बहुभागीय पुस्तकें >> महासमर - अंतराल महासमर - अंतरालनरेन्द्र कोहली
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‘महासमर’ का यह पाँचवा खंड है- ‘अंतराल’। इस खंड में, द्यूत में हारने के पश्चात पांडवों के वनवास की कथा है।
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘महासमर’ का यह पाँचवा खंड है-
‘अंतराल’।
इस खंड में, द्यूत में हारने के पश्चात पांडवों के वनवास की कथा है। कुन्ती, पाण्डु के साथ शत-श्रृंग पर वनवास करने गई थी। लाक्षागृह के जलने पर, वह अपने पुत्रों के साथ हिडिम्ब वन में भी रही थी। महाभारत की कथा के अन्तिम चरण में, उसने धृतराष्ट्र, गांधारी तथा विदुर के साथ भी वनवास किया था।....किन्तु अपने पुत्रों के विकट कष्ट के इन दिनों उनके साथ में वह हस्तिनापुर मे विदुर के घर रही। क्यों ?
पांडवों की पत्नियाँ-देविका, बलधरा, सुभद्रा, करेणुमति और विजया, अपने-अपने बच्चों के साथ अपने-अपने मायके चली गई; किन्तु द्रौपदी कांपिल्य नहीं गई। वह पांडवों के साथ वन में ही रही। क्यों ?
कृष्ण चाहते थे कि वे यादवों के बाहुबल से, दुर्योधन से पांडवों का राज्य छीनकर, पांडवों को लौटा दें, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। क्यों ? सहसा ऐसा क्या हो गया कि बलराम के लिए धृतराष्ट्र तथा पांडव, एक समान प्रिय हो उठे, और दुर्योधन को यह अधिकार मिल गया कि वह कृष्ण से सैनिक सहायता माँग सके और कृष्ण उसे यह भी न कह सकें कि वे उसकी सहायता नहीं करेंगे ?
इतने शक्तिशाली सहायक होते हुए भी, युधिष्ठिर क्यों भयभीत थे ? उन्होंने अर्जुन को किन अपेक्षाओं के साथ दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए भेजा था ? अर्जुन क्या सचमुच स्वर्ग गये थे, जहाँ देह के साथ कोई नहीं जा सकता ? क्या उन्हें साक्षात् महादेव के दर्शन हुए थे ? अपनी पिछली त्राया में तीन-तीन विवाह करने वाले अर्जुन के साथ ऐसा क्या हो गया कि उसने उर्वशी के काम-निवेदन का तिरस्कार कर दिया ?
इस प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर निर्दोष तर्कों के आधार पर ‘अंतराल’ में प्रस्तुत किए गए हैं। यादवों की राजनीति, पांडवों के धर्म के प्रति आग्रह, तथा दुर्योधन की मदांधता संबंधी यह रचना पाठक के सम्मुख इस प्रख्यात कथा के अनेक नवीन आयाम उद्घाटित करती है। कथानक का ऐसा निर्माण, चरित्रों की ऐसी पहचान तथा भाषा का ऐसा प्रवाह-नरेन्द्र कोहली की लेखनी से ही संभव है ! प्रख्यात कथाओं का पुनर्सृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता; वह उनका युग-साक्षेप अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के वृक्ष, पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है; वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।
मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अन्धे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बन्दी हो, एक खंड सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खंड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।
नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं; किन्तु यह कृति एक उपन्यास है-आज के लेखक का मौलिक सृजन !
इस खंड में, द्यूत में हारने के पश्चात पांडवों के वनवास की कथा है। कुन्ती, पाण्डु के साथ शत-श्रृंग पर वनवास करने गई थी। लाक्षागृह के जलने पर, वह अपने पुत्रों के साथ हिडिम्ब वन में भी रही थी। महाभारत की कथा के अन्तिम चरण में, उसने धृतराष्ट्र, गांधारी तथा विदुर के साथ भी वनवास किया था।....किन्तु अपने पुत्रों के विकट कष्ट के इन दिनों उनके साथ में वह हस्तिनापुर मे विदुर के घर रही। क्यों ?
पांडवों की पत्नियाँ-देविका, बलधरा, सुभद्रा, करेणुमति और विजया, अपने-अपने बच्चों के साथ अपने-अपने मायके चली गई; किन्तु द्रौपदी कांपिल्य नहीं गई। वह पांडवों के साथ वन में ही रही। क्यों ?
कृष्ण चाहते थे कि वे यादवों के बाहुबल से, दुर्योधन से पांडवों का राज्य छीनकर, पांडवों को लौटा दें, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। क्यों ? सहसा ऐसा क्या हो गया कि बलराम के लिए धृतराष्ट्र तथा पांडव, एक समान प्रिय हो उठे, और दुर्योधन को यह अधिकार मिल गया कि वह कृष्ण से सैनिक सहायता माँग सके और कृष्ण उसे यह भी न कह सकें कि वे उसकी सहायता नहीं करेंगे ?
इतने शक्तिशाली सहायक होते हुए भी, युधिष्ठिर क्यों भयभीत थे ? उन्होंने अर्जुन को किन अपेक्षाओं के साथ दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए भेजा था ? अर्जुन क्या सचमुच स्वर्ग गये थे, जहाँ देह के साथ कोई नहीं जा सकता ? क्या उन्हें साक्षात् महादेव के दर्शन हुए थे ? अपनी पिछली त्राया में तीन-तीन विवाह करने वाले अर्जुन के साथ ऐसा क्या हो गया कि उसने उर्वशी के काम-निवेदन का तिरस्कार कर दिया ?
इस प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर निर्दोष तर्कों के आधार पर ‘अंतराल’ में प्रस्तुत किए गए हैं। यादवों की राजनीति, पांडवों के धर्म के प्रति आग्रह, तथा दुर्योधन की मदांधता संबंधी यह रचना पाठक के सम्मुख इस प्रख्यात कथा के अनेक नवीन आयाम उद्घाटित करती है। कथानक का ऐसा निर्माण, चरित्रों की ऐसी पहचान तथा भाषा का ऐसा प्रवाह-नरेन्द्र कोहली की लेखनी से ही संभव है ! प्रख्यात कथाओं का पुनर्सृजन उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता; वह उनका युग-साक्षेप अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के वृक्ष, पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है; वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।
मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली-मुहल्ले, नगर-देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की संम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अन्धे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बन्दी हो, एक खंड सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खंड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।
नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं; किन्तु यह कृति एक उपन्यास है-आज के लेखक का मौलिक सृजन !
अंतराल
युधिष्ठिर ! मैं तुम्हारे साथ वन नहीं जाऊँगी।’’
युधिष्ठिर ने कुंती की ओर देखाः माँ ने उसके मन का द्वंद्व जान लिया था क्या ?...वे मन ही मन कब से अपने धर्म-संकट से लड़ रहे थे। माँ कि अब वह अवस्था नहीं रही थी कि वे उन लोगों के साथ वन में जातीं।... वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे, कि माँ से क्या कहें और कैसे कहें ! यह तो बहुत अच्छा हुआ कि माँ ने स्वयं ही यह निश्चय कर लिया।.....
युधिष्ठिर का वश चला होता, तो अपनी पराजय के पश्चात् वे द्यूत-सभा से ही वन की ओर चल पड़े होते।...किंतु विदुर ने उन्हें वैसा करने नहीं दिया था। वे युधिष्ठिर को समझा-बुझाकर अपने घर ले आए थे। यहाँ आने से युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा, भंग नहीं होती थी। यह राजप्रसाद नहीं था। विदुर का निवास था। यहाँ हस्तिनापुर के महामंत्री अवश्य रहते थे; किंतु इसका रूप गंगा-तट के एक आश्रम का-सा ही था।.....
ठीक ही हुआ कि वे यहाँ आ गए। जाने से पहले, माँ के साथ शांतिपूर्वक कुछ चर्चा तो कर सकते हैं।...
‘‘मैं भी नहीं चाहता माँ ! कि तुम हमारे साथ तेरह वर्ष वन-वन भटको।...’’
‘‘क्यों ? क्या मैं पहले कभी वन में रही नहीं ?’’ कुंती दुख की उस घड़ी में भी मुस्करा रही थी।
‘‘रहीं क्यों नहीं ! तुम शतश्रृंग पर भी रहीं माँ ! हिडिंब वन में भी रहीं।.... किंतु तुम्हारी अवस्था नहीं थी माँ !’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘तो फिर इतने वर्ष कहाँ रहोगी ? अच्छा बताओ क्या भोजपुर जाओगी ?’’
कुंती हँस पड़ी, ‘‘कहाँ से स्मरण आ गया, तुझे भोजपुर ?’’
‘‘ क्यों ? वह तुम्हारा मायका है माँ !’’
‘‘है तो मायका ही !...’’ कुंती के स्वर में प्रच्छन्न रोष था, ‘‘किंतु विवाह के पश्चात् स्त्री का मायके से क्या संबंध ? अपने विवाह के पश्चात् मैंने एक बार भी पलटकर भोजपुर की ओर नहीं देखा ।’’ कुंती रुकी, ‘‘उन्होंने भी मुझे एक बार विदा क्या किया, मुझसे मुक्ति ही पा ली। मेरे किसी सुख-दुख में, मुझे कभी स्मरण नहीं किया उन्होंने !’’
युधिष्ठिर देख रहे थे.....माँ के मन में कोई घाव रिस रहा था....टीस भी उठती थी...किंतु माँ न रोती थीं, न कराहती थीं....पीड़ा को अभिव्यक्त करना माँ का स्वभाव नहीं है। माँ हँसती तो सबके साथ हैं, किंतु रोती अकेली हैं।....
‘‘तो द्वारका जाओगी माँ ?’’ युधिष्ठिर ने जैसे माँ की दुखद स्मृतियों टालने का प्रयत्न किया।
‘‘नहीं रे ! वह मेरा मायका नहीं रहा...।’’
पाँचों पुत्र स्तब्ध रह गए। माँ के मन में द्वारका के प्रति भी कोई रोष है ?....होगा।... पिता ने अपनी पुत्री किसी और को गोद दे दी...पिता के अधिकार का त्याग....तो पुत्री का भी उस पिता पर क्या अधिकार शेष रह गया ?’’
‘‘पर मातुल वसुदेव ने तो सदा तुम्हारी चिंता की है माँ ! कृष्ण और बलराम हमारी सहायता को सदा ही दौड़े आए हैं।...’’ अर्जुन बोला।
‘‘मैंने कब अस्वीकार किया रे ! न भाई से कोई विरोध है मेरा, न भाभी से।....’’
‘‘कोई रोष ?’’
‘‘रोष भी नहीं, क्षोभ भी नहीं, क्रोध भी नहीं.....।’’
‘‘तो फिर क्या है माँ ?’’ सहदेव पूछ रहा था।
‘‘कुछ भी हो !’’ भीम कुछ भड़क उठा, ‘‘जब माँ नहीं जाना चाहतीं, तो क्यों उन्हें बाध्य कर रहे हो ?....’’
‘‘बाध्य नहीं कर रहे हैं बस जानना चाहते हैं।’’ युधिष्ठिर शांत स्वर में बोले, ‘‘इन तेरह वर्षों में कही तो रहना है माँ को।’’
‘‘तुम हमारे साथ वन में ही रहो माँ !’’ भीम बोला, ‘‘तुम सोचोगी कि कैसा दुष्ट पुत्र हूँ मैं, कि माँ वन में जाना नहीं चाहती, तो भी साथ ले चलने का आग्रह कर रहा हूँ।...किंतु कहता हूँ माँ ! हमसे पृथक् रहकर, तुम सुखी नहीं होगी। हमारे साथ रहोगी, तो तुम्हें वन में भी तनिक भी असुविधा नहीं होने दूँगा। चल नहीं पाओगी तो भुजाओं में उठा लूँगा, कंधे पर बैठा लूँगा। तुम्हारा भार ही कितना है माँ ! और भार कितना भी हो, पुत्रों के लिए माँ बोझ नहीं होती।’’
भीम ने रुककर कुंती को देखा, ‘‘अपनी बाँहों के तकिए पर सुलाऊँगा माँ ! तुम्हारे भोजन के लिए पृथ्वी फोड़ दूँगा, आकाश नोच लूँगा। सच कहता हूँ, तुम्हें कष्ट नहीं होने दूँगा।’’
‘‘मैंने कब कहा पुत्र ! कि वन में तुम लोगों के होते, मुझे कोई असुविधा होगी,....।’’ कुंती बोली।
‘‘तो ?’’ भीम ने कुछ चकित स्वर में पूछा।
यह निर्णय तो हो ले कि माँ द्वारका क्यों नहीं जाना चाहतीं।’’ अर्जुन ने कुछ अतिरिक्त कोमल स्वर में कहा।
‘‘कहा न, द्वारका अब मेरा मायका नहीं रहा।’’ कुंती ने कहा
‘‘पर क्यों ?’’
‘‘तेरे और सुभद्रा के विवाह के पश्चात् वह मेरा समधियाना हो गया है।’’ कुंती बोली, ‘‘समधियों के आश्रय में पलना, शिष्ट आचरण नहीं है पुत्र !’’
‘‘ओह !’’ अर्जुन के स्वर में हल्का-सा अवसाद था, ‘‘मैंने यह कैसी भूल की कि माँ से उसका मायका ही छीन लिया।’’
‘‘नहीं पुत्र ! तुमने कोई भूल नहीं कि।’’ कुंती का स्वर शांत और ममतामय था, ‘‘तुमने तो एक नया सम्बन्ध जोड़ा है; किंतु जब एक नया संबंध जुड़ता है अर्जुन ! तो पुराने संबंध धुँधले पड़ ही जाते हैं।’’
‘‘माँ को न भोजपुर जाना है, न द्वारका, न वन में हमारे साथ रहना है; तो कहाँ रहोगी माँ ? इंद्रप्रस्थ के प्रसाद में ?’’ भीम हंस पड़ा।
‘‘नहीं ! मैं अपने ससुराल में रहूँगी।’’ कुंती का स्वर दृढ़ और निश्चित था, ‘‘हस्तिनापुर में रहूँगी।’’
‘‘हस्तिनापुर में रहोगी ? पुत्र चकित थेः माँ शत्रुओं के नगर में कैसे रहेगी !
‘‘तुम हस्तिनापुर में सुरक्षित नहीं हो माँ।’’ अंततः भीम बोला।
‘‘क्यों सुरक्षित नहीं हूँ ? यहाँ पितामह हैं, द्रोणाचार्य हैं, कृपाचार्य हैं, बिदुर हैं....।’’
‘‘ये सब लोग तो तब भी थे जब पांचाली का अपमान हुआ था।’’ भीम बोला, ‘‘कहाँ रहोगी माँ ? पितामह के आश्रय में ?’’
‘‘नहीं ! मैं अपनी उपस्थिति से उन्हें निरंतर अपराध-बोध की अग्नि में नहीं झुलसाना चाहती। मेरे लिए पर-पीड़ा में कोई आकर्षण नहीं है पुत्र !’’
महाराज धृतराष्ट्र के आश्रय में ?’’ युधिष्ठिर ने पूछा।
‘‘नहीं ?’’ कुंती बोली, ‘‘वे मुझे आश्रय देकर प्रसन्न नहीं होंगे। संभव है मुझे आश्रय देने के कारण उन्हें दुर्याधन के कोप का भाजन करना पड़े।’’
सहसा बिदुर ने अपना मौन तोड़ा, ‘‘यदि हस्तिनापुर में रहने का जोखम झेलना ही है भाभी ! तो मेरा घर प्रस्ततु है। मैं और पारंसवी तुम्हें सिर-आँखों पर रखेंगे !.... मैं तो अब तक इसलिए कुछ नहीं बोला, कि तुम अपने पुत्रों से विलग होना नहीं चाहोगी....और हस्तिनापुर में मेरा घर न राजसी सुविधओं से संपन्न है, न सैनिकों द्वारा संरक्षित है...।....
‘‘अब मेरी अवस्था पुत्रों के साथ रहने की नहीं है विदुर !’’ कुंती बोली, ‘‘उसका पालन-पोषण, जैसा मुझसे बना, मैंने कर दिया। अब उनके साथ सुख-दुख का निर्वाह करने का दायित्व उनकी पत्नियों का है। वे करें। अब, जब मैं उन्हें कुछ दे नहीं सकती, मेरा प्रेम उन्हें मुक्त कर देना चाहता है। अपनी आसक्ति को संयत नहीं करूँगी, तो मेरा मोह उन्हें बाँधता रहेगा।...’’कुंती ने रुककर सीधे विदुर की आँखों में देखा, ‘‘मैं तुम्हारे ही घर रहूँगी विदुर ! सुविधा और सुरक्षा की चिन्ता छोड़ो। एक बार अपने मन से पूछ लो; और एक बार अपनी पत्नी से। बाद में पश्चात्ताप मत करना। तेरह वर्षों की अवधि कोई छोटा काल-खंड नहीं है।’’
‘‘भाभी !’’ पारंसवी की आँखें भर आईं, ‘‘इतनी कठोर मत बनो। तुम अपने वास के लिए स्वेच्छा से हमारा घर चुनो, यह हमारे लिए कितना बड़ा गौरव है। जैसे प्रभु ने सारे जीवन की तपस्या का फल दिया हो। यह तो प्रभु की लीला है कि तुम्हारे कष्ट में वह हमें यश दे रहा है। फल शाखा से टूटकर नीचे न गिरे, तो कंगाल झोली कैसे भरे !’’
‘‘पारंसवी !...’’ कुंती ने पारंसवी को कंधों से पकड़ लिया, ‘‘पागल है तू ! देवर से परिहास की भी अनुमति नहीं देगी ! तुझ पर विश्वास न होता तो, अपने मुख से कहती कि कि तेरह वर्ष तेरे घर पे रहूँगी।...’’
‘‘काकी ! माँ तुम्हारे घर में रहेंगी। यह सोचकर मन काँपता है।’’ युधिष्ठिर की मुद्रा में परिहास का स्पर्श भी नहीं था।
‘‘मेरा घर सोच के भयभीत न होओ पुत्र ! इस घर में मुझ से कहीं अधिक अधिकारी तुम्हारी माता है। मैं तो उनकी कृपा से ही इस घर में हूँ !’’
‘‘नहीं काकी ! मैं तुमसे नहीं डरता।’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘मैं तो यह सोचकर भयभीत हूँ कि माँ हस्तिनपुर में रहने की व्यवस्था कर रही हैं, जैसे उन्हें दुर्योधन की ओर से तनिक भी आशंका न हो।....
‘‘मैं दुर्योधन से तनिक भी भयभीत नहीं हूँ पुत्र !’’ कुंती शांत स्थिर स्वर में बोली, ‘‘मैं यदि किसी से भयभीत हूँ, तो वह तुम हो पुत्र ! धर्मराज तुम !’’
युधिष्ठिर का मन काँप-काँप गया.. उनकी माता, उन्हीं से भयभीत हैं ....युधिष्ठिर ने ऐसा क्या कर दिया है ?’’
‘‘क्यों माँ ! मुझसे क्यों भयभीत हो ?’’
‘‘तुमसे भयभीत हूँ कि तुम्हारा स्वभाव बहुत सात्विक है। तुम में तनिक भी क्रूरता नहीं है। तुम शत्रुओं को क्षमा कर देते हो। अपनी क्षति होते देखकर भी, तुम दूसरे की क्षति नहीं करते।’’
‘‘तो इसमें भय की क्या बात है माँ ?’’
‘‘मुझे भय कि तुम वन में भी, संतुष्ट ही नहीं, प्रसन्न होकर रह लोगे। तुम भूल जाओगे कि तुम्हारा अपना कोई राज्य भी था, जो तुमसे छीन लिया गया था; और जिसे तुम्हें पुनः प्राप्त करना है।’’ कुंती बोली, ‘‘हाँ पुत्र ! तुम्हारे पिता भी हस्तिनापुर का राज्य छोड़कर चले गये थे; और संन्यास ग्रहण करना चाहते थे। उन्हें भी मैंने ही यह करने से रोका था....अब भी उस मार्ग पर चलने की अनुमति नहीं दूँगी। तुम अपनी राज्य लक्ष्मी को भूल भी जाओ, तो भूलने नहीं दूँगी कि तुम्हारी माँ यहाँ बैठी है, हस्तिनापुर में। जिन लोगों ने तुम्हें तुम्हारी राज्य-लक्ष्मी से, सत्ता और संपत्ति से, प्रजा और धरती से वंचित किया है, उन्हीं के नगर में बैठी तुम्हारी माँ ! धरती और माता में बहुत अन्तर नहीं है पुत्र ! अपनी धरती जीत कर, उसे स्वाधीन करके आना और अपनी माँ को, हस्तिनापुर से मुक्त कराकर ले जाना....।’’
‘‘माँ !’’
‘‘हाँ पुत्र ! तुम्हें मेरे बंधन काटने के लिए हस्तिनापुर आना होगा। तुम मुझे मुक्त कराए, आवागमन से मुक्ति के लिए, वनवास सीधे उन पर्वतों पर नहीं जा सकते जहाँ से स्वर्ग का मार्ग सीधा दिखाई देता है। मैं तुम्हें अन्याय के विरुद्ध युद्ध किए बिना जन्मांतरों से मोक्ष पाने नहीं दूँगी।’’ कुंती रुकी, ‘‘अब समझे मैं तुमसे क्यों भयभीत हूँ।’’
‘‘मैं तो अब समझा माँ उतनी भोली नहीं है, जितनी मैं उसे समझता हूँ।’’
‘‘उतनी क्या तुम्हारी माँ तनिक भी भोली नहीं है पुत्र ! वन जाने का भी एक समय होता है।’’ कुंती बोली, ‘‘भगवान राम के साथ उनकी पत्नी वन में गई थी, माता नहीं। मैं भी अपने पति के साथ शतश्रृंग पर रही थी। अब तुम्हारे साथ वन वे जाएँ जिसका धर्म है तुम्हारे साथ जाना।’’
‘‘काका !’’ सहसा युधिष्ठिर बोले ‘‘माँ आपके घर रहेंगी। उन्हें दुर्योधन का भय नहीं है; किंतु क्या आपको भी राज्यसत्ता से किसी प्रकार का कोई भय नहीं होगा ?’’
‘‘मैं राज्यसत्ता से भयभीत होता, तो दुर्योधन के विरुद्ध तुम्हारा पक्ष कभी भी नहीं ले पाता !’’ विदुर बोले, ‘‘मैं तो सदा इसी स्थिति में रहा हूँ....दुर्योधन के विरुद्ध मुझे सदा महाराज धृतराष्ट का सुरक्षा-कवच प्राप्त है।...’’
‘‘तो ठीक है काका !’’ युधिष्ठिर निश्चय कर चुके थे, ‘‘जब तक हम वन में हैं, माँ आपके ही पास रहेंगी।’’
विदुर ने स्वीकृति से सिर हिला दिया।
‘‘शेष लोगों के विषय में क्या सोचा है धर्मराज ?’’ भीम पूछ रहा था। युधिष्ठिर क्षण भर सोचते रहे; फिर बोले, ‘‘जो लोग अभी हमारे साथ चल सकते हों, चलें। इंद्रसेन और विशोक को कह दो, वे स्त्रियों और बच्चों के परिवहन की व्यस्था कर, उन्हें हमारे पास वन में ले आएँ। यदि हमारी रानियों के रथों तथा अश्व, दुर्योधन न ले जाने दे, तो विदुर काका तथा पितामह के रथों का उपयोग किया जा सकता है। हस्तिनापुर में इस समय यह निर्णय नहीं हो सकता कि परिवार की स्त्रियाँ और बच्चे कहाँ रहेंगे। वन में हम ठिकाना कर लें, फिर शान्ति से विचार विमर्श कर लेंगे कि किसकी व्यवस्था कहाँ करनी है।’’
‘‘हमें हस्तिनापुर से तो तत्काल ही निकल लेना चाहिए मध्यम !’’ अर्जुन बोला, ‘‘धार्तराष्ट्रों की इस नगरी में हम जितनी देर अधिक ठहरेंगे, उतना ही अधिक संताप झेलेंगे।’’
‘‘ठीक है।’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘माता, काका काकी से विदा लो; और यहाँ से प्रस्थान करो।’’
युधिष्ठिर ने कुंती की ओर देखाः माँ ने उसके मन का द्वंद्व जान लिया था क्या ?...वे मन ही मन कब से अपने धर्म-संकट से लड़ रहे थे। माँ कि अब वह अवस्था नहीं रही थी कि वे उन लोगों के साथ वन में जातीं।... वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे, कि माँ से क्या कहें और कैसे कहें ! यह तो बहुत अच्छा हुआ कि माँ ने स्वयं ही यह निश्चय कर लिया।.....
युधिष्ठिर का वश चला होता, तो अपनी पराजय के पश्चात् वे द्यूत-सभा से ही वन की ओर चल पड़े होते।...किंतु विदुर ने उन्हें वैसा करने नहीं दिया था। वे युधिष्ठिर को समझा-बुझाकर अपने घर ले आए थे। यहाँ आने से युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा, भंग नहीं होती थी। यह राजप्रसाद नहीं था। विदुर का निवास था। यहाँ हस्तिनापुर के महामंत्री अवश्य रहते थे; किंतु इसका रूप गंगा-तट के एक आश्रम का-सा ही था।.....
ठीक ही हुआ कि वे यहाँ आ गए। जाने से पहले, माँ के साथ शांतिपूर्वक कुछ चर्चा तो कर सकते हैं।...
‘‘मैं भी नहीं चाहता माँ ! कि तुम हमारे साथ तेरह वर्ष वन-वन भटको।...’’
‘‘क्यों ? क्या मैं पहले कभी वन में रही नहीं ?’’ कुंती दुख की उस घड़ी में भी मुस्करा रही थी।
‘‘रहीं क्यों नहीं ! तुम शतश्रृंग पर भी रहीं माँ ! हिडिंब वन में भी रहीं।.... किंतु तुम्हारी अवस्था नहीं थी माँ !’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘तो फिर इतने वर्ष कहाँ रहोगी ? अच्छा बताओ क्या भोजपुर जाओगी ?’’
कुंती हँस पड़ी, ‘‘कहाँ से स्मरण आ गया, तुझे भोजपुर ?’’
‘‘ क्यों ? वह तुम्हारा मायका है माँ !’’
‘‘है तो मायका ही !...’’ कुंती के स्वर में प्रच्छन्न रोष था, ‘‘किंतु विवाह के पश्चात् स्त्री का मायके से क्या संबंध ? अपने विवाह के पश्चात् मैंने एक बार भी पलटकर भोजपुर की ओर नहीं देखा ।’’ कुंती रुकी, ‘‘उन्होंने भी मुझे एक बार विदा क्या किया, मुझसे मुक्ति ही पा ली। मेरे किसी सुख-दुख में, मुझे कभी स्मरण नहीं किया उन्होंने !’’
युधिष्ठिर देख रहे थे.....माँ के मन में कोई घाव रिस रहा था....टीस भी उठती थी...किंतु माँ न रोती थीं, न कराहती थीं....पीड़ा को अभिव्यक्त करना माँ का स्वभाव नहीं है। माँ हँसती तो सबके साथ हैं, किंतु रोती अकेली हैं।....
‘‘तो द्वारका जाओगी माँ ?’’ युधिष्ठिर ने जैसे माँ की दुखद स्मृतियों टालने का प्रयत्न किया।
‘‘नहीं रे ! वह मेरा मायका नहीं रहा...।’’
पाँचों पुत्र स्तब्ध रह गए। माँ के मन में द्वारका के प्रति भी कोई रोष है ?....होगा।... पिता ने अपनी पुत्री किसी और को गोद दे दी...पिता के अधिकार का त्याग....तो पुत्री का भी उस पिता पर क्या अधिकार शेष रह गया ?’’
‘‘पर मातुल वसुदेव ने तो सदा तुम्हारी चिंता की है माँ ! कृष्ण और बलराम हमारी सहायता को सदा ही दौड़े आए हैं।...’’ अर्जुन बोला।
‘‘मैंने कब अस्वीकार किया रे ! न भाई से कोई विरोध है मेरा, न भाभी से।....’’
‘‘कोई रोष ?’’
‘‘रोष भी नहीं, क्षोभ भी नहीं, क्रोध भी नहीं.....।’’
‘‘तो फिर क्या है माँ ?’’ सहदेव पूछ रहा था।
‘‘कुछ भी हो !’’ भीम कुछ भड़क उठा, ‘‘जब माँ नहीं जाना चाहतीं, तो क्यों उन्हें बाध्य कर रहे हो ?....’’
‘‘बाध्य नहीं कर रहे हैं बस जानना चाहते हैं।’’ युधिष्ठिर शांत स्वर में बोले, ‘‘इन तेरह वर्षों में कही तो रहना है माँ को।’’
‘‘तुम हमारे साथ वन में ही रहो माँ !’’ भीम बोला, ‘‘तुम सोचोगी कि कैसा दुष्ट पुत्र हूँ मैं, कि माँ वन में जाना नहीं चाहती, तो भी साथ ले चलने का आग्रह कर रहा हूँ।...किंतु कहता हूँ माँ ! हमसे पृथक् रहकर, तुम सुखी नहीं होगी। हमारे साथ रहोगी, तो तुम्हें वन में भी तनिक भी असुविधा नहीं होने दूँगा। चल नहीं पाओगी तो भुजाओं में उठा लूँगा, कंधे पर बैठा लूँगा। तुम्हारा भार ही कितना है माँ ! और भार कितना भी हो, पुत्रों के लिए माँ बोझ नहीं होती।’’
भीम ने रुककर कुंती को देखा, ‘‘अपनी बाँहों के तकिए पर सुलाऊँगा माँ ! तुम्हारे भोजन के लिए पृथ्वी फोड़ दूँगा, आकाश नोच लूँगा। सच कहता हूँ, तुम्हें कष्ट नहीं होने दूँगा।’’
‘‘मैंने कब कहा पुत्र ! कि वन में तुम लोगों के होते, मुझे कोई असुविधा होगी,....।’’ कुंती बोली।
‘‘तो ?’’ भीम ने कुछ चकित स्वर में पूछा।
यह निर्णय तो हो ले कि माँ द्वारका क्यों नहीं जाना चाहतीं।’’ अर्जुन ने कुछ अतिरिक्त कोमल स्वर में कहा।
‘‘कहा न, द्वारका अब मेरा मायका नहीं रहा।’’ कुंती ने कहा
‘‘पर क्यों ?’’
‘‘तेरे और सुभद्रा के विवाह के पश्चात् वह मेरा समधियाना हो गया है।’’ कुंती बोली, ‘‘समधियों के आश्रय में पलना, शिष्ट आचरण नहीं है पुत्र !’’
‘‘ओह !’’ अर्जुन के स्वर में हल्का-सा अवसाद था, ‘‘मैंने यह कैसी भूल की कि माँ से उसका मायका ही छीन लिया।’’
‘‘नहीं पुत्र ! तुमने कोई भूल नहीं कि।’’ कुंती का स्वर शांत और ममतामय था, ‘‘तुमने तो एक नया सम्बन्ध जोड़ा है; किंतु जब एक नया संबंध जुड़ता है अर्जुन ! तो पुराने संबंध धुँधले पड़ ही जाते हैं।’’
‘‘माँ को न भोजपुर जाना है, न द्वारका, न वन में हमारे साथ रहना है; तो कहाँ रहोगी माँ ? इंद्रप्रस्थ के प्रसाद में ?’’ भीम हंस पड़ा।
‘‘नहीं ! मैं अपने ससुराल में रहूँगी।’’ कुंती का स्वर दृढ़ और निश्चित था, ‘‘हस्तिनापुर में रहूँगी।’’
‘‘हस्तिनापुर में रहोगी ? पुत्र चकित थेः माँ शत्रुओं के नगर में कैसे रहेगी !
‘‘तुम हस्तिनापुर में सुरक्षित नहीं हो माँ।’’ अंततः भीम बोला।
‘‘क्यों सुरक्षित नहीं हूँ ? यहाँ पितामह हैं, द्रोणाचार्य हैं, कृपाचार्य हैं, बिदुर हैं....।’’
‘‘ये सब लोग तो तब भी थे जब पांचाली का अपमान हुआ था।’’ भीम बोला, ‘‘कहाँ रहोगी माँ ? पितामह के आश्रय में ?’’
‘‘नहीं ! मैं अपनी उपस्थिति से उन्हें निरंतर अपराध-बोध की अग्नि में नहीं झुलसाना चाहती। मेरे लिए पर-पीड़ा में कोई आकर्षण नहीं है पुत्र !’’
महाराज धृतराष्ट्र के आश्रय में ?’’ युधिष्ठिर ने पूछा।
‘‘नहीं ?’’ कुंती बोली, ‘‘वे मुझे आश्रय देकर प्रसन्न नहीं होंगे। संभव है मुझे आश्रय देने के कारण उन्हें दुर्याधन के कोप का भाजन करना पड़े।’’
सहसा बिदुर ने अपना मौन तोड़ा, ‘‘यदि हस्तिनापुर में रहने का जोखम झेलना ही है भाभी ! तो मेरा घर प्रस्ततु है। मैं और पारंसवी तुम्हें सिर-आँखों पर रखेंगे !.... मैं तो अब तक इसलिए कुछ नहीं बोला, कि तुम अपने पुत्रों से विलग होना नहीं चाहोगी....और हस्तिनापुर में मेरा घर न राजसी सुविधओं से संपन्न है, न सैनिकों द्वारा संरक्षित है...।....
‘‘अब मेरी अवस्था पुत्रों के साथ रहने की नहीं है विदुर !’’ कुंती बोली, ‘‘उसका पालन-पोषण, जैसा मुझसे बना, मैंने कर दिया। अब उनके साथ सुख-दुख का निर्वाह करने का दायित्व उनकी पत्नियों का है। वे करें। अब, जब मैं उन्हें कुछ दे नहीं सकती, मेरा प्रेम उन्हें मुक्त कर देना चाहता है। अपनी आसक्ति को संयत नहीं करूँगी, तो मेरा मोह उन्हें बाँधता रहेगा।...’’कुंती ने रुककर सीधे विदुर की आँखों में देखा, ‘‘मैं तुम्हारे ही घर रहूँगी विदुर ! सुविधा और सुरक्षा की चिन्ता छोड़ो। एक बार अपने मन से पूछ लो; और एक बार अपनी पत्नी से। बाद में पश्चात्ताप मत करना। तेरह वर्षों की अवधि कोई छोटा काल-खंड नहीं है।’’
‘‘भाभी !’’ पारंसवी की आँखें भर आईं, ‘‘इतनी कठोर मत बनो। तुम अपने वास के लिए स्वेच्छा से हमारा घर चुनो, यह हमारे लिए कितना बड़ा गौरव है। जैसे प्रभु ने सारे जीवन की तपस्या का फल दिया हो। यह तो प्रभु की लीला है कि तुम्हारे कष्ट में वह हमें यश दे रहा है। फल शाखा से टूटकर नीचे न गिरे, तो कंगाल झोली कैसे भरे !’’
‘‘पारंसवी !...’’ कुंती ने पारंसवी को कंधों से पकड़ लिया, ‘‘पागल है तू ! देवर से परिहास की भी अनुमति नहीं देगी ! तुझ पर विश्वास न होता तो, अपने मुख से कहती कि कि तेरह वर्ष तेरे घर पे रहूँगी।...’’
‘‘काकी ! माँ तुम्हारे घर में रहेंगी। यह सोचकर मन काँपता है।’’ युधिष्ठिर की मुद्रा में परिहास का स्पर्श भी नहीं था।
‘‘मेरा घर सोच के भयभीत न होओ पुत्र ! इस घर में मुझ से कहीं अधिक अधिकारी तुम्हारी माता है। मैं तो उनकी कृपा से ही इस घर में हूँ !’’
‘‘नहीं काकी ! मैं तुमसे नहीं डरता।’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘मैं तो यह सोचकर भयभीत हूँ कि माँ हस्तिनपुर में रहने की व्यवस्था कर रही हैं, जैसे उन्हें दुर्योधन की ओर से तनिक भी आशंका न हो।....
‘‘मैं दुर्योधन से तनिक भी भयभीत नहीं हूँ पुत्र !’’ कुंती शांत स्थिर स्वर में बोली, ‘‘मैं यदि किसी से भयभीत हूँ, तो वह तुम हो पुत्र ! धर्मराज तुम !’’
युधिष्ठिर का मन काँप-काँप गया.. उनकी माता, उन्हीं से भयभीत हैं ....युधिष्ठिर ने ऐसा क्या कर दिया है ?’’
‘‘क्यों माँ ! मुझसे क्यों भयभीत हो ?’’
‘‘तुमसे भयभीत हूँ कि तुम्हारा स्वभाव बहुत सात्विक है। तुम में तनिक भी क्रूरता नहीं है। तुम शत्रुओं को क्षमा कर देते हो। अपनी क्षति होते देखकर भी, तुम दूसरे की क्षति नहीं करते।’’
‘‘तो इसमें भय की क्या बात है माँ ?’’
‘‘मुझे भय कि तुम वन में भी, संतुष्ट ही नहीं, प्रसन्न होकर रह लोगे। तुम भूल जाओगे कि तुम्हारा अपना कोई राज्य भी था, जो तुमसे छीन लिया गया था; और जिसे तुम्हें पुनः प्राप्त करना है।’’ कुंती बोली, ‘‘हाँ पुत्र ! तुम्हारे पिता भी हस्तिनापुर का राज्य छोड़कर चले गये थे; और संन्यास ग्रहण करना चाहते थे। उन्हें भी मैंने ही यह करने से रोका था....अब भी उस मार्ग पर चलने की अनुमति नहीं दूँगी। तुम अपनी राज्य लक्ष्मी को भूल भी जाओ, तो भूलने नहीं दूँगी कि तुम्हारी माँ यहाँ बैठी है, हस्तिनापुर में। जिन लोगों ने तुम्हें तुम्हारी राज्य-लक्ष्मी से, सत्ता और संपत्ति से, प्रजा और धरती से वंचित किया है, उन्हीं के नगर में बैठी तुम्हारी माँ ! धरती और माता में बहुत अन्तर नहीं है पुत्र ! अपनी धरती जीत कर, उसे स्वाधीन करके आना और अपनी माँ को, हस्तिनापुर से मुक्त कराकर ले जाना....।’’
‘‘माँ !’’
‘‘हाँ पुत्र ! तुम्हें मेरे बंधन काटने के लिए हस्तिनापुर आना होगा। तुम मुझे मुक्त कराए, आवागमन से मुक्ति के लिए, वनवास सीधे उन पर्वतों पर नहीं जा सकते जहाँ से स्वर्ग का मार्ग सीधा दिखाई देता है। मैं तुम्हें अन्याय के विरुद्ध युद्ध किए बिना जन्मांतरों से मोक्ष पाने नहीं दूँगी।’’ कुंती रुकी, ‘‘अब समझे मैं तुमसे क्यों भयभीत हूँ।’’
‘‘मैं तो अब समझा माँ उतनी भोली नहीं है, जितनी मैं उसे समझता हूँ।’’
‘‘उतनी क्या तुम्हारी माँ तनिक भी भोली नहीं है पुत्र ! वन जाने का भी एक समय होता है।’’ कुंती बोली, ‘‘भगवान राम के साथ उनकी पत्नी वन में गई थी, माता नहीं। मैं भी अपने पति के साथ शतश्रृंग पर रही थी। अब तुम्हारे साथ वन वे जाएँ जिसका धर्म है तुम्हारे साथ जाना।’’
‘‘काका !’’ सहसा युधिष्ठिर बोले ‘‘माँ आपके घर रहेंगी। उन्हें दुर्योधन का भय नहीं है; किंतु क्या आपको भी राज्यसत्ता से किसी प्रकार का कोई भय नहीं होगा ?’’
‘‘मैं राज्यसत्ता से भयभीत होता, तो दुर्योधन के विरुद्ध तुम्हारा पक्ष कभी भी नहीं ले पाता !’’ विदुर बोले, ‘‘मैं तो सदा इसी स्थिति में रहा हूँ....दुर्योधन के विरुद्ध मुझे सदा महाराज धृतराष्ट का सुरक्षा-कवच प्राप्त है।...’’
‘‘तो ठीक है काका !’’ युधिष्ठिर निश्चय कर चुके थे, ‘‘जब तक हम वन में हैं, माँ आपके ही पास रहेंगी।’’
विदुर ने स्वीकृति से सिर हिला दिया।
‘‘शेष लोगों के विषय में क्या सोचा है धर्मराज ?’’ भीम पूछ रहा था। युधिष्ठिर क्षण भर सोचते रहे; फिर बोले, ‘‘जो लोग अभी हमारे साथ चल सकते हों, चलें। इंद्रसेन और विशोक को कह दो, वे स्त्रियों और बच्चों के परिवहन की व्यस्था कर, उन्हें हमारे पास वन में ले आएँ। यदि हमारी रानियों के रथों तथा अश्व, दुर्योधन न ले जाने दे, तो विदुर काका तथा पितामह के रथों का उपयोग किया जा सकता है। हस्तिनापुर में इस समय यह निर्णय नहीं हो सकता कि परिवार की स्त्रियाँ और बच्चे कहाँ रहेंगे। वन में हम ठिकाना कर लें, फिर शान्ति से विचार विमर्श कर लेंगे कि किसकी व्यवस्था कहाँ करनी है।’’
‘‘हमें हस्तिनापुर से तो तत्काल ही निकल लेना चाहिए मध्यम !’’ अर्जुन बोला, ‘‘धार्तराष्ट्रों की इस नगरी में हम जितनी देर अधिक ठहरेंगे, उतना ही अधिक संताप झेलेंगे।’’
‘‘ठीक है।’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘माता, काका काकी से विदा लो; और यहाँ से प्रस्थान करो।’’
2
अपनी अन्यमनस्कता और आत्मलीनता में भी युधिष्ठिर की चेतना अपने आसपास की
गतिविधि से असावधान नहीं थी। उन्होंने अनुभव किया कि वेग थम गया है; और
गति, स्थिर में परिणत हो गई है।....कदाचित् भीम ने यहाँ रुकने का निश्चय
किया था और वैसा ही संकेत कर दिया था।
उन्होंने दृष्टि उठाईः जिस स्थान पर वे रुके थे, वह गंगा का तट था। चारों ओर सुंदर वृक्ष थे। गंगा की वेला अपने-आप में इतनी मनोरम थी यह मानना ही पड़ता था कि भीम ने रुकने के लिए बहुत ही अच्छे स्थान का चुनाव किया था।...
किंतु स्थान तो प्रमाणकोटि था।...कौरवों का बहुत प्रिय क्रीड़ास्थल ! बाल्यावस्था में ही दुर्योंदन ने भीम के प्राण लेने का षड्यंत्र रचा था।....तो फिर भीम ने यहीं रुकने की व्यवस्था क्यों की है ?...क्या वे लोग कुछ और दूर नहीं चल सकते थे ? वन में कहीं भी जा ठहरते, जहाँ सुंदर प्रकृति उनके आहत हृदय पर कोई सुखद लेप लगाती।... जब सबका मन क्षोभ से विक्षिप्त हो रहा हो, तब एक दुःखद अनुभव की स्मृति संजोए, इस स्थान पर, दोबारा आ ठहरने का क्या प्रयोजन था ? क्या भीम को कुछ भी स्मरण नहीं रहता ?....या स्मरण तो रहता है, किंतु स्मृतियाँ उनके मन में पीड़ा नहीं जगातीं ? दंश का अनुभव नहीं होता उसे ? क्या हो गया है, भीम की संवेदनशीलता को ?
सहसा युधिष्ठिर का मन कुछ इस प्रकार सहम कर खड़ा हो गया, जैसे कोई धावक, यह अनुभव कर, अचकचाकर खड़ा हो जाए कि वह तो अब तक गंतव्य की विपरीत दिशा में दौड़ता रहा है...भीम ने कदाचित् जान-बूझकर उन्हें प्रमाणकोटि में ला ठहराया था, ताकि वह युधिष्ठिर को स्मरण दिला सके कि उनके शैशव से ही दुर्योंधन उनके प्राण-हरण, राज्य-हरण इत्यादि के षड्यंत्र करता रहा है....द्यूत-क्रीड़ा, राज्य-हरण तथा दौपदी के अपमान की घटनाएँ तो युधिष्ठिर की स्मृति में अभी बहुत जीवन्त थीं,।....भीम ने उन्हीं स्मृतियों के समकक्ष खड़ी कर दी थीं। उनके शैशव की वे स्मृतियाँ, जिन्हें विस्मृत करने का वे अनवरत प्रयत्न कर रहे थे....यह भी और वह पांचाली !.....यह प्रमाणकोटि में ले आया है; और वह वेणी खोले, केश बिखेरे, उन्हें अपना अपमान स्मरण करा रही है.....
‘‘महाराज ! हमने निर्णय किया है कि आज रात, हम यहीं व्यातीत करेंगे।’’ भीम आकर, उनके पास समीप बैठ गया था।
‘‘क्यों ? यहीं क्यों ?’’ युधिष्ठिर अपने उसी चिंतन-प्रवास में कह रह गए, ‘‘यहाँ आकर तुम्हें दुर्योधन की काल-क्रीड़ा स्मरण नहीं आई ?’’
‘‘मुझे तो वह स्मरण ही है।’’ भीम ने क्रीड़ामय अट्टाहास किया, ‘‘मैं तो आपको स्मरण कराने यहाँ आया था
‘‘क्यों ? मुझे क्यों स्मरण कराना चाहते हो तुम ?’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘क्या वर्तमान की ही पीड़ा पर्याप्त नहीं, कि अतीत का योग भी उसके साथ कर देना चाहते हो ?’’
‘‘नहीं ! बात वह नहीं है मैं तो सारा लेखा-जोखा, आपके सम्मुख प्रस्तुत रह रहा हूँ ताकि आप स्वयं यह निर्णय कर सकें, कि दुर्योधन को क्षमा करना धर्म नहीं है।’’ भीम बोला, ‘‘ताकि आप दुर्योधन के अपराधों की गंभीरता को आँक सकें।’’ भीम ने रुककर युधिष्ठिर की ओर देखा, ‘‘वैसे यहां सामान्य लोगों के लिए ठहरने की सुविधा है। मैं और आप कहीं भी रात्रि व्यतीत कर लेंगे; किंतु हमारे साथ सारथि हैं, रथ के पशु हैं, बच्चें है, स्त्रियाँ हैं।....और महराज ! अनेक ब्राह्मण हमारे साथ चले आये हैं। उनके शिष्य हैं, भाई-बंधु हैं। इतने मनुष्यों और पशुओं के लिए अन्न, जल और आवास की सुविधा यहीं हो सकती है। वन में कहीं सरोवर होगा। कहीं फल होंगे, कहीं इतने होंगे, कहीं नहीं होंगे।...’’
‘‘तो ठीक है भीम ! किंतु इतने लोगों का हमारे साथ चलना व्यावहारिक है क्या ? यह न तो व्यापारिक सार्थ है, न सुशिक्षित सेना ! हम वनवास के लिए जा रहे हैं।’’
‘‘अब व्यावहारिक-अव्यावहारिक के विषय में क्या कहूँ !’’ भीम ने उत्तर दिया, ‘‘बात तो हमारे प्रति उनके भाव और उनकी इच्छा की है। हस्तिनापुर से निकलते हुए, अपने नगरवासियों और ब्राह्मणों को समझाया तो था; किंतु इतने लोग लौटे ?’’
‘‘पर यदि वे लोग नहीं लौटे, तो हम उनका भरण-पोषण कैसे करेंगे ?’’ युधिष्ठिर कुछ चिंतित थे।
‘‘यही सब सोचकर तो मैंने अभी सघन वन में प्रवेश नहीं किया है।’’
उन्होंने दृष्टि उठाईः जिस स्थान पर वे रुके थे, वह गंगा का तट था। चारों ओर सुंदर वृक्ष थे। गंगा की वेला अपने-आप में इतनी मनोरम थी यह मानना ही पड़ता था कि भीम ने रुकने के लिए बहुत ही अच्छे स्थान का चुनाव किया था।...
किंतु स्थान तो प्रमाणकोटि था।...कौरवों का बहुत प्रिय क्रीड़ास्थल ! बाल्यावस्था में ही दुर्योंदन ने भीम के प्राण लेने का षड्यंत्र रचा था।....तो फिर भीम ने यहीं रुकने की व्यवस्था क्यों की है ?...क्या वे लोग कुछ और दूर नहीं चल सकते थे ? वन में कहीं भी जा ठहरते, जहाँ सुंदर प्रकृति उनके आहत हृदय पर कोई सुखद लेप लगाती।... जब सबका मन क्षोभ से विक्षिप्त हो रहा हो, तब एक दुःखद अनुभव की स्मृति संजोए, इस स्थान पर, दोबारा आ ठहरने का क्या प्रयोजन था ? क्या भीम को कुछ भी स्मरण नहीं रहता ?....या स्मरण तो रहता है, किंतु स्मृतियाँ उनके मन में पीड़ा नहीं जगातीं ? दंश का अनुभव नहीं होता उसे ? क्या हो गया है, भीम की संवेदनशीलता को ?
सहसा युधिष्ठिर का मन कुछ इस प्रकार सहम कर खड़ा हो गया, जैसे कोई धावक, यह अनुभव कर, अचकचाकर खड़ा हो जाए कि वह तो अब तक गंतव्य की विपरीत दिशा में दौड़ता रहा है...भीम ने कदाचित् जान-बूझकर उन्हें प्रमाणकोटि में ला ठहराया था, ताकि वह युधिष्ठिर को स्मरण दिला सके कि उनके शैशव से ही दुर्योंधन उनके प्राण-हरण, राज्य-हरण इत्यादि के षड्यंत्र करता रहा है....द्यूत-क्रीड़ा, राज्य-हरण तथा दौपदी के अपमान की घटनाएँ तो युधिष्ठिर की स्मृति में अभी बहुत जीवन्त थीं,।....भीम ने उन्हीं स्मृतियों के समकक्ष खड़ी कर दी थीं। उनके शैशव की वे स्मृतियाँ, जिन्हें विस्मृत करने का वे अनवरत प्रयत्न कर रहे थे....यह भी और वह पांचाली !.....यह प्रमाणकोटि में ले आया है; और वह वेणी खोले, केश बिखेरे, उन्हें अपना अपमान स्मरण करा रही है.....
‘‘महाराज ! हमने निर्णय किया है कि आज रात, हम यहीं व्यातीत करेंगे।’’ भीम आकर, उनके पास समीप बैठ गया था।
‘‘क्यों ? यहीं क्यों ?’’ युधिष्ठिर अपने उसी चिंतन-प्रवास में कह रह गए, ‘‘यहाँ आकर तुम्हें दुर्योधन की काल-क्रीड़ा स्मरण नहीं आई ?’’
‘‘मुझे तो वह स्मरण ही है।’’ भीम ने क्रीड़ामय अट्टाहास किया, ‘‘मैं तो आपको स्मरण कराने यहाँ आया था
‘‘क्यों ? मुझे क्यों स्मरण कराना चाहते हो तुम ?’’ युधिष्ठिर बोले, ‘‘क्या वर्तमान की ही पीड़ा पर्याप्त नहीं, कि अतीत का योग भी उसके साथ कर देना चाहते हो ?’’
‘‘नहीं ! बात वह नहीं है मैं तो सारा लेखा-जोखा, आपके सम्मुख प्रस्तुत रह रहा हूँ ताकि आप स्वयं यह निर्णय कर सकें, कि दुर्योधन को क्षमा करना धर्म नहीं है।’’ भीम बोला, ‘‘ताकि आप दुर्योधन के अपराधों की गंभीरता को आँक सकें।’’ भीम ने रुककर युधिष्ठिर की ओर देखा, ‘‘वैसे यहां सामान्य लोगों के लिए ठहरने की सुविधा है। मैं और आप कहीं भी रात्रि व्यतीत कर लेंगे; किंतु हमारे साथ सारथि हैं, रथ के पशु हैं, बच्चें है, स्त्रियाँ हैं।....और महराज ! अनेक ब्राह्मण हमारे साथ चले आये हैं। उनके शिष्य हैं, भाई-बंधु हैं। इतने मनुष्यों और पशुओं के लिए अन्न, जल और आवास की सुविधा यहीं हो सकती है। वन में कहीं सरोवर होगा। कहीं फल होंगे, कहीं इतने होंगे, कहीं नहीं होंगे।...’’
‘‘तो ठीक है भीम ! किंतु इतने लोगों का हमारे साथ चलना व्यावहारिक है क्या ? यह न तो व्यापारिक सार्थ है, न सुशिक्षित सेना ! हम वनवास के लिए जा रहे हैं।’’
‘‘अब व्यावहारिक-अव्यावहारिक के विषय में क्या कहूँ !’’ भीम ने उत्तर दिया, ‘‘बात तो हमारे प्रति उनके भाव और उनकी इच्छा की है। हस्तिनापुर से निकलते हुए, अपने नगरवासियों और ब्राह्मणों को समझाया तो था; किंतु इतने लोग लौटे ?’’
‘‘पर यदि वे लोग नहीं लौटे, तो हम उनका भरण-पोषण कैसे करेंगे ?’’ युधिष्ठिर कुछ चिंतित थे।
‘‘यही सब सोचकर तो मैंने अभी सघन वन में प्रवेश नहीं किया है।’’
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