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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183610933

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

तेरह


अपने घर से उखड़कर बंटी जैसे सभी जगह से उखड़ गया, क्लास में बैठा रहता है तो मन में घर तैरता रहता है...ममी, अमि, ममी का कमरा, कमरे का जादू...

और भी जाने क्या-क्या। सबके बीच होकर भी जैसे वह सबसे कटा-छंटा, अलग-थलग सबको देखता रहता है। और जब घर में होता है तो आँखों के आगे कभी स्कूल तैरता रहता है तो कभी अपना पुराना घर, अपना बगीचा, बगीचे का एक-एक पौधा और पौधे की एक-एक पत्ती, फूफी, माली दादा, ममी-वहाँवाली ममी।

रात में कहानी पढ़ता है और बड़ी मुश्किल से पाई हुई राजकुमार की जादू की दूरबीन उसकी आँखों पर लग जाती है। लो, नीली रोशनी में नहाया हुआ ममी का कमरा आँखों के सामने झिलमिलाने लगता है...कमरा, कमरे की हर चीज़ और वह सबकुछ जो उसने वहाँ देखा था। बस, जहाँ वह होता है वहीं नहीं रहता, और सब जगह रहता है, सबकुछ देखता रहता है।

एक रेल एक सौ पच्चीस यात्रियों को लेकर जा रही है। एक स्टेशन पर उसमें से अड़तालीस यात्री उतर जाते हैं और छप्पन यात्री चढ़ जाते हैं तो बताओ..."

पापा रेल में बैठकर कब आएँगे ? आज पापा को वह ज़रूर-ज़रूर चिट्ठी लिखेगा...सारी बात लिखेगा।

“पहले कुल यात्रियों में से उतरनेवाले यात्रियों को घटाओ, फिर बचे हुए यात्रियों में चढनेवाले यात्रियों को..."

फूफी को ठेलकर चपरासी ने चढ़ा दिया। पता नहीं और कितने यात्री चढ़े। बस, भीड़ ही भीड़ तो थी...ढेर-ढेर आदमी। कोई गिन सकता था। वह सारा शोर आसपास भनभनाने लगा। नहीं, शायद सब लड़के बातें करने लगे।

कुछ पता ही नहीं किसको घटा दिया, किसको जोड़ दिया। अच्छा हुआ सर ने एक बार भी उससे सवाल नहीं पूछा, नहीं तो क्या बताता वह ? अब ममी से समझेगा। मन तो करता है, कुछ नहीं समझे। सब गलत करके ले जाए। फ़ेल हो जाए। फिर ममी पूछे तो उससे कि क्यों हुआ फेल ?

सचमुच फेल हो गया तो अमि और जोत क्या सोचेंगे...फेलू, फेलू। अमि सामने से दौड़ गया। डॉक्टर साहब क्या सोचेंगे ? पर इस बार वह ज़रूर फेल हो जाएगा। उसके दिमाग में कुछ भी तो नहीं घुसता। पढ़ने में उसका बिलकुल-बिलकुल मन नहीं लगता। पापा को मालूम पड़ेगा तो ?

बंटी स्कूल से लौटा तो घर में घुसते ही नज़र फिर उसी 'लाल तिकोन' पर गई। तीसरा बच्चा...

इस समय घर में कोई नहीं है। यह कोई नई बात नहीं है। उस घर में भी तो स्कूल से आकर वह अकेला ही रहता था, ममी तो उसके बाद आती थीं, पर इस घर में आकर पुरानी बात भी नई लगती है। नई और अजीब ! यहाँ अकेले होकर वह कितना ज़्यादा अकेला हो जाता है। सब के आने तक बस गुमसुम बैठा रहता है।

भारी-भरकम बस्ता कमरे के एक कोने में रखा और फिर लाल हो आई अपनी उँगलियों को सहलाने लगा। तभी नज़र दीवार के सहारे रखी नई मेज़ पर गई। पुलककर वह मेज़ के पास आया। एकदम नई और चिकनी। हाथ फेरकर देखा तो अच्छा लगा। फिर पता नहीं क्या हुआ कि लौट आया। गड़े हुए दाँतों का दर्द जैसे फिर से कहीं उभर आया। नहीं, वह कोई मेज़-वेज़ नहीं लेगा। यहाँ का कुछ भी नहीं लेगा।

अमि और जोत अपनी-अपनी मेज़ पर बैठकर काम करेंगे। उसने तो एक कोने में जमीन पर ही अपना सबकुछ जमा लिया है। इन दोनों के साथ जब वह रोज-रोज जमीन पर बैठकर पढ़ा करेगा तो ममी कितनी दुखी होंगी, कितना परेशान होंगी। अच्छा है, वह चाहता है कि ममी परेशान हों, दुखी हों।

यहाँ आकर जाने कैसे ममी की परेशानी और दुख के साथ उसका संतोष और सुख जुड़ गया है। एक बदला...

बदला ! और एकाएक ख़याल आया, वह इस समय पापा को चिट्ठी क्यों नहीं लिख लेता। अगर आज पूरी नहीं हुई तो फिर कल इसी समय लिखेगा। दो-तीन दिन में तो पूरी हो ही जाएगी। किसी के सामने तो लिख भी नहीं सकता। प्राइवेटवाली जो है। अधूरी चिट्ठी अपने कपड़ों के नीचे छिपाकर रख देगा, बस। इस बार अगर पापा ने चलने को कहा तो वह चला जाएगा। ममी खूब रोएँगी...रोती रहें।

किसी काम से बंसीलाल उधर आया... “आ गए बंटी भैया ?" और चला गया। खाने-नाश्ते की कोई बात नहीं हुई। उसे कौन भूख लगी है !

ममी के कमरे का दरवाज़ा उढ़का हुआ है बस। एक बार भीतर जाने की इच्छा हो आई। बंटी ने धीरे से दरवाजा खोला, कमरा साफ़ और जमा हुआ। वह भीतर घुसा तो मन में एक अजीब-सा भय समा गया। जैसे कोई चोरी कर रहा हो। और क्षण-भर को इच्छा कौंधी-कोई चीज़ यहाँ से उठाकर ले जाए और अपनी अलमारी में छिपा दे-लंबूतरी-

पलंग को देखते ही फिर गंदी-गंदी बातें दिमाग में आने लगीं। उँगलियों का क्रॉस कितना बेकार हो जाता है ऐसे मौकों पर।

फिर एक डर और डर से भी ज्यादा कौतूहल। उसने धीरे से टेबुल की दराज़ खोली-पता नहीं क्या निकल आए। पर ज़्यादा उलटने-पलटने की हिम्मत नहीं हुई सो वापस बंद कर दी। रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके देखेगा तो एक दिन ज़रूर पता लगेगा। पर क्या ? उसे ख़ुद नहीं मालूम कि किस बात का पता लगाना है। वह तो इतना जानता है कि इस कमरे में बहुत-सी बातें हैं बड़ी अजीब-अजीब ! रात में होनेवाली, छिपकर होनेवाली ! उस दिन रात में डरकर जब आ गया था तो क्या मालूम था कि यहाँ क्या पता लग जाएगा। ऐसी और भी बहुत-सी बातें होंगी इस कमरे में और फिर कुछ वैसा ही देख-जान लेने को मन अकुलाने लगा।

अचानक बाहर कोई खटका हुआ तो बंटी भागकर अपने कमरे में आ गया। दरवाज़ा बंद करना भी भूल गया। अब तो ज़रूर पता लग जाएगा।

पापा की चिट्ठी कल शुरू करेगा। आज सोच ले कि क्या-क्या लिखना है। बंटी पोर्टिको की सीढ़ियों पर आ खड़ा हुआ। सामने के ऊबड़-खाबड़ मैदान के बीच ही कहीं अपना बगीचा लहलहा आया-गुलाब, डेलिया, मोर-पंखी की मीनारें-हवा में थिरकती हुई घास की फुनगियाँ-घास के बीच बल खाता पाइप।

आज भी माली दादा आएगा। उसकी पानी देने की छोटी-सी झारी, छोटी-सी कुदाली-फावड़ा सब लेकर। ये सब वहीं छूट गए थे।

गाड़ी फाटक में घुसी तो लगा जैसे वह इतनी देर तक अमि और जोत की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी भीतर आई तो देखा ममी भी इन्हीं लोगों के साथ आ गई हैं।

खट-खट फाटक खुले। आगे-आगे बस्ता लिए अमि और जोत, पीछे पर्स लिए ममी...लाल तिकोन...

“तू यहाँ खड़ा-खड़ा हमारी राह देख रहा था ?" जोत ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।

“अपनी मेज़ देखी बेटे ? पसंद आई ? यह क्या, जमाई नहीं किताबें ? हर काम मैं ही करूँगी तेरा ?"

आठ बजे डॉक्टर साहब लौटे और साढ़े आठ पर सब लोग खाने की मेज़ पर आ गए।

“पापा, बंटी भैया की मेज़ आ गई, फिर भी इन्होंने अपनी किताबें उस पर नहीं रखीं। ममी ने खूब समझाया पर..."

“आपको चावल दूँ या चपाती ?"

पर डॉक्टर साहब ने इस बात का जवाब नहीं दिया। उनकी नज़रें बंटी के चेहरे पर जम गईं। नज़रें मिलते ही बंटी ने आँखें नीची कर लीं। अब कनखियों से ममी को देख रहा है। उनका परोसता हाथ जैसे रुक गया है।

"क्यों बंटी, मेज पसंद नहीं आई बेटे ? हमने तो सबसे अच्छीवाली मेज पसंद की थी तुम्हारे लिए।"

बंटी चुप। ममी भी चुप !

“बंटी भैया कहता है, वह ज़मीन पर ही पढ़ेगा, मेज़ पर कभी पढ़ेगा ही नहीं।"

'चुगलखोर, सुअर कहीं का।'

ममी बिना किसी से कुछ पूछे सबकी प्लेटों में कुछ-कुछ डालने लगी हैं।

“तुम इतनी ज़िद क्यों करते हो बेटे ? कोई अच्छी बात है इस तरह ज़िद करना ? अभी खाना खाकर अपनी किताबें मेज़ पर जमाओगे। हम देखने आएँगे, समझे ?'

डॉक्टर साहब ने जैसे अंतिम फैसला दे दिया और खाना खाने लगे। बंटी ने भी फैसला सुन लिया और खाना खाने लगा। चुप और नज़रें नीची।

अमि लगातार बोले जा रहा है बेवकूफ़ की तरह। ममी माँगने पर सबको कुछ न कुछ दे देती हैं, अपनी ओर से भी पूछ लेती हैं। पर बंटी जानता है कि ममी भी उसकी तरह बिलकुल चुप हैं।

पर वे परोस कैसे रही हैं ? उनकी आँखें तो बंटी की प्लेट में चिपकी हुई हैं। बंटी को देखे जा रही हैं...एकटक, घर-घूरकर। और एकटक देखने से ही जैसे आँखों में तराइयाँ आ गई हैं। गीली-गीली आँखें।

खाने के बाद ममी ने जल्दी-जल्दी किताबें मेज़ पर जमा दीं।

"जमा ले बंटी, पापा गुस्सा होंगे।" जोत समझा रही है। ममी भी होंठों ही होंठों में कुछ न कुछ बोले जा रही हैं। बस, बंटी चुपचाप खड़ा है। न बोल रहा है, न विरोध कर रहा है।

जब सबकुछ जम गया तो ममी गुस्से से बोली, "बेकार की बातों पर जिद मत किया कर, समझा। सारे समय कुछ न कुछ उलटा-सीधा करते रहना।"

और ममी जब अपने कमरे में घुस गईं तो बंटी ने चुपचाप सारा सामान ज़मीन पर उतार दिया।

“पापा-ममी, बंटी भैया ने..." अमि दौड़ गया।

डॉक्टर साहब खड़े हैं शायद गुस्से में। पीछे-पीछे ममी खड़ी हैं। शायद डरी हुईं। और बंटी खड़ा है जैसे पत्थर।

“बंटी, तुमने फिर वही किया ? ठीक है, तुम्हारी मेज़ हम कल ही वापस भिजवा देंगे। तुम ज़मीन पर ही काम करोगे, समझे ! और आगे से इस तरह की ज़िद करोगे बेटे, तो हम बिलकुल बर्दाश्त करने नहीं जा रहे हैं, समझे ! ऐसे कैसे चलेगा।"

बंटी की आँखें एकदम ज़मीन में गड़ी हुई हैं। और वहाँ पहले से ही ममी की दो आँखें चिपकी हुई हैं। प्लेटवाली गीली आँखों के कोनों में गोल-गोल बूंदें उभर आईं।

टप-टप उसकी अपनी आँखों के आँसू ममी की आँखों में टपकने लगे और दोनों के आँसू मिल गए।

धूप ढल गई थी, पर उसकी गरमी और चौंधा अभी भी बाकी है। बंटी और जोत छत पर खड़े-खड़े मूंगफली खा रहे हैं। जोत बोले जा रही है, पता नहीं क्या-क्या।

बंटी चुप। यहाँ छत पर खड़े होने से शहर दिखाई देता है...घुचमुच बने हुए घर...गलियाँ...आते-जाते लोग...ताँगे...पहाड़ियों की सरहदों से घिरे मैदान देखे कितने दिन हो गए। बहुत दिनों से तो उन मैदानों की सैर भी नहीं की, पहाड़ की तलहटियों में झाँका भी नहीं। कोई धूनी रमाए साधु, कोढ़िन बनी राजकुमारी, पंख बाँटनेवाली नील परी...'

"तू बोलता क्यों नहीं बंटी ? अभी भी गुस्सा है ?"

“अरे ! इतना गुस्सा करते रहोगे न बंटी तो तुम्हारा ही खून जलेगा, हाँऽ ! बाप का गुस्सा ले आए हो !"

लाल-लाल आँखें करते हुए पापा-'यू शट अप...'

"तुझे अपनी ममी की याद नहीं आती जोत ? कैसी थीं तेरी ममी ?" अचानक बंटी पूछता है।

“ऐऽ ! आती है थोड़ी-थोड़ी। नहीं, अब नहीं आती, चाची अम्मा की आती है कभी-कभी। छुट्टियों में हम इलाहाबाद जाएँगे उनके पास, तू भी चलना।"

"मेरी ममी तुझे अच्छी लगती हैं ?"

"हूँ ! लगती हैं।"

“मेरे पापा को देखेगी न तो वे भी खूब अच्छे लगेंगे। खूब अच्छे हैं मेरे पापा। मैं उन्हें लिख रहा..." खट से जीभ काट ली। धत्तेरे की ! वह कभी कुछ कर ही नहीं सकता। जो इतनी-सी बात भी छिपाकर नहीं रख सकता वह क्या करेगा ?

"इस बार जब पापा आएँगे तो मैं तुझे भी अपने साथ ले चलूँगा। खूब घुमाते हैं मुझे, फिर जो कहो सो ही दिलवाते हैं। तू चलेगी तो तुझे भी दिलवाएँगे।"

"तू मेरे पापा को पापा क्यों नहीं कहता ? मेरे पापा भी तो बहुत अच्छे हैं।" बंटी चुप।

"बंटी बेटा" और दो बाँहें लिपट आईं।

आज रात में जब सब सो जाएँगे तो वह चुपचाप उठकर पापा को चिट्ठी लिखेगा।

आगे से इस तरह की ज़िद करोगे तो हम बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेंगे, समझे ! -वह पापा के साथ चला जाएगा।

ममी-डॉक्टर साहब खाने की मेज़ पर बैठे हैं। बंटी पहँचा तो ममी उसे देखते ही बोलती-बोलती बीच में ही रुक गईं। ज़रूर उसी के बारे में बात कर रहे होंगे। शिकायत और क्या ?

खाना शुरू हुआ तो रोज़ की तरह हर कोई कुछ न कुछ बोल रहा है, चुप है तो केवल बंटी। बंटी ने अब बोलना ही बंद कर दिया है। खाने के समय खा लेता है, सोने के समय सो लेता है, बाकी समय पढ़ता रहता है। कहानियाँ, हज़ार-हज़ार बार पढ़ी हुई कहानियाँ। या फिर ड्राइंग बनाता है।

डॉक्टर साहब लगातार उसकी तरफ़ क्यों देखे जा रहे हैं ? क्या देख रहे हैं, उसके चेहरे पर कुछ लिखा हुआ है ? कहीं पता तो नहीं लग गया कि वह छिपकर उनके कमरे में जाता है, चीजें उलट-पलटकर देखता है या कि वह पापा को चिट्ठी लिखने की बात सोच रहा है।

अजीब-सी बेचैनी होने लगी बंटी को। डॉक्टर साहब देख रहे हैं तो जैसे सभी उसकी ओर देख रहे हैं। मानो वह कोई तमाशा हो। उसने ममी की ओर देखा। ममी उसकी नहीं रह गई हैं, यह जानते हुए भी ऐसे मौक़ों पर नज़र ममी की ओर ही उठती है। पर ममी डॉक्टर साहब की ओर देख रही हैं। डॉक्टर साहब जब बंटी को देखते हैं तो पता नहीं क्यों ममी हमेशा डॉक्टर साहब की ओर ही देखती रहती हैं।

त्रिकोण में तीन भुजाएँ होती हैं, जैसे अ ब स एक त्रिकोण है...

"बंटी, कल घूमने चलोगे हमारे साथ ?''

क्लास में पढ़ाते हुए सर खट से डॉक्टर साहब में बदल गए। बंटी समझने की कोशिश कर रहा है। अ ब स-घूमना-आजकल कुछ भी तो समझ में नहीं आता।

"चलो, कल तुम्हें घुमाकर लाएँ। खूब दूर...लंबी ड्राइव पर।" “हम भी चलेंगे पापा, लंबी ड्राइव पर। खूब मज़ा आएगा, अहा जी !” अमि अपनी कुर्सी पर ही फुदकने लगा।

“नो-नो, कल कोई नहीं जाएगा। तुम तो बिलकुल नहीं। तुमने मेज़ को लेकर बंटी भैया को नाराज़ कर दिया न, अब हम ले जाकर ख़ुश करेंगे।"

ये सब डॉक्टर साहब कह रहे हैं ? उसने एक बार हिम्मत करके नज़र उठाई और डॉक्टर साहब को देखा। वे उसी की ओर देखकर मुसकरा रहे थे। बंटी को उनका मुसकराता हुआ चेहरा अच्छा लगा, बहुत अच्छा। फिर उस चेहरे में से जाने कैसे पापा का चेहरा उभर आया। जैसे चश्मा बदलकर पापा बैठे-बैठे मुसकरा रहे हैं। और फिर उस चेहरे की मुसकान उसके अपने चेहरे पर चिपक गई। केवल चेहरे पर ही नहीं, जैसे हाथ-पैरों में भी चिपक गई, मन में भी चिपक गई।

"चलूँगा।" उसने धीरे से कहा।

“कैसे जाएगा बंटी अकेला, मैं भी जाऊँगा। मैं ज़रूर जाऊँगा। बंटी भैया कोई लाट साहब है जो अकेला जाएगा !" और अमि ने गुस्से में आकर कुर्सी पर एक लात जमा दी।

_ “अमिऽ !' डॉक्टर साहब गुस्से में दहाड़े तो बंटी का मुसकराता मन भी जैसे एक क्षण को सहम गया। कैसा डाँटते हैं...सब आदमी लोग शायद...

अमि की तों पेंऽ बोल गई। रोता-भन्नाता भीतर चला गया। अब बोलो न कि हमारी गाड़ी है, हमारी मेज़ है, बंटी भैया को घर भेज दो...

ममी अमि को गोद में उठा लाईं, “चलो, तुम लोगों को मैं घुमाने ले जाऊँगी। खूब सारी चीजें दिलवाऊँगी..."

ले जाओ। गाड़ी तो हमारे पास रहेगी। पैदल-पैदल घुमा लाना। बहुत हुआ ताँगा कर लेना-खटर-खटर करता रहेगा।

रात में सोया तो ख़याल आया, आज पापा को चिट्ठी लिखनी थी। अब आज नहीं, कल लिख देगा या फिर कभी।

आँखें बंद करते ही कमरा सड़क पर निकल आया। लंबी-सीधी सड़क...उन्हीं मैदानों की ओर जाती हुई और उसकी मोटर दौड़ रही है। किसी तरह विभू और कैलाश देख लें। एक बार टीटू के यहाँ झाँकता चले।

अमि तुम नहीं, जोत तुम भी नहीं, शकुन तुम भी नहीं...केवल बंटी। बंटी नाराज़ है, बंटी को खुश करना है।

एकाएक लाल तिकोन पर जैसे किसी ने ढेर सारी स्याही पोत दी।

डॉक्टर साहब ने छः बजे आने को कहा था। वैसे तो वह आठ बजे आते हैं। पर आज उसके लिए अपने मरीज़ भी छोड़कर आएँगे। बंटी साढ़े पाँच बजे से ही तैयार है। कितने दिनों से उसने कोई चीज़ ही नहीं खरीदी। आज ख़रीदेगा। जोत के लिए भी ख़रीदेगा और चलो, अमि के लिए भी खरीद देगा। वह तो है ही पाजी।

मन में सबकुछ लुटा देनेवाली उदारता समा रही है। थोड़ी-थोड़ी देर में जाकर घड़ी देख रहा है। पापा आते हैं तब भी वह इसी तरह पगलाया-पगलाया फिरता है। आज पापा और डॉक्टर साहब के चेहरे भी तो घुल-मिल जा रहे हैं। पापा की बात सोचो तो डॉक्टर साहब का चेहरा आ जाता है और डॉक्टर साहब की बात सोचो तो पापा का चेहरा। जैसे दोनों चेहरे एक ही हो गए, अलग-अलग रहे ही नहीं।

जादू से चेहरा बदल सकता है तो दो चेहरे एक जैसे नहीं हो सकते ? ज़रूर हो सकते हैं, हो ही गए हैं। आज कहीं बात करते-करते वह डॉक्टर साहब को पापा ही न कहने लग जाए !

जोत और अमि को ममी ने पढ़ने बिठा दिया है। ज़रूर कुछ लालच दिया होगा। हो सकता है, ममी कल दोनों को घुमाने ले जाएँ। डॉक्टर साहब की डाँट के सामने अमिराम तो ठंडे !

छ: बज गए। अब तो आते ही होंगे। बीमारों की भीड़ में आना भी तो आसान नहीं है। सवेरे तो वह खुद अपनी आँखों से देखता है। सारी बेंचें और कुर्सियाँ तो भर जाती हैं, ज़मीन पर भी जैसे जगह नहीं रहती।

सबसे बड़े डॉक्टर हैं शहर के। पहली बार बंटी के मन में डॉक्टर साहब को लेकर गर्व जागा। जैसा ममी को लेकर अकसर जागा करता था। डॉक्टर साहब को लेकर भी वह गर्व कर सकता है। डॉक्टर साहब उसके भी कुछ...

कहीं हलके से पापा की तसवीर तैर गई। साढ़े छः ! अब बंटी को बेचैनी होने लगी। ममी तो ऐसे आराम से बैठी हैं जैसे उन्हें मालूम ही नहीं कि आज छः बजे जाने का कोई प्रोग्राम भी है। और फिर समय के साथ-साथ बंटी की बेचैनी दुख और फिर गुस्से में बदलने लगी। सात बजे के करीब कंपाउंडर ने आकर बताया-डॉक्टर साहब उठने ही वाले थे कि तभी वर्मा साहब के हार्ट-अटैक की ख़बर आ गई। मुझे यहाँ ख़बर करने को कहकर वे वहाँ चले गए। रोगियों के मारे मैं भी जल्दी नहीं आ सका।

बंटी ने खींच-खींचकर जूते-मोज़े उतार फेंके...झूठ...सब झूठ ! खाली-खाली उसे बहकाने के लिए कह दिया। नहीं ले जाना था तो क्यों कहा था...

अमि अँगूठा छिपाकर टिलिलिलि करता हुआ निकल गया, तो मन हुआ गला पकड़कर दबा दे उसका ! किसने कहा था कि उसे ले जाओ ड्राइव पर...वह क्या जानता नहीं कि यह घर उसका नहीं है, यहाँ की कोई चीज़ उसकी नहीं है, यहाँ का कोई आदमी उसका नहीं है।

वहाँ तो अपना घर होगा-अपने लोग होंगे बेटे-सब झूठ ! यहाँ तो ममी भी उसकी नहीं रह गईं। मन हो रहा है, ममी के कमरे की एक-एक चीज़ उठाकर फेंक दे। घर की सारी चीजें चकनाचूर कर दे। गुस्से से भन्नाते हुए उसने अलमारी खोली। बस इसी पर तो उसका अधिकार है। एक-एक खिलौना निकालकर फेंक दिया, एक-एक कपड़ा कमरे में छितरा दिया।

“बंटी !" झपटकर ममी ने बाँह पकड़ ली, “यह क्या पागलपन मचा रखा है?"

बंटी ने पूरी ताकत लगाकर अपने को छुड़ा लिया और कपड़ों को पैरों तले रौंदने लगा-लो-लो और लो।

“कभी अक्ल भी आएगी तुझे या नहीं। जब देखो घर में किसी न किसी बात पर तूफ़ान मचाए रखता है। मैं जितना चुप रहती हूँ, उतना ही शेर हुआ जा रहा है।" ममी ने उसे पलंग पर पटककर दोनों हाथों से दबोच दिया।

“कोई बात नहीं समझेगा। मौका-बेमौका कुछ नहीं देखेगा-बस !"

“चुप करो,” बंटी पूरी ताकत से चीख़ा और फिर बेहद थका, पिटा-सा फूट-फूटकर रो पड़ा। आँसू हैं कि उफनते चले आ रहे हैं। ज़रा ममी की पकड़ ढीली हुई कि छिटककर उठा और रंगों की शीशियोंवाला डिब्बा उठाकर दे मारा खड़खड़ झन्नऽऽ...कुछ शीशियाँ साबुत लुढ़क गईं, कुछ चकनाचूर हो गईं।

तड़ाक ! और शीशियों से बिखरे ढेर सारे लाल-पीले रंग एक-दूसरे में मिलकर तेजी से घूमे और जहाँ के तहाँ स्थिर हो गए।

“मारो, और मारो !'' बंटी ख़ुद ही पलंग में औंधा धंस गया।

अमि, जोत, बंसीलाल, ममी सब आगे-पीछे घूम रहे हैं, सबकी आवाजें भी... फैले हुए रंग दलिए में बदल जाते हैं, 'मत चढ़ाओ बहूजी इतना माथे, देखना एक दिन आप ही...'

बंटी, इस तरह करते हैं बेटे ?" एक प्यार-भरा, थरथराता हाथ। 'तड़ाक' एक थप्पड...ढेर सारी शीशियाँ टूट जाती हैं। ढेर सारे रंग बिखर जाते हैं।

आवाजें कहीं बहुत दूर से आ रही हैं। पता नहीं कहाँ से ?

"क्या कर दिया आज तुमने ? इसने तो रो-रोकर प्राण दे दिए।"

“क्या ? ओह ! कैसी बात करती हो तुम ? इतना सीवियर हार्ट-अटैक था, मुझे शायद रात में भी वहीं रहना पड़े। वर्मा तो बिलकुल...''

“बंसीलाल ! गरम पानी रखो नहाने का। तब तक तुम एक प्याला चाय दो ज़रा..."

बस ? और कुछ नहीं। बंटी के लिए एक शब्द भी नहीं, जैसे वह कहीं है ही नहीं?

"एक कार एक घंटे में चालीस किलोमीटर चलती है तो बताओ 360 किलोमीटर चलने में..."

कार एकदम चलते-चलते रुक जाती है। हार्ट-अटैक। अटैक यानी हमला। वर्मा साहब का लंबा-चौड़ा शरीर लेटा है और ढेर सारे सिपाही बंदूक ताने उन पर अटैक कर रहे हैं, ठाँय-ठाँय...

बहुत दिनों से उसने बंदूक नहीं चलाई, आज वह ज़रूर चलाएगा। वह भी अटैक करेगा-ठाँय-ठाँय...

वर्मा साहब की छाती पर घाव ही घाव हो गए हैं। कभी उसके हार्ट पर अटैक हो जाए तो उसके भी उतने ही घाव हो जाएँगे ?

टन्...टन्...टन् घंटी बजती ही जा रही है। दूसरे सर आ गए। क्लास में बहुत शोर हो रहा है। सर ने स्केल को मेज़ पर पीटते हुए कहा, “चुप करो बच्चो, चुप !"

वह अब हमेशा चुप रहा करेगा। कभी किसी से नहीं बोलेगा, जोत से भी नहीं। ममी से तो बिलकुल नहीं।

जैसे-जैसे घर पास आ रहा है मन ही मन में जैसे एक अजीब-सी दहशत समा रही है। सवेरे तो किसी ने कुछ नहीं कहा, पर अब ? घर के दरवाज़े पर उतरता है तो जैसे पैर आगे नहीं बढ़ रहे।

लाल तिकोन ! वह खड़ा-खड़ा उसे ही घूरता रहता है। उसमें बना हुआ लड़का टिलिलिलि करता हुआ चारों ओर घूमने लगता है। माँ दोनों बच्चों को दोनों हाथों से पकड़कर चल पड़ती है-'चलो, मैं तुम्हें घुमा लाती हूँ।'

इस देश में तो दो बच्चे, बस कुल दो बच्चे। इस देश में ही नहीं इस घर में भी दो बच्चे, बस कुल दो बच्चे।

'वहाँ तो बच्चे भी होंगे भैनजी, चलो अच्छा हुआ ! यहाँ अकेला-अकेला कैसा डाँव-डाँव डोले था...'

'नहीं, बस कुल दो बच्चे।

बंटी ने बस्ता वहीं टिका दिया और खड़ा-खड़ा सड़क देखता रहा। भीतर जाने की इच्छा नहीं हो रही। भीतर वह जाएगा भी नहीं। बस सड़क पर ही दौड़ता चला जाएगा-दौड़ता चला जाएगा। पर कहाँ ? लेकिन इस बार यह 'कहाँ' भी उसे रोक नहीं सका और वह सचमुच दौड़ पड़ा। दौड़ते-दौड़ते जब वह अपने घर के फाटक पर पहुंचा तो उसकी साँस फूली हुई थी, पता नहीं दौड़ने से, पता नहीं डर से।

अपना घर, अपना बगीचा ! पर फिर भी जैसे कुछ भी अपना नहीं लग रहा। घर की सारी खिड़कियाँ बंद हैं और दरवाजे पर ताला लटक रहा है। वह भीतर जा ही नहीं सकता। अपने घर में कभी ऐसा हो सकता है कि चाहो तो भी अंदर नहीं जा सकते।

'वहाँ अपना घर होगा बेटा...'

हुँह ! वहाँ भी नहीं जा सकता, जाएगा भी नहीं।

तभी सड़क पर से दो आदमी बातें करते हुए निकल गए। बंटी मेंहदी की आड़ में हो गया। कोई देख न ले उसे।

फिर अपने बगीचे का चक्कर लगाया। क्यारियाँ नम थीं सर्दियों में। माली दादा दोपहर में ही पानी दे देता है। वह एक-एक पौधा देखने लगा-एक-एक पत्ती छू-छूकर। सिरे पर आम का पौधा। कितनी नई पत्तियाँ आ गई हैं !

सारा बगीचा घूमकर देख लिया-अब ? ममी, अमि और जोत लौट आए होंगे। उसे न देखकर ममी बंसीलाल से पूछ रही होंगी। पता नहीं बरामदे में रखा बस्ता देखा भी होगा या नहीं !

परेशान ममी, इधर-उधर देखती हुईं ममी, आवाज़ देती हुईं ममी...अच्छा किया, यहाँ चला आया, अब वह यहाँ से जाएगा ही नहीं, कब्भी-कभी नहीं।

'पापा, बंटी भैया घर में है ही नहीं, पता नहीं कहाँ चला गया...'

डॉक्टर साहब के माथे पर बल...ममी की गीली आँखें, पीला हो आया चेहरा। ममी प्रिंसिपल होकर भी डॉक्टर साहब से डरती हैं। यहाँ थीं तो बोलती ऐसे थीं, जैसे सबको डाँट रही हों, खाली उसे प्यार करती थीं। वहाँ उसे डाँटती हैं और सबको...अच्छा है, आज पता लगेगा। मन ही मन में एक संतोष है, कुछ ऐसा कर डालने का जो नहीं करना चाहिए...ममी को परेशान करने का।

कोई सड़क से गुज़रता तो बंटी छिप जाता। कहीं हीरालाल या माली दादा ही इधर से आ जाएँ और उसे देख लें तो ? बस, सारा खेल खत्म।

पर यह तो सोचा ही नहीं था कि यहाँ आकर शाम का अँधेरा भी बढ़ेगा और धीरे-धीरे बढ़ता ही जाएगा। भूख भी लगेगी। सर्दी भी लगेगी।

अब ? टीटू के घर की बत्तियाँ जल गईं। एक क्षण को उस रोशनी से जैसे राहत मिली। वहाँ चला जाए ?

'अरे, हमने तो सोचा था बड़े ठाठ होंगे तुम्हारे वहाँ, यों डोले-डोले फिर रहे हो'-धत् वहाँ नहीं जाएगा ?

बाहर का अँधेरा अब मन में उतरने लगा। डर, एक अजीब-सा डर। ममी उसे देखने आईं क्यों नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें ख़याल ही नहीं आया हो कि बंटी घर में है ही नहीं।

या कि डॉक्टर साहब ने कह दिया हो कि यह सब यहाँ नहीं चलेगा और चलती-चलती ममी रुक गई हों।

अब ? यदि ममी रात तक नहीं आईं तो ? वह फाटक पर खड़ा होकर सड़क की ओर देखने लगा। अब तो इधर से कोई आ भी नहीं रहा। यह सड़क तो वैसे ही बहुत सुनसान हो जाती है। कोई आए और उसे देख ले या वही किसी को आते-जाते देखता रहे। पर कोई नहीं। बंटी पेड़ पर चढ़ गया-यहाँ से तो दूर तक दिखाई देता है। कोई मोटर, कोई पैदल, कोई...

पर कोई नहीं। गालों पर से आँसू बहने लगे। उपेक्षा...अपमान...मन हुआ ऊपर से कूद पड़े। खूब घाव हो जाएँ, हार्ट-अटैक...उसके आँसू ममी के गालों से बहने लगे, 'बंटी-बंटी !'

नीचे उतरा तो एक गुस्सा, दहशत। अपने को ही मारे, हाथ-पैर तोड़ डाले। पेड़ की एक सूखी टहनी उठाई और शटाक-शटाक मेंहदी को सूड़ना शुरू किया।

अभी भी कोई नहीं आया ?

फूल-पत्ते नोचने शुरू किए। कोई काला पाप-वाप नहीं लगता। तोड़-तोड़कर ढेर लगा दिया। अपने ही बोए फूल-पत्तों को तोड़कर, रौंदकर जैसे एक संतोष मिल रहा है।

अभी भी कोई नहीं आया ?

और फिर ख़ुद ढेर होकर घास पर लोट गया। भूखा, ठिठुरता हुआ, रोता हुआ।

एकाएक लगा जैसे घर का दरवाज़ा खुला और फटी-फटी आवाज़ में गाती हुई फूफी आ रही है-मेरे तो गिरधर गोपाल...साँस जहाँ की तहाँ रुक गई। आँखें मिच गईं, पर फूफी है कि बढ़ती चली आ रही है। फूफी का भूत, फूफी मर गई ?

और रानी मर गई। पर उसके प्राण तो अपनी बेटी में अटके रह गए। सो वह चिड़िया बनकर उसी के कमरे में...

फूफी के प्राण भी इसी कमरे में अटके रह गए ?

मुँदी आँखों से ही दिखाई दे रहा है, एक सफ़ेद आकृति हवा में लटकी हुई कसरत कर रही है-वन, टू, थ्री, फोर-

बंटी साँस रोके कहीं डूबता चला जा रहा है। गहरे, खूब गहरे में...छुनछुन...यह सोनल रानी की पायल है। अब तक राजा के सारे बच्चे तो ख़त्म हो गए होंगे। वह भूखी तो मरेगी नहीं...आवाज़ पास आती जा रही है और बंटी और गहरे में डूबता जा रहा है।

घर-घर्र सोनल रानी की साँस ऐसी ही होती होगी। खट ! अजीब-अजीब आवाजें आ रही हैं। और फिर एक हाथ छाती पर...अटैक।

'मुझे मत मारो' एक घुटी हुई चीख, पता नहीं निकली भी या नहीं। पर हाथ जैसे छाती में घुस ही गया।

बंटी-बंटी...किसी ने बाँहों से पकड़कर बिठा दिया। वह फटी-फटी-सी आँखों से देख रहा है-कौन है सामने-

"तू यहाँ...यहाँ पड़ा है तु जब से ?" कोई उसके कंधे बुरी तरह झकझोर रहा है। धीरे-धीरे अँधेरे में एक चेहरा साफ़ होकर उभरता है। बदहवास-सा चेहरा, लाल आँखोंवाला चेहरा !

“बोल, बोल, तू क्यों यह सब करने पर तुला हुआ है ? क्यों अपनी और मेरी जिंदगी में जहर घोलने पर तुला हुआ है ? कौन-सा कष्ट है तुझे वहाँ पर ? क्या तकलीफ़ है ?" ओह ! पर ममी को देखकर कोई तसल्ली नहीं हो रही। कोई डर भी नहीं लग रहा, कुछ भी तो नहीं लग रहा।

“रोज़ एक हंगामा खड़ा कर देता है। रोज़ एक तमाशा। कोई कब तक सहेगा और आखिर क्यों सहेगा ?" बाएँ गाल पर तड़-तड़ की आवाज़ हुई। ममी ने शायद मारा है।

“ठीक है, तेरे पापा तुझे अपने पास बुलाना चाहते हैं, मैं भेज दूंगी। वहीं रहो-" ममी उसे घसीटती हुई ले गईं और एक तरफ़ से उठाकर गाड़ी में पटक दिया।

वह न चला, न गाड़ी में चढ़ा। ममी अभी भी कुछ न कुछ बोले जा रही हैं-पता नहीं क्या-क्या। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा। उसे कुछ लग भी नहीं रहा। ममी को शायद पता ही नहीं कि सोनल रानी तो उसे...

ढर्रऽऽऽ...अब तो ममी की बात सुनाई भी नहीं दे रही।

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