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बिंदासबाबू की डायरी

सुधीश पचौरी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3210
आईएसबीएन :81-8361-048-X

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व्यंग्य कविताएँ

Bindas Babu Ki Diary a hindi book by Sudhish Pachauri - बिंदासबाबू की डायरी - सुधीश पचौरी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यहाँ बिंदासबाबू की डायरी, क्रमिक देने के दो-तीन मन्तव्य हैं। एक तो यही है कि डेढ़ दो-महीने, जब भारतीय जनता ने अपने वोट से सत्ता में रहकर इतराई हिन्दुत्ववादी-अवसरवादी ब्रिगेड को सत्ता से वंचित कर डाला, उस दौर की दैनिक बड़ी घटनाओं की खबर लेते हुए, उनका एक प्रकार का रोजनामचा-सा तैयार करना स्वयं इस लेखक के लिए एक खास अनुभव रहा। इस अनुभव को बाँटना जरूरी लगा। वे लोग जो रेडियो माध्यम को गम्भीरता से लेते हैं, उसमें कुछ करना चाहते हैं, शायद वे इस तरह की दैनिक तुरन्त कटाक्ष-वार्ताओं के लेखन के नमूने देख सकें। इस प्रक्रिया में काम करने वाले अनुभवों को पहचान सकें और इस अनमोल रेडियो विद्या को थोड़ा और समृद्ध बना सकें।

दूसरा मन्तव्य यह समझना-समझाना रहा कि इस तरह दैनिक किस्म का, क्षणिक-सा, बेहद टाइट समय के भीतर जो चलित वृतान्त बनाता है, वह किन दबावों, तनावों भाषायी क्षमता और प्रत्युत्पन्नमति की, इंप्रोवाइजेशन की जरूरतों की दरकार रखता है ? और फिर यह जताना-बताना भी जरूरी है कि बीबीसी रेडियो सेवा एक बेहद पॉपुलर, प्रयोगधर्मी सेवा भी है, जो अपने को अग्रणी रखने के लिए चुनौती भरे प्रयोग कर सकता है। आल रेडियो यानी आकाशवाणी वार्ताकार को क्या इतनी छूट दे सकता है ? एफएम चैनलों पर प्रस्तुतियों में कुछ चैनल टपोरी भाषा का उपयोग करते हैं, उसमें व्यंजनाएँ या लंपट व्यंजनाएँ ज्यादा होती हैं। वे कमजोर पर हँसते हैं। ताकतवर पर नहीं हँसते। वे बॉलीबुड से मजाक कर लेते हैं ताकि ‘प्रोमोट’ कर सकें। लेकिन वे सत्तावादी राजनीतिक विमर्श का मजाक सीधे-सीधे नहीं उड़ा सकते। बीबीसी यह कर सकता है। यह देखा तो होता है कि रेडियो प्रसारण में उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
सत्तावादी राजनीतिक विमर्श पर केन्द्रित ये व्यंग्य-वार्ताएँ पाठकों को पसन्द आएँगी, ऐसा हमारा विश्वास है।

भूमिका

बिंदास बाबू की डायरी की कहानी


एक दिन बीबीसी, लन्दन से अचलाजी का फोन आया। वे बताने लगीं कि इन दिनों वे बिहार, यू.पी. आदि के गाँवों एवं छोटे-छोटे शहरों में बीबीसी की टीम के साथ घूमकर आई हैं। संसदीय चुनावों (2004) को लेकर लोगों में काफी सक्रियता है। युवा लोग बहुत कुछ बोलना चाहते हैं। हम उनसे संवाद कर रहे हैं। हमारा अनुभव बहुत उत्साहजनक है। हम चाहते हैं कि इस बार के चुनावों को लेकर जो भी दैनिक घटना विकास हो रहा है उस पर तीन-साढ़े तीन मिनट की एक टिप्पणी आप करें ! यह दैनिक होनी है। शनि, रवि के दिन छोड़कर हर रोज यह प्रसारित होगी।...और आपकी आवाज में ही रिकार्ड होगी...आप जरा अपनी शैली में ही इस विहंगम दृश्य पर कमेंट करें....

यह लेखक इसे सुन थोड़ा चौंका। एकाध बार बातचीत वार्ता टिप्पणी तो चल सकती है लेकिन रोज लिखना और बीबीसी के स्टूडियो में जाकर रिकार्ड कराना खासी मशक्कतवाला काम लगा। दैनिक तुरंता टिप्पणी ! एकदम ताजा टिप्पणी ! और वह भी तीन साढ़े तीन मिनट में कम्पलीट हो...थोड़ी चुलबली, थोड़ी मजेदार भी हो। कटाक्ष, कमेंट से भरपूर भी हो...अचलाजी को सुनाते हुए असमंजस सा बना रहा। एक ओर एक नए भाषा खेल की चुनौती। दूसरी ओर तीन-साढ़े-तीन मिनट के भीतर मोर्चा मारने की बात। तिस पर बीबीसी जैसे ग्लोबल माध्यम पर करोड़ों लोगों को सम्बोधित करने और हिट या पिट के बीच फँसने का डर ! अब तक इत्मीनान से सप्ताह में चार-पाँच दिन हजार शब्दों से दो हजार के बीच टिप्पणी लिखने का ठीक ठाक सा अभ्यास था। आप लम्बी टिप्पणी में आसानी से गद्य के आलाप ले सकते थे।

सम्पादकीय पृष्ठों के लेख लिखना अभ्याससिद्ध था। लेकिन तीन-साढ़े तीन मिनट में सारे खेल को करना खासा हाथ पाँव फुलानेवाला काम लगा। बीच में अचलाजी से कहा कि यह खेल इसके अभ्यस्त नहीं है...कभी कभार की बात और। और फिर यह ज्यादातर तो प्रिंट का लेखक ही रहा है। लम्बे लेख लिखने का अभ्यासी है। आवाज भी किसी समाचार वाचक की सी नहीं। कभी ऑडियो तक नहीं हुआ। दिक्कत हो सकती है..अचला जी बोलीं कि हम जानते थे कि आप यही कहेंगे। हमने अपनी टीम के साथ यहाँ बहुत सोच समझकर आपको चुना है। हम इस काम के लिए नया टिप्पणीकार ही चाहते हैं। हमारे श्रोताओं के सुपरिचित कमेंटेटर हमें इस काम के लिए नहीं चाहिए। कोई नया चाहिए। आपको पढ़ते रहते हैं। आप कर सकते हैं। ऐसा विचार बना है। आप का नाम कार्यक्रम के आखिरी प्रसारण में ही बताया जाएगा। वह अन्तिम कार्यक्रम श्रोताओं के प्रश्नों, जिज्ञासाओं से रू-ब-रू रहेगा। तब तक आप कोई छद्मनाम सोच लें। आपकी ही आवाज रहेगी। आप जैसा बोलेते-बतियाते हैं वही चलेगा। श्रोताओं की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए....एक नया प्रयोग हम कर रहे हैं....कोई नया नाम सोच लीजिए और बस शुरू हो जाइए...मैं फिर फोन करूँगी...

अगली बार जब फोन आया तो हमने कुछ नाम सुझाए। बिंदास बाबू उनमें से एक था। हमने कहा कि यह डायरी की शैली में रहे तो ठीक है। बिंदास बाबू की डायरी ठीक रहेगा...अचला जी ने फिर फोन करके बताया कि यह ठीक है। चलेगा। तो बिंदास जी शुरू हो जाइए। 31 मार्च से आपकी डायरी शुरू। दिल्ली दफ्तर में सीमा चिश्ती जी होंगी, वे आपसे सम्पर्क करेंगी....
इस डायरी की जन्मकुंडली इस तरह बनी। इसे बनाने में 2004 के चुनावों के नायक खलनायक उत्प्रेरक बने। चुनाव को उसके सबसे ‘भदेस’ रूप में बनाया जा रहा था। एक ओर हिन्दुत्ववादी ब्रिगेड का इंडिया शाइनिंग वाला फील गुड हल्का था। पाँच साल लगातार सत्ता में रहकर उपलब्धियों को गिनानेवाले लोग थे। दूसरी ओर कांग्रेस तथा अन्य दलों के वैकल्पिक ढाँचे तक का अता-पता नहीं चलता था। चुनावों के ‘भदेसपन’ को उतनी ही गम्भीरता से लिया जा सकता था। जितना किसी विराट, अखिल भारतीय नौटंकी को लिया जा सकता था। जितना यथार्थ उससे कहीं ज्यादा ड्रामा, चीख-पुकार। अभिव्यंजनात्मक मैलोड्रामे। सत्ता पक्ष के जीत के दावे के दुर्वह आत्मविश्वास और तितर-बितर पड़े विपक्ष में अफरातफरी का मंजर !

अचानक इस अखिल भदेस दृश्य में एक कॉमिक तत्त्व मिला। राजनीति में यह नया रंजक तत्त्व इस चुनाव ने स्वयमपि पैदा किया जिसे इलेक्टॉनिक मीडिया ने पकड़ा। यह पिछले चुनाव में नहीं था। इस बार मीडिया अतिराजनीति से ऊब गया था। पब्लिक भी ऊब गई थी। तो दलों और नेताओं की खिंचाई करने के लिए चैनलों ने चुनाव को एक प्रहसन की तरह देखना बताना शुरू किया। कई चैनलों ने ऐसे प्रयोग शुरू किए। भदेस का अन्तिम संस्करण प्रहसनमूलक ही हो सकता था।
यह लेखक अरसे से यथार्थ को उसकी एब्सर्डिटी या भदेसपन में देखने का आदी था। महान लोगों की खिंचाई करते हुए लिखने में जो आनन्द आता वह गुरु-गम्भीर, हाई-थियरीज’ को निचोड़नेवाली टिप्पणियों में कहाँ ? मीडिया में अनन्त पाठकों के लिए आप गरिष्ठ तत्त्व नहीं दे सकते। असल चुनौती ‘इन हाई थियरीज’ को उनके ‘एप्लाईड’ रूप में दैनिक घटनाओं में होते देखने की थी। ‘पोस्ट मॉर्डन’ विमर्श और ‘डिकंस्ट्रक्शन’ की थियरी के अध्ययन फूकोल्डीय ‘सत्ता विमर्श’ से लेकर पॉपुलर कल्चर सम्बन्धी तमाम अध्ययन इस लेखक के लिए क्रीड़ा करने को उपलब्ध थे। दैनिक अखबारों में लगातार टिप्पणियाँ लिखते रहने, पॉपपलर कमेंट करते रहने के अभ्यास तो एकदम रेडीमेड औजार रहे। बस ‘क्रीड़ा’ के ‘मूड’ को ‘स्विच ऑन’ की बात थी।

यह लेखक आकाशवाणी की वार्ताओं का अभ्यस्त था। वहाँ हमेशा ही गुरु-गम्भीर औपचारिक किस्म की रुला देनेवाली वार्ताएँ होतीं। यहाँ सम्भव न था। प्रस्तुति बदलनी ही थी। इसीलिए सीधे सम्बोधित करना पड़ा। मंगलाचरण की तरह ‘रामा-किसना’ को थोड़ा बिंदासी खिलंदड़े गद्य में रखा गया। बिना संवाद शैली के चलित ड्रामे की कटाक्षीकरण मुश्किल है। यह जानकर थोड़ा ड्रामाई तत्त्व, थोड़ा संवाद रखा गया। सीधे कमेंट ज्यादती हो सकते थे। जरा-जरा सी बात पर कटाक्ष कमेंट को मानहानि समझनेवाले नेताजन यहाँ की छींटाकशी को भी एंजॉय करें, ऐसा अनुशासन बनाया गया....साढ़े तीन मिनट में शुरुआत और अन्त थोड़ा कंटीन्यूटीवाला रहे। यह ध्यान रखा गया।

और फिर पहला एपीसोड रिकार्ड करने आ गया जिसे पसन्द किया गया बीबीसी दिल्ली के इस कार्यक्रम से रिकार्डिंग करनेवाले संबद्ध कर्मी कार्यक्रम से रिकार्डिंग करनेवाले संबद्ध कर्मी कार्यक्रम के रिकार्ड करते सुनते हुए बाद में अवश्य कहते : बहुत अच्छा गया....सुधीशजी बहुत बढ़िया....पहली रिकार्डिंग थोड़ी हिचकिचाहट भरी थी। कागज सामने होते। लिखने का बन्धन रहता। माहौल का दबाव लेकिन रिकार्ड करनेवाले साथियों ने इस ‘बिंदास’ को बराबर उत्साहित किया। फिर तो बिंदास अपनी किंचित् फॉर्म पा गया। यद्यपि उसे शंका घेरती रही। यह पूछता : सच बताएँ कैसा रहा ? क्या ठीक-ठाक हुआ ? वे कहते : गजब हुआ सुधीशजी...यह झेंपकर कहता कि इसकी आवाज तो दो कौड़ी की है...वे कहते है : जी नहीं। बहुत अच्छी है। यही चाहिए...सच ऐसी ‘सपोर्टिव’ टीम कहीं और नहीं देखी। आकाशवाणी में जाइए तो वहाँ प्रोग्राम निर्माता से लेकर रिकार्डिंग तक यहाँ तक कि चैक बनानेवाले तक के मन एक-दूसरे से नहीं मिलते। वे सपोर्टिव होते हैं लेकिन कई नितान्त अन्यमनस्क भाव से होते हैं।

यहाँ बीबीसी में जो ट्यूनिंग बनी वह एकदम सटीक रही। सीमा, रेहान फजल और वह लड़की जिसका नाम भूल रहा हूँ...वह ईसाई नामवाला रिकार्डर सब सहारा देते एकदम देसी मजाक का वक्त निकालते। उनके थैले बंधे होते। फलाँ ? वो जा रहा है। चुनाव कवरेज के लिए। आज फलाँ कराएगा। बीबीसी की वैबसाइड को सँभालनेवाले विनोद सब...उनके भी ‘ईगो’ होते होंगे लेकिन कार्यक्रम को पूरी मेहनत से करने की प्रक्रिया में वे एक पक्की टीम की तरह नजर आते। यह लेखक उनके लिए बिंदास बाबू बन गया : वे इसी नाम से हँसते हुए नजर आने लगे। दो-तीन एपीसोड के बाद उन्हें फीडबैक मिला। वे इसकी सफलता पर प्रसन्न नजर आने लगे। और अप्रैल मई की उन गर्मियों में यह बिंदास अपने बिंदास-ब्रांड कटाक्ष लिखता चला गया। रामभरोसे के बनाने में, टिकाने में थोड़ा समय लगा। बिंदास का उससे कैसा सम्बन्ध बने। यह ‘फ्लोट’ होने दिया। वह थोड़ा मुँहडोर, थोड़ा तेज, थोड़ा जनप्रतिनिधि सा होना चाहिए। वह आम वोटर के आसपास होना चाहिए जो राजनीतिक खबरें रखता है और बिंदास बाबू का मुँहलगा सहायक सा है। अचलाजी ने स्टूडियो में ही बात की। कहा एकदम हिट रहा है। फीडबैक आने लगा है। बिंदासबाबू आप हिट हो गए हैं। भई वाह, मजा आ गया ! यहाँ सब पसन्द कर रहे हैं !

क्या खेल हो रहा है ? कैसा चल रहा है ? हमें जानने की जिज्ञासा हुई तो पाया कि घर में एफ.एम. वाले ट्रांजिस्टर हैं लेकिन बीबीसी को पकड़ने के लिए शॉर्टवेव क्षमतावाला तो खराब पड़ा है। नया लाया गया। तब अपने किए-धरे को सुनना संभव हुआ। अपनी आवाज इस लेखक को कभी भाई नहीं। यार ये भी कोई आवाज है...फर्राटे से बोलना होता...तीन साढ़े तीन मिनट में अगर कबड्डी होगी तो यही हाल होगा....पता नहीं बीबीसी के श्रोता इसे कैसे पसन्द कर रहे हैं....कहीं ये बीबीसीवाले इस लेखक से दिल्लगी तो नहीं कर रहे...वे मुँहदेखी तो नहीं कर रहे ? बराबर सन्देह बना रहा। तब एक दिन सीमा ने साप्ताहिक फीडबैक का विश्लेषण दिखाया। वहाँ दो श्रोताओं के पत्र थे जिन्हें बिंदासबाबू की डायरी कार्यक्रम के सन्दर्भ में उद्धृत किया गया था। उसके बाद साप्ताहिक फीडबैक आता रहा। बिंदास बाबू की कमेंटबाजी हिट हो गई थी। अच्छी बात यह रही कि बीबीसी के श्रोताओं ने इस खिंचाई को मजेदार पाया बिंदास बाबू की फ्रीस्टाइल छींटाकशी भा गई ! बीबीसी की प्रायः स्तरीय व्यवस्थित हिन्दी के मुकाबले यह हिन्दी अलग सी थी। यह भी पसन्द आई। लोक कल्पना करते रहे कि बिंदास बाबू कौन हो सकते हैं ? एकाध मित्र को शक हुआ कि यह और कोई नहीं हो सकता। अज़दकी गद्य वाला ही हो सकता है। तब अन्तिम प्रसारण आया। लौह पुरुष-विकास पुरुष और इंडिया शाइनिंग का समारोह जनता के वोट ने कूड़ेदान में डाल दिया था। बिंदास बाबू के टारगेट में यह सब पहले से ही रहा था। अन्तिम प्रसारण तक थोड़ा दम पड़ चुका था। बीबीसी के श्रोताओं से एक आत्मीय रिश्ता बन चुका था।

अन्तिम प्रसारण में जगह-जगह से तरह-तरह से सवाल आए। उनका तुरन्त जवाब भी देना हुआ। लोगों ने बिंदास बाबू की तारीफ की। लेकिन बख्शा नहीं। बीबीसी के श्रोताओं की जागरूकता का, अन्तर्क्रियात्मकता का परिचय पहली बार मिला।
प्रश्नोत्तरी के दौरान बार-बार जिज्ञासा होने लगी कि बताया जाए कि बिंदास बाबू कौन हैं ? बिंदास बाबू ने अपने परिचित अन्दाज में ही इसका जवाब दिया ! परिचय दिया ! तब जाकर उनकी उत्सुकता शान्त हुई।

एक रात अमरीका में रहनेवाले इस लेखक के भतीजे छुट्टन का फोन आया। वह बोला : फूफाजी बीबीसी पर ये बिंदास बाबू आप ही हैं न ! हम यहाँ अपने दोस्तों के साथ उस कार्यक्रम को नियमित सुनते रहे हैं। जिस तरह बिंदास बाबू ‘नो होल्ड बार’ वाली स्टाइल में बोलते हैं, वह मुझे आपकी बातचीत की स्टाइल लगी। मैंने दोस्तों से कहा भी। फिर आज सोचा पक्का कर लूँ। उसे बताया कि उसने सही पकड़ा तो वह जोश में भर उठा। उसने कहा कि ऐसी बातें सिर्फ आप ही कह सकते थे। सबकी कसके खिंचाई करते थे। अच्छा लगता था ! अजीब अनुभव हुआ ! बीबीसी का जादू अमरीका तक सिर चढ़के बोलता है...
एक सज्जन अलीगढ़ वि.वि. के मिले। वे बोले बहुत दिनों तक हम सोचते रहे बिंदास कौन है ? आवाज तो जानी पहचानी लगती रही। यहाँ कॉलेज में आपको कई बार बोलते हुए सुना था। मगर पकड़ नहीं पा रहे थे। भई वाह ऐसा आइटम बीबीसी ने कंटीन्यू क्यों नहीं किया ? हमने बताया कि यह ‘पेशल’ चीज ‘पेशल ईवेंट’ यानी चुनाव प्रक्रिया तक ही तय थी। फिर बहुत बाद बेगूसराय का एक नौजवान मिला। वह बिंदास को पाकर पुलकित हुआ। उसे अच्छा लगा। उसे साड़ी कांड वाला एपीसोड खूब याद था।

बिंदास बाबू की शिक्षा भी खूब हुई ! समकालीन विषयों पर बातचीत वार्ता, टिप्पणी तब ज्यादा कम्यूनिकेट करते हैं, ज्यादा अन्तर्क्रियात्क होते हैं जब बात करने वाला कटाक्षपूर्ण भाषा में बात करे, थोड़ा मुहावरेबाजी करे, बोलने के अन्दाज में बोल कुबोल सुनने का मजा आए। वह वार्ता श्रोता को बोर करती है जो पढ़ी जाती है बोली नहीं जाती। वार्ता, टिप्पणी कमेंट जब तक खिलंदड़े अन्दाज में न कहे जाएँ तब तक आज का अधिक खुला हुआ श्रोता ध्यान नहीं देता। बोलचाल की भाषा का मतलब ‘बोलने की चाल’ चलनेवाली भी होना चाहिए।

यहाँ बिंदास बाबू की डायरी, क्रमिक देने के दो-तीन मन्तव्य हैं। एक तो यही कि वे डेढ़ दो महीने, जब भारतीय जनता ने अपने वोट से सत्ता में रहकर इतराई हिन्दुत्ववादी-अवसरवादी ब्रिगेड को सत्ता पर से वंचित कर डाला, उस दौर की दैनिक बड़ी घटनाओं के खबर लेते हुए, उनका एक प्रकार का रोजनामचा-सा तैयार करना स्वयं इस लेखक के लिए एक खास अनुभव रहा। इस अनुभव को बाँटना जरूरी लगा। वे लोग जो रेडियो माध्यम को गम्भीरता से लेते हैं, उसमें कुछ करना चाहते हैं, शायद वे इस तरह की दैनिक तुरन्ता कटाक्ष-वार्ताओं के लेखन के नमूने देख सके। इस प्रक्रिया में काम करनेवाले अनुभवों को पहचान सकें और इस अनमोल रेडियो विद्या को थोड़ा और समृद्ध बना सकें। दूसरा मन्तव्य यह समझना रहा कि इस तरह दैनिक किस्म का, क्षणिक सा बेहद टाइट समय के भीतर जो चलित वृतान्त बनता है, वह किन दबावों, तनावों, भाषायी क्षमता और प्रत्युपन्नमति की, इंप्रोवाइजेशन की जरूरतों की दरकार रखता है ? और फिर यह जताना-बताना भी जरूरी है कि बीबीसी रेडियो सेवा एक बेहद पॉपूलर प्रयोगधर्मी सेवा भी है, जो अपने को अग्रणी रखने के लिए चुनौती भरे प्रयोग कर सकता है। आल इंडिया रेडियो यानी आकाशवाणी वार्ताकार को क्या इतनी छूट दे सकता है एमएफ चैनलों पर प्रस्तुतियों में कुछ चैनल टपोरी भाषा का उपयोग करते हैं, उसमें सैक्सी व्यंजनाएँ या लंपट व्यंजनाएँ ज्यादा होती हैं। वे कमजोर पर हँसते हैं। ताकतवर पर नहीं हँसते। वे बॉलीबुड से मजाक कर लेते हैं ताकि प्रोमोट कर सकें। लेकिन वे सत्तावादी राजनीतिक विमर्श का मजाक सीधे-सीधे नहीं उड़ा सकते। बीबीसी यह कर सकता है। यह देख तोष होता है कि रेडियो प्रसारण में उसके बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

हँसी, खिंचाई, व्यंग्य एक जनतान्त्रिक संवाद की जगह बनाया करते हैं। जो खिंचाई करता है उसे अपनी धुलाई के लिए तैयार रहना होता है। जो भी संचार क्रियाएँ (यथा साहित्य, कलाएँ, आम प्रसारण) पब्लिक डोमन में रहती हैं, उन्हें इस जन आखेट से कोई बचा नहीं सकता। यही सम्प्रेषण का अनेक तरफा जनतन्त्र होता है। इस अनुभव ने इस जनतन्त्र को बनाने का अवसर दिया। इसलिए किताब बनाई !
वाचन में शीर्षक नहीं थे। किताब बनाने के लिए यहाँ हर टिप्पणी का शीर्षक दे दिया गया है ताकि पाठ-सुख बना रहे !
इसका श्रेय बीबीसीवालों को, अचला शर्मा को ही जाता है ! और छापने के लिए अशोक बाबू को।


15 अगस्त 2005
सुधीश पचौरी


1
अथश्री महाभारत कथा



हलो ! हाय ! हाय !
बीबीसी के करोड़ों श्रोताओं को इस बिंदास बाबू की राम राम; सलाम सत श्री अकाल चुनाव के हल्ले सबको वल्ले।
बिंदास बाबू की बिंदास डायरी में इन दिनों चुनावी ‘महाभारत’ हो रहा है। हजारों रणबाँकुरे, एक दूसरे पर निशाने साध रहे हैं। सात सौ दो दलों के बीच तरह-तरह की मारकाट है। क्या महाभारत है ? क्या अपने जनतन्त्र का ठाट-बाट है ! तरह-तरह के चैनल चौबीस घंटे खबरों के चल चला रहे हैं और अपने अपने धृतराष्टों को पटा रहे हैं। रेटिंग की बैटिंग है। मारकेट की आखेटिंग हैं। सर्वेकारों की फाइटिंग हैं। तरह-तरह की राइटिंग है। तरह-तरह की लाइटिंग है।

ऐसे में इस मटमैले भारत को पाँच साल में चमकाने वाले अंकल अटल को साष्टांग प्रणाम कि जिनके गीत गाकर लता को लगा कि वे उनके पूर्व जन्म की बेटी रही होंगी। डीपीएम आडवाणी को नमन कि जिनके रथ की रज से ‘रामराज’ आनेवाला है।
सदैव ही माथे पर बिन्दी, कान्धे पर उत्तरीय, धारे मुरली मनोहर जोशी जी को प्रमाण जिन्होंने आईआईएयों का बैंड बजा दिया।

भैया वैंकेया की हिन्द तुकबन्दी, अरुण जेटली के सात्विक क्रोध, महाजन की कम्प्यूटरी मुस्कान, बहन सुषमा स्वराज के करवाचौथी सिन्दूर तिलकित भाल को नमन कि जो सहवाग के तीन सौ रनों की तरह तीन सौ सीटें लाने की कसम कभी-कभी मुस्करा भी देती हैं। प्रिंयका में दिखती इन्दिरा आन्टी और राहुल में झलक मारते राजीव भइया को नमन !
यदुवंश कुल भूषण मुलायम, राजपूतों के गौरव अमर सिंह, उनके शास्वत बड़े भैया अमिताभ को नमन। लालू के सदाबहार आलुओं को नमन ! मायावती के दलित क्रोध को, सुरजीत के खोए हुए तीसरे मोरचे को, पासवान के सेकूलर भाव, को, नीतिश की रेल को, फर्नांडीज के सोशलिस्ट खोल को, नायडू के लैपटॉप को, जया ललिता के तमिलत्व ममता बनर्जी के चीत्कार फुत्कार को नमस्कार !

और जो जो महारथी, महारथिनें, बची हों, वे खुद कर लें नमस्कार। बिंदास बाबू सब तरह के रथी महारथियों, देवी-देवताओं की वन्दना करते हुए बन्द करते हैं अपनी फटीचर डायरी ! कल तक के लिए आप सबको नमस्कार !
हाँ, अपना खयाल रखना भइया !


2
कानफ्यूजन पर्व



रामारामा गजब हुइ रहा है।...पंडित जी बोले बीच में।
हमने पूछा : का हो रहा है ?
बोले पंडित जी कि हमार मुँह न खुलवाओ बिंदास बाबू !
आपके मुँह खोलने से का होगा ? एक मच्छर भी न मरेगा महाराज ! असल बात बताओ।
असल बात। तो बिंदास रैदास सुनो : अब सहा नहीं जाता। जब भी रथ देखता हूँ तो हँसी आती है। हिन्दुत्व की हुँकारों के बीच गांधी जी की रामधुन फैली जाती है।

अच्छा तो आप पोरबन्दर के कीर्ति मन्दिर की यात्रा से आहत हैं।....हमने पकड़ा।
आहत ही राहत है मिस्टर बिंदास ! एक ओर आडवाणी जी दूसरी ओर मोदी जी ! इस सीन में गांधी फिट कहाँ बैठते हैं ? गांधी के रामराज में और आज के रामराज में क्या तुक ?
तुक हो महाराज, एक ओर रामराज ! दूजी ओर रामराज ! हमने पंडित को टोका।
कहाँ यार ? वे कहते हैं राम मन्दिर बनेगा और रामराज भी आएगा ! जाएगा कहाँ ? हम लानेवाले हैं !
तो आने दो न ! हमने आग्रह किया।

हम कौन होते हैं रोकने वाले ! मगर यार एक-एक करके लाओ। मन्दिर बनेगा तो रामकाज लाने की क्या जरूरत ? रामराज आ गया तो फिर मन्दिर की क्या जरूरत ? उधर अटल जी विकास के गीत गा रहे हैं। ये लक्ष्मण भइया मन्दिर मन्दिर रटे जा रहे हैं। मन्दिर में विकास है कि विकास में मन्दिर है ? रामराज में विकास है या विकास में रामकाज या रामराज में दामराज ! यार बिंदास। अजीब कान का फ्यूजन हो रहा है !
कान का फ्यूजन तो होगा ! पाँच साल में तो दामराज आया। काम गया ! बेकामराज आया ! दाम को राम तक की यात्रा में टैम लगता है न ! कलजुगी राम भी काम के वशीभूत हैं पंडित जी !

हे राम ! कहकर पंडित जी गांधी जी की तरह ही लेट गए ! लखलखा सुँघाएँगे तब उठेंगे, तो आओ ढूँढ़ते हैं लखलखा कल तक। पंडित पूरे ड्रामेबाज हैं ! मन्दिर चिल्लाते हैं ! मन्दिर की बात आते ही मूर्च्छित हो जाते हैं !
हे राम ! हमने भी कहा।
ये बिंदास बाबू का अपना ‘टशन’ है कि लाख कान फ्यूजन हो, मूर्च्छित हो के नहीं देते ! तो कल फिर सुनाएँगे अपनी फटीचर डायरी का एक पन्ना ! सुन्ना !


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