पौराणिक >> वयं रक्षामः वयं रक्षामःआचार्य चतुरसेन
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प्राचीन युग की पृष्ठभूमि पर आधारित एक महान मौलिक उपन्यास।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के
संबंध में एक नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन
तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री नहीं रह जाएँगे। अब यह मेरा उपन्यास है
‘वयं रक्षाम:’ इस दशा में अगला कदम है।
इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...
इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है।...
-आचार्य चतुरसेन
सकलकलोद्वासित-पक्षद्वय-सकलोपधा-विशुद्ध-मखशतपूत-प्रसन्नमूर्ति-स्थिरोन्नत-होमकरोज्ज्वल-
ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-
श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।
ज्योतिज्र्योतिर्मुख-स्वाधीनोदारसार-स्थगितनृपराजन्य-शतशतपरिलुण्ठन मौलिमाणिक्यरोचिचरण-प्रियवाचा-मायतन-साधुचरितनिकेतन-लोकाश्रयमार्गतरु-भारत-गणपतिभौमब्रह्ममहाराजाभिध-
श्रीराजेन्द्रप्रसादाय ह्यजातशत्रवे अद्य गणतन्त्राख्ये पुण्याहे भौमे माघमासे सिते दले तृतीयायां वैक्रमीये तलाधरेश्वरशून्यनेत्राब्दे निवेदयामि साञ्जलि:स्वीयं साहित्य-कृति वयं ‘रक्षाम:’ इति सामोदमहं चतुरसेन:।
पूर्व निवेदन
मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित
प्रज्ञा-पूंजी थी, उन सबको मैंने ‘वयं रक्षाम:’ में
झोंक दिया
है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रान्त-कलान्त बैठा
हूं। चाहती हूं-अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परन्तु यह हवा में
उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन-यात्रा की थी, मेरा
शैशव इक्का-टांगा-घोड़ों पर लुढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा। अब मोटर
और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्त्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट
पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है।
विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचू़ड़ वैर है। बहुत
घोड़ो को, गधों को, बैलों को बोझा ढोते-ढोते बीच राह मरते देखा है। इस
साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी।
तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा।
गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।
फिर अभी तो मुझे मार खानी है, जिसका निमन्त्रण मैं पहले दे चुका हूं। मार तो सदैव खाता रही हूं। इस बार का अपराध तो बहुत भारी है। ‘वयं रक्षाम:’ में प्राग्वेदकालीन जातियों के संबंध में सर्वथा अकल्पित-अतर्कित नई स्थापनाएं हैं, मुक्त सहवास है, वैदिक-अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर-मांस की खुली बाजार में ब्रिकी है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है। यह सब मेरे वे मित्र कैसे बर्दाश्त करेंगे भला, जो अश्लीलता की संभावना से सदा ही चौंकायमान रहते हैं।
परन्तु मैं तो भयभीत नहीं हूं। जैसे आपका शिव मन्दिर में जाकर शिव-लिंग पूजन अश्लील नहीं है, उसी भांति मेरा शिशन-देव भी अश्लील नहीं है। उसमें भी धर्म-तत्त्व समावेशित है। फिर वह मेरी नहीं है, प्राचीन है, प्राचीनतम है। सनातन है, विश्व की देव, दैत्य, दानव, मानव आदि सभी जातियों का सुपूजित है।
सत्या की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है। उसी सत्य की प्रतिष्ठा में मुझे प्राग्वेदकालीन नृवंश के जीवन पर प्रकाश डालना पड़ा है। अनहोने, अविश्रुत, सर्वथा अपरिचित तथ्य आप मेरे इस उपन्यास में देखेंगे; जिनकी व्याख्य़ा करने के लिए मुझे उपन्यास पर तीन सौ से अधिक पृष्ठों का भाष्य भी लिखना पड़ा है।1 फिर भी आप अवश्य ही मुझसे सहमत न होंगे। परन्तु आपके गुस्से के भय से तो मैं अपने मन के सत्य को रोक रखूंगा नहीं। अवश्य कहूंगा और सबसे पहले आप ही से।
साहित्य जीवन का इतिवृत्त नहीं है। जीवन और सौन्दर्य की व्याख्या का नाम साहित्य है। बाहरी संसार में जो कुछ बनता-बिगड़ता रहता है, उस पर से मानव-हृदय विचार और भावना की जो रचना करता है, वही साहित्य है। साहित्यकार साहित्य का निर्माता नहीं, उद्गाता है। वह केवल बांसुरी में फूंक भरता है।
शब्द-ध्वनि उसकी नहीं, केवल फूंक भरने का कौशल उसका है। साहित्यकार जो कुछ सोचता है, जो कुछ अनुभव करता है; वह एक मन से दूसरे मन में, एक काल से दूसरे काल में, मनुष्य की बुद्धि और भावना का सहारा लेकर जीवित रहता है। यही साहित्य का सत्य है। इसी सत्य के द्वारा मनुष्य का हृदय मनुष्य के हृदय से अमरत्व की याचना करता है। साहित्य का सत्य ज्ञान पर अवलम्बित नहीं है, भार पर अवलम्बित है। एक ज्ञान दूसरे ज्ञान को धकेल फेंकता है। नये आविष्कार पुराने आविष्कारों को रद्द करते चले जाते हैं। पर हृदय का भाव पुराने नहीं होते। भाव ही साहित्य को अमरत्व देता है। उसी से साहित्य का सत्य प्रकट होता है।
परन्तु साहित्य का यह सत्य नहीं है। असल सत्य और साहित्य के सत्य में भेद है। जैसा है वैसा ही लिख देना साहित्य नहीं है। हृदय के भावों की दो धाराएं हैं; एक अपनी ओर आती है, दूसरी दूसरों की ओर जाती है। यह दूसरी धारा बहुत दूर तक जा सकती है-विश्व के उस छोर तक। इसलिए जिस भाव को हमें दूर तक पहुंचाना है, जो चीज़ दूर से दिखानी है, उसे बड़ा करके दिखाना पड़ता है। परन्तु उसे ऐसी कारीगिरी से बड़ा करना होता है, जिससे उसका सत्य-रूप बिगड़ न जाए, जैसे छोटी फोटो को एन्लार्ज किया जाता है। जो साहित्यकार मन के छोटे-से सत्य को बिना विकृत किए इतना बड़ा एन्लार्ज करके प्रकट करने की सामर्थ्य रखता है कि सारा संसार उसे देख सके, और इतना पक्का रंग भरता है कि शताब्दियां-सहस्राब्दियां बीत जाने पर भी वह फीका न पड़े, वही सच्चा और महान साहित्यकार है।
केवल सत्य की ही प्रतिष्ठा से साहित्यकार का काम पूरा नहीं हो जाता। उस सत्य को उसे सुन्दर बनाना पड़ता है। साहित्य का सत्य है यदि सुन्दर न होगा तो विश्व उसे कैसे प्यार करेगा ? उस पर मोहित कैसे होगा ? इसलिए सत्य में सौन्दर्य की स्थापना के लिए, आवश्यकता है संयम की। सत्य में जब सौन्दर्य की स्थापना होती है, तब
1.उक्त भाष्य इसी उपन्यास के शारदा प्रकाशन, भागलपुर द्वारा प्रकाशित दूसरे संस्करण में देखा जा सकता है।
साहित्य कला का रूप धारण कर जाता है।
सत्य में सौन्दर्य का मेल होने से उसका मंगल रूप बनता है। यह मंगल रूप ही हमारे जीवन का ऐश्वर्य है। इसी से हम लक्ष्मी को केवल ऐश्वर्य की ही देवी नहीं, मंगल की भी देवी मानते हैं। जीवन जब ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो जाता है, तब वह आनन्द रूप हो जाता है और साहित्यकार ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण को ‘आनन्द-रूपममृतम्’ के रूप में चित्रित करता है। इसी को वह कहता है ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’।
‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक यह नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन की तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री न रह जाएंगे। अब यह मेरा नया उपन्यास ‘वयं राक्षम:’ इस दिशा में अगला कदम है। इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। ‘वयं रक्षाम:’ एक उपन्यास तो अवश्य है; परन्तु वास्तव में वह वेद, पुराण, दर्शन और वैदेशिक इतिहास-ग्रन्थों का दुस्साहस अध्ययन है। आज तक की मनुष्य की वाणी से सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूं। मैं तो अब यह काम कर ही चुका। अब आप कितनी मार मारते हैं, यह आपके रहम पर छोड़ता हूं। उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है, यह मैं पहले ही कह चुका हूं।
उपन्यास में व्याख्यात तत्त्वों की विवेचना मुझे उपन्यास में स्थान-स्थान करनी पड़ी है। मेरे लिए दूसरा मार्ग था ही नहीं। फिर भी प्रत्येक तथ्य की सप्रमाण टीका के बिना मैं अपना बचाव नहीं कर सकता था। अत: ढाई सौ पृष्ठों का भाष्य भी मुझे अपने इस उपन्यास पर रचना पड़ा। अपने ज्ञान में तो सब कुछ कह चुका। पर अन्तत: मेरा परिमित ज्ञान इस अगाध इतिहास को सांगोपांग व्यक्त नहीं कर सकता था। संक्षेप में मैंने सब वेद, पुराण, दर्शन, ब्राह्मण और इतिहास के प्राप्तों की एक बड़ी-सी गठरी बांधकर इतिहास-रस में एक डुबकी दे दी है। सबको इतिहास-रस में रंग दिया। फिर भी यह इतिहास-रस का उपन्यास नहीं ‘अतीत-रस’ का उपन्यास है। इतिहास-रस का तो केवल इसमें रंग है, स्वाद है, अतीत-रस का। अब आप मारिए या छोड़िए, आपको अख्तियार है।
एक बात और यह मेरा एक सौ तेईसवां ग्रन्थ है। कौन जाने, यह मेरी अन्तिम कलम हो। मैं यह घोषित करना आवश्यक समझता हूं कि मेरी कलम और मैं खुद भी काफी घिस चुके हैं। प्यारे पाठक, लगुडहस्त मित्र यह न भूल जाएं।
ज्ञानधाम-प्रतिष्ठान
गत ग्यारह महीनों में दो-तीन घण्टों में अधिक नहीं सो पाया। सम्भवत: नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं। शरीर मुर्झा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है। फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज, दर्प, दुस्साहस, भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात-दिन देखता हूं, उसके प्रभाव से कुछ-कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं। गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है।
फिर अभी तो मुझे मार खानी है, जिसका निमन्त्रण मैं पहले दे चुका हूं। मार तो सदैव खाता रही हूं। इस बार का अपराध तो बहुत भारी है। ‘वयं रक्षाम:’ में प्राग्वेदकालीन जातियों के संबंध में सर्वथा अकल्पित-अतर्कित नई स्थापनाएं हैं, मुक्त सहवास है, वैदिक-अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर-मांस की खुली बाजार में ब्रिकी है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है। यह सब मेरे वे मित्र कैसे बर्दाश्त करेंगे भला, जो अश्लीलता की संभावना से सदा ही चौंकायमान रहते हैं।
परन्तु मैं तो भयभीत नहीं हूं। जैसे आपका शिव मन्दिर में जाकर शिव-लिंग पूजन अश्लील नहीं है, उसी भांति मेरा शिशन-देव भी अश्लील नहीं है। उसमें भी धर्म-तत्त्व समावेशित है। फिर वह मेरी नहीं है, प्राचीन है, प्राचीनतम है। सनातन है, विश्व की देव, दैत्य, दानव, मानव आदि सभी जातियों का सुपूजित है।
सत्या की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है। उसी सत्य की प्रतिष्ठा में मुझे प्राग्वेदकालीन नृवंश के जीवन पर प्रकाश डालना पड़ा है। अनहोने, अविश्रुत, सर्वथा अपरिचित तथ्य आप मेरे इस उपन्यास में देखेंगे; जिनकी व्याख्य़ा करने के लिए मुझे उपन्यास पर तीन सौ से अधिक पृष्ठों का भाष्य भी लिखना पड़ा है।1 फिर भी आप अवश्य ही मुझसे सहमत न होंगे। परन्तु आपके गुस्से के भय से तो मैं अपने मन के सत्य को रोक रखूंगा नहीं। अवश्य कहूंगा और सबसे पहले आप ही से।
साहित्य जीवन का इतिवृत्त नहीं है। जीवन और सौन्दर्य की व्याख्या का नाम साहित्य है। बाहरी संसार में जो कुछ बनता-बिगड़ता रहता है, उस पर से मानव-हृदय विचार और भावना की जो रचना करता है, वही साहित्य है। साहित्यकार साहित्य का निर्माता नहीं, उद्गाता है। वह केवल बांसुरी में फूंक भरता है।
शब्द-ध्वनि उसकी नहीं, केवल फूंक भरने का कौशल उसका है। साहित्यकार जो कुछ सोचता है, जो कुछ अनुभव करता है; वह एक मन से दूसरे मन में, एक काल से दूसरे काल में, मनुष्य की बुद्धि और भावना का सहारा लेकर जीवित रहता है। यही साहित्य का सत्य है। इसी सत्य के द्वारा मनुष्य का हृदय मनुष्य के हृदय से अमरत्व की याचना करता है। साहित्य का सत्य ज्ञान पर अवलम्बित नहीं है, भार पर अवलम्बित है। एक ज्ञान दूसरे ज्ञान को धकेल फेंकता है। नये आविष्कार पुराने आविष्कारों को रद्द करते चले जाते हैं। पर हृदय का भाव पुराने नहीं होते। भाव ही साहित्य को अमरत्व देता है। उसी से साहित्य का सत्य प्रकट होता है।
परन्तु साहित्य का यह सत्य नहीं है। असल सत्य और साहित्य के सत्य में भेद है। जैसा है वैसा ही लिख देना साहित्य नहीं है। हृदय के भावों की दो धाराएं हैं; एक अपनी ओर आती है, दूसरी दूसरों की ओर जाती है। यह दूसरी धारा बहुत दूर तक जा सकती है-विश्व के उस छोर तक। इसलिए जिस भाव को हमें दूर तक पहुंचाना है, जो चीज़ दूर से दिखानी है, उसे बड़ा करके दिखाना पड़ता है। परन्तु उसे ऐसी कारीगिरी से बड़ा करना होता है, जिससे उसका सत्य-रूप बिगड़ न जाए, जैसे छोटी फोटो को एन्लार्ज किया जाता है। जो साहित्यकार मन के छोटे-से सत्य को बिना विकृत किए इतना बड़ा एन्लार्ज करके प्रकट करने की सामर्थ्य रखता है कि सारा संसार उसे देख सके, और इतना पक्का रंग भरता है कि शताब्दियां-सहस्राब्दियां बीत जाने पर भी वह फीका न पड़े, वही सच्चा और महान साहित्यकार है।
केवल सत्य की ही प्रतिष्ठा से साहित्यकार का काम पूरा नहीं हो जाता। उस सत्य को उसे सुन्दर बनाना पड़ता है। साहित्य का सत्य है यदि सुन्दर न होगा तो विश्व उसे कैसे प्यार करेगा ? उस पर मोहित कैसे होगा ? इसलिए सत्य में सौन्दर्य की स्थापना के लिए, आवश्यकता है संयम की। सत्य में जब सौन्दर्य की स्थापना होती है, तब
1.उक्त भाष्य इसी उपन्यास के शारदा प्रकाशन, भागलपुर द्वारा प्रकाशित दूसरे संस्करण में देखा जा सकता है।
साहित्य कला का रूप धारण कर जाता है।
सत्य में सौन्दर्य का मेल होने से उसका मंगल रूप बनता है। यह मंगल रूप ही हमारे जीवन का ऐश्वर्य है। इसी से हम लक्ष्मी को केवल ऐश्वर्य की ही देवी नहीं, मंगल की भी देवी मानते हैं। जीवन जब ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो जाता है, तब वह आनन्द रूप हो जाता है और साहित्यकार ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण को ‘आनन्द-रूपममृतम्’ के रूप में चित्रित करता है। इसी को वह कहता है ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’।
‘वैशाली की नगरवधू’ लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के संबंध में एक यह नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन की तथा चरित्र-चित्रण-भर की सामग्री न रह जाएंगे। अब यह मेरा नया उपन्यास ‘वयं राक्षम:’ इस दिशा में अगला कदम है। इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्य-दानव, आर्य-अनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृत-पुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। ‘वयं रक्षाम:’ एक उपन्यास तो अवश्य है; परन्तु वास्तव में वह वेद, पुराण, दर्शन और वैदेशिक इतिहास-ग्रन्थों का दुस्साहस अध्ययन है। आज तक की मनुष्य की वाणी से सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूं। मैं तो अब यह काम कर ही चुका। अब आप कितनी मार मारते हैं, यह आपके रहम पर छोड़ता हूं। उपन्यास में मेरे अपने जीवन-भर के अध्ययन का सार है, यह मैं पहले ही कह चुका हूं।
उपन्यास में व्याख्यात तत्त्वों की विवेचना मुझे उपन्यास में स्थान-स्थान करनी पड़ी है। मेरे लिए दूसरा मार्ग था ही नहीं। फिर भी प्रत्येक तथ्य की सप्रमाण टीका के बिना मैं अपना बचाव नहीं कर सकता था। अत: ढाई सौ पृष्ठों का भाष्य भी मुझे अपने इस उपन्यास पर रचना पड़ा। अपने ज्ञान में तो सब कुछ कह चुका। पर अन्तत: मेरा परिमित ज्ञान इस अगाध इतिहास को सांगोपांग व्यक्त नहीं कर सकता था। संक्षेप में मैंने सब वेद, पुराण, दर्शन, ब्राह्मण और इतिहास के प्राप्तों की एक बड़ी-सी गठरी बांधकर इतिहास-रस में एक डुबकी दे दी है। सबको इतिहास-रस में रंग दिया। फिर भी यह इतिहास-रस का उपन्यास नहीं ‘अतीत-रस’ का उपन्यास है। इतिहास-रस का तो केवल इसमें रंग है, स्वाद है, अतीत-रस का। अब आप मारिए या छोड़िए, आपको अख्तियार है।
एक बात और यह मेरा एक सौ तेईसवां ग्रन्थ है। कौन जाने, यह मेरी अन्तिम कलम हो। मैं यह घोषित करना आवश्यक समझता हूं कि मेरी कलम और मैं खुद भी काफी घिस चुके हैं। प्यारे पाठक, लगुडहस्त मित्र यह न भूल जाएं।
ज्ञानधाम-प्रतिष्ठान
शाहदरा, दिल्ली
26 जनवरी, 1955
26 जनवरी, 1955
-चतुरसेन
वयं रक्षाम:
1.
तिल-तंदुल
कज्ज्ल-कूट के समान गहन श्यामल, अनावृत, उन्मुख यौवन, नीलमणि-सी
ज्योतिर्मयी बड़ी-बड़ी आंखें, तीखे कटाक्षों से भरपूर-जिसमें मद्यसिक्त,
लाल डोरे; मदघूर्णित दृष्टि कम्बुग्रीवा पर अधर बिम्ब-से गहरे
लाल,
उत्फुल्ल अधर, उज्ज्वल हीरकावलि-सू धवल दन्तपंक्ति, सम्पुष्ट, प्रतिबिंबित
कपोल और प्रलय-मेघ-सी सघन, गहन, काली, घुंघराली मुक्तकुन्तलावलि, जिनमें
गुंथे ताजे कमल-दल-शतदल, कण्ठ में स्वर्णतार-ग्रथित गुंजा-माल; अनावृत,
उन्मुख, अचल यौवन-युगल पर निरन्तर आघात करता हुआ अंशुफलक, मांसल भुजाओं
में स्वर्णवलय और क्षीण कीट में स्वर्णमेखला; रक्ताम्बरमण्डित सम्पुष्ट
जघन-नितम्ब, गुल्फ में स्वर्ण-पैंजनियां, उनके नीचे हेमतार-ग्रथित कच्छप
चर्म-उपानत्-आवृत चरण-कमल। सद्य: किशोरी।
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