणों में अपना माथा टेकने लगा।
जब से उत्तमी मरी थी, उसे देवता से डर लगने लगा था। उत्तमी की मौत पर पहली बार उसे देवता के क्रोध का आभास हुआ था, कि वह कितना दुर्दम और घातक हो सकता है। और जानकू मानने लगा था कि सब बात देवता के हाथ में है, जो उत्तमी मरे तो क्या और जो ओलो पड़े तो क्या। बल्कि जानकू तो मानता था कि उसने सचमुच देवता के चढ़े हुए तेवर देखे हैं, देवता के मुँह पर क्रोध की रेखा देखी है।
जानकू ने तब से अपने घर के बाहर, दीवार पर, देवता की हाथ भर ऊँची मूर्ति रख छोड़ी थी, जिसके पास देवता की खड़ाऊँ, एक टीन का छोटा-सा त्रिशूल, और मूर्ति के ऊपर, एक लकड़ी पर टँगी हुई देवता की पताका। आते-जाते जानकू देवता के चरण छू लेता, और उठते-बैठते अपने गले में बँधी हुई देवता की ‘सिंघी’।
कांगड़ में हर पहाड़ के दामन में एक गाँव है, और हर गाँव का अलग-अलग देवता। उसकी मूर्ति न केवल पहाड़ की ‘जोत’ पर (चोटी पर) ही आसीन रहती है जहाँ से वह गाँव के हर आदमी को देखती रहती है, बल्कि गाँव के मंदिर में, और गाँव के हर घर के बाहर भी, उसका स्थान है। जानकू हर त्यौहार जोत पर चला जाता और देवता को नमस्कार करता। और हर रोज मंदिर में और घर पर देवता की पूजा करता। उसकी चेतना में उत्तमी का स्थान देवता ने ले लिया था।
आज फिर जानकू को देवता के माथे पर बल नजर आए और उसका दिल काँप उठा। बार-बार याचना करने के बाद वह अपनी ज़मीन की तरफ भागा।
शाम हो चुकी थी जब वह ज़मीन पर पहुँचा। फटे हुए कंबल का घुटनों तक कोट, बकरी के बालों का कमर बंद, नंगे पाँव, और सिर पर एक कीच की सी मैली टोपी, विशालकाय पहाड़ों के दामन में अकेला खड़ा हुआ जानकू, बार-बार अपनी ज़मीन को देखरहा था।
बरसात के दिनों में पहाड़ों पर से अक्सर चट्टानें गिर करती हैं, हवा की तेजी में रीह और पोश के पेड़ टूट-टूट जाया करते हैं, और सड़कों और खेतों के हिस्से बारिश के थपेड़ों से बह बह जाते हैं। ज़मीन का फिसलना कोई नई बात न थी।
लेकिन, जानकू को यह देखकर संतोष हुआ कि ज़मीन अभी तक खड़ी थी, फिसली नहीं थी, केवल ज़मीन की सबसे निचली सीढ़ी टेढ़ी होकर नाले की ओर झुक गयी थी। पर पहाड़ की तलाई के निचले हिस्से में एक गहरा चीर आ गया था, और यह चीर चंद्राकार में फैलता हुआ जानकू के खेत के सारे खेत को घेरे हुए था। बारिश का पानी इसी दरार में से बह-बहकर नीचे आ रहा था और इसे और भी गहरा चौड़ा किया जा रहा था। डर इसी दरार से था। अगर वह गहरी हो गई तो सारी की सारी ज़मीन टूटकर बह जाएगी। ऐसे चीर जानकू पहले कई बार देखे थे। लेकिन इस तरह एक खेत का गला घोंटते हुए नहीं।
जानकू उलटे पाँव भागता हुआ गाँव की ओर दौड़ा। अगर खेत में चीर पड़ गया है तो वह भी बंद किया जा सकता है। अगर पटवारी ने दया की और लम्बरदार ने गाँव के आदमी साथ कर दिए तो यह चीर बंद हो जाएगा। और नहीं तो ऊपर से बारिश के पानी का रुख बदल दिया जा सकता है—
पटवारी खाना गाँव के दूसरे सिरे पर था। जब जानकू वहाँ पहुँचा तो गाँव के सब चौधरी, सायंकाल के सब अँधेर में बैठे, लम्बरदार का इन्तजार कर रहे थे। देवता की झाँकी तैयार हो रही थी। जानकू हाथ बाँधकर बोला, ‘मेरी ज़मीन बह चली है मालिको, कुछ करोगे तो बच जाएगी !’
और जब पटवारी ने आँख उठाकर जानकू की ओर देखा तो जानकू ने एक सांस में सारी बात कह डाली।
थोड़ी देर के लिए सब चुप रहे। फिर राधे दुकानदार बोला, ‘कल देवता का दिन है जानकू, और अभी-अभी मंदिर में पूजा होने वाली है। आज तेरे साथ कौन जाएगा ?’
‘जो तुम लोग दया करोगे तो बच जाएगी,’ जानकू ने याचना की।
फिर पटवारी ने सिर हिलाते हुए, अपनी छोटी-छोटी तीव्र आँखों से जानकी को देखते हुए, धीरे-धीरे कहना शुरू किया। पटवारी पूजा-पाठ करने वाला आदमी था, हर बात भाग्य पर विश्वास करके कहता था, ‘फिसलती ज़मीन को कौन रोक सकता है जानकू, और फिर जेठ की बारिश। तुझ पर देवता का कोप है। तेरी मदद कोई क्या करेगा ? पिछले साल तेरा भैंसा हल चलाते हुए मर गया। कभी भैंसे यूँ मरे हैं ? फिर सब के खेत कट जाते हैं, तो तेरे खेत का सिट्टा हमेशा हरा रहता है; कभी ऐसा भी हुआ है ?’
राधे दुकानदार ने भी, पटवारी की हाँ में हाँ मिलाते हुए हामी भर दी‘पहले देवता का कोप दूर कर दे फिर बरकत आएगी।
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