श्रंगार - प्रेम >> कामयोगी कामयोगीसुधीर कक्कड़
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‘कामसूत्र’ के रचयिता वात्स्यायन के जीवन और उनके दौर को बुनती एक पठनीय पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
काल : चौथी सदी, भारत का स्वर्णयुग। स्थान : वाराणसी के बाहर जंगलों में बना
एक आश्रम। ‘कामसूत्र’ के रचयिता वात्स्यायन हर सुबह अपने एक
युवा शिष्य को अपने बचपन और युवावस्था की कहानियाँ सुनाते हैं। यह शिष्य
इस महान ऋषि की जीवनी लिखना चाहता है। वात्स्यायन के जीवन के बारे में
बहुत कम जानकारियाँ उपलब्ध हैं। वह युवा अध्येता इन जानकारियों को अपने
मस्तिष्क में दर्ज करता जाता है। साथ ही कामसूत्र के उन प्रासंगिक श्लोकों
को भी उनमें गूँथता जाता है, जिन्हें उसने कंठस्थ कर लिया।
जो कथा उभरती है, वह अद्भुत है। वात्स्यायन की माँ अवंतिका और मौसी चंद्रिका कौशाम्बी के एक वेश्यालय में प्रसिद्ध गणिकाएँ हैं। उनसे और उनके विभिन्न प्रेमियों से वात्स्यायन कामकलाओं की पहली छवियाँ देखते हैं, जो उनके मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं। कक्कड़ अपनी विशिष्ट सूक्ष्म दृष्टि से इस कथा के उन अनगिनत पात्रों के मन की गहराइयों तक पहुँचते हैं, जो अपनी यौन पहचान पाने के विभिन्न चरणों से गुजर रहे हैं। इस तरह वासना और कामुकता का सशक्त आख्यान आकार लेता है, जिसमें प्राचीन कला का सम्मोहन भी है और आश्चर्यजनक विसंगतियाँ भी।
सुधीर कक्कड़ ने वात्स्यायन के ग्रंथ के उद्धरणों का उपयोग करते हुए उनके जीवन और उनके दौर को बुना है...ऐसा करते हुए उन्होंने मनोविश्लेषणात्मक तकनीक, कल्पनाशीलता और उल्लासपूर्ण गद्य का इस्तेमाल करते हुए अनूठे शिल्प का प्रयोग किया है...अद्भुत रूप से पठनीय पुस्तक...
जो कथा उभरती है, वह अद्भुत है। वात्स्यायन की माँ अवंतिका और मौसी चंद्रिका कौशाम्बी के एक वेश्यालय में प्रसिद्ध गणिकाएँ हैं। उनसे और उनके विभिन्न प्रेमियों से वात्स्यायन कामकलाओं की पहली छवियाँ देखते हैं, जो उनके मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं। कक्कड़ अपनी विशिष्ट सूक्ष्म दृष्टि से इस कथा के उन अनगिनत पात्रों के मन की गहराइयों तक पहुँचते हैं, जो अपनी यौन पहचान पाने के विभिन्न चरणों से गुजर रहे हैं। इस तरह वासना और कामुकता का सशक्त आख्यान आकार लेता है, जिसमें प्राचीन कला का सम्मोहन भी है और आश्चर्यजनक विसंगतियाँ भी।
सुधीर कक्कड़ ने वात्स्यायन के ग्रंथ के उद्धरणों का उपयोग करते हुए उनके जीवन और उनके दौर को बुना है...ऐसा करते हुए उन्होंने मनोविश्लेषणात्मक तकनीक, कल्पनाशीलता और उल्लासपूर्ण गद्य का इस्तेमाल करते हुए अनूठे शिल्प का प्रयोग किया है...अद्भुत रूप से पठनीय पुस्तक...
खुशवंत सिंह
उत्तर-आधुनिक कथा विधा जबकि पुराने पाठ को फिर से लिखने की कोशिश कर रही है, कक्कड़ की पुस्तक उसे समाहित करने का प्रयास करती है। इसीलिए, ‘कामसूत्र’ के बारे में कुछ नहीं जानने के बावजूद इस पुस्तक का आनंद उठाया जा सकता है।
बिब्लयो
लेखकीय
‘कामसूत्र’ के रचयिता वात्स्यायन के विषय में हम केवल इतना
जानते हैं कि वह वर्तमान युग की पहली और छठी शताब्दी के बीच उत्तर भारत
में कहीं हुए थे। इस प्रकार उनका जीवन और काल गुप्तकाल से जुड़ता है जिसे
कला, साहित्य और विज्ञान की उपलब्धियों, तथा एक शिष्ट व सांस्कृतिक जीवन
के विकास के लिए भारतीय इतिहास के ‘स्वर्ण युग’ के रूप में
जाना जाता है।
एक
सदाचरण का क्या लाभ, जबकि
उसके फल इतने अनिश्चित हों ?
उसके फल इतने अनिश्चित हों ?
कामसूत्र 1.2.21
जब कभी मैं सड़कों पर या नदी किनारे चहलकदमी करती वेश्याओं के किसी झुंड
के पास से गुजरता हूँ, उलझन-भरे अनेक भाववेगों से भर उठता हूँ, उनका कुल
असर यह होता है कि मैं घबरा उठता हूँ। मुझे लगता हैं कि मैं उनकी चमकदार
त्वचा, चमेली के गजरों के साथ गूँथकर बनाए गए ऊँचे जूड़ों और लहरों की तरह
मचलती हुई उनकी काया को घूरने से खुद को रोक नहीं पाऊँगा। और न ही उनके
गर्वोन्नत स्तनों को मुट्ठी में भरने या नितंबों को सहलाने के प्रबल
आकर्षण से अपने को बचा सकूँगा। जैसे-जैसे उनसे दूर जाता हूँ, उलझन और शर्म
के मिले-जुले भावों से भर उठता हूँ। मेरे कान की लवें दहकने लगती हैं,
गरदन में झुरझुरी-सी उठती है, और मैं सहम जाता हूँ कि वे मेरी लज्जाजनक
लालसा को भाँपकर अभी ठहाका लगा देंगी। मुझे स्त्रियों से आक्रांत होना
बुरा लगता है। मैं अपनी इन्द्रियों पर पड़नेवाले उनके अनाहूत प्रभावों से
घृणा करता हूँ। उनके कारण अपने अंदर उठनेवाली उत्तेजना की लहरों के प्रति
मैं विक्षोभ से भर उठता हूँ। अपने स्फुरण को उनसे छिपाने के लिए मैं अपने
उत्तेजित शिश्न को गुपचुप ढंग से, अपनी कमर से बँधे कंचुक में दबा देने की
जरूरत महसूस करता हूँ। अतृप्त आकांक्षा की पीड़ा से भर उठने के साथ-साथ
मुझे इस बात पर क्रोध भी आता है कि ऐसी तीव्र अनुभूति का स्रोत्र, मेरा यह
अंग मुझसे अधिक उनसे जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। मैं विस्मय करने लगता हूँ
कि मेरी उम्र के अधिकांश युवा भी क्या ऐसा ही अनुभव करते हैं।
मेरे दोस्त चतुरसेन ने मुझे अपने साथ एक वेश्यालय चलने के लिए तैयार किया, ताकि वह मेरी कुछ मदद कर सके। उसने मुझे आश्वस्त किया कि कुँआरों की हिचक को दूर करने में सक्षम और चौंसठ कलाओं में निपुण कोई वेश्या युवतियों के प्रति मेरे भय को दूर कर देगी। लेकिन वेश्या के यहाँ का परिणाम निराशाजनक ही रहा। पहली बात यह कि मैं उस स्थान के वैभव से भयभीत हो गया था। चतुरसेन ने उस संध्या के हमारे मनोरंजन के लिए नगर के सर्वश्रेष्ठ वेश्यालयों में से एक को चुना था। गरमियों में उनकी दरें घट जाती हैं, फिर भी उसे इसके लिए एक पूरी स्वर्णमुद्रा खर्च करनी पड़ी थी। उद्यान में कमल के फूलों से भरा कलात्मक तालाब और फव्वारे, बरामदों में टँगे पक्षियों के रूपहले पिंजरे, कमरों में लगे रेशमी परदे और फर्श पर बिछे मखमली गलीचे किसी गरीब ब्राह्मण छात्र को हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त थे। लेकिन भीतर तक मैं जिनसे काँप उठा वे स्त्रियाँ ही थीं। उनके सौंदर्य में श्रृंगार और नैसर्गिकता का चमत्कृत कर देनेवाला मेल था। गरमियों में पहने जानेवाले झीने सूती परिधानों से अपनी मादक काया का एहसास कराती स्त्रियों ने फूलों के इत्र और नारी-स्वेद की मादक गंध से युक्त अपनी कोमल उपस्थिति मात्र से मेरी इंद्रियों को वशीभूत कर लिया था।
मेरा ध्यान मोल-भाव करते चतुरसेन पर नहीं था। उसने एक स्त्री को फुसफुसाते हुए कुछ निर्देश दिया और वह अपने झुंड से निकलकर मेरी ओर आई। उसकी पलकें झुकी हुई थी। शर्मीली मुसकान के साथ उसने मुझे चमेली के फूलों की एक माला दी और अपने साथ आने के लिए कहा। उसके लहजे से यही लग रहा था कि वह बड़े यत्नपूर्वक सम्मान का भाव प्रदर्शित कर रही थी।
अपने कमरे की तरफ ले जाते हुए उसने अत्यंत नरम लहजे में मेरा हाल-चाल पूछा। सिर्फ हाँ-ना में दिए गए मेरे जवाबों से वह कतई असंतुष्ट नहीं दिखी। कमरे में प्रवेश करने से पहले वह मुझे रास्ता देने के लिए एक ओर हट गई। उसने कहा, ‘‘मैं हमेशा आपके कहे मुताबिक करूँगी।’’ इसके बाद पहली बार कुछ कामुक हाव-भाव दिखाते हुए उसने कहा, ‘‘मैं वही करूँगी जो आप चाहेंगे।’’ फिर हमने कामक्रीड़ा के लिए वेश्यालय द्वारा उपलब्ध कराए गए वस्त्र पहन लिये और बिस्तर पर लेट गए। इसके बाद सुपारी पेश करने की परंपरागत उत्तेजक प्रथा भी उसने कुछ ऐसे संकोच के साथ निभाई कि मैं तनावमुक्त होता गया। अब मैं यह महसूस करता हूँ कि उसका संकोच तो बस एक दिखावा था। उस समय यह बात जानते हुए भी मैं अपने आपसे छिपा गया था। उसकी शिथिल दृष्टि और उसके कोमल शब्द अलग-अलग तरह के प्रेमियों के लिए तैयार किए गए काम-बाण सरीखे थे, जो मुझ-जैसे आत्मसंशयी शिकार के लिए काफी थे।
वह अपने मकसद में सफल हुई। उस रात जो कुछ होनेवाला था, उसके लिए मैं पर्याप्त तनावमुक्त और शांत हो चुका था। अंतत: उसने मुझसे दीया बुझाने को कहा। फिर मेरे हाथों को अपने होथों में लेकर सहलाते हुए उसने कहा, ‘‘मैं केवल अँधेरे में अपने वस्त्र उतार सकती हूँ।’’ मेरे हाथों को उसने अपने घाघरे के बंद खोलने और गले का हार और बाजूबंद उतारने में लगा दिया। वह पूरी तरह निर्वसन होकर बिस्तर पर लेट गई थी। उसके बदन पर उस समय चाँदी के छोटे-छोटे घुँघरुओंवाली पायल के सिवा और कुछ नहीं था। सिसकियों और घुँघरुओं की मिली-जुली ध्वनियों के बीच चीत्कार करती मेरी इंद्रियों ने मुझे स्पर्श-सुख के उस उत्तेजक महोत्सव में धकेल दिया, जो अब तक मेरे लिए अनजाना था। मैंने उसके बालों को छुआ, उसकी पलकों को चूमा, उसके कंधों को सहलाया और उसकी पलकों को फिर चूमा। मेरे होंठ और हाथ उसके चेहरे पर ऊपर-नीचे फिसलते रहे। लेकिन वे उसके गले के नीचे की घाटियों में उतरने का साहस न कर सके। मेरा समर्पण अधूरा था। मैं अपनी समस्त उत्तेजना के बावजूद अपने शरीर के निचले भाग को गद्दे के साथ मजबूती से चिपकाए रखना नहीं भूला था। अपने सीने पर उसके उरोजों की दबाव की अनदेखी का बहाना करने के बावजूद मैं इस बात के लिए भी सचेत था कि मेरा उत्तेजित शिश्न कहीं उसकी कमर या जाँघों से असावधानीवश टकराकर मेरे असुविधाजनक पौरुष की पोल न खोल दे।
तभी उस स्त्री ने तय किया कि वह मेरे आत्मसंशय को और बढ़ावा नहीं देगी। उसने मेरे हाथों को उठाकर अपने गोल और कठोर कुचों पर रख लिया। अपने शिश्न की उत्तेजना को छिपाने के साथ-साथ मेरे सामने यह दूसरी समस्या आ खड़ी हुई कि अब मैं उसके इन रसीले कुचों का क्या करूँ। इस दुविधा से उभरने के लिए मैंने उन्हें चूसना शुरू कर दिया। वह हर्षविभोर हो उठी। मैं आगे कुछ करने का साहस जुटा सकूँ, इसकी प्रतीक्षा करने की बजाय वह अपनी उपेक्षाओं के साथ उग्र हो उठी। अपने एक हाथ को मेरे शिश्न को सख्ती से पकड़कर दूसरे से वह मेरे एक हाथ को अपनी जाँघों के बीच ले गई। वहाँ अजीब प्रकार का गरम-गरम-सा गीलापन पाकर चौंकने के बावजूद मैं घबराया नहीं। हालाँकि मैं बिलकुल नहीं समझ पा रहा था कि वह क्या है। क्या उसने मारे उत्तेजना के पेशाब कर दिया है ? ऐसा नहीं लगा, क्योंकि उसकी जाँघों के अंदर फैले उस लिसलिसे पदार्थ की चिकनाई पानी जैसी न होकर तेल जैसी थी। क्या स्नान करते समय उसने अपनी जाँघों में तेल लगाया था ? एक पल को मुझे लगा कि अपनी घटिया कामुकता के आवेश में मैंने उसे घायल कर दिया है और यह उसी से बहनेवाला खून है।
मेरी हिचकिचाहट से धैर्य खोकर अंतत: उसी ने कमान सँभाली। उसने झटके से मुझे अपने ऊपर खींचा और मेरे शिश्न को अपने अंदर करा दिया । मैं यह देखकर दंग रह गया कि अंदर जाते ही यह स्खलित होकर बाहर निकल आया, मानो इसे वहाँ से बलपूर्वक निष्कासित कर दिया गया हो। उसकी जाँघों के बीच उगे बालों पर अशक्त पड़ा यह राल टपकने लगा। वह खामोश थी, मगर लंबी साँसें ले रही थी। मेरी बंद आँखों के सामने, छलाँग लगाने के लिए बदन सिकोड़ शेरनी का बिंब आ गया। धीरे-धीरे उसकी साँसें सामान्य हुईं और घबराहट के मारे जकड़-सी गईं। मेरे पेट की पेशियाँ भी ढीली पड़ गईं। चौंसठ कलाओं में उसकी दीक्षा यहाँ काम आई।
‘‘तुम्हारे अंदर बहुत ताकत है। मेरे पूरे बदन पर नाखूनों के निशान पड़ गए हैं।’’ उसने शोखी-भरे अंदाज में कहा।
‘‘मैं शर्मिंदा हूँ।’’ अभी तक स्तब्ध मैं फुसफुसाया।
‘‘चिंता मत करो। स्त्री को इन्हीं चीजों से सुख मिलता है। प्यार करते समय उसके अंदर मांसल लिंग डाल देना ही सब कुछ नहीं होता।’’
उस स्त्री को मैं वेश्या नहीं कहना चाहता। उसका नाम लेना चाहता हूँ, मगर अफसोस है कि अपनी शुरुआती हड़बड़ी के चलते मैं उसका नाम याद न रख सका। वह किसी पुरुष की मन:स्थितियों की बारीकियों के प्रति बेहद संवेदनशील थी, जिन्हें शायद भाषा की सूक्ष्मताएँ भी व्यक्त न कर पाएँ।
इसके बाद हम लोगों ने स्नान किया और वस्त्र पहने। उसने मुझे बारजे पर बैठने और चाँद को देखने के लिए आमंत्रित किया। गरमी के मौसम में, विशेषकर पूर्णमासी की रातों में सहवास के बाद इसका प्रचलन था। बारजे के एक किनारे पतले तोशक पर गोलमटोल और मुलायम तकिए का सहारा लेकर बैठे हुए मैंने परंपरागत रूप से प्रचलित पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन किया। एक दासी द्वारा लाए गए ये पदार्थ थे: मांस का ठण्डा शोरबा, भुना हुआ मांस, इमली के कटे हुए टुकड़ों के साथ गन्ने का रस और मिस्त्री की डली के साथ छिलका और बीज हटाकर निकाले गए नींबू का शर्बत।
बारजे के दूसरे हिस्सों से बातचीत की धीमी आवाजें आ रही थीं, जहाँ दो वेश्याएँ अपने ग्राहकों का इसी प्रकार मनोरंजन कर रही थी, जबकि मेरे नथुनों में उसके बालों की मीठी खुशबू समाती जा रही थी।
‘‘वह अरुंधती है जिसे देखना कठिन है, लेकिन कहा जाता है कि अगर कोई उसे नहीं देख पाता तो छ: महीने के अंदर उसकी मृत्यु हो जाएगी। वह अटल तारा ध्रुव है। अगर तुम उसे दिन में देख लो तो तुम्हारे सारे पाप धुल जाएँगे। और देखो, उधर सप्तर्षि-मंडल है।’’
मैं पूरी एकाग्रता के बिना यह सब सुन रहा था। मैं जानता था कि मैं उसे संतुष्ट कर पाने में असफल रहा हूँ। मुझे यह जानने की उत्सुकता हो रही थी कि जब हम बिस्तर में गुँथे हुए थे तब उसने क्या महसूस किया था। एक स्त्री की आनंदानुभूति कैसी होती है, जिसे मुझे उसको प्रदान करना चाहिए था ?
मैं उस समय बमुश्किल इक्कीस वर्ष का था, लेकिन धर्म दर्शन की अपनी शिक्षा पूरी करके घर लौटने के बाद गुजरे पिछले एक वर्ष में कभी अपने को बिलकुल बच्चे जैसा महसूस करता तो कभी पुनर्यौवन की किसी भी संभावना से परे जर्जर बूढ़े जैसा। आश्रम के अंतिम वर्ष में वेदों के अध्ययन के प्रति अपने अधैर्य को मैंने उत्तरोत्तर बढ़ता पाया। वास्तव में मैं हृदय से उनकी उपेक्षा करता था, हालाँकि मैं जानता हूँ कि धर्मदर्शन के अध्ययन से मेर अंदर श्रेष्ठता का अहं इस कदर पैठ गया था कि मैं उपयोगी कलाओं, विशेषकर कामोद्दीपक कलाओं के अध्ययन को तुच्छ समझने लगा था। यह दंभी प्रवृत्ति दूसरे विद्यार्थियों में हो या खुद़ मेरे अंदर, मैं उसे नापसंद करता हूँ। दरअसल, चतुरसेन से मेरी मित्रता भी कुछ हद तक, इसी असंतोष की वजह से हुई। वह एक व्यापारी का पुत्र था। उसमें धनार्जन की भूख तो अत्यल्प थी लेकिन काव्य और कला में गहरी रुचि थी। मैं विद्वान ब्राह्मण का पुत्र था, जो विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा था।
मैं अपने बौद्धिक उत्तराधिकार और साधक की पूर्वनिर्धारित जीवन-शैली के बोझ को ऐंद्रिय सुखों के हिचक-भरे उद्घाटन से हल्का करना चाहता था। मैं जो बनने की कोशिश कर रहा था, उसकी स्वाभाविक प्रतिभा मुझमें नहीं थी। मेरे अंतर में जो अवहेलना का भाव था वह मेरे अत्यंत कष्टदायक रूप से उचित मुखौटे को भेद नहीं पाता था। मेरी प्राय: उभर आनेवाली स्वत:स्फूर्तता और अतिरेकोन्मुख आवेग भी मेरी बनावटी चाल-ढाल तथा रूखी और आडंबरयुक्त वक्तृता में कोई गिरावट न ला सके। जब चतुरसेन ने अपने अन्य मित्रों से मेरा परिचय एक कवि के रूप में कराया तो मैं चौंक गया। वैसे, मैं जानता था कि यदि साहित्यिक प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के रूप में मेरा परिचय कराया जाए तो अच्छा लगेगा, भले ही मैंने कभी कुछ लिखा न हो। मैं जानता था कि किसी व्यक्ति के लिए कवि से बढ़कर कोई दूसरा विशेषण नहीं हो सकता। तभी तो राजे-महाराजे तक इस उपाधि की आकांक्षा रखते हैं। लेकिन मैं साहित्यिक जीवन में मिलनेवाले सम्मान की आकांक्षा नहीं रखता था और इस जीवन को शुरू करने से पहले ही खत्म कर दिया था। मैं यह निश्चय किया कि मुझे साहित्यिक कृतियों का उत्पादक बनने के बजाय उनका उपभोक्ता बनना है।
मेरे पिता राजपुरोहित के प्रमुख सहायक थे। स्वभावत: वे चाहते थे कि मैं उनके पदचिह्नों पर चलूँ। सभी अनुष्ठानों की सूक्ष्मताओं के साथ-साथ मैं उन्हें सम्पन्न कराने की सही विधियाँ सीख लूँ और इस प्रकार उन चीजों का व्यवहार में लागू कर सकूँ जिनका मैंने केवल सिद्धांत में अध्ययन किया है। राजपुरोहित की कोई संतान न होने के कारण एक-न-एक दिन मुझे राज-दरबार में उनका स्थान प्राप्त होने की भी संभावना थी। मेरे पिता कल्पना किया करते थे कि एक दिन मैं राज्य के महत्त्वपूर्ण लोगों में सबसे अगली पाँत में हूँगा। जैसे, पुरोहित के रूप में मैं राजकुमारों को शिक्षा दूँगा, सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही मामलों में राजा को परामर्श दूँगा, राजा की अनुपस्थिति में महल के प्रशासन का संचालन करूँगा और शतरंज तथा द्यूत क्रीड़ा में राजा का प्रतिद्वंद्वी होने का गौरव प्राप्त करूँगा।
यद्यपि मैंने उनकी योजना में दिलचस्पी दिखाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन मेरे पिता मेरी अरुचि को भाँप गए। उनकी निराशा स्पष्ट थी और वह मुझ पर बहुत भारी पड़ी। ऐसा नहीं था कि मैंने प्रयास नहीं किया। कुछ हफ्तों तक मैं उनके साथ प्रतिदिन राजमहल जाता था और अनुष्ठान विशेषज्ञों के लिए आरक्षित कमरों में काम करता था। वहाँ भारी संख्या में होनेवाले अनुष्ठानों की तैयारी में मैं उनकी मदद करता था। उन अनुष्ठानों में राजपुरोहित और मेरे पिता के अतिरिक्त छह सहायक प्रात:काल से देर शाम तक व्यस्त रहते। राजा, तीन रानियों और उनके ग्यारह बच्चों के लिए अनेक मंत्रों पर आधारित अनुष्ठान होते थे। उत्सवों के अवसर पर दरबारी अनुष्ठानों के अतिरिक्त विभिन्न मौसम में पूजे जानेवाले देवताओं को नैवेद्य अर्पित करने के लिए जन-समारोह होते थे, जिनका नेतृत्व स्वयं राजा करता था।
अपने पिता के पेशे में बहुत कम समय तक रहने के कारण मैं सबसे पवित्र अवसरों पर, जैसे राजा के युद्ध में जाने, युवराज्याभिषेक और अश्वमेध के समय किए जानेवाले अनुष्ठानों से वंचित रह गया। मैंने दूर्वादल की गुणवत्ता पहचानना और विभिन्न आहुतियों के अनुरूप सही प्रकार के कमल, चावल, रोटी, घी और बुने हुए अन्न जैसी सामग्रियों का चयन करना सीख लिया था। कमल का रंग, अन्न के प्रकार, मालपुए में पड़नेवाली चीजें, और घी की चिकनाई अनुष्ठान और उसमें पूजे जानेवाले देवी-देवताओं पर निर्भर होते थे। शिशु के अन्नप्राशन के अवसर पर अग्नि देवता और वाग्देवी को अर्पित किए जानेवाले पदार्थ अलग होते थे और बच्चे के विद्यारंभ के अवसर पर विघ्नविनाशक गणेश, देवताओं के गुरु बृहस्पति और ज्ञान, संगीत और काव्य की देवी सरस्वती को अर्पित किए जानेवाले पदार्थ अलग। दैनिक, मौसमी और वार्षिक अनुष्ठानों में गंगा का पानी अन्य पवित्र नदियों, समुद्र, कुओं और तालाबों के पानी में मिलाया जाता था। पानी के स्रोत्र की विशिष्टता और सही अनुपात का पूरे विस्तार से वर्णन होता था और उन्हें याद रखना पड़ता था।
बहरहाल, इन गतिविधियों में मैं दक्ष न हो सका। इसी तरह, अपने पिता के छोटे भाई, जो वाराणसी को जाने-माने ज्योतिष थे, के साथ कुछ दिन काम करने का मेरा अनुभव भी इसी तरह असंतोषजनक रहा। वे जन्म-कुंडलियों में गणना के लिए जो रेखाकृतियाँ बनाते थे, उनमें रंग भरना तो मैं सीख गया लेकिन मेरी आत्मा और उस परिवेश के बीच की आंतरिक दूरी बढ़ती गई। मुझे यह जीवन अपने ऊपर थोपा हुआ लगता था। मैं उसे सहजतापूर्वक जी नहीं पाता था। मैं किसी दिन उन चीजों के प्रति आकस्मिक उत्तेजना से भर उठता था, जो अनायास मेरा ध्यान आकर्षित कर लेती थीं। अपरिचितों से मिलने और अधकचरी योजनाओं को पूरा करने की उत्कंठा मुझे घेर लेती, जबकि शेष दिनों में ऐसा लगता था कि समय जैसा आयाम कोई मेरे अस्तित्व में शामिल ही नहीं है। कुछ हफ्तों तक मैं दिन-रात, अंधा होने की हद तक पढ़ता रहा, हालाँकि पढ़ाई पर न तो मैं ध्यान केन्द्रित कर पाता था और न ही कुछ याद रख पाता था। रात को बिस्तर में जाकर सो रहना मुझे मुश्किल जान पड़ता था, लेकिन सुबह उठना या जागने की संभावना का सामना करना भी कुछ आसान न था।
अकेलेपन की इस अंतहीन पीड़ा ने मुझे पूर्वजों के समय से चली आ रही पारिवारिक उपेक्षाओं के बंधन को तोड़ने के लिए बाध्य किया। मैं अपना अधिक से अधिक समय चतुरसेन और उसके मित्रों के साथ बिताने लगा। वे मौज-मजे और जवानी के उल्लास से भरे हुए उदार लोग थे। उन्होंने बिना किसी हीला-हवाला के मुझे अपने साथ शामिल कर लिया। यहाँ तक कि मेरे अध्ययन को श्रेष्ठ मानते हुए भी वे उससे असहमत होने लगे। आनन्द की अकुंठ तलाश को समर्पित उनका अधिकांश जीवन किसी प्रकार की आत्म-समीक्षा से मुक्त था। वे मेरी परेशानियों से मुझे छुटकारा तो न दिला सके, लेकिन उन्होंने कुछ समय के लिए उन्हें शांत अवश्य कर दिया; यद्यपि बाद में मैंने फिर अपने आपको बेचैन पाया।
इसी बीच, जब मेरे दोस्त चतुरसेन ने मुझसे कहा कि वात्स्यायन मुनि नदी के उस पार सप्तपर्णी आश्रम में निवास करने के लिए पधारे हैं और हमें उनसे मिलने के लिए वहाँ चलना चाहिए, तो मैं तुरंत तैयार हो गया। स्त्रियों को लेकर मेरे मन में उठने वाले संशयों के अलावा मुझे अपनी इस व्याकुल करनेवाली जिज्ञासा के समाधान की भी आशा थी कि वात्स्यायन जैसे व्यक्ति ने ऐश्वर्य और प्रभुत्व के जीवन को छोड़कर पेड़ की छाल से आच्छादित और प्राय: दुर्गंधित आश्रम में रहने का निर्णय क्यों किया।
मध्यवर्ती राज्यों या यूँ कहें कि पूरे गुप्त साम्राज्य में कोई व्यक्ति अगर स्त्रियों के सुख की प्रकृति और उनकी अपेक्षाओं की जटिलता के बारे में जानता था, तो वह वात्स्यायन थे। मैं यह सुनकर हैरान रह गया कि उन्होंने वाराणसी आने और यहाँ के एक गुमनाम-से आश्रमों में रहने का फैसला किया है। मैं कौशाम्बी की राज्यसभा में उनकी सम्मानजनक हैसियत और राजा उदयन तथा रानियों पर उनके जबरदस्त प्रभाव के बारे में जानता था। हमने ये अफवाहें सुनी थीं कि वात्स्यायन तपस्वी हैं, और उनका किसी स्त्री से कभी कोई रिश्ता नहीं रहा।
व्यापक तौर पर यह मान्यता थी कि काम के बारे में उनका ज्ञान उनके वर्षों के कठोर आत्मसंयम और दीर्घ अवधियों की समाधि का परिणाम है। कौशाम्बी में यह भोला विश्वास प्रचलित था कि उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ देवी रति के लिखवाने पर पूरा किया है। वह उनसे इतनी प्रभावित हो गई थीं कि उन्होंने अपने पति, प्रेम के देवता काम द्वारा प्रदत्त गुप्त ज्ञान को उनके सामने प्रकट कर दिया था। यह अफवाह निश्चय ही बकवास है। किसी ग्रंथ की प्रमाणिकता दैवी वरदान, लेखक की प्रसिद्धि या उसमें दी गई सूचनाओं की मात्रा से नहीं स्थापित होती बल्कि उसका कारण होता है- लेखक का अपने विषय में गहरा जुड़ाव, जो कृति में हजारों तरह से प्रतिबिंबित होता है। ‘कामसूत्र’ की खूबियाँ और खामियाँ, जिन पर हर तरह के विद्वानों ने तीखी बहस की है, चाहे जो हो, पर काम-जीवन से वात्स्यायन की अंतरंगता निर्विवाद है।
अपनी महान लोकप्रियता के बावजूद ‘कामसूत्र’ सभी जातियों को दी जानेवाली शिक्षा की पाठ्यपुस्तक नहीं बन सका था। कामशास्त्र पर लिखी गई बभ्रु की प्राचीन कृति ही अब भी स्तरीय मानी जाती थी, यद्यपि मेरे जैसे असावधान छात्र इसके एक सौ पच्चीस अध्यायों को बोझिल समझते थे। लेकिन कामशास्त्र के युवतर और अधिक प्रबुद्ध पाठकों के बीच वात्स्यायन पहले ही उपास्य व्यक्तित्व का दर्जा हासिल कर चुके थे। शायद उसके पीछे एक वजह हमारे श्रद्धेय शिक्षकों का उनके प्रति अवमानना भरा दृष्टिकोण भी था। मेरे अपने गुरु ब्रह्मदत्त अपवाद थे। प्रात:कालीन शिक्षा का कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद अपराह्न को थोड़ी देर से जब छात्र आग जलाने और रात के खाने की तैयारी करने लगते थे और गुरु ब्रह्मदत्त विश्राम करते थे, तब कभी-कभी उनसे वार्तालाप के लिए दूसरे आश्रमों से आगंतुक का आगमन होता था। वर्षों पहले मैं अपने गुरु और उनके अतिथियों को पंखा झलता हुआ हफ्तों तक ऐसे ही वार्तालाप के दौरान उपस्थित रहा था, जिसमें कामसूत्र की खूबियों का व्यापक विश्लेषण किया गया था। मैं इस चर्चा में भाग नहीं ले सका था, लेकिन इसका कारण केवल श्रद्धेय गुरुजन के बीच राय देने की अधिकारहीनता ही नहीं, विषय के प्रति मेरा अज्ञान भी था।
मुझे याद है कि मेरे गुरु के मित्र इस पुस्तक से क्षुब्ध थे। वात्स्यायन के कुछ विचार कामशास्त्र के सभी स्थापित सिद्धान्तों के विरुद्ध जाते थे। यह अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता था कि वात्स्यायन का रवैया इस विषय के पुराने विद्वानों के प्रति सम्मानजनक था। इसके अलावा वात्स्यायन की विद्वत्ता पर अँगुली नहीं उठाई जा सकती थी। वे ऋषिगण उस ग्रंथ के स्वर से चिढ़ गए थे। वात्स्यायन का विद्रोही इरादा पारदर्शी था। उदाहरण के लिए, वेश्याओं पर दत्तक की स्तरीय कृति के विपरीत वात्स्यायन का मत था कि अपने संबंधों में गणिकाएँ धन के अलावा दूसरी बातों से भी प्रभावित होती हैं।
पालक ने उत्तेजित होकर अपनी फहराती हुई सफेद दाढ़ी के साथ-साथ सामने बैठे श्रोताओं पर थूक की फुहार-सी छोड़ते हुए अपनी आग्रही आवाज में कहा, ‘‘यह विकृत लोकप्रियतावाद है, जो केवल मंदबुद्धि राजकुमारों और वणिक-पुत्रों के लिए ही उपयुक्त है।’’ स्त्रियों की कामुकता के बारे में वात्स्यायन के विचार विशेष रूप से पालक की कोपदृष्टि का निशाना बने थे।
‘‘प्राचीन काल से प्रत्येक ऋषि ने इसकी पुष्टि की है कि कामेच्छा पुरुष के मनोभाव का प्रतिबिंब होती है। पुरुष में उत्तेजना की सघनता स्त्री में तदनुरूप आवेग का संचार करती है। वह केवल काष्ठ है, जिसे पुरुष अग्नि प्रदान करता है। मगर यह व्यक्ति कहता है कि पुरुष और स्त्री की कामेच्छा में कोई अंतर नहीं है, कि दोनों अपनी अलग राह पकड़ते हैं। मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या यह अराजकता का नुस्खा नहीं है ? क्या यह विश्व को एकजुट रखनेवाले धर्म का, जिसे यह व्यक्ति भी काम से श्रेष्ठ मानता है, अवमूल्यन नहीं करेगा ?’’
दूसरे अधिकांश लोग इस विचार से सहमत दिखे।
किसी ने कहा, ‘‘शीघ्र भुला दिया जाना ही इसकी नियति है। यह पुस्तकालयों में सिमटकर रह जाएगा, जहाँ ‘कामसूत्र’ को सँभालनेवाले हाथ सिर्फ पुस्तकों की देखभाल करनेवालों के होंगे, जो कभी-कभी उस कपड़े को नम कर दिया करेंगे, जिसमें ताड़पत्रों को बाँधकर रखा गया होगा।’’
मेरे गुरु ब्रह्मदत्त असहमत थे।
‘‘मैं नहीं कहता कि यह महान ग्रंथ है जो बाभ्रव्य की कृति की जगह ले लेगा। लेकिन इसे पढ़ा जाएगा क्योंकि यह रोचक तरीके से लिखा हुआ है, और इसमें सूचनाओं का विशाल भंडार है। बहुत कम विद्वान ऐसे हैं जो किसी पुस्तक से इससे अधिक की अपेक्षा करते हैं।’’
मुझे याद है कि मेरे श्रद्धेय शिक्षकों ने वात्स्यायन के उल्टे विचारों की चर्चा कुछ इस तरह की कि मैं उसे पढ़ने का इच्छुक हो गया। मैंने अपने आप से यह वायदा किया कि मैं शीघ्र ही इसे पढ़ डालूँगा लेकिन दूसरे वायदों के साथ यह भी ठंडे बस्ते में चला गया, जबकि मेरे मस्तिष्क में अपठित पुस्तकों का ढेर लगातार ऊँचा होता चला गया।
सप्तपर्णी आश्रम जाने की हमारी योजना एक महीने से कुछ अधिक समय तक योजना ही बनी रही। हमारे इरादों की याद चतुरसेन मुझे दिलाता रहता था, लेकिन मेरी इच्छा और उत्सुकता ने लगातार बढ़ रही मेरी हिचक का सामना करना शुरू कर दिया था। धार्मिक शिक्षा में व्यक्ति की स्वत:स्फूर्तता को नष्ट करने और भाषा को भावनाशून्य बना देने की प्रवृत्ति होती है। मुझे यह कहने के लिए सचेत प्रयास करना पड़ रहा है कि ‘कामसूत्र’ के लेखक से मिलने के विचार ने मेरे अंदर आकर्षण और भय दोनों को जन्म दिया। इसके उद्देश्य के प्रति मेरी रुचि ने घबराहट को जन्म दे दिया था। वात्स्यायन के बारे में मेरी धारणा पालक जैसे ही लंबी सफेद दाढ़ीवाले क्रोधी, वृद्ध ऋषि की थी, जिसके कानों में सफेद बालों के गुच्छे उग आए हों। उनके ललाट के मध्य में मैंने सीधी चढ़ी हुई त्यौरी, धनी भौंहों और भेदती हुई आँखों की कल्पना की थी, जो मेरे मस्तिष्क में गहरे धँसकर उसमें छिपी सबसे शर्मनाक लालसा को खोज निकालेंगे। मैं तब तक प्रतीक्षा करना चाहता था जब तक उनकी उपस्थिति मेरे धैर्य को इतनी बुरी तरह आतंकित न करे। मैंने चतुरसेन से कहा कि कामशास्त्र के क्षेत्र में वात्स्यायन की प्रतिष्ठा को देखते हुए मुझे ‘कामसूत्र’ का गहन अध्ययन करना चाहिए, ताकि मैं इस मुलाकातके लिए अपने को तैयार कर सकूँ।
मेरे दोस्त चतुरसेन ने मुझे अपने साथ एक वेश्यालय चलने के लिए तैयार किया, ताकि वह मेरी कुछ मदद कर सके। उसने मुझे आश्वस्त किया कि कुँआरों की हिचक को दूर करने में सक्षम और चौंसठ कलाओं में निपुण कोई वेश्या युवतियों के प्रति मेरे भय को दूर कर देगी। लेकिन वेश्या के यहाँ का परिणाम निराशाजनक ही रहा। पहली बात यह कि मैं उस स्थान के वैभव से भयभीत हो गया था। चतुरसेन ने उस संध्या के हमारे मनोरंजन के लिए नगर के सर्वश्रेष्ठ वेश्यालयों में से एक को चुना था। गरमियों में उनकी दरें घट जाती हैं, फिर भी उसे इसके लिए एक पूरी स्वर्णमुद्रा खर्च करनी पड़ी थी। उद्यान में कमल के फूलों से भरा कलात्मक तालाब और फव्वारे, बरामदों में टँगे पक्षियों के रूपहले पिंजरे, कमरों में लगे रेशमी परदे और फर्श पर बिछे मखमली गलीचे किसी गरीब ब्राह्मण छात्र को हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त थे। लेकिन भीतर तक मैं जिनसे काँप उठा वे स्त्रियाँ ही थीं। उनके सौंदर्य में श्रृंगार और नैसर्गिकता का चमत्कृत कर देनेवाला मेल था। गरमियों में पहने जानेवाले झीने सूती परिधानों से अपनी मादक काया का एहसास कराती स्त्रियों ने फूलों के इत्र और नारी-स्वेद की मादक गंध से युक्त अपनी कोमल उपस्थिति मात्र से मेरी इंद्रियों को वशीभूत कर लिया था।
मेरा ध्यान मोल-भाव करते चतुरसेन पर नहीं था। उसने एक स्त्री को फुसफुसाते हुए कुछ निर्देश दिया और वह अपने झुंड से निकलकर मेरी ओर आई। उसकी पलकें झुकी हुई थी। शर्मीली मुसकान के साथ उसने मुझे चमेली के फूलों की एक माला दी और अपने साथ आने के लिए कहा। उसके लहजे से यही लग रहा था कि वह बड़े यत्नपूर्वक सम्मान का भाव प्रदर्शित कर रही थी।
अपने कमरे की तरफ ले जाते हुए उसने अत्यंत नरम लहजे में मेरा हाल-चाल पूछा। सिर्फ हाँ-ना में दिए गए मेरे जवाबों से वह कतई असंतुष्ट नहीं दिखी। कमरे में प्रवेश करने से पहले वह मुझे रास्ता देने के लिए एक ओर हट गई। उसने कहा, ‘‘मैं हमेशा आपके कहे मुताबिक करूँगी।’’ इसके बाद पहली बार कुछ कामुक हाव-भाव दिखाते हुए उसने कहा, ‘‘मैं वही करूँगी जो आप चाहेंगे।’’ फिर हमने कामक्रीड़ा के लिए वेश्यालय द्वारा उपलब्ध कराए गए वस्त्र पहन लिये और बिस्तर पर लेट गए। इसके बाद सुपारी पेश करने की परंपरागत उत्तेजक प्रथा भी उसने कुछ ऐसे संकोच के साथ निभाई कि मैं तनावमुक्त होता गया। अब मैं यह महसूस करता हूँ कि उसका संकोच तो बस एक दिखावा था। उस समय यह बात जानते हुए भी मैं अपने आपसे छिपा गया था। उसकी शिथिल दृष्टि और उसके कोमल शब्द अलग-अलग तरह के प्रेमियों के लिए तैयार किए गए काम-बाण सरीखे थे, जो मुझ-जैसे आत्मसंशयी शिकार के लिए काफी थे।
वह अपने मकसद में सफल हुई। उस रात जो कुछ होनेवाला था, उसके लिए मैं पर्याप्त तनावमुक्त और शांत हो चुका था। अंतत: उसने मुझसे दीया बुझाने को कहा। फिर मेरे हाथों को अपने होथों में लेकर सहलाते हुए उसने कहा, ‘‘मैं केवल अँधेरे में अपने वस्त्र उतार सकती हूँ।’’ मेरे हाथों को उसने अपने घाघरे के बंद खोलने और गले का हार और बाजूबंद उतारने में लगा दिया। वह पूरी तरह निर्वसन होकर बिस्तर पर लेट गई थी। उसके बदन पर उस समय चाँदी के छोटे-छोटे घुँघरुओंवाली पायल के सिवा और कुछ नहीं था। सिसकियों और घुँघरुओं की मिली-जुली ध्वनियों के बीच चीत्कार करती मेरी इंद्रियों ने मुझे स्पर्श-सुख के उस उत्तेजक महोत्सव में धकेल दिया, जो अब तक मेरे लिए अनजाना था। मैंने उसके बालों को छुआ, उसकी पलकों को चूमा, उसके कंधों को सहलाया और उसकी पलकों को फिर चूमा। मेरे होंठ और हाथ उसके चेहरे पर ऊपर-नीचे फिसलते रहे। लेकिन वे उसके गले के नीचे की घाटियों में उतरने का साहस न कर सके। मेरा समर्पण अधूरा था। मैं अपनी समस्त उत्तेजना के बावजूद अपने शरीर के निचले भाग को गद्दे के साथ मजबूती से चिपकाए रखना नहीं भूला था। अपने सीने पर उसके उरोजों की दबाव की अनदेखी का बहाना करने के बावजूद मैं इस बात के लिए भी सचेत था कि मेरा उत्तेजित शिश्न कहीं उसकी कमर या जाँघों से असावधानीवश टकराकर मेरे असुविधाजनक पौरुष की पोल न खोल दे।
तभी उस स्त्री ने तय किया कि वह मेरे आत्मसंशय को और बढ़ावा नहीं देगी। उसने मेरे हाथों को उठाकर अपने गोल और कठोर कुचों पर रख लिया। अपने शिश्न की उत्तेजना को छिपाने के साथ-साथ मेरे सामने यह दूसरी समस्या आ खड़ी हुई कि अब मैं उसके इन रसीले कुचों का क्या करूँ। इस दुविधा से उभरने के लिए मैंने उन्हें चूसना शुरू कर दिया। वह हर्षविभोर हो उठी। मैं आगे कुछ करने का साहस जुटा सकूँ, इसकी प्रतीक्षा करने की बजाय वह अपनी उपेक्षाओं के साथ उग्र हो उठी। अपने एक हाथ को मेरे शिश्न को सख्ती से पकड़कर दूसरे से वह मेरे एक हाथ को अपनी जाँघों के बीच ले गई। वहाँ अजीब प्रकार का गरम-गरम-सा गीलापन पाकर चौंकने के बावजूद मैं घबराया नहीं। हालाँकि मैं बिलकुल नहीं समझ पा रहा था कि वह क्या है। क्या उसने मारे उत्तेजना के पेशाब कर दिया है ? ऐसा नहीं लगा, क्योंकि उसकी जाँघों के अंदर फैले उस लिसलिसे पदार्थ की चिकनाई पानी जैसी न होकर तेल जैसी थी। क्या स्नान करते समय उसने अपनी जाँघों में तेल लगाया था ? एक पल को मुझे लगा कि अपनी घटिया कामुकता के आवेश में मैंने उसे घायल कर दिया है और यह उसी से बहनेवाला खून है।
मेरी हिचकिचाहट से धैर्य खोकर अंतत: उसी ने कमान सँभाली। उसने झटके से मुझे अपने ऊपर खींचा और मेरे शिश्न को अपने अंदर करा दिया । मैं यह देखकर दंग रह गया कि अंदर जाते ही यह स्खलित होकर बाहर निकल आया, मानो इसे वहाँ से बलपूर्वक निष्कासित कर दिया गया हो। उसकी जाँघों के बीच उगे बालों पर अशक्त पड़ा यह राल टपकने लगा। वह खामोश थी, मगर लंबी साँसें ले रही थी। मेरी बंद आँखों के सामने, छलाँग लगाने के लिए बदन सिकोड़ शेरनी का बिंब आ गया। धीरे-धीरे उसकी साँसें सामान्य हुईं और घबराहट के मारे जकड़-सी गईं। मेरे पेट की पेशियाँ भी ढीली पड़ गईं। चौंसठ कलाओं में उसकी दीक्षा यहाँ काम आई।
‘‘तुम्हारे अंदर बहुत ताकत है। मेरे पूरे बदन पर नाखूनों के निशान पड़ गए हैं।’’ उसने शोखी-भरे अंदाज में कहा।
‘‘मैं शर्मिंदा हूँ।’’ अभी तक स्तब्ध मैं फुसफुसाया।
‘‘चिंता मत करो। स्त्री को इन्हीं चीजों से सुख मिलता है। प्यार करते समय उसके अंदर मांसल लिंग डाल देना ही सब कुछ नहीं होता।’’
उस स्त्री को मैं वेश्या नहीं कहना चाहता। उसका नाम लेना चाहता हूँ, मगर अफसोस है कि अपनी शुरुआती हड़बड़ी के चलते मैं उसका नाम याद न रख सका। वह किसी पुरुष की मन:स्थितियों की बारीकियों के प्रति बेहद संवेदनशील थी, जिन्हें शायद भाषा की सूक्ष्मताएँ भी व्यक्त न कर पाएँ।
इसके बाद हम लोगों ने स्नान किया और वस्त्र पहने। उसने मुझे बारजे पर बैठने और चाँद को देखने के लिए आमंत्रित किया। गरमी के मौसम में, विशेषकर पूर्णमासी की रातों में सहवास के बाद इसका प्रचलन था। बारजे के एक किनारे पतले तोशक पर गोलमटोल और मुलायम तकिए का सहारा लेकर बैठे हुए मैंने परंपरागत रूप से प्रचलित पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन किया। एक दासी द्वारा लाए गए ये पदार्थ थे: मांस का ठण्डा शोरबा, भुना हुआ मांस, इमली के कटे हुए टुकड़ों के साथ गन्ने का रस और मिस्त्री की डली के साथ छिलका और बीज हटाकर निकाले गए नींबू का शर्बत।
बारजे के दूसरे हिस्सों से बातचीत की धीमी आवाजें आ रही थीं, जहाँ दो वेश्याएँ अपने ग्राहकों का इसी प्रकार मनोरंजन कर रही थी, जबकि मेरे नथुनों में उसके बालों की मीठी खुशबू समाती जा रही थी।
‘‘वह अरुंधती है जिसे देखना कठिन है, लेकिन कहा जाता है कि अगर कोई उसे नहीं देख पाता तो छ: महीने के अंदर उसकी मृत्यु हो जाएगी। वह अटल तारा ध्रुव है। अगर तुम उसे दिन में देख लो तो तुम्हारे सारे पाप धुल जाएँगे। और देखो, उधर सप्तर्षि-मंडल है।’’
मैं पूरी एकाग्रता के बिना यह सब सुन रहा था। मैं जानता था कि मैं उसे संतुष्ट कर पाने में असफल रहा हूँ। मुझे यह जानने की उत्सुकता हो रही थी कि जब हम बिस्तर में गुँथे हुए थे तब उसने क्या महसूस किया था। एक स्त्री की आनंदानुभूति कैसी होती है, जिसे मुझे उसको प्रदान करना चाहिए था ?
मैं उस समय बमुश्किल इक्कीस वर्ष का था, लेकिन धर्म दर्शन की अपनी शिक्षा पूरी करके घर लौटने के बाद गुजरे पिछले एक वर्ष में कभी अपने को बिलकुल बच्चे जैसा महसूस करता तो कभी पुनर्यौवन की किसी भी संभावना से परे जर्जर बूढ़े जैसा। आश्रम के अंतिम वर्ष में वेदों के अध्ययन के प्रति अपने अधैर्य को मैंने उत्तरोत्तर बढ़ता पाया। वास्तव में मैं हृदय से उनकी उपेक्षा करता था, हालाँकि मैं जानता हूँ कि धर्मदर्शन के अध्ययन से मेर अंदर श्रेष्ठता का अहं इस कदर पैठ गया था कि मैं उपयोगी कलाओं, विशेषकर कामोद्दीपक कलाओं के अध्ययन को तुच्छ समझने लगा था। यह दंभी प्रवृत्ति दूसरे विद्यार्थियों में हो या खुद़ मेरे अंदर, मैं उसे नापसंद करता हूँ। दरअसल, चतुरसेन से मेरी मित्रता भी कुछ हद तक, इसी असंतोष की वजह से हुई। वह एक व्यापारी का पुत्र था। उसमें धनार्जन की भूख तो अत्यल्प थी लेकिन काव्य और कला में गहरी रुचि थी। मैं विद्वान ब्राह्मण का पुत्र था, जो विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा था।
मैं अपने बौद्धिक उत्तराधिकार और साधक की पूर्वनिर्धारित जीवन-शैली के बोझ को ऐंद्रिय सुखों के हिचक-भरे उद्घाटन से हल्का करना चाहता था। मैं जो बनने की कोशिश कर रहा था, उसकी स्वाभाविक प्रतिभा मुझमें नहीं थी। मेरे अंतर में जो अवहेलना का भाव था वह मेरे अत्यंत कष्टदायक रूप से उचित मुखौटे को भेद नहीं पाता था। मेरी प्राय: उभर आनेवाली स्वत:स्फूर्तता और अतिरेकोन्मुख आवेग भी मेरी बनावटी चाल-ढाल तथा रूखी और आडंबरयुक्त वक्तृता में कोई गिरावट न ला सके। जब चतुरसेन ने अपने अन्य मित्रों से मेरा परिचय एक कवि के रूप में कराया तो मैं चौंक गया। वैसे, मैं जानता था कि यदि साहित्यिक प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के रूप में मेरा परिचय कराया जाए तो अच्छा लगेगा, भले ही मैंने कभी कुछ लिखा न हो। मैं जानता था कि किसी व्यक्ति के लिए कवि से बढ़कर कोई दूसरा विशेषण नहीं हो सकता। तभी तो राजे-महाराजे तक इस उपाधि की आकांक्षा रखते हैं। लेकिन मैं साहित्यिक जीवन में मिलनेवाले सम्मान की आकांक्षा नहीं रखता था और इस जीवन को शुरू करने से पहले ही खत्म कर दिया था। मैं यह निश्चय किया कि मुझे साहित्यिक कृतियों का उत्पादक बनने के बजाय उनका उपभोक्ता बनना है।
मेरे पिता राजपुरोहित के प्रमुख सहायक थे। स्वभावत: वे चाहते थे कि मैं उनके पदचिह्नों पर चलूँ। सभी अनुष्ठानों की सूक्ष्मताओं के साथ-साथ मैं उन्हें सम्पन्न कराने की सही विधियाँ सीख लूँ और इस प्रकार उन चीजों का व्यवहार में लागू कर सकूँ जिनका मैंने केवल सिद्धांत में अध्ययन किया है। राजपुरोहित की कोई संतान न होने के कारण एक-न-एक दिन मुझे राज-दरबार में उनका स्थान प्राप्त होने की भी संभावना थी। मेरे पिता कल्पना किया करते थे कि एक दिन मैं राज्य के महत्त्वपूर्ण लोगों में सबसे अगली पाँत में हूँगा। जैसे, पुरोहित के रूप में मैं राजकुमारों को शिक्षा दूँगा, सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही मामलों में राजा को परामर्श दूँगा, राजा की अनुपस्थिति में महल के प्रशासन का संचालन करूँगा और शतरंज तथा द्यूत क्रीड़ा में राजा का प्रतिद्वंद्वी होने का गौरव प्राप्त करूँगा।
यद्यपि मैंने उनकी योजना में दिलचस्पी दिखाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन मेरे पिता मेरी अरुचि को भाँप गए। उनकी निराशा स्पष्ट थी और वह मुझ पर बहुत भारी पड़ी। ऐसा नहीं था कि मैंने प्रयास नहीं किया। कुछ हफ्तों तक मैं उनके साथ प्रतिदिन राजमहल जाता था और अनुष्ठान विशेषज्ञों के लिए आरक्षित कमरों में काम करता था। वहाँ भारी संख्या में होनेवाले अनुष्ठानों की तैयारी में मैं उनकी मदद करता था। उन अनुष्ठानों में राजपुरोहित और मेरे पिता के अतिरिक्त छह सहायक प्रात:काल से देर शाम तक व्यस्त रहते। राजा, तीन रानियों और उनके ग्यारह बच्चों के लिए अनेक मंत्रों पर आधारित अनुष्ठान होते थे। उत्सवों के अवसर पर दरबारी अनुष्ठानों के अतिरिक्त विभिन्न मौसम में पूजे जानेवाले देवताओं को नैवेद्य अर्पित करने के लिए जन-समारोह होते थे, जिनका नेतृत्व स्वयं राजा करता था।
अपने पिता के पेशे में बहुत कम समय तक रहने के कारण मैं सबसे पवित्र अवसरों पर, जैसे राजा के युद्ध में जाने, युवराज्याभिषेक और अश्वमेध के समय किए जानेवाले अनुष्ठानों से वंचित रह गया। मैंने दूर्वादल की गुणवत्ता पहचानना और विभिन्न आहुतियों के अनुरूप सही प्रकार के कमल, चावल, रोटी, घी और बुने हुए अन्न जैसी सामग्रियों का चयन करना सीख लिया था। कमल का रंग, अन्न के प्रकार, मालपुए में पड़नेवाली चीजें, और घी की चिकनाई अनुष्ठान और उसमें पूजे जानेवाले देवी-देवताओं पर निर्भर होते थे। शिशु के अन्नप्राशन के अवसर पर अग्नि देवता और वाग्देवी को अर्पित किए जानेवाले पदार्थ अलग होते थे और बच्चे के विद्यारंभ के अवसर पर विघ्नविनाशक गणेश, देवताओं के गुरु बृहस्पति और ज्ञान, संगीत और काव्य की देवी सरस्वती को अर्पित किए जानेवाले पदार्थ अलग। दैनिक, मौसमी और वार्षिक अनुष्ठानों में गंगा का पानी अन्य पवित्र नदियों, समुद्र, कुओं और तालाबों के पानी में मिलाया जाता था। पानी के स्रोत्र की विशिष्टता और सही अनुपात का पूरे विस्तार से वर्णन होता था और उन्हें याद रखना पड़ता था।
बहरहाल, इन गतिविधियों में मैं दक्ष न हो सका। इसी तरह, अपने पिता के छोटे भाई, जो वाराणसी को जाने-माने ज्योतिष थे, के साथ कुछ दिन काम करने का मेरा अनुभव भी इसी तरह असंतोषजनक रहा। वे जन्म-कुंडलियों में गणना के लिए जो रेखाकृतियाँ बनाते थे, उनमें रंग भरना तो मैं सीख गया लेकिन मेरी आत्मा और उस परिवेश के बीच की आंतरिक दूरी बढ़ती गई। मुझे यह जीवन अपने ऊपर थोपा हुआ लगता था। मैं उसे सहजतापूर्वक जी नहीं पाता था। मैं किसी दिन उन चीजों के प्रति आकस्मिक उत्तेजना से भर उठता था, जो अनायास मेरा ध्यान आकर्षित कर लेती थीं। अपरिचितों से मिलने और अधकचरी योजनाओं को पूरा करने की उत्कंठा मुझे घेर लेती, जबकि शेष दिनों में ऐसा लगता था कि समय जैसा आयाम कोई मेरे अस्तित्व में शामिल ही नहीं है। कुछ हफ्तों तक मैं दिन-रात, अंधा होने की हद तक पढ़ता रहा, हालाँकि पढ़ाई पर न तो मैं ध्यान केन्द्रित कर पाता था और न ही कुछ याद रख पाता था। रात को बिस्तर में जाकर सो रहना मुझे मुश्किल जान पड़ता था, लेकिन सुबह उठना या जागने की संभावना का सामना करना भी कुछ आसान न था।
अकेलेपन की इस अंतहीन पीड़ा ने मुझे पूर्वजों के समय से चली आ रही पारिवारिक उपेक्षाओं के बंधन को तोड़ने के लिए बाध्य किया। मैं अपना अधिक से अधिक समय चतुरसेन और उसके मित्रों के साथ बिताने लगा। वे मौज-मजे और जवानी के उल्लास से भरे हुए उदार लोग थे। उन्होंने बिना किसी हीला-हवाला के मुझे अपने साथ शामिल कर लिया। यहाँ तक कि मेरे अध्ययन को श्रेष्ठ मानते हुए भी वे उससे असहमत होने लगे। आनन्द की अकुंठ तलाश को समर्पित उनका अधिकांश जीवन किसी प्रकार की आत्म-समीक्षा से मुक्त था। वे मेरी परेशानियों से मुझे छुटकारा तो न दिला सके, लेकिन उन्होंने कुछ समय के लिए उन्हें शांत अवश्य कर दिया; यद्यपि बाद में मैंने फिर अपने आपको बेचैन पाया।
इसी बीच, जब मेरे दोस्त चतुरसेन ने मुझसे कहा कि वात्स्यायन मुनि नदी के उस पार सप्तपर्णी आश्रम में निवास करने के लिए पधारे हैं और हमें उनसे मिलने के लिए वहाँ चलना चाहिए, तो मैं तुरंत तैयार हो गया। स्त्रियों को लेकर मेरे मन में उठने वाले संशयों के अलावा मुझे अपनी इस व्याकुल करनेवाली जिज्ञासा के समाधान की भी आशा थी कि वात्स्यायन जैसे व्यक्ति ने ऐश्वर्य और प्रभुत्व के जीवन को छोड़कर पेड़ की छाल से आच्छादित और प्राय: दुर्गंधित आश्रम में रहने का निर्णय क्यों किया।
मध्यवर्ती राज्यों या यूँ कहें कि पूरे गुप्त साम्राज्य में कोई व्यक्ति अगर स्त्रियों के सुख की प्रकृति और उनकी अपेक्षाओं की जटिलता के बारे में जानता था, तो वह वात्स्यायन थे। मैं यह सुनकर हैरान रह गया कि उन्होंने वाराणसी आने और यहाँ के एक गुमनाम-से आश्रमों में रहने का फैसला किया है। मैं कौशाम्बी की राज्यसभा में उनकी सम्मानजनक हैसियत और राजा उदयन तथा रानियों पर उनके जबरदस्त प्रभाव के बारे में जानता था। हमने ये अफवाहें सुनी थीं कि वात्स्यायन तपस्वी हैं, और उनका किसी स्त्री से कभी कोई रिश्ता नहीं रहा।
व्यापक तौर पर यह मान्यता थी कि काम के बारे में उनका ज्ञान उनके वर्षों के कठोर आत्मसंयम और दीर्घ अवधियों की समाधि का परिणाम है। कौशाम्बी में यह भोला विश्वास प्रचलित था कि उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ देवी रति के लिखवाने पर पूरा किया है। वह उनसे इतनी प्रभावित हो गई थीं कि उन्होंने अपने पति, प्रेम के देवता काम द्वारा प्रदत्त गुप्त ज्ञान को उनके सामने प्रकट कर दिया था। यह अफवाह निश्चय ही बकवास है। किसी ग्रंथ की प्रमाणिकता दैवी वरदान, लेखक की प्रसिद्धि या उसमें दी गई सूचनाओं की मात्रा से नहीं स्थापित होती बल्कि उसका कारण होता है- लेखक का अपने विषय में गहरा जुड़ाव, जो कृति में हजारों तरह से प्रतिबिंबित होता है। ‘कामसूत्र’ की खूबियाँ और खामियाँ, जिन पर हर तरह के विद्वानों ने तीखी बहस की है, चाहे जो हो, पर काम-जीवन से वात्स्यायन की अंतरंगता निर्विवाद है।
अपनी महान लोकप्रियता के बावजूद ‘कामसूत्र’ सभी जातियों को दी जानेवाली शिक्षा की पाठ्यपुस्तक नहीं बन सका था। कामशास्त्र पर लिखी गई बभ्रु की प्राचीन कृति ही अब भी स्तरीय मानी जाती थी, यद्यपि मेरे जैसे असावधान छात्र इसके एक सौ पच्चीस अध्यायों को बोझिल समझते थे। लेकिन कामशास्त्र के युवतर और अधिक प्रबुद्ध पाठकों के बीच वात्स्यायन पहले ही उपास्य व्यक्तित्व का दर्जा हासिल कर चुके थे। शायद उसके पीछे एक वजह हमारे श्रद्धेय शिक्षकों का उनके प्रति अवमानना भरा दृष्टिकोण भी था। मेरे अपने गुरु ब्रह्मदत्त अपवाद थे। प्रात:कालीन शिक्षा का कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद अपराह्न को थोड़ी देर से जब छात्र आग जलाने और रात के खाने की तैयारी करने लगते थे और गुरु ब्रह्मदत्त विश्राम करते थे, तब कभी-कभी उनसे वार्तालाप के लिए दूसरे आश्रमों से आगंतुक का आगमन होता था। वर्षों पहले मैं अपने गुरु और उनके अतिथियों को पंखा झलता हुआ हफ्तों तक ऐसे ही वार्तालाप के दौरान उपस्थित रहा था, जिसमें कामसूत्र की खूबियों का व्यापक विश्लेषण किया गया था। मैं इस चर्चा में भाग नहीं ले सका था, लेकिन इसका कारण केवल श्रद्धेय गुरुजन के बीच राय देने की अधिकारहीनता ही नहीं, विषय के प्रति मेरा अज्ञान भी था।
मुझे याद है कि मेरे गुरु के मित्र इस पुस्तक से क्षुब्ध थे। वात्स्यायन के कुछ विचार कामशास्त्र के सभी स्थापित सिद्धान्तों के विरुद्ध जाते थे। यह अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता था कि वात्स्यायन का रवैया इस विषय के पुराने विद्वानों के प्रति सम्मानजनक था। इसके अलावा वात्स्यायन की विद्वत्ता पर अँगुली नहीं उठाई जा सकती थी। वे ऋषिगण उस ग्रंथ के स्वर से चिढ़ गए थे। वात्स्यायन का विद्रोही इरादा पारदर्शी था। उदाहरण के लिए, वेश्याओं पर दत्तक की स्तरीय कृति के विपरीत वात्स्यायन का मत था कि अपने संबंधों में गणिकाएँ धन के अलावा दूसरी बातों से भी प्रभावित होती हैं।
पालक ने उत्तेजित होकर अपनी फहराती हुई सफेद दाढ़ी के साथ-साथ सामने बैठे श्रोताओं पर थूक की फुहार-सी छोड़ते हुए अपनी आग्रही आवाज में कहा, ‘‘यह विकृत लोकप्रियतावाद है, जो केवल मंदबुद्धि राजकुमारों और वणिक-पुत्रों के लिए ही उपयुक्त है।’’ स्त्रियों की कामुकता के बारे में वात्स्यायन के विचार विशेष रूप से पालक की कोपदृष्टि का निशाना बने थे।
‘‘प्राचीन काल से प्रत्येक ऋषि ने इसकी पुष्टि की है कि कामेच्छा पुरुष के मनोभाव का प्रतिबिंब होती है। पुरुष में उत्तेजना की सघनता स्त्री में तदनुरूप आवेग का संचार करती है। वह केवल काष्ठ है, जिसे पुरुष अग्नि प्रदान करता है। मगर यह व्यक्ति कहता है कि पुरुष और स्त्री की कामेच्छा में कोई अंतर नहीं है, कि दोनों अपनी अलग राह पकड़ते हैं। मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या यह अराजकता का नुस्खा नहीं है ? क्या यह विश्व को एकजुट रखनेवाले धर्म का, जिसे यह व्यक्ति भी काम से श्रेष्ठ मानता है, अवमूल्यन नहीं करेगा ?’’
दूसरे अधिकांश लोग इस विचार से सहमत दिखे।
किसी ने कहा, ‘‘शीघ्र भुला दिया जाना ही इसकी नियति है। यह पुस्तकालयों में सिमटकर रह जाएगा, जहाँ ‘कामसूत्र’ को सँभालनेवाले हाथ सिर्फ पुस्तकों की देखभाल करनेवालों के होंगे, जो कभी-कभी उस कपड़े को नम कर दिया करेंगे, जिसमें ताड़पत्रों को बाँधकर रखा गया होगा।’’
मेरे गुरु ब्रह्मदत्त असहमत थे।
‘‘मैं नहीं कहता कि यह महान ग्रंथ है जो बाभ्रव्य की कृति की जगह ले लेगा। लेकिन इसे पढ़ा जाएगा क्योंकि यह रोचक तरीके से लिखा हुआ है, और इसमें सूचनाओं का विशाल भंडार है। बहुत कम विद्वान ऐसे हैं जो किसी पुस्तक से इससे अधिक की अपेक्षा करते हैं।’’
मुझे याद है कि मेरे श्रद्धेय शिक्षकों ने वात्स्यायन के उल्टे विचारों की चर्चा कुछ इस तरह की कि मैं उसे पढ़ने का इच्छुक हो गया। मैंने अपने आप से यह वायदा किया कि मैं शीघ्र ही इसे पढ़ डालूँगा लेकिन दूसरे वायदों के साथ यह भी ठंडे बस्ते में चला गया, जबकि मेरे मस्तिष्क में अपठित पुस्तकों का ढेर लगातार ऊँचा होता चला गया।
सप्तपर्णी आश्रम जाने की हमारी योजना एक महीने से कुछ अधिक समय तक योजना ही बनी रही। हमारे इरादों की याद चतुरसेन मुझे दिलाता रहता था, लेकिन मेरी इच्छा और उत्सुकता ने लगातार बढ़ रही मेरी हिचक का सामना करना शुरू कर दिया था। धार्मिक शिक्षा में व्यक्ति की स्वत:स्फूर्तता को नष्ट करने और भाषा को भावनाशून्य बना देने की प्रवृत्ति होती है। मुझे यह कहने के लिए सचेत प्रयास करना पड़ रहा है कि ‘कामसूत्र’ के लेखक से मिलने के विचार ने मेरे अंदर आकर्षण और भय दोनों को जन्म दिया। इसके उद्देश्य के प्रति मेरी रुचि ने घबराहट को जन्म दे दिया था। वात्स्यायन के बारे में मेरी धारणा पालक जैसे ही लंबी सफेद दाढ़ीवाले क्रोधी, वृद्ध ऋषि की थी, जिसके कानों में सफेद बालों के गुच्छे उग आए हों। उनके ललाट के मध्य में मैंने सीधी चढ़ी हुई त्यौरी, धनी भौंहों और भेदती हुई आँखों की कल्पना की थी, जो मेरे मस्तिष्क में गहरे धँसकर उसमें छिपी सबसे शर्मनाक लालसा को खोज निकालेंगे। मैं तब तक प्रतीक्षा करना चाहता था जब तक उनकी उपस्थिति मेरे धैर्य को इतनी बुरी तरह आतंकित न करे। मैंने चतुरसेन से कहा कि कामशास्त्र के क्षेत्र में वात्स्यायन की प्रतिष्ठा को देखते हुए मुझे ‘कामसूत्र’ का गहन अध्ययन करना चाहिए, ताकि मैं इस मुलाकातके लिए अपने को तैयार कर सकूँ।
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