लोगों की राय

ऐतिहासिक >> चक्रतीर्थ

चक्रतीर्थ

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :308
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3235
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 11 पाठकों को प्रिय

195 पाठक हैं

साहित्य आकादमी तथा नेहरु पुरस्कार द्वारा सम्मानित ‘अमृत और विष’ के लेखक श्री अमृतलाल नागर की एक और महान कृति

Chakratrith a hindi book by Amritlal Nagar - चक्रतीर्थ- अमृतलाल नागर



साहित्य आकादमी तथा नेहरु पुरस्कार द्वारा सम्मानित ‘अमृत और विष’ के लेखक श्री अमृतलाल नागर की एक और महान कृति कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, असम से लेकर बंगाल तक, जहाँ भी श्रद्धालु व्यक्ति किसी व्रत, उपवास या पुराण सुनने के लिए जुटते हैं। वहाँ कथाओं के प्रसंग में अवध के सीतापुर जिले आबाद तपोवन नैमिषारण्य का नाम अवश्य ही सुना जाता है। कहते हैं वहाँ चौरासी हजार ऋषियों कते सम्मेलन में सूत जो ने लगातार बारह वर्षों तक अनेकों पुराण और महाभारत की कथायें बाँची थीं। बूढ़े-बूढ़ियों और पुण्य मात्र देने वाली इन कथाओं को पहली बार सही ऐतिहासिक चेतना से जड़ने वाला एक सांस्कृतिक उपन्यास-

उपन्यास का पहला पृष्ठ पढ़ना आरम्भ कीजिये और फिर अंतिम पृष्ठ पढ़े बिना आप उसे छोड़ नहीं सकेंगे। कुषाणों और सूनानियों की दासता से त्रस्तौर विखण्डित भारत में पुनः संगठित होकर एक सशक्त और समृद्ध देश बनने का यह प्रेरणादायक रंगारंग भारतीय छबियों से भरपूर, यह रोचक राष्ट्र-कथा पढ़कर आपको आज के भारत की समस्याओं पर गहराई ने विचार करने की स्फूर्ति मिलेगी।
यह इतिहास कथा एक भावनात्मक आन्दोलन से जुड़ी है जिसने पहली बार भारत की सभी जातियों के उत्तम विचार और संस्कार लेकर तथा ब्राह्मण और श्रमण धर्म का उचित समन्वय करके समूचे भारत को वह एकता प्रदान की जिसके सही और गलत प्रभावों से यह देश आज तक बँधा हुआ है।
पुरानी दुनिया में भारत के महात्त्वपूर्ण स्थान और विश्वव्यापी मानव संस्कृति की रसभीनी छटा छहराने वाला, भारतीय साहित्य में अपने रंग का अकेला यह उपन्यास आपके हाथों में है।



‘एकदा नैमिषारण्ये’ और ‘चक्रतीर्थ’ के कथानक एवं सामाजिक संदर्भ देश-काल की दृष्टि से लगभग एक से हैं। अमृतलाल नागर ने ‘चक्रतीर्थ’ के सृजन में जैसे कौशल का प्रदर्शन किया है। उससे हिन्दी उपन्यास की श्रीवृद्धि हुई है। वैसे भी नागर जी की सामाजिक कथाकृतियों के समानान्तर ऐतिहासिक और पौराणिक कथानकों को औपन्यासिक रूप देने में जो सफलताएँ प्राप्त हुईं; वे हिन्दी उपन्यास में विरल हैं। कहते हैं, समकालीन जीवन संदर्भों में गहराई तक जुड़ा हुआ कथाकार ही अपनी परम्परा के सूत्रों में गुथे कथा-संदर्भों पर श्रेष्ठ औपन्यासिक रचनाएँ दे सकता है। नागर जी के कथा-शिल्प में इसके प्रमाण साक्षात लक्षित किये जा सकते हैं। स्थितियों के वर्णन और कथोपकथन की बारीकियों पर उनका सम्पूर्ण अधिकार प्राचीनतम कथा-वस्तु को जीवित और प्राणवान बना देता है। नैमिषारण्य का इतिहास वे इस तरह बताते हैं—यह प्राचीनतम ऋषी स्थली है। अप्सरा उर्वशी के प्रियतम ऐलपुत्र पुरूरबक्ष ने अपनी प्रबल धनतृष्णा के कारण यहाँ के ऋषियों को एक बार बहुत सताया। तब ऋषियों ने इन्द्र से प्रार्थना की। इन्द्र ने अपने वज्र से उस धनलोभी आततायी को यहीं माप कर ऋषियों तथा अयुजाति के समस्त प्रजाजनों का परम कल्याण किया था। फिर एक बार यहीं पर ऋषी गौरमुख ने असुरों का संहार किया था। अयोध्यापति चक्रवर्ती महाराज श्री रामचन्द्र ने यहीं अश्वमेध किया; यहीं अपने पुत्रों लव और कुश से महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण सुनी। भृगुकुल भूषण महात्मा शुनक अपने ऋषियों के साथ प्रयाग से आकर यहीं बसे और उनके तथा उनके वंशजों के समय में यहां अनेक आरण्यक रचे गये। पाण्डव कुल-भूषण महाराज अधिसीम कृष्ण ने यहीं पर भागवतों का प्रथम महासत्र आयोजित किया था।

चक्रतीर्थ की सम्पूर्ण कला-योजना को उन्होंने समकालीनता के आधार दृष्टि से ऐसा रूपाकार प्रदान किया है कि उपन्यास एक बार शुरू करने पर पाठक उसे बीच में छोड़ नहीं सकता। ऐसा लगता है जैसे लेखक स्वयं उस काल विशेष का प्रत्यक्ष दर्शी है अथवा वह काल सिमट कर लेखक के अनुभव संसार में समा गया है।

इस महत्त्वपूर्ण कृति के प्रकाशन से लोकभारती गौरवान्वित हुई है। आशा है हिन्दी-संसार इस कालजयी उपन्यास का स्वागत करेगा।

1

जम्बू द्वीप में दूर-दूर तक भटक कर लगभग पन्द्रह वर्षों के बाद काण्व नारद स्वदेश लौटे थे और छद्म रूप से रेणुका तीर्थ में निवास कर रहे अपने बाल्यकालीन मित्र से मिलने के लिये आये थे।
लगभग सौ वर्ष पहले कनिष्क काल में तोड़े इस रेणुका मंदिर के टीले के पास बसी हुई गोप बस्ती में एक डंड लगाते लड़के से पूछ रहे थे : ‘‘गोपाल महात्मा के आश्रम पर जाना चाहता हूँ। बता सकोगे ?’’
अपने दोनों पंजे कमर पर रख, तिरछी पैनी दृष्टि से नारद को देखकर उस तेरह-चौदह वर्षीय गोप-किशोर ने रूखे स्वर में प्रश्न फेंका : ‘‘आप कहाँ से आये हैं ?’’
बालक के तेवर देखकर नारद भी हँसकर बाल मुद्रा में आंखें नचाकर बोले : ‘‘मैं सीधा स्वर्ग से आ रहा हूँ।’’
‘‘सरग ! अरे काहे महतमा होके झूठ बोले है।’’

‘‘अरे नई सच्ची। तू जाके गोपाल महात्मा से कह कि स्वर्ग से नारद जी आये हैं।’’
‘‘गोपाल दादा नहीं हैं।’’
‘‘कहाँ गये हैं ?’’
‘‘पता नहीं। कई दिन से गये हैं।’’
‘‘और आयी ?’’
‘‘अइया ! गोपाल दादा की महतारी ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘वो भी नहीं है।’’
सुनकर नारद खिन्न हुए। सामने की झोंपड़ी से एक बुढ़िया सिर पर मटकी लिये निकली। लड़के ने जोर से कहा : ‘‘अजिया री ! ये गुपाल दादा को, अइया को पूछ रहे हैं।’’
‘‘बुढ़िया पास आई। पूछा : कौन हो महाराज !’’
‘‘नारद हूँ मैया ! गोपाल महात्मा से मिलने—’’ बात पूरी भी न होने पाई कि बुढ़िया ने झट से मटकी उतारकर धरती पर रखी और सादर उनके चरणों में झुककर फिर अपने अधपोपले मुख से गद्गद स्वर में कहा : ‘‘अरे महाराज, तुमी-तुमी तो थे जो सरग में भगवान् के दरसन करने गये थे। माताजी बताती थीं।’’
‘‘हाँ मैया, मैं ही गया था।’’
‘‘तो तुम्हें भगवान के दरसन हुए ?’’

‘‘भगवान तो अब यहाँ आ गये हैं मैया। वृन्दावन में मौयँ मिले हते। बड़ी छेड़खानी करी हमसे।’’
‘‘सच्ची भगवान् यहाँ आ गये हैं। तो नारद महातमा मुझे भी तू एक बार उनके दरसन करा दे। तेरा बड़ा जस गाऊँगी।’’
‘‘पहले तू मुझे यह बतला मैया, कि आर्या और गोपाल महात्मा कहाँ गए हैं ?’’
‘‘गुपाल महाराज तो कहीं दूर गये हैं। कोई एक महीना हुआ उन्हें गये। बाकी माता जी तो यहीं मण्डी में गई हैं। मणीकरण बाणिये की माँ को चुड़ैल ने झोंटे पकड़के मारा सो उसे जर आ गया है। उसे ही देखने गई हैं। पर चिंता न करो, ऊपर ईजा है और माताजी भी थोड़ी देर में आ जायँगी। सीधे ऊपर चले जाओ।’’
‘‘ईजा ? ईजा कौन ? सोमाहुति और आर्या भार्गवी के अतिरिक्त यह तीसरा कौन ?’’ नारद शंकित हृदय से टीले पर चढ़ने लगे।

नीचे से बुढ़िया ने पूछा : ‘अभी तो रहोगे न महाराज ?’’
‘‘हाँ हाँ।’’ कहकर वे टीले पर चढ़ने लगे। सामने भार्गव की गोशाला दिखाई पड़ने लगी। एक युवती गाय दुह रही थी। नीचे से जाती हुई बुढ़िया बोली : ‘‘भगवान के दरसन कराना। मैं अभी आती हूँ।’’ परन्तु नारद का ध्यान अब उधर न था। वे सामने देख रहे थे।–फूल छड़ी-सी देह, गौर वर्ण, आँखें अग्नि और अमिय से भरी बड़ी-बड़ी कटोरियों जैसी, उनमें ज्योति रस बनकर झलक रही थी। नारद की टकटकी बँध गई। वे अवाक् देखते ही रह गए।
युवती के रसमग्न नेत्रों में देखते ही श्रद्धा उमड़ी और पलकों के तट पर आकर लय हो गई। बस, इतने ही से प्रणाम कर लिया। हाथ अपना काम करते रहे। वह बोली, उसका स्वर नारद को सरस्वती कण्ठाभरण-सा मनोमुग्धकारी लगा। उसने कहा : ‘‘प्रणाम, महामुने ! मैं पहचान गई। आप कथा-मण्डप में विराजें। यह कपिला बड़ी मानिनी है। छोड़ दूँ तो दूध चढ़ा जाएगी, फिर खाएगी भी नहीं।’’

‘‘मेरी चिन्ता न करो बड़भागिन। मैं तो एक बार जाके तीर्थ-स्नान करूँगा। माहात्म्य तो सुना था कि इस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को रूपकांति चन्द्रमा-सी हो जाती है, पर अब तुम्हारे मुखचन्द्र ने प्रमाण भी दर्शा दिया है। कौन हो देवी तुम ?’’
‘‘इज्या।’’ केवल स्वर ही इधर आया, मुख भी हाथों के समान ही काम कर लौट गया था।
नाम सुनकर नारद का विनोद जागा, कहा : ‘‘भला, भला, गऊ हो तुम भी।’’
‘‘नहीं, बिम्ब हूँ।’’
‘‘तब फिर प्रतिबिम्ब कौन, सोम ? उन्हें यह दान किसने दिया ?’’
इज्या एक बार इधर-उधर देखकर मुस्कुराते हुए बोली : ‘‘यह चारों अर्थ मुझ पर लागू तो होते हैं महामुने, पर मैं वस्तुतः बलि हूँ, शब्द का पाँचवाँ अर्थ।’’
यह उत्तर नारद के लिए रहस्य बन गया। पर फिर कुछ पूछे बिना ही आगे बढ़ गए। कथा-मण्डप में अपनी वीणा और झोली एक ओर रखकर नीचे जाने से पहले फिर गोशाला की ओर बढ़े। कपिला दुही जा चुकी थी, इज्या उसकी पगही खोल रही थी। नारद ने पूछा : ‘सोमाहुति कहाँ गये हैं ?’’

‘‘मिस्सक वन। महर्षि शौनक जी के पास ! अइया केवल मण्डी तक ही गई हैं, थोड़ी देर में आ जायँगी ! किन्तु आप चिन्ता न करें, सेवा में किसी प्रकार की त्रुटि—’’
‘‘छे :, यह प्रश्न ही नहीं उठता। जिस घर में अब पाँच अर्थोंवाली साक्षात् कामधेनु आ गई हैं, वहाँ मेरे पाँच सुख सुरक्षित हैं। दो, गृहिणी और पुत्र-सुख तो नारायण की कृपा से कभी चाहे ही न थे।’’
इज्या फूल-सी खिल और खिलखिला उठी। नारद की मुग्धता भी मानो सहज प्रतिबिम्ब-सी खिली। तब तक इज्या बोली : ‘‘आपके बन्धु ने अभी कुछ ही दिनों पहले महाकाल और हमारी स्थूल काल गणना की माया का निरूपण करते हुए मुझे नारद-मोह की एक बड़ी रोचक कथा सुनाई थी। आपको दो सुखों को तिलांजलि देनेवाली बात मेरे मन में उस कथा से ऐसी जुड़ी कि बरबस हँसी आ गई। क्षमा करें, अन्यथा न मानें।’’
‘‘सोमा ने सुनाई थी, अरे वोई तौ हमारौ घर-बिगाड़ी है। वाके कारन ही नारद बन्यौ। हाँ, तो वह कथा क्या थी, मैं भी सुनूँ।’’ कथा में नारद ने तीव्र उत्सुकता दिखलाई।
‘‘आप स्नान तो कर आयें। मैं तब तक दूध गरमा लूँ।’’

‘‘तुम समान सतर्कता से एक समय में दो काम साध लेती हो, यह मैं अभी देख चुका हूँ। मटकी उठाओ, चलती चलो, सुनाती चलो।’’
‘‘आप तो बालहठ साध रहे हैं।’’
‘‘तुम्हारा देवर हूँ।’’ नारद मटकी उठाने के लिए झुके, उनसे पहले ही इज्या ने मटकी उठा ली और मुड़ते हुए कपिला की पीठ पर नेह भरे हाथ का पुचारा देकर कहा : ‘‘अभी वर ही कहाँ है ?—हाँ तो, कथा सुनिए—’’
इज्या को मार्ग देने के लिए नारद बढ़े ही थे कि उसके पहले वाक्य को सुनकर ठिठक गए। तब तक इज्या फुर्ती से मूल विषय पर आ गई। इससे नारद में एक क्षण के लिए किंकर्त्तव्य-विमूढ़ता आ गई। इज्या ने फिर हँसी बिखेरते हुए लताड़ा : ‘‘अच्छा अब आगे गति कीजिए महात्मा देवरजी ! कथा भी तब तक खड़ी रहेगी।’’
नारद हँस पड़े। गोशाला से बाहर आकर पूरब की ओर ऊँचान पर रसोईघर था। गोशाला की ढाल से ऊपर चढ़ते हुए सहसा इज्या ने कहा : ‘‘आप बैठकर सुचित्त से कथा सुनने का नियम पालन नहीं करते मुनिवर ?’’
‘‘बैठनेवाला तो चित्त ही है न, वह मधुमक्खी के समान अपने मधु स्वाद में ही लवलीन है। फिर काया के चलने या न चलने से हमारा प्रयोजन ही क्या है ? वह तो आवश्यकतानुसार आशाचक्र के सिद्ध संचालन यंत्रवत् संचालित है। हाँ, अब कथा कहो।’’

नारद का यह कथाग्रह मन को गुदगुदा कर भी आदरास्पद था। स्वयं ‘वे’ भी केवल व्यासपीठ पर ही बैठकर कथा सुनने-सुनाने का आग्रह कभी-कभी छोड़ देते हैं। कहते हैं, समर्थ को दोष नहीं लगता। कथाग्रह में नारद उनके प्रतिबिम्ब हैं, यह सोचकर मन भावभीना हो गया। कहानी सुनाने लगी—
‘‘ऋषिकुमार सुनाते थे कि एक बार नारद परम्परा के एक प्राचीन पुरुष ने भगवान् विष्णु के दर्शनार्थ बड़ी कठोर तपस्या की। प्रसन्न नारायण प्रत्यक्ष पधारे। श्रीचरणों में माथा नवाकर कहा कि हे प्रभु, भक्ति की महिमा यथार्थ है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ। इसके बाद भगवान् ने नारद को वरदान माँगने को कहा। नारद बोले : आप सदा मेरे पास रहिए, यही वर चाहता हूँ।’’

रसोई मण्डप में पहुँच गए। मटकी एक ओर रखकर सुलगते कण्डों की भूभल कुरेदकर दो-चार नये कण्डे डाले। कहानी चलती ही रही—
‘‘भगवान् बोले, हे नारद, मेरी माया मेरी भक्ति से भी बड़ी है। इसे न भूलो। तप, वन्दना, उपासना से जब मेरी माया को भी सिद्ध कर लोगे तब मैं सदा तुम्हारे पास रहा करूँगा। नारद जी बोले, भगवान मैं नहीं मानता कि आपकी माया सच्चे भक्तों का भी कुछ बिगाड़ सकती है। और यदि आपके मन में ऐसा ही सन्देह है तो दिखलाइए अपनी माया का शक्ति। मैं भी श्रीचरण कृपा से उसे आपकी भक्ति की सिद्धि का स्वाद चखाऊँगा।’’

दूध छाना और दूसरी मटकी में कण्डों की भट्ठी पर चढ़ाया जा चुका था। राख-धूल से बचाने के लिए उस पर कपड़ा बाँधा जा चुका था। इज्या भट्ठी के पास ही बैठी सुना रही थी। नारद द्वार के तनिक आगे गर्दन झुकाए बैठे हुए कहानी सुन रहे थे। घूमने-फिरने के काम सम्पन्न हो जाने से इज्या के स्वर का सधाव अब और अधिक बढ़ गया था। वह सुना रही थी :
‘‘तो हुआ यह कि भगवान् ने नारद जी की अटल भक्ति के प्रति आदर प्रकट किया और कहा कि हे नारद, पृथ्वी पर जन्म से मुझे भी अपनी माया के वशीभूत होना पड़ता है। बस, इसी से समझ लो कि मेरी माया बड़ी शक्ति शालिनी है। नारदजी बोले, अरे महाराज, आपका यह छलावा मेरे साथ न चलेगा। भगवान् बोले—देखो मेरी माया का प्रताप कि तुम्हारे कारण धरती पर आते ही मेरी भ्रमण की इच्छा जागी है। मैं अपनी माया से बच नहीं पा रहा हूँ। नारद बोले कि जैसी श्रीनारायण की इच्छा। मैं तो आपका पद-रज अनुगामी हूँ। अस्तु। दोनों चलने लगे। चलते-चलते मरुभूमि आ गई। भगवान ने कहा, हे नारद मुझे बड़ी प्यास लगी है। कहीं से जल लाओ। नारद तुरन्त कमण्डलु लेकर दौड़ पड़े। भगवान् प्यासे थे, भक्त नारदजी दौड़ते हुए पास के गाँव में पहुँचे। रास्ते में यह विचार भी आया कि देखो हरि-भक्ति की महिमा की यह मरुभूमि तक तुझे प्यासा न बना सकी। भक्त से हर विघ्न दूर भागता है। यह सोचते हुए वे गाँव तक पहुँच गए। जो पहला घर मिला, उसका कुण्डा खटखटाया। द्वार खुला। नारदजी सामने रति के समान आकर्षक एक तन्वंगी नवयौवना खड़ी थी। उसे देखकर महाभागवत नारदजी की सारी सुध-बुध ही बिसर गई। उनकी आँखें उस रूप-दर्शन की ऐसी प्रबल प्यासी हो उठीं कि उन्हें अपने भगवान् की प्यास ही बिसर गई।’’ इज्या के मुख पर यह कहते हुए मुस्कान की एक गहरी रेखा खिंच गई, परन्तु नारद यथावत् सिर झुकाए सुन रहे थे। इज्या ने फिर संयत् स्वर से कहना शुरू किया :

‘‘उस कन्या ने पूछा, आप क्या चाहते हैं। वे बोले कि सुन्दरी, मैं तुमसे ब्याह करना चाहता हूँ, तुम्हारे बिना अब नहीं रह सकता। कन्या बोली की मेरे पिता से मिलकर बात कर लीजिए। कन्या का पिता तो एक योग्य वर की तलाश में था ही, गोरे-चिट्टे-हट्टे-कट्टे, सुन्दर और पढ़े-लिखे नारदजी के साथ अपने बेटी की भांवरें फिरवा दीं। गृहस्थी जमने लगी। बूढ़ा बाप परलोक सिधारा। एक-एक करके उनके तीन बेटे भी हुए। खेती-पाती बढ़ी और पत्नी के प्रति नारद का प्रेम ऐसा बढ़ता गया कि उनका बस चलता तो उसे आठों पहर अपनी आँखों के आगे बिठाए रखते। ऐसे ही एक युग बीता। फिर एक दिन प्रलय वर्षा और आँधी आई। नारद का गाँव बह गया। खेती-पाती डूब गई। घर डूबने लगा, पत्नी को बचाएँ तो बच्चे बहे जाते हैं और बच्चों को बचाएँ तो पत्नी, किस-किसको बचाएँ। बेचारे नारदजी बावलों-से रोते-चिल्लाते पानी में इधर-उधर हाथ-पाँव मारते रह गए। किसी को न बचा पाए। बहते-बहते आप किनारे लगे तो वहाँ देखा कि पेड़ तले भगवान् बिराजे हैं। नारदजी भावावेश में रोते हुए भागे कि गुहारें, प्रभु आपके रहते मुझ अटल भक्त की गृहस्थी का यह सत्यानाश क्योंकर हुआ। परन्तु पास पहुँचने पर उनके कुछ कहने के पहले ही भगवान् ने कहा : ‘अरे भक्तशिरोमणि, मैं आधी घड़ी से प्यासा बैठा हूँ और तुम पानी भी नहीं लाए। कहाँ थे ? सुनकर नारदजी चक्कर में पड़े कि अरे, मेरा तो जेठा पुत्र ही बारह बरस का था और यह कहते हैं कि मुझे यहाँ से गए केवल आधी घड़ी ही बीती है। चारों ओर दौड़ने लगे, न मरुभूमि, न प्रलय, न वृक्ष और न भगवान् ही कहीं दिखलाई देते थे।’’
‘‘अरे इज्या ! कहां है री !’’
‘‘हाँ अइया !’’
‘‘अरे सुना है, मेरा देवा आया है। !’’

आर्या भार्गवी की आवाज सुनकर नारद तुरन्त रसोई मण्डप से बाहर आ गए और कथा-मण्डप के आगे तुलसी-चौरे के पास माता भार्गवी को देखकर भक्ति और उल्लासपूर्वक उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। आर्या का वात्सल्य भाव उमड़ पड़ा। झुककर नारद को उठाया और अपनी बाँहों में कसकर देर तक उन्हें बाँधें रहीं। उनकी आँखं भर आईं। स्नेहावेश का एक उबाल थमने पर दूसरी लहर में उन्होंने नारद का मुखमण्डल अपने दोनों हाथों से बाँध लिया और जी-भर कर देखने के बाद कपोल पर चुंबन अंकित कर उनका मस्तक सूँघा, फिर दुबारा भर आनेवाली आँखों को आंचल से पोंछते हुए बोलीं : ‘‘धरती का स्वर्ग ही भला। वहाँ जानेवाले अपने पुत्र को सकुशल लौटकर आया हुआ देखना भी माँ के लिए संभव हो जाता है।...जियो मेरे बच्चो, चिरंजीवी हो !’’

नारद जान गए, माँ को अपने स्वर्गीय बेटे अग्निवर्ण का अभाव भी उनके आगमन के हर्ष-वर्षण में बिजली-सा तड़प उठा है। माँ के मन को तनिक हल्की धारा में बहा लेने के लिए नारद बोले, : ‘‘तुझे देखकर तो अब ऐसा लगता है माँ की मानों मैं कहीं गया ही नहीं था। इज्या की कथा वाले नारद की भाँति ही मेरा भी यह बीते पन्द्रह दिनों का महाभ्रमण अपनी कालावधि में इस समय कुछ यों सिमट आया है कि लगता है, जैसे कल गया था और आ गया।’’
‘‘हाँ बेटा, यही तो भगवान् की माया है। अरी इज्या, मेरे देवा को तूने कुछ कलेऊ करा दिया कि नहीं !’’
इज्या ने हँसकर कहा : ‘‘अभी कहाँ ! अभी तो ये तीर्थ-स्नान करके अपने मुख पर चन्द्रकांति लाने जा रहे थे, फिर मेरी एक बात पकड़कर कथा सुनाने का हठ ठान बैठे।’’


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai