हास्य-व्यंग्य >> मेरे इक्यावन व्यंग्य मेरे इक्यावन व्यंग्यगिरिराजशरण अग्रवाल
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सामाजिक व्यंग्यों का संग्रह
Mere Ekyavan Vayangya - A Hindi Book by - Girirajsharan Agarwal मेरे इक्यावन व्यंग्य - गिरिराजशरण अग्रवाल
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुछ आपसे
आपके समक्ष अपने इक्यावन चुने हुये व्यंग्यों का संग्रह प्रस्तुत करते हुए एक विशिष्ट आनन्द का बोध हो रहा है। इसके पूर्व मेरे दो व्यंग्य संग्रह ‘बाबू भोला नाथ’ तथा ‘राजनीति में गिरगिटवाद’ प्रकाशित हुए हैं। सौभाग्य से दोनों ही संग्रहों को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत किया गया। अपना तीसरा व्यंग्य संग्रह प्रकाशित करने से पूर्व मेरे मित्रों ने प्रेरित किया कि मेरे व्यंग्य लेखों तथा व्यंग्य कहानियों में से चुनी हुई रचनाओं का संग्रह पहले प्रकाशित हो जाये। मैंने मित्रों के आदेश को स्वीकार किया और प्रस्तुत संग्रह पाठकों को समर्पित कर रहा हूँ।
मैंने कई बार विचार किया है कि आधुनिक समाज में, जहाँ संवेदनशून्यता बढ़ती जा रही है, बिखराव और आडंबर की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, राजनीति के शिखर पर स्थापित राजनेता भी नीति के शास्त्र और नियमों को भूलते जा रहे हैं, स्वार्थ और स्वयं की सेवा ही जीवन का लक्ष्य बनता जा रहा है, परिवारवाद के तत्त्व हर क्षेत्र में विस्तार पाते जा रहे हैं, घर-घर के बीच दीवारें खिंच रही हैं, फासले बढ़ रहे हैं, तब हास्य और व्यंग्य के प्रसार की अत्याधिक आवश्यकता है।
हास्य-व्यंग्य के उत्स पर विचार करते हुए व्यंग्य चित्रकार आबू की एक बड़ी मजेदार बात याद आती है। उन्होंने बड़े मासूम अंदाज में कहीं लिखा है : जरा सोचिए कि जानवर क्यों नहीं हँसते। सीधा-सा उत्तर है, उनके पास किसी पर हँसने का कारण नहीं है, क्योंकि वे सब समान हैं। असमान होते तो एक-दूसरे पर हँसते, व्यंग्य करते।’
काफी हद तक बात साफ हो जाती है कि असमानता हास्य और व्यंग्य का कारण है। समाज में जितनी अधिक असमानता बढ़ेगी—बुद्धि-विचार अथवा क्रिया के स्तर पर—उतना ही अधिक प्रखर व्यंग्य जन्मेगा।
आधुनिक युग में सर्वाधिक विकार राजनीति के स्तर पर आया है, अतः हमारी रुचि के क्षेत्र में राजनीतिक व्यंग्य ने सर्वाधिक प्रसार पाया है। फिर भी घर-परिवार, शिक्षा-संस्थान, न्याय-व्यवस्था, कार्यालय-प्रबंध, पुलिस-तंत्र एवं चिकित्सा क्षेत्र से संदर्भित व्यंग्य भी प्रचुर मात्रा में लिखे गए हैं। स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रों में भी अपसंस्कृति ने अपना विस्तार किया है।
विसंगतियों और विडंबना-विकारों के रहते हुए व्यंग्य हास्यशून्य नहीं हो सकता और हास्य भी व्यंग्य के बिना अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रख सकता। हाँ हास्य से हमारा अभिप्राय मसखरी या मजाक नहीं है। हास्य से हमारा तात्पर्य है—हास्यात्मक व्यंग्य।
इन व्यंग्यों का संग्रह करते समय भी यही दृष्टि मुख्य रही है।
अब ‘मेरे इक्यावन व्यंग्य’ आपके हाथों में है। आपकी प्रतिक्रिया मेरे आगामी लेखन के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
हास्य-व्यंग्य के शिखर पुरुषों-स्व. हरिशंकर परसाई, स्व. शरद जोशी, स्व. काका हाथरसी एवं स्व. रवीन्द्रत्यागी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं अपनी व्यंग्य-यात्रा में साथ चलने वाले सभी व्यंग्यकारों के प्रति अपनी विनम्रता ज्ञापित करता हूँ।
मैंने कई बार विचार किया है कि आधुनिक समाज में, जहाँ संवेदनशून्यता बढ़ती जा रही है, बिखराव और आडंबर की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, राजनीति के शिखर पर स्थापित राजनेता भी नीति के शास्त्र और नियमों को भूलते जा रहे हैं, स्वार्थ और स्वयं की सेवा ही जीवन का लक्ष्य बनता जा रहा है, परिवारवाद के तत्त्व हर क्षेत्र में विस्तार पाते जा रहे हैं, घर-घर के बीच दीवारें खिंच रही हैं, फासले बढ़ रहे हैं, तब हास्य और व्यंग्य के प्रसार की अत्याधिक आवश्यकता है।
हास्य-व्यंग्य के उत्स पर विचार करते हुए व्यंग्य चित्रकार आबू की एक बड़ी मजेदार बात याद आती है। उन्होंने बड़े मासूम अंदाज में कहीं लिखा है : जरा सोचिए कि जानवर क्यों नहीं हँसते। सीधा-सा उत्तर है, उनके पास किसी पर हँसने का कारण नहीं है, क्योंकि वे सब समान हैं। असमान होते तो एक-दूसरे पर हँसते, व्यंग्य करते।’
काफी हद तक बात साफ हो जाती है कि असमानता हास्य और व्यंग्य का कारण है। समाज में जितनी अधिक असमानता बढ़ेगी—बुद्धि-विचार अथवा क्रिया के स्तर पर—उतना ही अधिक प्रखर व्यंग्य जन्मेगा।
आधुनिक युग में सर्वाधिक विकार राजनीति के स्तर पर आया है, अतः हमारी रुचि के क्षेत्र में राजनीतिक व्यंग्य ने सर्वाधिक प्रसार पाया है। फिर भी घर-परिवार, शिक्षा-संस्थान, न्याय-व्यवस्था, कार्यालय-प्रबंध, पुलिस-तंत्र एवं चिकित्सा क्षेत्र से संदर्भित व्यंग्य भी प्रचुर मात्रा में लिखे गए हैं। स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रों में भी अपसंस्कृति ने अपना विस्तार किया है।
विसंगतियों और विडंबना-विकारों के रहते हुए व्यंग्य हास्यशून्य नहीं हो सकता और हास्य भी व्यंग्य के बिना अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रख सकता। हाँ हास्य से हमारा अभिप्राय मसखरी या मजाक नहीं है। हास्य से हमारा तात्पर्य है—हास्यात्मक व्यंग्य।
इन व्यंग्यों का संग्रह करते समय भी यही दृष्टि मुख्य रही है।
अब ‘मेरे इक्यावन व्यंग्य’ आपके हाथों में है। आपकी प्रतिक्रिया मेरे आगामी लेखन के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
हास्य-व्यंग्य के शिखर पुरुषों-स्व. हरिशंकर परसाई, स्व. शरद जोशी, स्व. काका हाथरसी एवं स्व. रवीन्द्रत्यागी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं अपनी व्यंग्य-यात्रा में साथ चलने वाले सभी व्यंग्यकारों के प्रति अपनी विनम्रता ज्ञापित करता हूँ।
-डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
गुरु-विरोधी दिवस
अब यह तो हम नहीं जानते कि उस युवक का नाम हुड़दंगी लाल कैसे पड़ा, लेकिन पड़ ही गया और जब पड़ा तो चल भी निकला। चल निकलने के पीछे कोई नियम-कानून तो होता नहीं। अच्छे भले आदमी का दिमाग चल निकलता है। हँसी-हँसी में जूता चल निकलता है। कभी-कभी तो जाली नोट इस तरह चल निकलते हैं कि भारत की असली करेंसी को भी मात दे देते हैं। किस्सा मुख्तसर यह कि हुड़दंगीलाल का नाम एक बार चल निकला तो बस चलता ही चला गया।
हमें हुड़दंगीलाल के विषय में आश्चर्य इस बात पर हुआ कि वह छात्र तो कभी बचपन में प्राइमरी या अपर प्राइमरी का रहा होगा, किंतु बन गया था विश्वविद्यालय स्तर के विद्यार्थियों का छात्रनेता। पहले तो हमें यह लगा, जैसे वह ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’ वाली कहावत सिद्ध करने के लिए ही पैदा हुआ। लेकिन बाद में हमने अपने विचार में थोड़ा-सा संशोधन कर लिया। सोचा, हमारे यहाँ जब अँगूठाछाप नेता शिक्षा मंत्रालय का मंत्री बन सकता है, सुरक्षा के लिए खतरा माने जानेवाला व्यक्ति जब देश का रक्षामंत्रालय ठाठ के साथ सँभाल सका है और जब आँखें मूँदकर अपने सगे-संबंधियों को रेवड़ियाँ बाँटनेवाला व्यक्ति वित्तमंत्रालय का सर्वेसर्वा बन सकता है, तो बेचारे हुड़दंगीलाल ने कौन सा जुर्म किया था, जिसके कारण वह छात्रनेता नहीं बन सकता था। वह छात्रनेता बना और ऐसा दबदबेवाला बना कि न बस कुछ कहने के लिए है, न बताने के लिए।
सच कहें तो हमने इतना आश्चर्य तो तब भी नहीं किया था, जब हमें ज्ञात हुआ कि बदनाम दस्यु सरगना ने रातोंरात आपना राजनीतिकरण करते हुए नेता बनकर सामाजिक न्याय के लिए अभियान चलाना शुरू कर दिया है। लेकिन जहाँ तक सवाल हुड़दंगीलाल का है, हमें उस पर इसलिए अचंभा था कि हमारी राय में वह शिक्षा के क्षेत्र का आदमी नहीं था और इस क्षेत्र में उसकी कभी कोई रुचि नहीं रही थी। लेकिन हमारे देश की राजनीतिक जलवायु है ही कुछ ऐसे ढंग की कि हम—आप यह नहीं कह सकते कि कब किसमें किस प्रकार की नेतागर्दी के जीवाणु उत्पन्न हो जाएँगे ?
यहाँ तो खेत की मेड़ तक से न गुजरनेवाला किसान नेता हो सकता है और कभी किसी कारखाने के द्वार से न फटकने वाला मजदूर यूनियन का अध्यक्ष बनकर लंबे-लंबे भाषण झाड़ सकता है। लंबे अनुभवों के बाद हम तो इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि जो भी है भगवान की माया है। ऊपरवाला जब चाहता है, अपने पसंद के व्यक्ति में अपनी पसंद के नेताई कीटाणु उत्पन्न कर देता है। जब वे कीटाणु जोर मारते हैं तो प्रभावित व्यक्ति उस क्षेत्र का नेता बनने चल निकलता है, जिसके लिए ये कीटाणु उसे दिन-रात व्याकुल करते हैं।
अपने हुड़दंगीलाल के मामले में भी हम समझते हैं, ऐसा ही हुआ होगा। क्योंकि पढ़ाई तो उसने प्राइमरी तक ही की थी पर कीटाणु उसमें उत्पन्न हुए थे विश्वविद्यालय स्तर का छात्रनेता बनने के। अब बेचारा हुड़दंगीलाल करता भी तो क्या करता ! बन बैठा छात्रनेता। वैसे भी हम इतना तो मानते ही हैं कि नेता में कोई और गुण हो या न हो, पर हुड़दंग का गुण तो अवश्य होना ही चाहिए। यह एक ऐसी विशेषता है, जिसके अभाव में कोई भी नेतागर्दी का अभ्यार्थी सफल नहीं बन सकता। ये हमारे विचार नहीं हैं, बल्कि दावा है कि जो नेता अपने पहले चरण में हुड़दंग नहीं मचा सकते और अगले चरण में अपने हुड़दंग से लोगों को दंग करते हुए कोई दंगा-बंगा नहीं करा सकता, वह कुछ नहीं कर सकता, कम-से-कम नेतागिरी तो नहीं कर सकता। काम सौंपा जाए तो हम वह काम एक साथ दिन में बार बड़ी आसानी से कर सकते हैं किंतु अगर भारी मुआवजा देकर कोई हमसे कहे कि अपने शहर की तमाम छोटी-बड़ी सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाओं की संख्या जोड़कर बताओ कितनी है तो हम हाथ जोड़कर क्षमा माँग लेंगे कि भाई अपने बस का यह काम नहीं है। हमें इतनी गिनती आती ही नहीं, आती तो इतने फटीचर लेखक न हुए होते, ‘एकाउंटेंट जनरल’ हो गए होते। पर हमने कहा न कि प्रकृति घनचक्कर टाइप की चीज है, किसी में लेखक होने के कीटाणु भर देती है तो नेता गिरी के। हुड़दंगीलाल छात्रनेता बना और हमारे भाग्य में लिखा गया कि बेटा तुम उसकी शानदार जीवनकथा लिखो। सो हम लिख रहे हैं और पाठकों को प्ररेणा दे रहे हैं कि यदि तुम कुछ न बन सको तो हुड़दंगीलाल तो अवश्य ही बनो।
हमें याद है कि भाई हुड़दंगीलाल ने पहले-पहल तो छोटे-छोटे आंदोलन चलाए। जैसे उन्होंने छात्र-समुदाय का नेतृत्व करते हुए नकल करने के अधिकार को मान्यता देने की मुहिम छेड़ी, कक्षाओं से अनुपस्थित रहने वाले छात्रों को उपस्थित मानने और उपस्थिति पंजिका में उनकी हाजिरी नोट किए जाने की माँग की। पर यह इतने छोटे-छोटे आंदोलन थे कि छात्रनेता की हैसियत से हुड़दंगीलाल की चर्चा तो हुई पर बहुत ज्यादा नहीं। समाचारपत्रों की मुख्य सुर्खी नहीं बन सके वह। यहाँ हम आपको यह भी बताते चलें कि अपने यहाँ अखबारवालों की मूल प्रवृत्ति यह है कि जितना बड़ा अपराधी होगा, उतना ही बड़ा स्थान वह समाचार पत्र के पन्ने पर पाएगा। जितना बड़ा समाजविरोधी कार्य करेगा, उतना ही बड़ा महत्त्व अखबारवाले उसे देंगे। अखबारवाले जानते हैं कि नेकी तो दरिया में डालने के लिए होती है, अखबार में छापने के लिए नहीं होती। दस्यु सरगना ददुआ राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, यह किसी अखबार की मुख्य सुर्खी हो सकती है किंतु भ्रष्ट राजनीति से किसी ईमानदार व्यक्ति के संन्यास लेने की खबर तो किसी कोने में छोटा-सा स्थान पाएगी। अपने हुड़दंगीलाल यह रहस्य अच्छी तरह जान गए थे। वह जान गए थे कि जब तक वह कोई चौंका देने वाली मुहिम नहीं चलाएँगे, समाचारपत्रों में जगह नहीं मिलेगी और जब समाचारपत्रों में जगह नहीं मिलेगी तो लोकप्रियता भी नहीं बढ़ेगी। सो छात्रजगत् में उन्होंने अद्भुत अभियान छेड़ दिया।
हुड़दंगीलाल ने घोषणा की कि वह अमुक से अमुक दिन तक गुरु-विरोधी दिवस मनाएँगे। गुरु-विरोधी दिवस ! बात सचमुच में बहुत चौंका देने वाली थी। मोटी-मोटी सुर्खियों में अखबारवालों ने इस खबर को छापा। छात्रनेता हुड़दंगीलाल ने अपने संगठन के सभी सदस्यों से अनुरोध किया कि वह अमुक दिन निश्चित समय पर उस बैठक में अवश्य भाग लें, जिसमें ‘गुरु-विरोधी दिवस’ की रूपरेखा तैयार की जाएगी।
बैठक हुई तो प्रवक्ता ने बताया कि हुड़दंगीलाल ने इस अवसर पर हजारों वर्ष से भारत में चली आ रही गुरुप्रथा की कड़े शब्दों में आलोचना की। हुड़दंगीलाल का कहना था कि विद्यार्थी-जीवन की आचार-संहिता बनानेवाले महाचालाक शिक्षाविदों ने छात्रों को गुरुओं का सदा-सदा के लिए दास बनाए रखने का ऐसा षड्यन्त्र रचा है, जिसे आज के आधुनिक युग में किसी कीमत पर सहन नहीं किया जाना चाहिए। गुरु-चेलों के बीच इस असमानतावाले अपमानजनक संबंधों के कारण न केवल हीनभावना उत्पन्न होती है, बल्कि गुरुओं को इससे मनमानी करने का अनुचित अवसर प्राप्त होता है। हुड़दंगीलाल ने छात्रों को संबोधित करते हुआ गला फाड़कर कहा, ‘आज से कोई भी चेला गुरुओं के चरण छूने की मूर्खता न करे। उनके समाने नतमस्तक न हो। गुरु गुरु होता है भगवान नहीं होता।’
हुड़दंगीलाल दहाड़ा—‘सबसे बड़ा छात्रविरोधी व्यक्ति वह था, जिसने बाताया कि गुरु भगवान से बड़ा होता है, क्योंकि वह भगवान तक पहुँचने का मार्ग बताता है। मैं आपसे पूछता हूँ,’ हुड़दंगीलाल ने हवा में मुक्का तानते हुए छात्रों से पूछा ‘कि वह पहला आदमी, जिसने परमात्मा को पहचाना, उसका गुरु कौन था ? वह आप अपना गुरु था ना ! तब यह कहना एकदम वाहियात है कि गुरु भगवान की भाँति महान है।’
बैठक में देर तक गुरु चेलों के संबंधों पर चर्चा चली। अंत में तय हुआ कि अमुक तिथि को जिला मुख्यालय पर एक भव्य रैली होगी, जिसमें घोषणा की जायेगी कि आगे से कोई भी छात्र गुरुओं के चरण नहीं छुएगा, उनके सामने नतमस्तक नहीं होगा, हाथ नहीं जोड़ेगा। आखिर आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है। अंत में छात्रों से गुरु-विरोधी दिवस को सफल बनाने की अपील की गई। यह भी तय हुआ कि पूरे देश में छात्रमुक्ति संघर्ष समिति की शाखाएँ गठित की जाएँगी, ताकि इस आंदोलन को देशव्यापी बनाया जा सके।
हमें हुड़दंगीलाल के विषय में आश्चर्य इस बात पर हुआ कि वह छात्र तो कभी बचपन में प्राइमरी या अपर प्राइमरी का रहा होगा, किंतु बन गया था विश्वविद्यालय स्तर के विद्यार्थियों का छात्रनेता। पहले तो हमें यह लगा, जैसे वह ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’ वाली कहावत सिद्ध करने के लिए ही पैदा हुआ। लेकिन बाद में हमने अपने विचार में थोड़ा-सा संशोधन कर लिया। सोचा, हमारे यहाँ जब अँगूठाछाप नेता शिक्षा मंत्रालय का मंत्री बन सकता है, सुरक्षा के लिए खतरा माने जानेवाला व्यक्ति जब देश का रक्षामंत्रालय ठाठ के साथ सँभाल सका है और जब आँखें मूँदकर अपने सगे-संबंधियों को रेवड़ियाँ बाँटनेवाला व्यक्ति वित्तमंत्रालय का सर्वेसर्वा बन सकता है, तो बेचारे हुड़दंगीलाल ने कौन सा जुर्म किया था, जिसके कारण वह छात्रनेता नहीं बन सकता था। वह छात्रनेता बना और ऐसा दबदबेवाला बना कि न बस कुछ कहने के लिए है, न बताने के लिए।
सच कहें तो हमने इतना आश्चर्य तो तब भी नहीं किया था, जब हमें ज्ञात हुआ कि बदनाम दस्यु सरगना ने रातोंरात आपना राजनीतिकरण करते हुए नेता बनकर सामाजिक न्याय के लिए अभियान चलाना शुरू कर दिया है। लेकिन जहाँ तक सवाल हुड़दंगीलाल का है, हमें उस पर इसलिए अचंभा था कि हमारी राय में वह शिक्षा के क्षेत्र का आदमी नहीं था और इस क्षेत्र में उसकी कभी कोई रुचि नहीं रही थी। लेकिन हमारे देश की राजनीतिक जलवायु है ही कुछ ऐसे ढंग की कि हम—आप यह नहीं कह सकते कि कब किसमें किस प्रकार की नेतागर्दी के जीवाणु उत्पन्न हो जाएँगे ?
यहाँ तो खेत की मेड़ तक से न गुजरनेवाला किसान नेता हो सकता है और कभी किसी कारखाने के द्वार से न फटकने वाला मजदूर यूनियन का अध्यक्ष बनकर लंबे-लंबे भाषण झाड़ सकता है। लंबे अनुभवों के बाद हम तो इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि जो भी है भगवान की माया है। ऊपरवाला जब चाहता है, अपने पसंद के व्यक्ति में अपनी पसंद के नेताई कीटाणु उत्पन्न कर देता है। जब वे कीटाणु जोर मारते हैं तो प्रभावित व्यक्ति उस क्षेत्र का नेता बनने चल निकलता है, जिसके लिए ये कीटाणु उसे दिन-रात व्याकुल करते हैं।
अपने हुड़दंगीलाल के मामले में भी हम समझते हैं, ऐसा ही हुआ होगा। क्योंकि पढ़ाई तो उसने प्राइमरी तक ही की थी पर कीटाणु उसमें उत्पन्न हुए थे विश्वविद्यालय स्तर का छात्रनेता बनने के। अब बेचारा हुड़दंगीलाल करता भी तो क्या करता ! बन बैठा छात्रनेता। वैसे भी हम इतना तो मानते ही हैं कि नेता में कोई और गुण हो या न हो, पर हुड़दंग का गुण तो अवश्य होना ही चाहिए। यह एक ऐसी विशेषता है, जिसके अभाव में कोई भी नेतागर्दी का अभ्यार्थी सफल नहीं बन सकता। ये हमारे विचार नहीं हैं, बल्कि दावा है कि जो नेता अपने पहले चरण में हुड़दंग नहीं मचा सकते और अगले चरण में अपने हुड़दंग से लोगों को दंग करते हुए कोई दंगा-बंगा नहीं करा सकता, वह कुछ नहीं कर सकता, कम-से-कम नेतागिरी तो नहीं कर सकता। काम सौंपा जाए तो हम वह काम एक साथ दिन में बार बड़ी आसानी से कर सकते हैं किंतु अगर भारी मुआवजा देकर कोई हमसे कहे कि अपने शहर की तमाम छोटी-बड़ी सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाओं की संख्या जोड़कर बताओ कितनी है तो हम हाथ जोड़कर क्षमा माँग लेंगे कि भाई अपने बस का यह काम नहीं है। हमें इतनी गिनती आती ही नहीं, आती तो इतने फटीचर लेखक न हुए होते, ‘एकाउंटेंट जनरल’ हो गए होते। पर हमने कहा न कि प्रकृति घनचक्कर टाइप की चीज है, किसी में लेखक होने के कीटाणु भर देती है तो नेता गिरी के। हुड़दंगीलाल छात्रनेता बना और हमारे भाग्य में लिखा गया कि बेटा तुम उसकी शानदार जीवनकथा लिखो। सो हम लिख रहे हैं और पाठकों को प्ररेणा दे रहे हैं कि यदि तुम कुछ न बन सको तो हुड़दंगीलाल तो अवश्य ही बनो।
हमें याद है कि भाई हुड़दंगीलाल ने पहले-पहल तो छोटे-छोटे आंदोलन चलाए। जैसे उन्होंने छात्र-समुदाय का नेतृत्व करते हुए नकल करने के अधिकार को मान्यता देने की मुहिम छेड़ी, कक्षाओं से अनुपस्थित रहने वाले छात्रों को उपस्थित मानने और उपस्थिति पंजिका में उनकी हाजिरी नोट किए जाने की माँग की। पर यह इतने छोटे-छोटे आंदोलन थे कि छात्रनेता की हैसियत से हुड़दंगीलाल की चर्चा तो हुई पर बहुत ज्यादा नहीं। समाचारपत्रों की मुख्य सुर्खी नहीं बन सके वह। यहाँ हम आपको यह भी बताते चलें कि अपने यहाँ अखबारवालों की मूल प्रवृत्ति यह है कि जितना बड़ा अपराधी होगा, उतना ही बड़ा स्थान वह समाचार पत्र के पन्ने पर पाएगा। जितना बड़ा समाजविरोधी कार्य करेगा, उतना ही बड़ा महत्त्व अखबारवाले उसे देंगे। अखबारवाले जानते हैं कि नेकी तो दरिया में डालने के लिए होती है, अखबार में छापने के लिए नहीं होती। दस्यु सरगना ददुआ राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, यह किसी अखबार की मुख्य सुर्खी हो सकती है किंतु भ्रष्ट राजनीति से किसी ईमानदार व्यक्ति के संन्यास लेने की खबर तो किसी कोने में छोटा-सा स्थान पाएगी। अपने हुड़दंगीलाल यह रहस्य अच्छी तरह जान गए थे। वह जान गए थे कि जब तक वह कोई चौंका देने वाली मुहिम नहीं चलाएँगे, समाचारपत्रों में जगह नहीं मिलेगी और जब समाचारपत्रों में जगह नहीं मिलेगी तो लोकप्रियता भी नहीं बढ़ेगी। सो छात्रजगत् में उन्होंने अद्भुत अभियान छेड़ दिया।
हुड़दंगीलाल ने घोषणा की कि वह अमुक से अमुक दिन तक गुरु-विरोधी दिवस मनाएँगे। गुरु-विरोधी दिवस ! बात सचमुच में बहुत चौंका देने वाली थी। मोटी-मोटी सुर्खियों में अखबारवालों ने इस खबर को छापा। छात्रनेता हुड़दंगीलाल ने अपने संगठन के सभी सदस्यों से अनुरोध किया कि वह अमुक दिन निश्चित समय पर उस बैठक में अवश्य भाग लें, जिसमें ‘गुरु-विरोधी दिवस’ की रूपरेखा तैयार की जाएगी।
बैठक हुई तो प्रवक्ता ने बताया कि हुड़दंगीलाल ने इस अवसर पर हजारों वर्ष से भारत में चली आ रही गुरुप्रथा की कड़े शब्दों में आलोचना की। हुड़दंगीलाल का कहना था कि विद्यार्थी-जीवन की आचार-संहिता बनानेवाले महाचालाक शिक्षाविदों ने छात्रों को गुरुओं का सदा-सदा के लिए दास बनाए रखने का ऐसा षड्यन्त्र रचा है, जिसे आज के आधुनिक युग में किसी कीमत पर सहन नहीं किया जाना चाहिए। गुरु-चेलों के बीच इस असमानतावाले अपमानजनक संबंधों के कारण न केवल हीनभावना उत्पन्न होती है, बल्कि गुरुओं को इससे मनमानी करने का अनुचित अवसर प्राप्त होता है। हुड़दंगीलाल ने छात्रों को संबोधित करते हुआ गला फाड़कर कहा, ‘आज से कोई भी चेला गुरुओं के चरण छूने की मूर्खता न करे। उनके समाने नतमस्तक न हो। गुरु गुरु होता है भगवान नहीं होता।’
हुड़दंगीलाल दहाड़ा—‘सबसे बड़ा छात्रविरोधी व्यक्ति वह था, जिसने बाताया कि गुरु भगवान से बड़ा होता है, क्योंकि वह भगवान तक पहुँचने का मार्ग बताता है। मैं आपसे पूछता हूँ,’ हुड़दंगीलाल ने हवा में मुक्का तानते हुए छात्रों से पूछा ‘कि वह पहला आदमी, जिसने परमात्मा को पहचाना, उसका गुरु कौन था ? वह आप अपना गुरु था ना ! तब यह कहना एकदम वाहियात है कि गुरु भगवान की भाँति महान है।’
बैठक में देर तक गुरु चेलों के संबंधों पर चर्चा चली। अंत में तय हुआ कि अमुक तिथि को जिला मुख्यालय पर एक भव्य रैली होगी, जिसमें घोषणा की जायेगी कि आगे से कोई भी छात्र गुरुओं के चरण नहीं छुएगा, उनके सामने नतमस्तक नहीं होगा, हाथ नहीं जोड़ेगा। आखिर आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है। अंत में छात्रों से गुरु-विरोधी दिवस को सफल बनाने की अपील की गई। यह भी तय हुआ कि पूरे देश में छात्रमुक्ति संघर्ष समिति की शाखाएँ गठित की जाएँगी, ताकि इस आंदोलन को देशव्यापी बनाया जा सके।
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