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कविता संग्रह >> हाल-बेहाल

हाल-बेहाल

भारत यायावर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3137
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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भारत यायावर का अनूठा कविता संग्रह

Hal-Behal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सन्धया के लिए
मेरी हथेली नहीं फेली मेरी आंखों ने कुछ नहीं माँगा मेरे जीवन में कुछ नहीं माँगा मेरे जीवन में कुछ अभाव था तूने महसूस किया भर किया मुझमें इतना कुछ वह प्रेम ही था या और कुछ...

भारत यायावर

रचना-प्रक्रिया


मन के सिरहाने
सजा कर रखी है कितनी किताबें !
कमरे में एक पतली मोमबत्ती
पीले प्रकाश में
पिघल रही है
धीरे-धीरे
मेरे चेहरे पर
रोशनी की तिरछी लकीरें
मेरी आँखें जल रही हैं
तीव्र आवेग में
इसी समय
प्रवेश करती है-
एक काली छाया
खुले हुए बाल
धरती में लोट-पोट
उसका चेहरा नहीं दीखता
मैं उठ कर बैठ जाता हूँ
आँखों पर जोर देकर देखता हूँ
कौन है वह ?
मुझे जीवनानंद दास की एक कविता
याद आती है और
मन के सिरहाने रखी
पुस्तकों के पन्ने खुल कर
फड़फ़ड़ाने लगते हैं
एक गहरी खामोशी है
बाहर और भीतर
एक भी शब्द
कहीं झंकृत नहीं होता
एक भी ध्वनि
कहीं नहीं होती
सिर्फ एक गहरी खामोशी है
बाहर और भीतर
कौन है वह ?’
कोई भीतर से चीख कर पूछता है
पर होंठ
सिर्फ हिल कर रह जाते हैं
और ऐसे में
बुझ जाती है मोमबत्ती
लुप्त हो जाता है
जीर्ण पीला प्रकाश

उठता हूँ और
बाहर की ओर चलता हूँ
एक धुँधली वीरानगी से
लिपटे खड़े हैं पेड़
रास्ते जाने पहचाने हैं
फिर भी अजनबी !
किसके घर जाऊँ ?
 किसे जगाऊँ ?
 इस मध्य रात्रि में
छटपटाती हुई आत्मा लिये।
कौन मेरी व्याकुलता भरी पुकार पर
दौड़ा आएगा ?

अजीब सी कश्म-कश
अजीब-सी रात
अजीबो-गरीब है यह मनोदशा
और यह दुनिया
एक स्वप्न-सा लगता है
यह चलना फिरना
अपने-आप पर रोना
और हँसना
सभी कर्म- कुकर्म करना
फिर रात भर इस तरह
खुद का धीरे-धीरे खुलना
अपने को इतनी भिन्न
आकृतियों में पाना
आश्चर्य !
 
मैं लौट आता हूँ कमरे में पड़ जाता हूं फिर बिस्तर पर अँधेरे में अब साफ-साफ पहचान पा रहा हूँ
अपनी ही आकृति जो जितनी ही जानी पहचानी है
उतनी ही अजनबी उस अजनबी से
आत्मीय होने के लिए
कविताएँ लिखता हूँ
लिखता ही रहता हूँ

(1990)


कितनी सड़कों पर कितने लोग



अब क्या होगा ?
बहुत थोड़ी जमा पूँजी थी
और वह भी चुक गई थी
खाली पेट मैं घर से निकलता
और बिना कुछ पाए लौट आता
अब क्या होगा ?
किस तरह कटेगी अपनी ?
लगातार आँखों के सामने
कौंधते अँधेर में
कौंधता यह प्रश्न !

भूख भयानक दुधारी तलवार है
जो धुँपी हुई थी मेरे पेट में
हाथ हवा में नहीं उठते
पेट की ओर मुड़ते
आक्रोश जो अभाव का तेज था
चुक गया था
सिर्फ एक प्रश्न रह-रह कर उठता
अब क्या होगा ?

ऐसे दुर्दिन में पूरा घर एक था
बिखराब की एक भी सिकुड़न नहीं थी
सिर्फ गाड़ी रुकी हुई थी
और भीषण उमस में सबका शरीर भींग रहा था
अब यह घर की गाड़ी कैसे चले ?
 गाड़ी चले तो थोड़ी हवा लगे
कैसे आए घर में दाना ?

ये कोई अकाल के दिन नहीं थे
देश में हरित क्रांति हो चुकी थी
हम पूँजीवादी दौर में
दो कदम चल चुके थे
शहरों का मायानगरी में
परिवर्तन हो चुका था
मैं दफ्तरों में भटकता थक चुका था।
मेरी डिग्रियाँ जेब में मुड़ी-तुड़ी फट चुकी थीं
भूख, गरीबी और तंगहाली में
कविताओं का भरोसा था
वे इतनी सीधी सपाट और नीरस थीं
कि हर जगह से अस्वीकृत थीं
कहीं कोई सहारा नहीं था
एक बनते हुए मकान में
कुछ दिन मजदूरी कर
जो जमा पूँजी बनाई थी
वह भी देखते ही चुक गई थी
कहीं कोई काम नहीं था और लाचार था
भूख ने मेरे इतने टुकड़े कर दिए थे
फिर भी जीने की इच्छा मरी नहीं थी
और यह-प्रश्न अब क्या होगा ?

हे रोटी !
तुम्हारी ही तलाश में भटकता था
और भटकता था
और एक दिन
कितनी ही अनजान सड़कों से गुजरता हुआ



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