सामाजिक >> शर्मनाक शर्मनाकसलाम आजाद
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यह उपन्यास बांग्ला देश में हिन्दुओं पर हो रहे जुल्मों की दास्तां बयान कर रहा है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चारदुआरी गाँव के हिन्दू घरों की युवतियों पर एक के बाद एक अत्याचार किया
गया। सब कुछ खोकर ये महिलाएँ विक्षिप्त-सी हो गईं हैं। घर का दरवाजा खुला
छोड़कर वे रह रही हैं। यही नहीं, एक घर के दरवाजे पर लिखा
है-‘जो
मरजी, करो।’ इन महिलाओं से बात करने की हिम्मत नहीं हुई राहुल
और
उसके साथियों की। बारी जरूरी बात करना चाहता था, लेकिन अनीस ने उसे रोक
दिया। वह इसके पहले इस इलाके में आ चुका है। पुरुषों को देखते ही ये
महिलाएँ नंगी खड़ी हो जाती हैं। इनके साथ एक दिन नहीं, लगातार पाश्विक
अत्याचार किया गया था। अब वे बिल्कुल पागल हो गयी हैं। इसलिए किसी बाहरी
आदमी को देखकर अब इनको डर नहीं लगता। नरपशुओं ने इनके शरीर को नोच-खसोटकर
जर्जर कर दिया है। इसलिए किसी बाहरी आदमी को देखकर यह सोचती हैं कि फिर
कोई उनके घाव कुरेदने आया है।
पागल की तरह सड़क पर चल रही थी नूरजहाँ बेगम। राहुल ने अपनी मोटरसाइकिल रोकी। पत्रकार जानते ही नूरजहाँ बोली-‘‘मेरी बतें मत छापना, नहीं तो वे लोग हमें मार डलेंगे...।’’
पागल की तरह सड़क पर चल रही थी नूरजहाँ बेगम। राहुल ने अपनी मोटरसाइकिल रोकी। पत्रकार जानते ही नूरजहाँ बोली-‘‘मेरी बतें मत छापना, नहीं तो वे लोग हमें मार डलेंगे...।’’
इसी पुस्तक से
बांग्लादेश के आँठवें संसदीय चुनाव के दौरान और उसके तुरंत बाद वहाँ के
हिन्दू समुदाय पर अत्याचार उत्पीड़न का जो दौर, चला सलाम आजाद की यह
औपन्यासिक कृति उसी का दस्तावेज है।
बांग्लादेश बनने के बाद वहाँ के हिन्दू कई बार अत्याचार के शिकार हुए हैं लेकिन इस बार सुनियोजित ढंग से उन पर अत्याचार उत्पीड़न का जो चक्र चला, उसके आगे पिछली घटनाएँ नगण्य हैं।
बांग्लादेश से हिन्दुओं को नेस्तनाबूद कर वहाँ उग्र इस्लामी तथा तालिबान राजसत्ता कायम करने के मकसद से इस्लामी कट्टरपंथियों की मदद से बने चारदलीय गठबंधन की छत्रछाया में हिन्दू नागरिकों पर चौतरफा अत्याचार किया गया। पिता के सामने बेटी के साथ और माँ-बेटी को पास-पास रखकर बलात्कार किया गया। बलात्कारियों की पाशविकता से सात साल की बच्ची से लेकर साठ साल की वृद्धा तक को रिहाई नहीं मिली। लेकिन क्यों और कहाँ से आयी यह बर्बरता ? एक समुदाय के खिलाफ क्यों चला यह अत्याचार का दौर ? इसी का जवाब ढूँढ़ा गया है इस उपन्यास में।
बांग्लादेश बनने के बाद वहाँ के हिन्दू कई बार अत्याचार के शिकार हुए हैं लेकिन इस बार सुनियोजित ढंग से उन पर अत्याचार उत्पीड़न का जो चक्र चला, उसके आगे पिछली घटनाएँ नगण्य हैं।
बांग्लादेश से हिन्दुओं को नेस्तनाबूद कर वहाँ उग्र इस्लामी तथा तालिबान राजसत्ता कायम करने के मकसद से इस्लामी कट्टरपंथियों की मदद से बने चारदलीय गठबंधन की छत्रछाया में हिन्दू नागरिकों पर चौतरफा अत्याचार किया गया। पिता के सामने बेटी के साथ और माँ-बेटी को पास-पास रखकर बलात्कार किया गया। बलात्कारियों की पाशविकता से सात साल की बच्ची से लेकर साठ साल की वृद्धा तक को रिहाई नहीं मिली। लेकिन क्यों और कहाँ से आयी यह बर्बरता ? एक समुदाय के खिलाफ क्यों चला यह अत्याचार का दौर ? इसी का जवाब ढूँढ़ा गया है इस उपन्यास में।
शर्मनाक
1
एक महीने का वीसा लेकर ढाका आया था-राहुल राय। बांग्लादेश का संसदीय चुनाव
कवर करने के लिए दिल्ली दफ्तर से उसे भेजा गया था। रोजाना वह खबर भेजता
रहा। हर खबर छपती थी या नहीं, यह उसे नहीं पता। सिर्फ उसका ही अखबार नहीं,
बल्कि भारत का कोई भी दैनिक अखबार ढाका नहीं पहुँचता। इजाजत नहीं है।
लेकिन साइबर कफे में जाकर खबर भेजने के बाद वेबसाइट विजिट करके कभी-कभी वह
अपना अखबार देख सकता था। उसकी भेजी हुई खबर महत्त्वपूर्ण समझकर ही छापी
गयी थी। रोजाना वेबसाइट विजिट नहीं कर सकता था वह, अपनी थकान के कारण।
दूसरे, ढाका साइबर कफे में बिल दिल्ली या कोलकाता से तीन गुना ज्यादा देना
पड़ता है।
भारत और बांग्लादेश के बीच सिर्फ साइबर कफे में ही नहीं और भी बहुत सारी चीजों में जो फर्क है वह राहुल के मन को छू गया। राहुल के पूर्वज बड़िशाल जिले के थे। उन्नीस सौ सैंतालीस के देश-विभाजन के बाद उसका परिवार कोलकाता चला गया। वहीं राहुल का जन्म हुआ और वहीं वह पला-बढ़ा। नौकरी की वजह से फिलहाल दिल्ली में रहना पड़ रहा है। कोलकाता में जैसे जरूरत के मुताबिक सौ ग्राम दही खरीदकर घर ले जाया जा सकता है, ढाका में यह संभव नहीं है। एक हाँडी दही खरीदना पड़ता है। कोलकाता में सौ-पचास ग्राम मछली या मांस खरीदा जा सकता है लेकिन ढाका में ऐसा नहीं किया जा सकता। किलोभर मछली या मांस खरीदना पड़ता है। इस बात से राहुल बहुत ही आश्चर्य चकित था। यह अपव्यय लगता था उसे। लेकिन इस बारे में उसने किसी से कोई चर्चा नहीं की। चर्चा करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। यह सोचकर कि लोगों को अच्छा नहीं लगेगा।
भोला शहर में राहुल की कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। हालाँकि पुरखों की जमीन से सबकी तरह एक लगाव उसमें भी है। लेकिन एक महीना पूरा होने में सिर्फ चार दिन रह गए हैं। इन चार दिनों में सबकुछ देखकर ढाका से लौटा जा सकता है क्या ? अपने आप से ही बात कर रहा था राहुल। दिल्ली से चलने से पहले पिताजी से कोलकाता में जब बात हुई थी तब बार-बार उन्होंने भोला घूमकर आने को कहा था। भोलावाले घर की फोटो खींचकर ले आने को कहा था। पिताजी से उसने वादा किया था कि वह भोला घूमकर ही आएगा। सिर्फ चार दिन हाथ में हैं। ढाका में अभी भी थोड़ा-बहुत काम बाकी रह गया है। दिल्ली दफ्तर से बार-बार निर्देश दिया जा रहा था-नव निर्वाचित प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने के लिए। लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी अभी तक यह संभव नहीं हुआ था। इंटरव्यू क्यों नहीं हो पाया, इसका कोई ठोस जवाब दिल्ली दफ्तर को नहीं दे पाया राहुल।
जो कुछ भेजा है राहुल ने, उससे वह खुद भी संतुष्ट नहीं है। इंटरव्यू नहीं हो सकता, यह बात तो बिल्कुल तय है। फिर भी वह सोच रहा था कि एक बार और कोशिश करने में हर्ज ही क्या है। इंटरव्यू के नाम पर दिल्ली दफ्तर से और कुछ दिन ढाका में रहने की अनुमति ली जा सकती है। लेकिन इससे पहले तो वीसा का एक्सटेंशन कराना होगा। आसानी से कैसे हो सकता है, यह जानने के लिए उसने बारी को फोन किया। ढाका में जिन पत्रकारों से उसकी मित्रता हुई, उसमें वह बारी को ही सबसे ज्यादा पसंद करता था। बारी ने वायदा किया कि कल ही वीसा बढ़ा देने का इंतजाम कर देगा। लेकिन भोला जाने की बात सुनकर बारी ने उस पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी। बारी को उसके अखबार की ओर से परसों भोला भेजा जा रहा है। चुनाव के समय के हालात का जायजा लेकर रिपोर्ट भेजने के लिए।
राहुल को बड़ी तसल्ली हुई यह जानकर कि बारी के साथ भोला जाना तय हो गया है। दूसरे दिन वीसा का एक्सटेंशन तो हुआ लेकिन राहुल को बहुत सारे सवालों के जवाब देने पड़े। बारी इसे पहले ही बता चुका था कि भोला तो क्या, ढाका से बाहर जाने की बात भी वह इमिग्रेशन ऑफिस को न बताए। राहुल ने सिर्फ एक ही बात कही-नये प्रधानमंत्री का साक्षात्कार लेने के प्रसंग को छोड़कर वह और कुछ नहीं बोला। अपनी बात रखते हुए उसने प्रधानमंत्री के साक्षात्कार के लिए जो आवेदन पत्र लिखा था, उसकी कॉपी भी दिखाई। वीसा एक्सटेंशन के साथ ही उसने दिल्ली ऑफिस को मेल किया कि वह और पंद्रह दिन ढाका में रहने की अनुमति चाहता है।
इसके साथ ही ढाका में पंद्रह दिन रहने के खर्च की व्यावस्था के लिए भी उसने अंतिम पंक्ति में जिक्र कर दिया।
आज राहुल के पास कोई काम नहीं है। खबर आज नहीं भेजनी है, यह पहले ही तय कर चुका था। कल शाम को वह और बारी भोला के लिए रवाना होना चाहते हैं। सारी रात स्टीमर पर रहना है, अगले दिन सुबह वे भोला पहुँच पाएँगे। जल पथ से इतनी लंबी यात्रा इससे पहले उसने कभी नहीं की राहुल के लिए यह पहला अनुभव होगा।
आज चूँकि उसके पास कोई काम नहीं है, वह पूरे दिन घूमकर ढाका शहर देखेगा। इस एक महीने में उसने ढाका शहर में कुछ भी नहीं देखा। समाचार संग्रह के दौरान जो थोड़ा-बहुत घूमना पड़ा, उससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन आज वह पर्यटक बनकर घूमेगा, सब कुछ देखेगा, सबसे बात करेगा। दिन भर उसने यही किया। होटल वापस आने के बाद वह बहुत थक चुका था। नींद भी खूब आ रही थी। लेकिन दिन-भर की धूल-गर्द और पल्यूशन लेकर बिना नहाए सोना भी अच्छी बात नहीं। कपड़े बदलकर वह नहाने चला गया। नहाना अभी पूरा हुआ नहीं था कि फोन की घंटी बज उठी। इस हालत में फोन उठाते ही उसे संपादक की आवाज सुनाई पड़ी। अनुमति मिल गई। पैसा भी भेज दिया गया है। कल पैसा मिल जाएगा। लेकिन संपादक का एक ही आदेश है—प्रधानमंत्री से इंटरव्यू करना ही है। ‘हाँ’ कहकर राहुल ने फोन रख दिया।
हालाँकि उसे अच्छी तरह पता है कि प्रधानमंत्री से साक्षात्कार अभी संभव नहीं है। मन बहुत खराब हो गया उसका। न जाने उसने संपादक से यह क्यों कह दिया कि वह साक्षात्कार लेकर ही आएगा।
दोपहर तक राहुल के हाथ में पैसा पहुँच गया, पिछली रात संपादक ने जिस पैसे का जिक्र किया था। ठीक पाँच बजे राहुल एकदम तैयार हो गया। पाँच बजकर पंद्रह मिनट पर एहसानुल बारी उसके होटल आया। दोनों होटल से निकलकर रिक्शे से सदर घाट की ओर चल पड़े। वहीं से उन्हें भोला के लिए स्टीमर पकड़ना था। स्टीमर खतुल्ला पार कर जब भोला की तरफ बढ़ने लगा तब दोनों केबिन से निकलकर डेक पर आकर खड़े हो गए। बूढ़ी गंगा, धलेश्वरी, शीतलक्ष्या नदी का संगम-स्थल पार करते हुए स्टीमर आगे बढ़ता गया। पहली बार बात की शुरूआत की बारी ने।
‘‘आप सिर्फ पुश्तैनी मकान देखने जा रहे हैं ?’’
‘‘बिल्कुल यही बात है।’’
‘‘और कोई काम या एसाइनमेंट नहीं है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘लेकिन क्यों ? जरा बताइये तो !’’
‘‘ना, ऐसे ही। मुझे तो एक जरूरी एसाइनमेंट देकर भेजा गया है, उसी के बारे में सोच रहा था।’’
‘‘वह क्या एसाइनमेंट है, क्या जाना जा सकता है ?’’ राहुल का सवाल था।
‘‘अब बता सकता हूँ, आप चाहें तो मेरे साथ रह सकते हैं।’’
‘‘पहले एसाइनमेंट क्या है। यह तो बोलिए।’’
‘‘हमें खबर मिली है कि चुनाव के दूसरे ही दिन से भोला के हिन्दुओं पर तरह-तरह के अत्याचार शुरू हो गए हैं। घटना-स्थल का जायजा लेकर रिपोर्ट भेजनी है। भोला में कितने दिनों तक रुकना पड़ेगा, अभी यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।’’
बारी की बात सुनकर राहुल ने बड़े मामूली ढंग से कहा, ढाका में मेरा एक दोस्त इस बात का जिक्र मुझसे कर चुका है। एक दिन नहीं, कई दिनों तक। लेकिन मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
‘‘क्यों ?’’बारी जानना चाहता था।
‘‘इसके बारे में रिपोर्ट लिखने पर अगर फिर कभी ढाका आने की जरूरत हो और वीसा न मिले तो ?’’
बारी ने आसमान की ओर देखते हुए कहा ‘‘कितना अत्याचार किया गया है, कुछ जानते हैं ? हमारे मुताबिक पूरे देश में लगभग चालीस लाख हिन्दू क्षतिग्रस्त हुए हैं।’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप ? वोट देने वाले हिन्दुओं की संख्या सत्तर लाख से ज्यादा है।’’
‘‘वोट देने वालों में हिन्दुओं की संख्या ज्यादा है। करीब सवा करोड़। लेकिन कई कारणों से प्रतिदिन औसतन चार सौ पचहत्तर हिन्दू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़कर चले जा रहे हैं। यह सामान्य परिस्थिति का आँकड़ा है। लेकिन अक्टूबर की पहली तारीख के बाद से स्थिति सामान्य नहीं है।’’
‘‘यानी हर साल आपके यहाँ से...।’’
यह कहते हुए राहुल रुक गया। केबिन में जाकर बैग से कैल्कुलेटर निकालकर हिसाब करने बैठ गया। एक लाख तिहत्तर हजार तीन सौ पचहत्तर हिन्दू हर साल भारत चले जा रहे हैं। वेरी इंटरेस्टिंग। यह तो अच्छी स्टोरी बन सकती है।
‘‘देखिए राहुल राय, 1941 में कुल जनसंख्या का 29.7 प्रतिशत हिन्दू थे। 1951 में यह घटकर 23.1 प्रतिशत हो गया। इसके दस साल बाद खिसककर 19.6 हुआ। 1974 में हिन्दू जनसंख्या घटकर 14.6 पर आ गयी। 1981 में हिन्दू समुदाय की आबादी 13.4 प्रतिशत तक रह गयी। यह संख्या हर साल कम होती जा रही है। लेकिन 1996 से 2001 तक के पाँच सालों में जब अवामी लीग सत्ता में रही तो माइग्रेशन का औसत बहुत कम था। उस वक्त भी माइग्रेशन बिलकुल बन्द हो गया हो, ऐसी बात नहीं है।’’
‘‘क्यों कम था, आपको क्या लगता है ?’’ राहुल का सवाल था।
‘‘अवामी लीग इस देश में हिन्दुओं को ज्यादा कुछ नहीं दे पाई लेकिन मानसिक शान्ति उन्हें जरूर मिली थी। हिन्दू इस देश में रह जाने की सोच रहे थे। यह मानसिकता अवामी लीग उनमें पैदा कर गयी थी। ढाका शहर में एक अपार्टमेंट्स के बारे में मैं आपको बता सकता हूँ। नब्बे में यह बना था। नब्बे से छियानवे तक इसके फ्लैटों के मालिक सिर्फ मुसलमान ही थे। सिर्फ एक को छोड़कर। इस एक फ्लैट का मालिक था एक बुद्धिस्ट। लेकिन सत्तानवे में जब उसमें और उन्नीस नए फ्लैट बने तो उनमें सोलह फ्लैट हिन्दुओं ने खरीदे। इस तरह के बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं।
चलिए, ये सब बातें यहीं छोड़ते हैं। खा-पीकर सो जाते हैं।
भारत और बांग्लादेश के बीच सिर्फ साइबर कफे में ही नहीं और भी बहुत सारी चीजों में जो फर्क है वह राहुल के मन को छू गया। राहुल के पूर्वज बड़िशाल जिले के थे। उन्नीस सौ सैंतालीस के देश-विभाजन के बाद उसका परिवार कोलकाता चला गया। वहीं राहुल का जन्म हुआ और वहीं वह पला-बढ़ा। नौकरी की वजह से फिलहाल दिल्ली में रहना पड़ रहा है। कोलकाता में जैसे जरूरत के मुताबिक सौ ग्राम दही खरीदकर घर ले जाया जा सकता है, ढाका में यह संभव नहीं है। एक हाँडी दही खरीदना पड़ता है। कोलकाता में सौ-पचास ग्राम मछली या मांस खरीदा जा सकता है लेकिन ढाका में ऐसा नहीं किया जा सकता। किलोभर मछली या मांस खरीदना पड़ता है। इस बात से राहुल बहुत ही आश्चर्य चकित था। यह अपव्यय लगता था उसे। लेकिन इस बारे में उसने किसी से कोई चर्चा नहीं की। चर्चा करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। यह सोचकर कि लोगों को अच्छा नहीं लगेगा।
भोला शहर में राहुल की कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। हालाँकि पुरखों की जमीन से सबकी तरह एक लगाव उसमें भी है। लेकिन एक महीना पूरा होने में सिर्फ चार दिन रह गए हैं। इन चार दिनों में सबकुछ देखकर ढाका से लौटा जा सकता है क्या ? अपने आप से ही बात कर रहा था राहुल। दिल्ली से चलने से पहले पिताजी से कोलकाता में जब बात हुई थी तब बार-बार उन्होंने भोला घूमकर आने को कहा था। भोलावाले घर की फोटो खींचकर ले आने को कहा था। पिताजी से उसने वादा किया था कि वह भोला घूमकर ही आएगा। सिर्फ चार दिन हाथ में हैं। ढाका में अभी भी थोड़ा-बहुत काम बाकी रह गया है। दिल्ली दफ्तर से बार-बार निर्देश दिया जा रहा था-नव निर्वाचित प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने के लिए। लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी अभी तक यह संभव नहीं हुआ था। इंटरव्यू क्यों नहीं हो पाया, इसका कोई ठोस जवाब दिल्ली दफ्तर को नहीं दे पाया राहुल।
जो कुछ भेजा है राहुल ने, उससे वह खुद भी संतुष्ट नहीं है। इंटरव्यू नहीं हो सकता, यह बात तो बिल्कुल तय है। फिर भी वह सोच रहा था कि एक बार और कोशिश करने में हर्ज ही क्या है। इंटरव्यू के नाम पर दिल्ली दफ्तर से और कुछ दिन ढाका में रहने की अनुमति ली जा सकती है। लेकिन इससे पहले तो वीसा का एक्सटेंशन कराना होगा। आसानी से कैसे हो सकता है, यह जानने के लिए उसने बारी को फोन किया। ढाका में जिन पत्रकारों से उसकी मित्रता हुई, उसमें वह बारी को ही सबसे ज्यादा पसंद करता था। बारी ने वायदा किया कि कल ही वीसा बढ़ा देने का इंतजाम कर देगा। लेकिन भोला जाने की बात सुनकर बारी ने उस पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी। बारी को उसके अखबार की ओर से परसों भोला भेजा जा रहा है। चुनाव के समय के हालात का जायजा लेकर रिपोर्ट भेजने के लिए।
राहुल को बड़ी तसल्ली हुई यह जानकर कि बारी के साथ भोला जाना तय हो गया है। दूसरे दिन वीसा का एक्सटेंशन तो हुआ लेकिन राहुल को बहुत सारे सवालों के जवाब देने पड़े। बारी इसे पहले ही बता चुका था कि भोला तो क्या, ढाका से बाहर जाने की बात भी वह इमिग्रेशन ऑफिस को न बताए। राहुल ने सिर्फ एक ही बात कही-नये प्रधानमंत्री का साक्षात्कार लेने के प्रसंग को छोड़कर वह और कुछ नहीं बोला। अपनी बात रखते हुए उसने प्रधानमंत्री के साक्षात्कार के लिए जो आवेदन पत्र लिखा था, उसकी कॉपी भी दिखाई। वीसा एक्सटेंशन के साथ ही उसने दिल्ली ऑफिस को मेल किया कि वह और पंद्रह दिन ढाका में रहने की अनुमति चाहता है।
इसके साथ ही ढाका में पंद्रह दिन रहने के खर्च की व्यावस्था के लिए भी उसने अंतिम पंक्ति में जिक्र कर दिया।
आज राहुल के पास कोई काम नहीं है। खबर आज नहीं भेजनी है, यह पहले ही तय कर चुका था। कल शाम को वह और बारी भोला के लिए रवाना होना चाहते हैं। सारी रात स्टीमर पर रहना है, अगले दिन सुबह वे भोला पहुँच पाएँगे। जल पथ से इतनी लंबी यात्रा इससे पहले उसने कभी नहीं की राहुल के लिए यह पहला अनुभव होगा।
आज चूँकि उसके पास कोई काम नहीं है, वह पूरे दिन घूमकर ढाका शहर देखेगा। इस एक महीने में उसने ढाका शहर में कुछ भी नहीं देखा। समाचार संग्रह के दौरान जो थोड़ा-बहुत घूमना पड़ा, उससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन आज वह पर्यटक बनकर घूमेगा, सब कुछ देखेगा, सबसे बात करेगा। दिन भर उसने यही किया। होटल वापस आने के बाद वह बहुत थक चुका था। नींद भी खूब आ रही थी। लेकिन दिन-भर की धूल-गर्द और पल्यूशन लेकर बिना नहाए सोना भी अच्छी बात नहीं। कपड़े बदलकर वह नहाने चला गया। नहाना अभी पूरा हुआ नहीं था कि फोन की घंटी बज उठी। इस हालत में फोन उठाते ही उसे संपादक की आवाज सुनाई पड़ी। अनुमति मिल गई। पैसा भी भेज दिया गया है। कल पैसा मिल जाएगा। लेकिन संपादक का एक ही आदेश है—प्रधानमंत्री से इंटरव्यू करना ही है। ‘हाँ’ कहकर राहुल ने फोन रख दिया।
हालाँकि उसे अच्छी तरह पता है कि प्रधानमंत्री से साक्षात्कार अभी संभव नहीं है। मन बहुत खराब हो गया उसका। न जाने उसने संपादक से यह क्यों कह दिया कि वह साक्षात्कार लेकर ही आएगा।
दोपहर तक राहुल के हाथ में पैसा पहुँच गया, पिछली रात संपादक ने जिस पैसे का जिक्र किया था। ठीक पाँच बजे राहुल एकदम तैयार हो गया। पाँच बजकर पंद्रह मिनट पर एहसानुल बारी उसके होटल आया। दोनों होटल से निकलकर रिक्शे से सदर घाट की ओर चल पड़े। वहीं से उन्हें भोला के लिए स्टीमर पकड़ना था। स्टीमर खतुल्ला पार कर जब भोला की तरफ बढ़ने लगा तब दोनों केबिन से निकलकर डेक पर आकर खड़े हो गए। बूढ़ी गंगा, धलेश्वरी, शीतलक्ष्या नदी का संगम-स्थल पार करते हुए स्टीमर आगे बढ़ता गया। पहली बार बात की शुरूआत की बारी ने।
‘‘आप सिर्फ पुश्तैनी मकान देखने जा रहे हैं ?’’
‘‘बिल्कुल यही बात है।’’
‘‘और कोई काम या एसाइनमेंट नहीं है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘लेकिन क्यों ? जरा बताइये तो !’’
‘‘ना, ऐसे ही। मुझे तो एक जरूरी एसाइनमेंट देकर भेजा गया है, उसी के बारे में सोच रहा था।’’
‘‘वह क्या एसाइनमेंट है, क्या जाना जा सकता है ?’’ राहुल का सवाल था।
‘‘अब बता सकता हूँ, आप चाहें तो मेरे साथ रह सकते हैं।’’
‘‘पहले एसाइनमेंट क्या है। यह तो बोलिए।’’
‘‘हमें खबर मिली है कि चुनाव के दूसरे ही दिन से भोला के हिन्दुओं पर तरह-तरह के अत्याचार शुरू हो गए हैं। घटना-स्थल का जायजा लेकर रिपोर्ट भेजनी है। भोला में कितने दिनों तक रुकना पड़ेगा, अभी यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।’’
बारी की बात सुनकर राहुल ने बड़े मामूली ढंग से कहा, ढाका में मेरा एक दोस्त इस बात का जिक्र मुझसे कर चुका है। एक दिन नहीं, कई दिनों तक। लेकिन मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
‘‘क्यों ?’’बारी जानना चाहता था।
‘‘इसके बारे में रिपोर्ट लिखने पर अगर फिर कभी ढाका आने की जरूरत हो और वीसा न मिले तो ?’’
बारी ने आसमान की ओर देखते हुए कहा ‘‘कितना अत्याचार किया गया है, कुछ जानते हैं ? हमारे मुताबिक पूरे देश में लगभग चालीस लाख हिन्दू क्षतिग्रस्त हुए हैं।’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप ? वोट देने वाले हिन्दुओं की संख्या सत्तर लाख से ज्यादा है।’’
‘‘वोट देने वालों में हिन्दुओं की संख्या ज्यादा है। करीब सवा करोड़। लेकिन कई कारणों से प्रतिदिन औसतन चार सौ पचहत्तर हिन्दू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़कर चले जा रहे हैं। यह सामान्य परिस्थिति का आँकड़ा है। लेकिन अक्टूबर की पहली तारीख के बाद से स्थिति सामान्य नहीं है।’’
‘‘यानी हर साल आपके यहाँ से...।’’
यह कहते हुए राहुल रुक गया। केबिन में जाकर बैग से कैल्कुलेटर निकालकर हिसाब करने बैठ गया। एक लाख तिहत्तर हजार तीन सौ पचहत्तर हिन्दू हर साल भारत चले जा रहे हैं। वेरी इंटरेस्टिंग। यह तो अच्छी स्टोरी बन सकती है।
‘‘देखिए राहुल राय, 1941 में कुल जनसंख्या का 29.7 प्रतिशत हिन्दू थे। 1951 में यह घटकर 23.1 प्रतिशत हो गया। इसके दस साल बाद खिसककर 19.6 हुआ। 1974 में हिन्दू जनसंख्या घटकर 14.6 पर आ गयी। 1981 में हिन्दू समुदाय की आबादी 13.4 प्रतिशत तक रह गयी। यह संख्या हर साल कम होती जा रही है। लेकिन 1996 से 2001 तक के पाँच सालों में जब अवामी लीग सत्ता में रही तो माइग्रेशन का औसत बहुत कम था। उस वक्त भी माइग्रेशन बिलकुल बन्द हो गया हो, ऐसी बात नहीं है।’’
‘‘क्यों कम था, आपको क्या लगता है ?’’ राहुल का सवाल था।
‘‘अवामी लीग इस देश में हिन्दुओं को ज्यादा कुछ नहीं दे पाई लेकिन मानसिक शान्ति उन्हें जरूर मिली थी। हिन्दू इस देश में रह जाने की सोच रहे थे। यह मानसिकता अवामी लीग उनमें पैदा कर गयी थी। ढाका शहर में एक अपार्टमेंट्स के बारे में मैं आपको बता सकता हूँ। नब्बे में यह बना था। नब्बे से छियानवे तक इसके फ्लैटों के मालिक सिर्फ मुसलमान ही थे। सिर्फ एक को छोड़कर। इस एक फ्लैट का मालिक था एक बुद्धिस्ट। लेकिन सत्तानवे में जब उसमें और उन्नीस नए फ्लैट बने तो उनमें सोलह फ्लैट हिन्दुओं ने खरीदे। इस तरह के बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं।
चलिए, ये सब बातें यहीं छोड़ते हैं। खा-पीकर सो जाते हैं।
2
दिल्ली से रवाना होने से पहले संपादक ने राहुल को ब्रीफ कर दिया था कि
सिर्फ चुनाव को ही प्रमुखता देते हुए खबरें भेजे। दूसरी तरफ ध्यान देने की
जरूरत नहीं है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आदि के बारे में कुछ कहने की
जरूरत नहीं है। इसी वजह से ढाका के उस मित्र के बार-बार कहने पर हिन्दुओं
पर के अत्याचार के मुद्दे को वह टालता रहा। इतना ही नहीं, मतदान वाले दिन
ढाका शहर में राजा बाजार नाजनीन स्कूल के मतदान केन्द्र पर हिन्दू महिलाओं
को अन्दर जाने नहीं दिया गया, स्कूल में बरामदे से ही उनके नाखून पर न
मिटने वाली स्याही लगाकर वहाँ से उन्हें निकाल बाहर करते हुए उसने देखा
है।
कमलापुर उच्च विद्यालय केन्द्र पर भी यही नजारा देखा है उसने। लेकिन खबर भेजते हुए सम्पादक की ब्रीफिंग को ध्यान में रखकर उसे इन बातों का जिक्र नहीं किया। लेकिन बारी के मुंह से ये बातें सुनने के बाद केबिन में बिस्तर पर लेटे-लेटे उसे लग रहा था कि नाज़नीन स्कूल और कमलापुर स्कूल के मतदान केन्द्र पर जो कुछ उसने देखा था, उसका जिक्र न करके उसने गलती की थी। भोला में उसे कोई काम नहीं था, सिवा पुश्तैनी मकान देखने के लिए। राहुल अपने आपसे सवाल कर रहा था कि क्या बारी के साथ ही घूमेगा-फिरेगा। अकेले जो सम्भव नहीं है वह बारी के साथ रहने से आसानी से हो जाएगा। भोला पहुँचकर ही यह तय किया जाएगा। बल्कि अभी सोने की कोशिश करनी चाहिए।
राहुल ने दाहिनी करवट ली। दिल्ली के घर के बारे में, पत्नी और बेटी के बारे में सोचते हुए सो गया।
उसकी नींद खुली तो सूरज उग चुका था। लेकिन स्टीमर अभी तक भोला नहीं पहुँचा था। वह भोला की तरफ बढ़ रहा था, एक पतली-सी नदी से होते हुए। नदी के दोनों ओर होकर वृक्षों के पत्तों की कतार लगी हुई थी। बाहर निकलकर राहुल ने बारी के केबिन का दरावाजा खटखटाया। बाथरूम से ही बारी ने ऊँची आवाज में कहा-बस बीस मिनट के अन्दर हम भोला पहुँच जाएँगे। आप तैयार हो जाइए। बारी के बन्द दरवाजे से अपने केबिन में आकर राहुल ने सिगरेट सुलगाई। सेविंग इंस्ट्रूमेंट का बैग हाथ में लिये बाथरूम में घुस गया। तैयार होकर जब उसने केबिन का दरवाजा खोला तो देखा की बारी बैग हाथ में लिए उसके केबिन के सामने रेलिंग पर टेक लगाए खड़ा है। भोला घाट पर स्टीमर का लंगर डाला जा रहा है। पल्टून के सहारे स्टीमर के स्थिर होने पर बारी ने कहा, ‘‘चालिए अब उतरते हैं।’’
‘‘हाँ चलिए।’’
स्टीमर से उतरकर पल्टून पार करके उन्होंने एक रिक्शा लिया, बारी को पहले राहुल अपने पुश्तैनी मकान के बारे में विस्तार से बता चुका था। रिक्शा बारी के बताए मुताबिक चल पड़ा, राहुल के पुश्तैनी मकान की ओर। राहुल के पिता के दिए विवरण के अनुसार उनका मकान शहर के बाहर था। लेकिन रिक्शा जिस जगह पर आकर रुका, यह तो एक शहर है। बारी इसके पहले भी भोला आ चुका है। इस छोटे से कस्बे से वह अच्छी तरह परिचित है। रास्ते में रिक्शा रोककर एक बूढ़े आदमी से पहले ही राहुल के घर का लोकेशन पूछ लिया था।
रिक्शा वहीं जाकर रुका था। बगल में एक बड़ी मस्जिद थी। मस्जिद के सामने एक तालाब। तालाब में पत्थरों से बँधा घाट। पुराने घाट को नए सिरे से पलस्तर किया गया है, यह देखते ही समझ में आ रहा था। राहुल घाट पर जाकर बैठ गया। अपने भीतर वैसा कुछ खास परिवर्तन महसूस नहीं कर रहा था, वह। बुरा तो नहीं लग रहा था, पर कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था। फिर भी उसने तय कर लिया था कि उस घर की तस्वीर वह नहीं उतारेगा। पिताजी से जाकर वह कह देगा कि भोला नहीं जा सका। काम की वजह से फुरसत नहीं मिली। घाट से उठते हुए उसने एक मुट्ठी
कमलापुर उच्च विद्यालय केन्द्र पर भी यही नजारा देखा है उसने। लेकिन खबर भेजते हुए सम्पादक की ब्रीफिंग को ध्यान में रखकर उसे इन बातों का जिक्र नहीं किया। लेकिन बारी के मुंह से ये बातें सुनने के बाद केबिन में बिस्तर पर लेटे-लेटे उसे लग रहा था कि नाज़नीन स्कूल और कमलापुर स्कूल के मतदान केन्द्र पर जो कुछ उसने देखा था, उसका जिक्र न करके उसने गलती की थी। भोला में उसे कोई काम नहीं था, सिवा पुश्तैनी मकान देखने के लिए। राहुल अपने आपसे सवाल कर रहा था कि क्या बारी के साथ ही घूमेगा-फिरेगा। अकेले जो सम्भव नहीं है वह बारी के साथ रहने से आसानी से हो जाएगा। भोला पहुँचकर ही यह तय किया जाएगा। बल्कि अभी सोने की कोशिश करनी चाहिए।
राहुल ने दाहिनी करवट ली। दिल्ली के घर के बारे में, पत्नी और बेटी के बारे में सोचते हुए सो गया।
उसकी नींद खुली तो सूरज उग चुका था। लेकिन स्टीमर अभी तक भोला नहीं पहुँचा था। वह भोला की तरफ बढ़ रहा था, एक पतली-सी नदी से होते हुए। नदी के दोनों ओर होकर वृक्षों के पत्तों की कतार लगी हुई थी। बाहर निकलकर राहुल ने बारी के केबिन का दरावाजा खटखटाया। बाथरूम से ही बारी ने ऊँची आवाज में कहा-बस बीस मिनट के अन्दर हम भोला पहुँच जाएँगे। आप तैयार हो जाइए। बारी के बन्द दरवाजे से अपने केबिन में आकर राहुल ने सिगरेट सुलगाई। सेविंग इंस्ट्रूमेंट का बैग हाथ में लिये बाथरूम में घुस गया। तैयार होकर जब उसने केबिन का दरवाजा खोला तो देखा की बारी बैग हाथ में लिए उसके केबिन के सामने रेलिंग पर टेक लगाए खड़ा है। भोला घाट पर स्टीमर का लंगर डाला जा रहा है। पल्टून के सहारे स्टीमर के स्थिर होने पर बारी ने कहा, ‘‘चालिए अब उतरते हैं।’’
‘‘हाँ चलिए।’’
स्टीमर से उतरकर पल्टून पार करके उन्होंने एक रिक्शा लिया, बारी को पहले राहुल अपने पुश्तैनी मकान के बारे में विस्तार से बता चुका था। रिक्शा बारी के बताए मुताबिक चल पड़ा, राहुल के पुश्तैनी मकान की ओर। राहुल के पिता के दिए विवरण के अनुसार उनका मकान शहर के बाहर था। लेकिन रिक्शा जिस जगह पर आकर रुका, यह तो एक शहर है। बारी इसके पहले भी भोला आ चुका है। इस छोटे से कस्बे से वह अच्छी तरह परिचित है। रास्ते में रिक्शा रोककर एक बूढ़े आदमी से पहले ही राहुल के घर का लोकेशन पूछ लिया था।
रिक्शा वहीं जाकर रुका था। बगल में एक बड़ी मस्जिद थी। मस्जिद के सामने एक तालाब। तालाब में पत्थरों से बँधा घाट। पुराने घाट को नए सिरे से पलस्तर किया गया है, यह देखते ही समझ में आ रहा था। राहुल घाट पर जाकर बैठ गया। अपने भीतर वैसा कुछ खास परिवर्तन महसूस नहीं कर रहा था, वह। बुरा तो नहीं लग रहा था, पर कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था। फिर भी उसने तय कर लिया था कि उस घर की तस्वीर वह नहीं उतारेगा। पिताजी से जाकर वह कह देगा कि भोला नहीं जा सका। काम की वजह से फुरसत नहीं मिली। घाट से उठते हुए उसने एक मुट्ठी
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