कहानी संग्रह >> चिड़ी की दुक्की चिड़ी की दुक्कीइस्मत चुगताई
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इस पुस्तक को इस्मत चुगताई ने उर्दू में लिखा है, इसका बहुत ही खूबसूरत हिन्दी रूपान्तरण...
Chidi Ki Dukki
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चिड़ी की दुक्की
इस्मत चुग़ताई के साथ उर्दू कहानी में दृष्टि और कला के स्तर पर कुछ नये आयाम जुड़ते हैं। जिस दौर में इस्मत रचना-कर्म से जुड़ी, वह प्रगतिशील साहित्यांदोलन के पहले उभार का दौर था। उन्होंने सामाजिक न्याय के संघर्ष में स्त्री की मुक्तिआकाक्षां और अधिकार चेतना को शामिल करते हुए प्रगतिशील रचनाशीलता से अनुशासित निरीक्षण क्षमता के बूते पर वे यथार्थ के परिचित-रुपों से बाहर आकर जीवन के सर्वथा नये इलाकों में कहानी को ले गयीं, जहाँ अब तक किसी उर्दू कथाकार का गुज़र नहीं था। मसलन मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज में स्त्री के जीवन से जुड़े हुए सवाल प्रगतिशीलों के बीच ज़ेरे-बहस तो थे लेकिन इन सवालों को कहानी की संवेदना में जगह सबसे पहले इस्मत चुग़ताई ने ही दी। उनकी कहानियों में स्त्री की दुरवस्था से उत्पन्न करुणा हमें सिर्फ द्रवित नहीं करती बल्कि एक व्यापक विमर्श में शामिल करती है।
इस्मत के पास एक स्पष्ट वैचारिक परिप्रेक्ष्य है।
स्त्री बनाम पुरुष की बेमानी को वे अहमियत नहीं देतीं। वर्ग समाज के अलग-अलग स्तरों में स्त्री को लेकर पुरुष को स्वेच्छाचारिता की उन्होंने ख़ूब मज़म्मत की है, वहीं स्त्री के प्रति स्त्री की क्रूरता और संगदिली की भी उन्होंने पर्दापोशी नहीं की है। यह फ़ेमिनिज़्म की प्रचलित धारणा से बाहर की सच्चाई है। इस्मत की बेशतर कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की दरकार करती हैं। ख़ुद उनके चंगेज़ी खानदान की पृष्ठभूमि से लेकर आज़ादी से पहले और बाद के अर्द्ध-सामंती समाज के ऐसे सूक्ष्म ब्योरे उनके यहाँ मिलते हैं जो हमारी चेतना को झकझोर देते हैं। बावजूद इसके उनके पास एक दुर्लभ कलात्मक संयम है कि उन्होंने अपनी कहानियों को समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ नहीं बनने दिया है। यहाँ तक की उनकी कुछ कहानियों में खानदान के कुछ लोग पात्रों के रूप में चित्रित किये गये हैं लेकिन यह सुखद आश्चर्य है कि उन्हें पात्र की तरह बाक़ायदा रचा और गढ़ा गया है।
‘चिड़ी की दुक्की’ में इस्मत चुग़ताई की पाँच कहानियाँ संगृहीत हैं। हिंदी पाठक इस्मत की विलक्षण कहानी कला की झलक इन कहानियों में पा सकेंगे। इस संग्रह की एक विशेषता यह है कि पाठक कहानियों के आरंभ में इस्मत चुग़ताई पर उनके समकालीन कहानीकार सआदत हसन मंटो का यादगार संस्मरण भी पहली बार हिंदी में पढ़ सकेंगे
इस्मत के पास एक स्पष्ट वैचारिक परिप्रेक्ष्य है।
स्त्री बनाम पुरुष की बेमानी को वे अहमियत नहीं देतीं। वर्ग समाज के अलग-अलग स्तरों में स्त्री को लेकर पुरुष को स्वेच्छाचारिता की उन्होंने ख़ूब मज़म्मत की है, वहीं स्त्री के प्रति स्त्री की क्रूरता और संगदिली की भी उन्होंने पर्दापोशी नहीं की है। यह फ़ेमिनिज़्म की प्रचलित धारणा से बाहर की सच्चाई है। इस्मत की बेशतर कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की दरकार करती हैं। ख़ुद उनके चंगेज़ी खानदान की पृष्ठभूमि से लेकर आज़ादी से पहले और बाद के अर्द्ध-सामंती समाज के ऐसे सूक्ष्म ब्योरे उनके यहाँ मिलते हैं जो हमारी चेतना को झकझोर देते हैं। बावजूद इसके उनके पास एक दुर्लभ कलात्मक संयम है कि उन्होंने अपनी कहानियों को समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ नहीं बनने दिया है। यहाँ तक की उनकी कुछ कहानियों में खानदान के कुछ लोग पात्रों के रूप में चित्रित किये गये हैं लेकिन यह सुखद आश्चर्य है कि उन्हें पात्र की तरह बाक़ायदा रचा और गढ़ा गया है।
‘चिड़ी की दुक्की’ में इस्मत चुग़ताई की पाँच कहानियाँ संगृहीत हैं। हिंदी पाठक इस्मत की विलक्षण कहानी कला की झलक इन कहानियों में पा सकेंगे। इस संग्रह की एक विशेषता यह है कि पाठक कहानियों के आरंभ में इस्मत चुग़ताई पर उनके समकालीन कहानीकार सआदत हसन मंटो का यादगार संस्मरण भी पहली बार हिंदी में पढ़ सकेंगे
इस्मत चुग़ताई
आज से तक़रीबन डेढ़ बरस पहले जब मैं बम्बई में था, हैदराबाद से एक साहब का डाक-कार्ड मौसूल (प्राप्त) हुआ। मज़्मून कुछ इस क़िस्म का था...‘‘ये क्या बात है कि इस्मत चुग़ताई ने आपसे शादी न की ? मंटो और इस्मत, अगर ये दो हस्तियाँ मिल जातीं तो कितना अच्छा होता, मगर अफ़सोस कि इस्मत ने शाहिद से शादी कर ली और मंटो...।’’
उन्हीं दिनों हैदराबाद में तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ों (प्रगतिवादी रचनाकारों) की एक कॉन्फ़्रेंस हुई। मैं उसमें शरीक नहीं था। लेकिन हैदराबाद के एक पर्चे में उसकी रुदाद (ब्योरा) देखी, जिसमें ये लिखा था कि वहाँ बहुत-सी लड़कियों ने इस्मत को घेरकर ये सवाल किया कि ‘आपने मंटो से शादी क्यों नहीं की ?’’
मुझे मालूम नहीं था कि ये बात दुरुस्त है या ग़लत, लेकिन जब इस्मत चुग़ताई वापिस आई तो उसने मेरी बीबी से कहा कि हैदराबाद में एक लड़की ने जब उससे सवाल किया, ‘मंटो कुँवारा है ?’ तो उसने ज़रा तन्ज़ के साथ जवाब दिया, ‘जी नहीं’, इस पर वो मोहतरमा इस्मत के बयान के मुताबिक़ कुछ खिसियानी-सी होकर ख़ामोश हो गईं।
वाक़ियात कुछ भी हों, लेकिन ये बात ग़ैर-मामूली तौर पर दिलचस्प है कि सारे हिन्दुस्तान में सिर्फ़ एक हैदराबाद ही ऐसी जगह है जहाँ मर्द और औरतें मेरी और इस्मत की शादी के मुतअल्लिक़ फ़िक्रमंद रहे हैं।
उस वक़्त तो मैंने ग़ौर नहीं किया था, लेकिन अब सोचता हूँ अगर मैं और इस्मत वाक़ई मियाँ-बीवी बन जाते तो क्या होता ? ये ‘अगर’ भी कुछ उसी क़िस्म की अगर है...अगर कहा जाए कि अगर क़लूपतरा की नाक एक इंच का अट्ठारवाँ हिस्सा बड़ी होती तो उसका असर वादी-ए-नील की तारीख़ पर क्या पड़ता। लेकिन यहाँ न इस्मत क़लूपतरा है और न मंटो एन्थनी। लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर मंटो और इस्मत की शादी हो जाती तो उस हादिसे का असर अहदे-हाज़िर (वर्तमान) के अफ़सानवी-अदब (कथा-साहित्य) की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता। अफ़साने अफ़साने बन जाते, कहानियाँ मुड़-तुड़ कर पहेलियाँ हो जातीं। इन्शा (लेखन) की छातियों में सारा दूध ख़ुश्क होकर या एक सुफ़ूफ़ (चूर्ण) की शक्ल अख़्तियार कर लेता या भस्म होकर राख बन जाता और ये भी मुमकिन है कि निकाह-नामे पर इनके दस्तख़त इनके क़लम की आख़िरी तहरीर होते, लेकिन सीने पर हाथ रख कर ये भी कौन कह सकता है कि निकाह-नामा होता। ज़्यादा क़रीने-क़यास (सही अनुमान) तो यही होता कि निकाह-नामे पर दोनों अफ़साने लिखते और क़ाज़ी साहब की पेशानी पर दस्तख़त कर देते ताकि सनद रहे। निकाह के दौरान कुछ ऐसी बातें भी हो सकती थीं..
‘‘इस्मत, क़ाज़ी साहब की पेशानी, ऐसा लगता है, तख़्ती है।’’
‘‘क्या कहा ?’’
‘‘तुम्हारे कानों को क्या हो गया है ?’’
‘‘मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ, तुम्हारी आवाज़ हलक़ से बाहर नहीं निकलती।’’
‘‘हद हो गई। लो अब सुनो। मैं ये कह रहा था कि क़ाज़ी साहब की पेशानी बिलकुल तख़्ती से मिलती-जुलती है।’’
‘‘तख़्ती तो बिलकुल सपाट होती है।’’
‘‘ये पेशानी सपाट नहीं ?’’
‘‘तुम सपाट का मतलब भी समझते हो ?’’
‘‘जी नहीं। ’’
‘‘सपाट माथा तुम्हारा है। क़ाज़ी जी का माथा तो...।’’
‘‘बड़ा ख़ूबसूरत है।’’
‘‘ख़ूबसूरत तो है।’’
‘‘तुम महज़ चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘चिड़ा तुम रहे हो मुझे।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘मैं कहती हूँ तुम चिड़ा रहे हो मुझे।’’
‘‘तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘अजी वाह ! तुम तो अभी से शौहर बन बैठे।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूँगा। अगर आपकी बेटी का माथा भी आप ही के माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस मरदूद से शादी नहीं करूँगी। अगर आपकी चार बीवियाँ नहीं तो मुझसे शादी कर लीजिए। मुझे आपका माथा बहुत पसंद है।’’
अगर हम दोनों को शादी का ख़याल आता तो दूसरों को हैरानी-ओ-परेशानी में गुम करने के बजाय हम ख़ुद उसमें गर्क़ हो जाते और जब एकदम चौंकते तो ये हैरानी और परेशानी जहाँ तक में समझता हूँ मुसर्रत (खुशी) के बजाय एक बहुत फ़ुकाहिया (उपहास) में तब्दील हो जाता। इस्मत और मंटो, निकाह और शादी, कितनी मज़्हका-ख़ेज़ (हास्यास्पद) है।
इस्मत लिखती है-
‘‘एक ज़रा-सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, असकरी, यूनिस और न जाने कौन-कौन ताश की गड्डी की तरह फेंट कर बिखेर दिए गए हैं। कोई बताओ, इनमें से चोर पत्ता कौन-सा है ? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज़ आँखें, महमूद के साँपों की तरह रेंगते हुए आज़ा (अंग-प्रत्यंग), असकरी के बेरहम हाथ, यूनिस के निचले होंठ का सियाह तिल, अब्बास की खोई हुई मुस्कुराहटें और हज़ारों चौड़े-चकले, सीने, कुशादा पेशानियाँ, घने-घने बाल, सुडौल-पिंडलियां, मज़बूत बाज़ू, सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के डोरों की तरह उलझ कर रह गए हैं। परेशान हो-होकर इस ढेर को देखती हूँ मगर समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा पकडूँ कि खिंचता ही चला आए और मैं उसके सहारे दूर उफ़ुक़ (क्षितिज) से भी ऊपर एक पतंग की तरह तन जाऊँ।’’
-(छोटी आपा)
मंटो लिखता है-
‘‘मैं सिर्फ़ इतना समझता हूँ कि औरत से इश्क़ करना और ज़मीनें ख़रीदना तुम्हारे लिए एक बात है। सो, तुम मुहब्बत करने के बजाय एक-दो बीघे ज़मीन ख़रीद लो और उस पर सारी उम्र क़ाबिज़ रहो। ज़िंदगी में सिर्फ़ एक औरत और ये दुनिया इस क़दर भरी हुई क्यों है ? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं ? मेरी सुनो और इस ज़िंदगी को, जो कि तुम्हें दी गई है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो। तुम ऐसे गाहक हो जो औरत हासिल करने के लिए सारी उम्र सरमाया (पूँजी) जमा करते रहोगे मगर उसे नाकाफ़ी समझोगे। मैं ऐसा ख़रीददार हूँ जो ज़िंदगी में कई औरतों से सौदे करेगा। तुम ऐसा इश्क़ करना चाहते हो कि उसकी नाकामी पर कोई अदना दर्जे का मुसन्निफ़ एक किताब लिखे, जिसे नरायन दत्त सहगल पीले काग़ज़ों पर छापे और डिब्बी बाज़ार में रद्दी के भाव बेचे। मैं अपनी किताब के तमाम औराक़ (पन्ने) दीमक बनकर चाट जाना चाहता हूँ ताकि उसका कोई निशान बाक़ी न रहे। तुम मुहब्बत में ज़िंदगी चाहते हो, मैं ज़िंदगी में मुहब्बत चाहता हूँ।’’
(तकलीफ़)
इस्मत को अगर जो उलझे हुए सूत के ढेर में से ऐसा सिरा मिल जाता, खींचने पर जो खिंचता ही चला आता और वो उसके सहारे दूर उफ़ुक़ (क्षितिज) से ऊपर एक पतंग की तरह तन जाती और मंटो अगर अपनी किताबे-हयात (जीवन रूपी पुस्तक) के आधे औराक़ भी दीमक बनकर चाटने में कामयाब हो जाता तो आज अदब की तख़्ती पर उनके फ़न के नक़ूश इतने गहरे कभी न होते। वो दूर उफ़ुक़ से भी ऊपर हवा में तनी रहती और मंटो के पेट में उसकी किताबे-हयात के बाक़ी औराक़ भुस की तरह भर के उसके हमदर्द उसे शीशे की अलमारी में बंद कर देते।
‘चोटें के दीबाचे (प्राक्कथन) में कृश्न चंदर ने लिखा है-‘‘इस्मत का नाम आते ही मर्द अफ़साना-निगारों (कहानीकारों) को दौरे पड़ने लगते हैं। शर्मिंदा हो रहे हैं, आप ही आप ख़फ़ीफ़ (तुच्छ) होते जा रहे हैं। ये दीबाचा भी इसी ख़िफ़्फ़त (शर्मिंदगी) को मिटाने का एक नतीजा है।’’
इस्मत के मुतअल्लिक़ (सम्बन्ध में) जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, किसी भी क़िस्म की ख़िफ़्फ़त मिटाने का नतीजा नहीं, बल्कि एक क़र्ज़ था जो सूद की बहुत ही हल्की शर्ह के साथ अदा कर रहा हूँ।
सबसे पहले मैंने इस्मत का कौन-सा अफ़साना पढ़ा था, मुझे बिलकुल याद नहीं। ये सतूर (पंक्तियाँ) लिखने से पहले मैंने हाफ़िजे़ (याददाश्त) को बहुत खुरचा, लेकिन उसने मेरी रहबरी (मार्ग-दर्शन) न की। ऐसा महसूस होता है कि मैं इस्मत के अफ़साने काग़ज़ पर मुंतक़िल (स्थानान्तरित) होने से पहले ही पढ़ चुका था। यही वजह है कि मुझ पर कोई दौरा नहीं पड़ा। लेकिन जब मैंने उसको पहली बार देखा तो मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई।
अडलफ़ी चेम्बर्ज़ कियर रोड मुम्बई के 17 नम्बर फ़्लैट में जहाँ ‘मुसव्विर’ हफ़्तावार (साप्ताहिक) का द़फ्तर था, शाहिद लतीफ़ अपनी बीवी के साथ दाखिल हुआ। ये अगस्त 1942 ई. की बात है। तमाम काँग्रेसी लीडर महात्मा गाँधी समेत गिरफ़्तार हो चुके थे और शहर में काफ़ी गड़बड़ थी। फ़िज़ा सियासियात (राजनीतिक सरगर्मियाँ) में बसी हुई थी। इसीलिए कुछ देर गुफ़्तगू का मौजू (विषय) तहरीके-आज़ादी (स्वतंत्रता-आंदोलन) रहा। उसके बाद रुख़ बदला और अफ़सानवी बातें शुरू हुईं।
एक महीना पहले जबकि मैं आल इंडिया रेडियो देहली में मुलाज़िम था, ‘अदबे-लतीफ़’ में इस्मत का ‘लिहाफ़’ शाया (प्रकाशित) हुआ था। उसे पढ़कर, मुझे याद है, मैंने कृश्न चंदर से कहा था अफ़साना बहुत अच्छा है, लेकिन आख़िरी जुमला (वाक्य) बहुत गैर-सनाआना (कलात्मकता-रहित) है। अहमद नदीम क़ासमी की जगह अगर मैं एडीटर होता तो इसे यक़ीकन हज्फ़ (अलग) कर देता। चुनांचे जब अफ़सानों पर बातें शुरू हुईं तो मैंने इस्मत चुग़ताई से कहा, ‘‘आपका अफ़साना ‘लिहाफ़’ मुझे बहुत पसंद आया। बयान में अल्फा़ज़ को बक़द्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायाँ ख़ुसूसियत (ख़ास ख़ूबी) रही है। लेकिन मुझे तअज्जुब है कि इस अफ़साने के आख़िर में आपने बेकार-सा जुमला लिख दिया।’’ इस्मत ने कहा, ‘‘क्या अजीब है इस जुमले में ?’’
मैं जवाब में कुछ कहने ही वाला था कि मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब (संकोच) नज़र आया, जो आम घरेलू लड़कियों के चेहरे पर नागुफ़्ती (तथाकथित अश्लील) शै का नाम सुनकर नमूदार (प्रकट) हुआ करता है। मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई। इसलिए कि मैं ‘लिहाफ़’ के तमाम जुज़ईयात (पहलुओं) के मुतअल्लिक़ उससे बातें करना चाहता था। जब इस्मत चली गई तो मैंने दिल में कहा, ‘‘ये तो कमबख़्त बिलकुल औरत निकली।’’
मुझे याद है कि मुलाक़ात के दूसरे ही रोज़ मैंने अपनी बीवी को देहली खत लिखा, ‘‘इस्मत से मिला। तुम्हें ये सुनकर हैरत होगी कि वो बिलकुल ऐसी ही औरत है, जैसी कि तुम हो। मेरा मज़ा तो बिलकुल किरकिरा हो गया, लेकिन तुम उसे यक़ीनन पसंद करोगी। मैंने जब उससे ‘लिहाफ़’ का ज़िक्र किया तो नालायक उसका तसव्वुर करते ही झेंप गई।’’
एक असरे बाद मैंने अपने उस पहले रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) पर संजीदगी से ग़ौर किया और मुझे इस अम्र (तथ्य) का शदीद अहसास हुआ कि अपने फ़न की बक़ा (स्थायित्व) के लिए इंजन को अपनी फ़ितरत की हदों में रहना निहायत लाज़िम है। डॉक्टर रशीदजहाँ का फ़न आज कहाँ है, कुछ तो गेसुओं के साथ कट कर अलैहदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठुस होकर रह गया। फ्रांस में जार्ज साँ ने निस्वानियत (नारीत्व) का हसीन मलबूस (सुंदर लिबास) उतार कर तसन्नो (कृत्रिमता) की ज़िंदगी अख़्तियार की। पोलिस्तानी मूसीक़ार (संगीतकार) शो पीस से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने हीरे-मोती ज़रूर पैदा करवाए लेकिन उसका अपना जौहर उसके पेट में दम घुटकर मर गया।
मैंने सोचा औरत जंग के मैदानों में मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने का पहाड़ काटे या अफ़साना-निगारी करते-करते इस्मत चुग़ताई बन जाए लेकिन उसके हाथों में कभी-कभी मेहँदी रचनी ही चाहिए, उसकी बाँहों से चूड़ी की खनक आनी ही चाहिए। मुझे अफ़सोस है जो मैंने उस वक़्त अपने दिल में कहा, ‘‘ये तो कमबख़्त बिलकुल औरत निकली।’’
इस्मत अगर बिलकुल औरत न होती तो उसके मज्मूओं (संग्रहों) में भूल-भुलैया, तिल, लिहाफ़ और गेंदा जैसे नाज़ुक और मुलायम अफ़साने कभी भी नज़र न आते। ये अफ़साने औरत की मुख़्तलिफ़ (विविध) अदायें हैं। साफ, शफ़्फ़ाक (निर्मल) हर क़िस्म के तसन्नो (बनावटीपन) से पाक। ये अदायें वो इश्वे, वो ग़मज़े, (हाव-भाव) नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किए जाते हैं। जिस्म की भौंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई तअल्लुक़ नहीं। इन रूहानी इशारों की मंज़िले-मक़सूद (अभीष्ट लक्ष्य) इंसान का ज़मीर है, जिसके साथ वो औरत ही की अनजानी, अनबूझी मगर मख़मली फ़ितरत लिए बग़लगीर हो जाते हैं।
‘साक़ी में ‘दोज़ख़ी’ छपा। मेरी बहन ने पढ़ा और मुझसे कहा, ‘‘सआदत, ये इस्मत कितनी बेहूदा है। अपने मुन्ने भाई को भी नहीं छोड़ा। कमबख़्त ने कैसी-कैसी फ़िज़ूल बातें लिखी हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘इक़बाल अगर मेरी मौत पर तुम ऐसा ही मज़मून (लेख) लिखने का वादा करो तो ख़ुदा की क़सम मैं आज ही मरने के लिए तैयार हो जाऊँ।’’
शाहजहाँ ने अपनी महबूबा की याद क़ायम रखने के लिए ताजमहल बनवाया। इस्मत ने अपने महबूब (प्यारे) भाई की याद में ‘दोज़ख़ी’ लिखा।
शाहजहाँ ने दूसरों से पत्थर उठवाये, उन्हें तरशवाया और अपनी महबूबा की लाश पर अज़ीमुश्शान इमारत तामीर कराई। इस्मत ने ख़ुद अपने हाथों से अपने ख़्वाहराना (बहन के) ज़ज्बात चुन-चुन कर एक-एक ऊँचा मचान तैयार किया और उस पर नर्म-नर्म हाथों से अपने भाई की लाश रख दी। ताजमहल शाहजहाँ की मुहब्बत का बरहना (नग्न) मरमरीं इश्तिहार मालूम होता है, लेकिन ‘दोज़ख़ी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ़ और हसीन इशारा है। वो जन्नत जो इस मज़्मून (कृति) में आबाद है, उनवान (शीर्षक) उसका इश्तिहार नहीं देता।
मेरी बीवी ने ये मज़्मून पढ़ा तो इस्मत से कहा, ‘‘ये तुमने क्या ख़ुराफ़ात लिखी है।’’
‘‘बको मत, लाओ वो बर्फ़ कहाँ है ?’’
इस्मत को बर्फ़ खाने का शौक़ है। बिलकुल बच्चों की तरह डली हाथ में लिए दाँतों से कटाकट काटती रहती है और उसने अपने कुछ अफ़साने भी बर्फ़ खा-खा कर ही लिखे हैं। चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी है। सामने तकिये पर कॉपी रखी है। एक हाथ में फ़ाउंटेन पेन और दूसरे हाथ में बर्फ़ की डली। रेडियो ऊँचे सुरों में चिल्ला रहा है मगर उसका क़लम और मुँह दोनों खटाखट चल रहे हैं।
इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं। न लिखे तो महीनों गुज़र जाते हैं पर जब दौरा पड़े तो सैकड़ों सफ़हे (पृष्ठ) उसके क़लम के नीचे से गुज़र जाते हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता। बस हर वक़्त चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी अपने टेढ़े-मेढ़े इमला से बेनियाज़ ख़त में काग़ज़ों पर अपने खयालात मुंतक़िल (व्यक्त) करती रहती है।
‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तवील (लम्बा) नॉविल मेरा ख़याल है इस्मत ने सात-आठ नाशिस्तों (बैठकों) में ख़त्म किया था। कृश्न चंदर इस्मत के बयान की रफ़्तार के बारे में लिखता है, ‘‘अफ़सानों के मुताले (अध्ययन) से एक और बात जो ज़हन में आती है वो है घुड़-दौड़ यानी रफ़्तार, हरकत, सुबुक ख़िरामी (मेरा ख़याल है कि इससे कृश्न चंदर की मुराद बर्क़-रफ़्तारी थी) और तेज़गामी। न सिर्फ़ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है बल्कि फ़िक़रे, किनाये (व्यंजना शब्द-शक्ति) और इशारे और आवाज़ें और किरदार और ज़ज्बात और अहसासात (संवेदनाएँ) एक तूफ़ान की-सी बला-ख़ेज़ी के साथ चलते और आगे बढ़ते नज़र आते हैं।’’
इस्मत का क़लम और उसकी ज़ुबान दोनों बहुत तेज़ हैं। लिखना शुरू करेगी तो कई मर्तबा उसका दिमाग़ आगे निकल जाएगा और अल्फ़ाज़ बहुत पीछे हाँफते रह जाएँगे। शेख़ी बघारने की ख़ातिर अगर कभी बावर्ची-ख़ाने चली जाएगी तो मुआमला बिलकुल चौपट हो जाएगा। तबीयत में चूँकि बहुत ही जल्दबाज़ी है, इसलिए आटे का पेड़ा बनाते ही सिकी-सिकाई रोटी की शक्ल देखना शुरू कर देती है। आलू अभी छीले नहीं गए, लेकिन उनका सालन उसके दिमाग़ में पहले ही तैयार हो जाता है। और मेरा ख़याल है बाज़ औक़ात (कई बार) जो बावर्ची-ख़ाने में क़दम रख कर ख़याल-ख़याल में शिकम-सेर (तृप्त) होकर लौट आती होगी। लेकिन इस हद से बडी जल्दबाज़ी के मुकाबले में उसको मैंने बड़े ठंडे इत्मीनान और सुकून के साथ अपनी बच्ची के फ़्रॉक सीते देखा है। उसका क़लम लिखते वक़्त इमला की ग़लतियाँ करता जाता है, लेकिन नन्हीं के फ़्रॉक सीते वक़्त उसकी सुई से हल्की-सी लग्ज़िश (कंपकपाहट) भी नहीं होती। नपे-तुले टाँके होते हैं और मजाल है जो कहीं झोल हो।
‘उफ़ रे बच्चे‘ में इस्मत लिखती है, ‘‘घर क्या है मुहल्ले का मुहल्ला है। मरज फैले वबा1 आये। दुनिया के बच्चे पटापट मरें, मगर क्या मजाल जो हियाँ एक भी टस से मस हो जाए। हर साल माशा-अल्लाह घर हस्पताल बन जाता हैं। सुनते हैं दुनिया में बच्चे भी मरा करते हैं...मरते होंगे, क्या ख़बर ?’’
और पिछले दिनों बंबई में जब उसकी बच्ची सीमा को काली खांसी हुई तो वो रातें जागती थी, हर वक़्त खोई-खोई रहती, ममता माँ बनने के साथ ही कोख से बाहर निकलती है।
इस्मत परले दर्जे की हठ-धरम (ज़िद्दी) है। तबीअत में ज़िद है बिलकुल बच्चों की-सी। ज़िंदगी के किसी नज़रिये को, फ़ितरत के किसी क़ानून को पहले ही साबिक़ा (संबंध/जुड़ाव) में कभी क़ुबूल नहीं करेगी। पहले शादी से इनकार करती रही। जब आमादा हुई तो बीवी बनने से इनकार कर दिया। बीवी बनने पर जूँ-तूँ रजामंद हुई तो माँ बनने से मुन्किर हो गई। तकलीफ़ें उठाएगी, सुऊबतें (यातनाएँ) बर्दाश्त करेगी...मगर ज़िद से कभी बाज़ नहीं आएगी। मैं समझता हूँ ये भी उसका एक तरीक़ा है जिसके ज़रिए वो ज़िंदगी की हकीकतों से दो-चार होकर बल्कि टकरा-टकराकर उनको समझने की कोशिश करती है। उसकी हर बात निराली है। इस्मत के ज़नाना और मर्दाना किरदारों में भी ये अजीबो-ग़रीब ज़िद या इनकार पाया जाता है। मुहब्बत में बुरी तरह मुब्तिला (घिरे हुए) हैं, लेकिन नफ़रत का इज़हार किए चले जा रहे हैं। जी गाल चूमने को चाहता है, लेकिन उसमें सुई घुसो देंगे। प्यार से थपकाना हो तो ऐसी धौल जमाएँगे कि दूसरा बिलबिला उठे। ये वहशियाना क़िस्म की मनफ़ी (नकारात्मक) मुहब्बत जो महज़ एक खेल की सूरत में शुरू होती है, आमतौर पर इस्मत के अफ़सानों में एक निहायत रहम-अंगेज़ (दयनीय) सूरत में अंजाम-पज़ीर (प्रतिफलित) होती है।
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1 महामारी
उन्हीं दिनों हैदराबाद में तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ों (प्रगतिवादी रचनाकारों) की एक कॉन्फ़्रेंस हुई। मैं उसमें शरीक नहीं था। लेकिन हैदराबाद के एक पर्चे में उसकी रुदाद (ब्योरा) देखी, जिसमें ये लिखा था कि वहाँ बहुत-सी लड़कियों ने इस्मत को घेरकर ये सवाल किया कि ‘आपने मंटो से शादी क्यों नहीं की ?’’
मुझे मालूम नहीं था कि ये बात दुरुस्त है या ग़लत, लेकिन जब इस्मत चुग़ताई वापिस आई तो उसने मेरी बीबी से कहा कि हैदराबाद में एक लड़की ने जब उससे सवाल किया, ‘मंटो कुँवारा है ?’ तो उसने ज़रा तन्ज़ के साथ जवाब दिया, ‘जी नहीं’, इस पर वो मोहतरमा इस्मत के बयान के मुताबिक़ कुछ खिसियानी-सी होकर ख़ामोश हो गईं।
वाक़ियात कुछ भी हों, लेकिन ये बात ग़ैर-मामूली तौर पर दिलचस्प है कि सारे हिन्दुस्तान में सिर्फ़ एक हैदराबाद ही ऐसी जगह है जहाँ मर्द और औरतें मेरी और इस्मत की शादी के मुतअल्लिक़ फ़िक्रमंद रहे हैं।
उस वक़्त तो मैंने ग़ौर नहीं किया था, लेकिन अब सोचता हूँ अगर मैं और इस्मत वाक़ई मियाँ-बीवी बन जाते तो क्या होता ? ये ‘अगर’ भी कुछ उसी क़िस्म की अगर है...अगर कहा जाए कि अगर क़लूपतरा की नाक एक इंच का अट्ठारवाँ हिस्सा बड़ी होती तो उसका असर वादी-ए-नील की तारीख़ पर क्या पड़ता। लेकिन यहाँ न इस्मत क़लूपतरा है और न मंटो एन्थनी। लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर मंटो और इस्मत की शादी हो जाती तो उस हादिसे का असर अहदे-हाज़िर (वर्तमान) के अफ़सानवी-अदब (कथा-साहित्य) की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता। अफ़साने अफ़साने बन जाते, कहानियाँ मुड़-तुड़ कर पहेलियाँ हो जातीं। इन्शा (लेखन) की छातियों में सारा दूध ख़ुश्क होकर या एक सुफ़ूफ़ (चूर्ण) की शक्ल अख़्तियार कर लेता या भस्म होकर राख बन जाता और ये भी मुमकिन है कि निकाह-नामे पर इनके दस्तख़त इनके क़लम की आख़िरी तहरीर होते, लेकिन सीने पर हाथ रख कर ये भी कौन कह सकता है कि निकाह-नामा होता। ज़्यादा क़रीने-क़यास (सही अनुमान) तो यही होता कि निकाह-नामे पर दोनों अफ़साने लिखते और क़ाज़ी साहब की पेशानी पर दस्तख़त कर देते ताकि सनद रहे। निकाह के दौरान कुछ ऐसी बातें भी हो सकती थीं..
‘‘इस्मत, क़ाज़ी साहब की पेशानी, ऐसा लगता है, तख़्ती है।’’
‘‘क्या कहा ?’’
‘‘तुम्हारे कानों को क्या हो गया है ?’’
‘‘मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ, तुम्हारी आवाज़ हलक़ से बाहर नहीं निकलती।’’
‘‘हद हो गई। लो अब सुनो। मैं ये कह रहा था कि क़ाज़ी साहब की पेशानी बिलकुल तख़्ती से मिलती-जुलती है।’’
‘‘तख़्ती तो बिलकुल सपाट होती है।’’
‘‘ये पेशानी सपाट नहीं ?’’
‘‘तुम सपाट का मतलब भी समझते हो ?’’
‘‘जी नहीं। ’’
‘‘सपाट माथा तुम्हारा है। क़ाज़ी जी का माथा तो...।’’
‘‘बड़ा ख़ूबसूरत है।’’
‘‘ख़ूबसूरत तो है।’’
‘‘तुम महज़ चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘चिड़ा तुम रहे हो मुझे।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘मैं कहती हूँ तुम चिड़ा रहे हो मुझे।’’
‘‘तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘अजी वाह ! तुम तो अभी से शौहर बन बैठे।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूँगा। अगर आपकी बेटी का माथा भी आप ही के माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस मरदूद से शादी नहीं करूँगी। अगर आपकी चार बीवियाँ नहीं तो मुझसे शादी कर लीजिए। मुझे आपका माथा बहुत पसंद है।’’
अगर हम दोनों को शादी का ख़याल आता तो दूसरों को हैरानी-ओ-परेशानी में गुम करने के बजाय हम ख़ुद उसमें गर्क़ हो जाते और जब एकदम चौंकते तो ये हैरानी और परेशानी जहाँ तक में समझता हूँ मुसर्रत (खुशी) के बजाय एक बहुत फ़ुकाहिया (उपहास) में तब्दील हो जाता। इस्मत और मंटो, निकाह और शादी, कितनी मज़्हका-ख़ेज़ (हास्यास्पद) है।
इस्मत लिखती है-
‘‘एक ज़रा-सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, असकरी, यूनिस और न जाने कौन-कौन ताश की गड्डी की तरह फेंट कर बिखेर दिए गए हैं। कोई बताओ, इनमें से चोर पत्ता कौन-सा है ? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज़ आँखें, महमूद के साँपों की तरह रेंगते हुए आज़ा (अंग-प्रत्यंग), असकरी के बेरहम हाथ, यूनिस के निचले होंठ का सियाह तिल, अब्बास की खोई हुई मुस्कुराहटें और हज़ारों चौड़े-चकले, सीने, कुशादा पेशानियाँ, घने-घने बाल, सुडौल-पिंडलियां, मज़बूत बाज़ू, सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के डोरों की तरह उलझ कर रह गए हैं। परेशान हो-होकर इस ढेर को देखती हूँ मगर समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा पकडूँ कि खिंचता ही चला आए और मैं उसके सहारे दूर उफ़ुक़ (क्षितिज) से भी ऊपर एक पतंग की तरह तन जाऊँ।’’
-(छोटी आपा)
मंटो लिखता है-
‘‘मैं सिर्फ़ इतना समझता हूँ कि औरत से इश्क़ करना और ज़मीनें ख़रीदना तुम्हारे लिए एक बात है। सो, तुम मुहब्बत करने के बजाय एक-दो बीघे ज़मीन ख़रीद लो और उस पर सारी उम्र क़ाबिज़ रहो। ज़िंदगी में सिर्फ़ एक औरत और ये दुनिया इस क़दर भरी हुई क्यों है ? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं ? मेरी सुनो और इस ज़िंदगी को, जो कि तुम्हें दी गई है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो। तुम ऐसे गाहक हो जो औरत हासिल करने के लिए सारी उम्र सरमाया (पूँजी) जमा करते रहोगे मगर उसे नाकाफ़ी समझोगे। मैं ऐसा ख़रीददार हूँ जो ज़िंदगी में कई औरतों से सौदे करेगा। तुम ऐसा इश्क़ करना चाहते हो कि उसकी नाकामी पर कोई अदना दर्जे का मुसन्निफ़ एक किताब लिखे, जिसे नरायन दत्त सहगल पीले काग़ज़ों पर छापे और डिब्बी बाज़ार में रद्दी के भाव बेचे। मैं अपनी किताब के तमाम औराक़ (पन्ने) दीमक बनकर चाट जाना चाहता हूँ ताकि उसका कोई निशान बाक़ी न रहे। तुम मुहब्बत में ज़िंदगी चाहते हो, मैं ज़िंदगी में मुहब्बत चाहता हूँ।’’
(तकलीफ़)
इस्मत को अगर जो उलझे हुए सूत के ढेर में से ऐसा सिरा मिल जाता, खींचने पर जो खिंचता ही चला आता और वो उसके सहारे दूर उफ़ुक़ (क्षितिज) से ऊपर एक पतंग की तरह तन जाती और मंटो अगर अपनी किताबे-हयात (जीवन रूपी पुस्तक) के आधे औराक़ भी दीमक बनकर चाटने में कामयाब हो जाता तो आज अदब की तख़्ती पर उनके फ़न के नक़ूश इतने गहरे कभी न होते। वो दूर उफ़ुक़ से भी ऊपर हवा में तनी रहती और मंटो के पेट में उसकी किताबे-हयात के बाक़ी औराक़ भुस की तरह भर के उसके हमदर्द उसे शीशे की अलमारी में बंद कर देते।
‘चोटें के दीबाचे (प्राक्कथन) में कृश्न चंदर ने लिखा है-‘‘इस्मत का नाम आते ही मर्द अफ़साना-निगारों (कहानीकारों) को दौरे पड़ने लगते हैं। शर्मिंदा हो रहे हैं, आप ही आप ख़फ़ीफ़ (तुच्छ) होते जा रहे हैं। ये दीबाचा भी इसी ख़िफ़्फ़त (शर्मिंदगी) को मिटाने का एक नतीजा है।’’
इस्मत के मुतअल्लिक़ (सम्बन्ध में) जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, किसी भी क़िस्म की ख़िफ़्फ़त मिटाने का नतीजा नहीं, बल्कि एक क़र्ज़ था जो सूद की बहुत ही हल्की शर्ह के साथ अदा कर रहा हूँ।
सबसे पहले मैंने इस्मत का कौन-सा अफ़साना पढ़ा था, मुझे बिलकुल याद नहीं। ये सतूर (पंक्तियाँ) लिखने से पहले मैंने हाफ़िजे़ (याददाश्त) को बहुत खुरचा, लेकिन उसने मेरी रहबरी (मार्ग-दर्शन) न की। ऐसा महसूस होता है कि मैं इस्मत के अफ़साने काग़ज़ पर मुंतक़िल (स्थानान्तरित) होने से पहले ही पढ़ चुका था। यही वजह है कि मुझ पर कोई दौरा नहीं पड़ा। लेकिन जब मैंने उसको पहली बार देखा तो मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई।
अडलफ़ी चेम्बर्ज़ कियर रोड मुम्बई के 17 नम्बर फ़्लैट में जहाँ ‘मुसव्विर’ हफ़्तावार (साप्ताहिक) का द़फ्तर था, शाहिद लतीफ़ अपनी बीवी के साथ दाखिल हुआ। ये अगस्त 1942 ई. की बात है। तमाम काँग्रेसी लीडर महात्मा गाँधी समेत गिरफ़्तार हो चुके थे और शहर में काफ़ी गड़बड़ थी। फ़िज़ा सियासियात (राजनीतिक सरगर्मियाँ) में बसी हुई थी। इसीलिए कुछ देर गुफ़्तगू का मौजू (विषय) तहरीके-आज़ादी (स्वतंत्रता-आंदोलन) रहा। उसके बाद रुख़ बदला और अफ़सानवी बातें शुरू हुईं।
एक महीना पहले जबकि मैं आल इंडिया रेडियो देहली में मुलाज़िम था, ‘अदबे-लतीफ़’ में इस्मत का ‘लिहाफ़’ शाया (प्रकाशित) हुआ था। उसे पढ़कर, मुझे याद है, मैंने कृश्न चंदर से कहा था अफ़साना बहुत अच्छा है, लेकिन आख़िरी जुमला (वाक्य) बहुत गैर-सनाआना (कलात्मकता-रहित) है। अहमद नदीम क़ासमी की जगह अगर मैं एडीटर होता तो इसे यक़ीकन हज्फ़ (अलग) कर देता। चुनांचे जब अफ़सानों पर बातें शुरू हुईं तो मैंने इस्मत चुग़ताई से कहा, ‘‘आपका अफ़साना ‘लिहाफ़’ मुझे बहुत पसंद आया। बयान में अल्फा़ज़ को बक़द्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायाँ ख़ुसूसियत (ख़ास ख़ूबी) रही है। लेकिन मुझे तअज्जुब है कि इस अफ़साने के आख़िर में आपने बेकार-सा जुमला लिख दिया।’’ इस्मत ने कहा, ‘‘क्या अजीब है इस जुमले में ?’’
मैं जवाब में कुछ कहने ही वाला था कि मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब (संकोच) नज़र आया, जो आम घरेलू लड़कियों के चेहरे पर नागुफ़्ती (तथाकथित अश्लील) शै का नाम सुनकर नमूदार (प्रकट) हुआ करता है। मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई। इसलिए कि मैं ‘लिहाफ़’ के तमाम जुज़ईयात (पहलुओं) के मुतअल्लिक़ उससे बातें करना चाहता था। जब इस्मत चली गई तो मैंने दिल में कहा, ‘‘ये तो कमबख़्त बिलकुल औरत निकली।’’
मुझे याद है कि मुलाक़ात के दूसरे ही रोज़ मैंने अपनी बीवी को देहली खत लिखा, ‘‘इस्मत से मिला। तुम्हें ये सुनकर हैरत होगी कि वो बिलकुल ऐसी ही औरत है, जैसी कि तुम हो। मेरा मज़ा तो बिलकुल किरकिरा हो गया, लेकिन तुम उसे यक़ीनन पसंद करोगी। मैंने जब उससे ‘लिहाफ़’ का ज़िक्र किया तो नालायक उसका तसव्वुर करते ही झेंप गई।’’
एक असरे बाद मैंने अपने उस पहले रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) पर संजीदगी से ग़ौर किया और मुझे इस अम्र (तथ्य) का शदीद अहसास हुआ कि अपने फ़न की बक़ा (स्थायित्व) के लिए इंजन को अपनी फ़ितरत की हदों में रहना निहायत लाज़िम है। डॉक्टर रशीदजहाँ का फ़न आज कहाँ है, कुछ तो गेसुओं के साथ कट कर अलैहदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठुस होकर रह गया। फ्रांस में जार्ज साँ ने निस्वानियत (नारीत्व) का हसीन मलबूस (सुंदर लिबास) उतार कर तसन्नो (कृत्रिमता) की ज़िंदगी अख़्तियार की। पोलिस्तानी मूसीक़ार (संगीतकार) शो पीस से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने हीरे-मोती ज़रूर पैदा करवाए लेकिन उसका अपना जौहर उसके पेट में दम घुटकर मर गया।
मैंने सोचा औरत जंग के मैदानों में मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने का पहाड़ काटे या अफ़साना-निगारी करते-करते इस्मत चुग़ताई बन जाए लेकिन उसके हाथों में कभी-कभी मेहँदी रचनी ही चाहिए, उसकी बाँहों से चूड़ी की खनक आनी ही चाहिए। मुझे अफ़सोस है जो मैंने उस वक़्त अपने दिल में कहा, ‘‘ये तो कमबख़्त बिलकुल औरत निकली।’’
इस्मत अगर बिलकुल औरत न होती तो उसके मज्मूओं (संग्रहों) में भूल-भुलैया, तिल, लिहाफ़ और गेंदा जैसे नाज़ुक और मुलायम अफ़साने कभी भी नज़र न आते। ये अफ़साने औरत की मुख़्तलिफ़ (विविध) अदायें हैं। साफ, शफ़्फ़ाक (निर्मल) हर क़िस्म के तसन्नो (बनावटीपन) से पाक। ये अदायें वो इश्वे, वो ग़मज़े, (हाव-भाव) नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किए जाते हैं। जिस्म की भौंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई तअल्लुक़ नहीं। इन रूहानी इशारों की मंज़िले-मक़सूद (अभीष्ट लक्ष्य) इंसान का ज़मीर है, जिसके साथ वो औरत ही की अनजानी, अनबूझी मगर मख़मली फ़ितरत लिए बग़लगीर हो जाते हैं।
‘साक़ी में ‘दोज़ख़ी’ छपा। मेरी बहन ने पढ़ा और मुझसे कहा, ‘‘सआदत, ये इस्मत कितनी बेहूदा है। अपने मुन्ने भाई को भी नहीं छोड़ा। कमबख़्त ने कैसी-कैसी फ़िज़ूल बातें लिखी हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘इक़बाल अगर मेरी मौत पर तुम ऐसा ही मज़मून (लेख) लिखने का वादा करो तो ख़ुदा की क़सम मैं आज ही मरने के लिए तैयार हो जाऊँ।’’
शाहजहाँ ने अपनी महबूबा की याद क़ायम रखने के लिए ताजमहल बनवाया। इस्मत ने अपने महबूब (प्यारे) भाई की याद में ‘दोज़ख़ी’ लिखा।
शाहजहाँ ने दूसरों से पत्थर उठवाये, उन्हें तरशवाया और अपनी महबूबा की लाश पर अज़ीमुश्शान इमारत तामीर कराई। इस्मत ने ख़ुद अपने हाथों से अपने ख़्वाहराना (बहन के) ज़ज्बात चुन-चुन कर एक-एक ऊँचा मचान तैयार किया और उस पर नर्म-नर्म हाथों से अपने भाई की लाश रख दी। ताजमहल शाहजहाँ की मुहब्बत का बरहना (नग्न) मरमरीं इश्तिहार मालूम होता है, लेकिन ‘दोज़ख़ी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ़ और हसीन इशारा है। वो जन्नत जो इस मज़्मून (कृति) में आबाद है, उनवान (शीर्षक) उसका इश्तिहार नहीं देता।
मेरी बीवी ने ये मज़्मून पढ़ा तो इस्मत से कहा, ‘‘ये तुमने क्या ख़ुराफ़ात लिखी है।’’
‘‘बको मत, लाओ वो बर्फ़ कहाँ है ?’’
इस्मत को बर्फ़ खाने का शौक़ है। बिलकुल बच्चों की तरह डली हाथ में लिए दाँतों से कटाकट काटती रहती है और उसने अपने कुछ अफ़साने भी बर्फ़ खा-खा कर ही लिखे हैं। चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी है। सामने तकिये पर कॉपी रखी है। एक हाथ में फ़ाउंटेन पेन और दूसरे हाथ में बर्फ़ की डली। रेडियो ऊँचे सुरों में चिल्ला रहा है मगर उसका क़लम और मुँह दोनों खटाखट चल रहे हैं।
इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं। न लिखे तो महीनों गुज़र जाते हैं पर जब दौरा पड़े तो सैकड़ों सफ़हे (पृष्ठ) उसके क़लम के नीचे से गुज़र जाते हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता। बस हर वक़्त चारपाई पर कोहनियों के बल औंधी लेटी अपने टेढ़े-मेढ़े इमला से बेनियाज़ ख़त में काग़ज़ों पर अपने खयालात मुंतक़िल (व्यक्त) करती रहती है।
‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तवील (लम्बा) नॉविल मेरा ख़याल है इस्मत ने सात-आठ नाशिस्तों (बैठकों) में ख़त्म किया था। कृश्न चंदर इस्मत के बयान की रफ़्तार के बारे में लिखता है, ‘‘अफ़सानों के मुताले (अध्ययन) से एक और बात जो ज़हन में आती है वो है घुड़-दौड़ यानी रफ़्तार, हरकत, सुबुक ख़िरामी (मेरा ख़याल है कि इससे कृश्न चंदर की मुराद बर्क़-रफ़्तारी थी) और तेज़गामी। न सिर्फ़ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है बल्कि फ़िक़रे, किनाये (व्यंजना शब्द-शक्ति) और इशारे और आवाज़ें और किरदार और ज़ज्बात और अहसासात (संवेदनाएँ) एक तूफ़ान की-सी बला-ख़ेज़ी के साथ चलते और आगे बढ़ते नज़र आते हैं।’’
इस्मत का क़लम और उसकी ज़ुबान दोनों बहुत तेज़ हैं। लिखना शुरू करेगी तो कई मर्तबा उसका दिमाग़ आगे निकल जाएगा और अल्फ़ाज़ बहुत पीछे हाँफते रह जाएँगे। शेख़ी बघारने की ख़ातिर अगर कभी बावर्ची-ख़ाने चली जाएगी तो मुआमला बिलकुल चौपट हो जाएगा। तबीयत में चूँकि बहुत ही जल्दबाज़ी है, इसलिए आटे का पेड़ा बनाते ही सिकी-सिकाई रोटी की शक्ल देखना शुरू कर देती है। आलू अभी छीले नहीं गए, लेकिन उनका सालन उसके दिमाग़ में पहले ही तैयार हो जाता है। और मेरा ख़याल है बाज़ औक़ात (कई बार) जो बावर्ची-ख़ाने में क़दम रख कर ख़याल-ख़याल में शिकम-सेर (तृप्त) होकर लौट आती होगी। लेकिन इस हद से बडी जल्दबाज़ी के मुकाबले में उसको मैंने बड़े ठंडे इत्मीनान और सुकून के साथ अपनी बच्ची के फ़्रॉक सीते देखा है। उसका क़लम लिखते वक़्त इमला की ग़लतियाँ करता जाता है, लेकिन नन्हीं के फ़्रॉक सीते वक़्त उसकी सुई से हल्की-सी लग्ज़िश (कंपकपाहट) भी नहीं होती। नपे-तुले टाँके होते हैं और मजाल है जो कहीं झोल हो।
‘उफ़ रे बच्चे‘ में इस्मत लिखती है, ‘‘घर क्या है मुहल्ले का मुहल्ला है। मरज फैले वबा1 आये। दुनिया के बच्चे पटापट मरें, मगर क्या मजाल जो हियाँ एक भी टस से मस हो जाए। हर साल माशा-अल्लाह घर हस्पताल बन जाता हैं। सुनते हैं दुनिया में बच्चे भी मरा करते हैं...मरते होंगे, क्या ख़बर ?’’
और पिछले दिनों बंबई में जब उसकी बच्ची सीमा को काली खांसी हुई तो वो रातें जागती थी, हर वक़्त खोई-खोई रहती, ममता माँ बनने के साथ ही कोख से बाहर निकलती है।
इस्मत परले दर्जे की हठ-धरम (ज़िद्दी) है। तबीअत में ज़िद है बिलकुल बच्चों की-सी। ज़िंदगी के किसी नज़रिये को, फ़ितरत के किसी क़ानून को पहले ही साबिक़ा (संबंध/जुड़ाव) में कभी क़ुबूल नहीं करेगी। पहले शादी से इनकार करती रही। जब आमादा हुई तो बीवी बनने से इनकार कर दिया। बीवी बनने पर जूँ-तूँ रजामंद हुई तो माँ बनने से मुन्किर हो गई। तकलीफ़ें उठाएगी, सुऊबतें (यातनाएँ) बर्दाश्त करेगी...मगर ज़िद से कभी बाज़ नहीं आएगी। मैं समझता हूँ ये भी उसका एक तरीक़ा है जिसके ज़रिए वो ज़िंदगी की हकीकतों से दो-चार होकर बल्कि टकरा-टकराकर उनको समझने की कोशिश करती है। उसकी हर बात निराली है। इस्मत के ज़नाना और मर्दाना किरदारों में भी ये अजीबो-ग़रीब ज़िद या इनकार पाया जाता है। मुहब्बत में बुरी तरह मुब्तिला (घिरे हुए) हैं, लेकिन नफ़रत का इज़हार किए चले जा रहे हैं। जी गाल चूमने को चाहता है, लेकिन उसमें सुई घुसो देंगे। प्यार से थपकाना हो तो ऐसी धौल जमाएँगे कि दूसरा बिलबिला उठे। ये वहशियाना क़िस्म की मनफ़ी (नकारात्मक) मुहब्बत जो महज़ एक खेल की सूरत में शुरू होती है, आमतौर पर इस्मत के अफ़सानों में एक निहायत रहम-अंगेज़ (दयनीय) सूरत में अंजाम-पज़ीर (प्रतिफलित) होती है।
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1 महामारी
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