नाटक-एकाँकी >> पासपोर्ट पासपोर्टअचला शर्मा
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बीबीसी पर प्रसारित नाटक
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बीबीसी विश्व सेवा यूँ तो समाचारों और सामयिक विषयों की चर्चा के लिए
प्रसिद्ध है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा वहां भी रही है। अंग्रेजी तथा
कई अन्य भाषाओं में समय-समय पर रेडियो नाटक प्रसारित होते रहे हैं। बीबीसी
की हिन्दी सेवा में रेडियो नाटक की पुष्ट परम्परा रही है। और क्यों न रहती
? किसी जमाने सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी उससे जुड़े थे।
अचला जी ने एक रेडियो-प्रोड्यूसर के रुप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा है, और लेखिका की हैसियत से रेडियो तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की है। नाटक के मूल तत्त्व ‘तनाव’ के अलावा, रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी ध्वनि परिप्रेक्ष्य।
कहानी और उपन्यास, दोनों भिन्न विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की, समझ जरूरत है। टेलीविजन या फिल्म के लिए तकनीक अलग है, और रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय लेखक को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आ जाए। ‘पासपोर्ट’ में बीबीसी हिन्दी सेवा से प्रसारित उन नाटकों को संकलित किया गया है जिनमें ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर सम्भ्रम में दिखाई देते हैं। दोहरी या कहें,
चितकबरी संस्कृति जीतने पर विश्व दिखाई देते हैं। बहुत सम्भव है कि इन नाटकों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों को लगे कि ये बहुत से भारतीय परिवारों की जानी-समझी समस्याएँ हैं। लेकिन गौर करने की बात है कि ये नाटक विदेशी परिवेश में घटित होते हैं, इसलिए वहाँ ‘द्वन्द्व’ का रुप कुछ अलग हो जाता है।
जिन नाटकों को बीबीसी हिन्दी सेवा के करोड़ों श्रोताओं ने सुना और सराहा है, वे नाटक अब पुस्तक रूप में आपके हाथ हैं।
अचला जी ने एक रेडियो-प्रोड्यूसर के रुप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा है, और लेखिका की हैसियत से रेडियो तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की है। नाटक के मूल तत्त्व ‘तनाव’ के अलावा, रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी ध्वनि परिप्रेक्ष्य।
कहानी और उपन्यास, दोनों भिन्न विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की, समझ जरूरत है। टेलीविजन या फिल्म के लिए तकनीक अलग है, और रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय लेखक को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आ जाए। ‘पासपोर्ट’ में बीबीसी हिन्दी सेवा से प्रसारित उन नाटकों को संकलित किया गया है जिनमें ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर सम्भ्रम में दिखाई देते हैं। दोहरी या कहें,
चितकबरी संस्कृति जीतने पर विश्व दिखाई देते हैं। बहुत सम्भव है कि इन नाटकों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों को लगे कि ये बहुत से भारतीय परिवारों की जानी-समझी समस्याएँ हैं। लेकिन गौर करने की बात है कि ये नाटक विदेशी परिवेश में घटित होते हैं, इसलिए वहाँ ‘द्वन्द्व’ का रुप कुछ अलग हो जाता है।
जिन नाटकों को बीबीसी हिन्दी सेवा के करोड़ों श्रोताओं ने सुना और सराहा है, वे नाटक अब पुस्तक रूप में आपके हाथ हैं।
भूमिका
भारत में रेडियो का पुनर्जन्म हो रहा है। इन दिनों मीडिया से जुड़े बहुत
से लोग यही बात कहते पाए जाते हैं। वे भी, जिनका रेडियो में कोई रचनात्मक
योगदान रहा है, और वो भी जिनका पैसा लगा है। बेशक, पहली बार रेडियो सरकारी
सीमाओं से बाहर कदम रख रहा है। गैरसरकारी fM रेडियो चैनल भले ही तकलीफ़देह
सुस्ती के साथ एक-एक कर उभर रहे हैं लेकिन कम से कम इस बहाने रेडियो एक
बार फिर चर्चा में है। सैटलाइट केबल टेलीविजन और इंटरनेट जैसे माध्यमों की
इस बेहद रोचक दुनिया में रेडियो का भावी रूप क्या होगा, क्या वह संगीत के
अलावा भी कुछ दे पाएगा,
क्या रेडियो पत्रकारिता जैसी कोई विधा भारत के मीडिया परिदृश्य पर भी पनप पाएगी-इन सवालों के जवाब फिलहाल मुश्किल हैं। लेकिन यह निश्चित है कि रेडियो या ध्वनि माध्यम की सम्भावनाएँ अपार हैं। मैं 1977 से लेकर आज तक रेडियो से जुडी हूँ। आकाशवाणी से लेकर बीबीसी तक के अपने कामकाजी जीवन के पच्चीस वर्षों में मैंने रेडियो प्रसारण के विभिन्न रूप और आयाम समझने की कोशिश की है। एक रेडियो पत्रकार के रूप में यह जाना कि ‘रेडियो पत्रकारिता’
पत्रकारिता की एक विशिष्ट और चुनौतीपूर्ण विधा है। एक रेडियो प्रोड्यूसर की हैसियत से ध्वनि माध्यम की क्षमता और उसके भविष्य में मेरी अटूट आस्था रही है। रेडियो की पहुँच टेलीविजन और इंटरनेट से कहीं व्यापक है, रेडियो घर दफ्तर की सीमाओं को पार करने में सक्षम है। आप दुनिया के किसी ऐसे सुदूर छोर पर चले जाएँ जहां टेलीफ़ोन, टेलीविजन या कम्प्यूटर की सुविधाएँ न हों, वहां भी एक नन्हा सा ट्रांजिस्टर रेडियो आपको सारी दुनिया से जोड़ सकता है। मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब रेडियो की इस ताकत से पूरी तरह परिचित नहीं थी।
मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब घर में एक डिब्बे के आकार का बिजली से चलनेवाला मर्फी रेडियो था। नाटक की विधा से मेरा पहला परिचय भी उसी रेडियो सैट के माध्यम से हुआ। रंगमंच को तो बहुत बाद में जाना। टेलीविजन सीरियल या सोप की शुरूआत तो भारत में अभी हाल के वर्षों में हुई है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा बहुत पुरानी और मजबूत है। इसलिए ‘रेडियो ड्रामे’ की जो मेरी समझ है उसमें ऑल इंडिया रेडियो का बहुत बड़ा योगदान है।
जब छोटी थी तो एक श्रोता के रूप में आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र से प्रसारित होनेवाले नाटकों को रेडियो से कान लगाकर सुनती थी। लगता था जैसे नाटकों के सारे पात्र रेडियो के बक्से में मिनियेचर के रूप में बन्द हों और उन्हें महसूस किया जा सकता हो।
उन दिनों नाटकों का अखिल भारतीय कार्यक्रम प्रसारित हुआ करता था। हर शुक्रवार की रात, घर के एकमात्र रेडियो सैट से चिपककर मैंने न जाने कितने ही बेहतरीन नाटक सुने हैं। पिछले पन्द्रह वर्षों में मुझे आकाशवाणी के नाटक सुनने का अवसर नहीं मिला। लेकिन मेरे बचपन या बड़े होने की प्रक्रिया में कई रेडियो नाटकों ने अहम रोल अदा किया है।...कैसे-कैसे लेखक कैसे-कैसे अभिनेता और कैसी- कैसी आवाजें।
बड़े-बड़े और नए से नए लेखकों की रचनाओं को आकाशवाणी ने सशक्त रूप में लोगों तक पहुँचाया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि सभी जानेमाने लेखक रेडियो के लिए लिखने और विशेष रूप से नाटक लिखने में गर्व का अनुभव करते थे। रेडियो नाटकों के आरम्भिक दौर से भले ही मेरा सीधा परिचय नहीं रहा, लेकिन साठ- सत्तर के दशक में हर सप्ताह नाटक का इंतजार मुझे कुछ इस तरह रहता था, जिस तरह उसी जमाने में बहुत से लोगों को अमीन सयानी की ‘बिनाका
गीतमाला’ का या फिर आज के जमाने में टेलीविजन सीरियलों का। उन बहुत से श्रेष्ठ नाटकों में से कुछ के नाम मुझे आज भी याद हैं, जैसे ‘फिर उसी वीराने की तलाश में’, ‘लाओ ज़हर पिला दो’, ‘रीढ़ की हड्डी‘, ‘तौलिए’, ‘आपका बंटी’, ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’, ‘बेगम का तकिया’, ‘निजा़म सक़्क़ा’, ‘गँवार’, इत्यादि। उन दिनों नाटक सिर्फ़ सुन नहीं जाते थे बल्कि अगले दिन अपनी दोस्त और ‘सह-श्रोता’ सुषमा भटनागर के साथ हर नाटक के कथ्य और पात्रों पर गम्भीर चर्चा भी होती थी। तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मैं खुद रेडियो के लिए नाटक लिखूँगी।
लेकिन जब मैंने आकाशवाणी में काम करना शुरू किया तो मेरी सहयोगी ममता गुप्ता ने मेरी दो कहानियों के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। कई वर्षों बाद ममता बीबीसी हिन्दी सेवा में मेरी सहयोगी बनीं और उन्होंने मेरे लिखे कुछ नाटकों का निर्देशन किया।
अस्सी के दशक में लन्दन जाकर, बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़ने के बाद पहली बार मुझे रेडियो की अस्ल ताक़त और पहुँच का अन्दाजा़ हुआ। करोड़ों श्रोता किस तरह नन्हा सा रेडियो कान से सटाए, बीबीसी हिन्दी सेवा से प्रसारित होनेवाले हर शब्द को सुनते और ग्रहण करते हैं, यह जानकर अचम्भा भी हुआ और सन्तोष भी। बीबीसी विश्व सेवा यूँ तो समाचारों और सामयिक विषयों की चर्चा के लिए प्रसिद्ध है,
मगर रेडियो नाटकों की परम्परा वहाँ भी रही। अंग्रेजी तथा कई अन्य भाषाओं में समय-समय पर रेडियो नाटक प्रसारित होते रहे हैं। बीबीसी से जुड़ने के बाद मुझे तमिल सेवा के अपने सहयोगी शंकरमूर्ति की प्रतिभा को देखने और सराहने का अवसर मिला। अंग्रेजी के कई दिग्गज नाटककारों, और विशेष रूप से शेक्सपियर के कई नाटकों का, शंकरमूर्ति ने तमिल में रूपान्तर किया। अद्भुत प्रतिभा के मालिक हैं शंकरमूर्ति। बीबीसी की हिन्दी सेवा में भी रेडियो नाटक की पुष्ट परम्परा रही है। और क्यों न रहती ? किसी जमाने में सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी उससे जुड़े थे। हिन्दी सेवा के पुराने फोटो एलबम और उनमें लगी अनगिनत तस्वीरें कई रेडियो नाटकों की रिकॉर्डिग का इतिहास समेटे हैं।
मैंने जब बीबीसी हिन्दी सेवा में क़दम रखा तो उस समय अध्यक्ष कैलाश बुधवार थे जिन्होंने अपनी यात्रा कभी पृथ्वी थियेटर्स से आरम्भ की थी। नाट्य कला का पोषण सहज और स्वाभाविक था। मेरे दो अन्य सहयोगी, नीलाभ अश्क और मनोज भटनागर भी नाटकों में गहरी रुचि रखते थे। नीलाभ ने बच्चों के कार्यक्रम के लिए ‘पिनोकियो’ का रूपान्तर किया जो अत्यन्त सफल रहा। कुछ वर्ष बाद राजनारायण बिसारिया ने जॉर्ज ऑर्वेले के उपन्यास ‘एनिमल फा़र्म’ का रेडियो नाट्य-रूपान्तर किया जिसका प्रस्तुतिकरण जटिल और चुनौतीपूर्ण था
लेकिन Digital Sound Technology ने काफी कुछ आसान कर दिया। नब्बे के दशक में, मधुकर उपाध्याय ने शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ का रूपान्तर किया और फिर नाइजीरिया के कवि और एक्टिविस्ट ‘कैन सारो वीवा’ की जीवनी पर आधारित एक नाटक लिखा। खुद मैंने प्रेमचन्द्र की कहानी ‘जुलूस’, सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टोवा टेकसिंह’ और चेखव के नाटक ‘दि प्रापोज़ल’ के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। लेकिन रूपान्तरों से हटकर, मौलिक रेडियो नाटकों की मेरी लेखन-यात्रा ‘पिनोकियो’ के बाद और ‘एनिमल फार्म’ की प्रस्तुति से पहले, कहीं बीच में शुरू हो चुकी थी। मैंने एक रेडियो-प्रोड्यूसर के रूप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा, और लेखिका की हैसियत से
रेडियो-तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की। नाटक के मूल तत्त्व ‘तनाव’ के अलावा रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी Sound Perspective यानी ध्वनि परिप्रेक्ष्य। मेरा मानना है कि भारत में आज भी बहुत से ऐसे लेखक हैं जो रेडियो के लिए सशक्त रूप से लिख सकते हैं लेकिन शायद रेडियो नाटक के क्राफ्ट़ से परिचित नहीं हैं।
दुःख है कि बहुत से अच्छे लेखक इसी झिझक के कारण रेडियो से दूर रह जाते हैं। मुझे लगता है कि रेडियो से जुड़े लोगों को ही इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। शुरुआत रेडियो (और टेलीविज़न) नाटकों के लिए कुछ वर्कशॉप्स आयोजित करके की जा सकती है। बात ये है कि कहानी और उपन्यास लिखना अलग विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें, एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की समझ की जरूरत है। टेलीविज़न या फिल्म के लिए वो तकनीक अलग है, और
रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आए। "सविता ने रमेश को कनखियों से देखते हुए उसे इशारे से ‘ना’ कर दी। साथ ही उसने अम्मा से नज़र बचाकर, नीचे का होंठ भींचते हुए अपने जू़ड़े से बेले का एक फूल तोड़ा, और रमेश की ओर फेंक दिया।" रेडियो नाटक के लिए इस दृश्य को रूपान्तरित करने में किसी भी लेखक को
पसीने आ जाएँगे। इसलिए मैं तो फिलहाल कोशिश भी नहीं करूँगी। कुछ इसलिए भी कि यह दृश्य मैंने ही गढ़ा है। रेडियो नाटक लिखते समय दृश्य और दृश्य के घटित होनेवाले स्थान के हिसाब से, ध्वनि परिप्रेक्ष्य (Sound Perspective) और ध्वनि प्रभाव, (Sound effects) का खास खयाल रखना पड़ता है। मसलन, पात्र उस समय कहाँ हैं, घर के अन्दर या किसी भीड़ भरे स्थान पर एक-दूसरे के नज़दीक बेठै हैं, या कुछ दूरी पर, सिचुएशन रोमांटिक है या तनावपूर्ण। अपने
अनुभव से मैंने ये भी समझा कि पृष्ठभूमि में संगीत की ज़रूरत हर दृष्य में कतई ज़रूरी नहीं। उसका प्रयोग समय, स्थान और कहानी की सिचुएशन पर निर्भर है। आमतौर पर रेडियो के लिए नाटक लिखनेवाला लेखक इन तमाम बातों का ध्यान रखता है लेकिन अगर कुछ छूट जाए तो वह एक कुशल प्रोड्यूशर सँभाल लेता है। मगर जिसे प्रोड्यूसर नहीं सँभाल सकता, और शायद उसे सँभालना भी नहीं चाहिए, वह है कहानी और संवाद।
लन्दन में रहकर भारतीय परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में रेडियो नाटक करने की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं। फर्ज कीजिए आपने मथुरा के एक मुहल्ले का दृश्य लिखा और सुबह का समय दिखाया। बीबीसी विश्व सेवा के मुख्यालय बुश हाउस की साउंड लाइब्रेरी में भला मथुरा की सुबह कहाँ से मिलेगी। किसी ने सुझाव दिया, ‘चिड़ियों की आवाज ले लो और उनमें मन्दिर की घंटियों और सड़क का शोर मिक्स कर दो।’ यह तो इतना आसान नहीं। इसलिए कि ये देखना भी ज़रूरी है कि अगल चिड़ियाँ विलायती हों, ट्रैफिक लन्दन का और मन्दिर की घंटियाँ लन्दन के नीजड़न स्थित स्वामीनारायण मन्दिर से, तो क्या यह मथुरा की सुबह के साथ ज्यादती नहीं ? ऐसी हालत में बहुत बार हमें अपने दिल्ली ब्यूरो से हाथ जोड़कर
अनुरोध करना पड़ा कि वह हमारी मदद करे। यहाँ दिक्कत पेश यह आई कि बीबीसी के पत्रकार के लिए, विदेश मन्त्रालय द्वारा आयोजित संवाददाता सम्मेलन रिकॉर्ड करना आसान है, मथुरा की सुबह रिकॉर्ड करना मुश्किल।
लन्दन में हिन्दी बोलनेवाले अच्छे ड्रामा आर्टिस्टों की भी ख़ासी कमी है। इसलिए बहुत मौकों पर बीबीसी के पत्रकारों को चुनौती देनी पड़ी कि वो अपनी अभिनय प्रतिभा का नमूना पेश करें। आमतौर पर बुश हाउस में स्टूडियो मैनेजर
अंग्रेजीभाषी होते हैं। इसलिए, हर रिकॉर्डिंग से पहले उन्हें नाटक की कहानी और हर दृश्य समझाना भी कोई आसान काम नहीं होता। कुल मिलाकर, जब साल में एक बार बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटक की रिकॉर्डिंग का समय नजदीक आता है तो स्टूडियो मैनेजर से लेकर हर हिन्दी बोलनेवाले ड्रामा आर्टिस्ट को इंतजार रहता है कि किसे चांस मिलेगा। सब जी-जान लगा देते हैं। सुबह से शाम तक, और कभी-कभी देर रात तक रिकॉर्डिंग चलती है।...मुझे इस बात का सन्तोष है कि बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटकों ने न केवल विदेश में रेडियो नाटकों की परम्परा को जीवित रखा है बल्कि कई
संवेदनशील और ज्वलन्त विषयो पर नाटक प्रसारित करके करोड़ों हिन्दी श्रोताओं का दिल भी जीता है। हर वर्ष नवम्बर का महीना आते-आते श्रोताओं के पत्र आने लगते हैं, इस आशा के साथ कि इस बार भी हिन्दी सेवा कोई विचारोत्तेजक नाटक सुनवाएगी। नाटकों के कथानक ढूँढ़ने के लिए कभी दूर नहीं जाना पड़ा। प्रवासी भारतीयों का जीवन और भारत के राजनीतिक हालात अक्सर प्रेरक का काम करते रहे।..पिछले पन्द्रह- बीस वर्षों में विदेश में रहते हुए मैंने प्रवास की
समस्याओं को नजदीक से देखा, समझा और भोगा है, भारत से यहाँ आनेवालों के शुरुआती Culture Shock से लेकर ‘बसने’ तक की प्रक्रिया कई तरह के द्वन्द्वों और अन्तर्द्वन्द्वों की यात्रा है। पश्चिमी समाज में रहकर अपनी पहचान को कायम रखने की जद्दोजहद एक बड़ी चुनौती रही है। हालाँकि पिछले पन्द्रह वर्षों में इस पहचान के बहुत से चिह्न इतने आम हो गए हैं कि कुछ शहरों के एशियाई इलाकों में जाकर यह भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है कि आप भारत में हैं या ब्रिटेन
में। भारतीय भोजन, भारतीय पहनावा, सैटलाइट पर कई भारतीय टेलीविजन चेनल, भारतीय संगीत भारतीय फ़िल्में, भारतीय उत्सव, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भारतीय संस्कृति के नाम पर सारे lcons मौजूद हैं। लेकिन मेरी नज़र में जो समस्या आज भी ज़्यादातर भारतीयों प्रवासियों की मूल समस्या है, वो है उनकी अपनी सोच, जिसे वे संस्कारों के नाम पर नई पीढ़ी पर थोपना चाहते हैं। समस्या अब उस पीढ़ी की है, जो खुद को प्रवासी नहीं समझती। यह पीढ़ी यहीं जन्मी है,
यहीं पली-बढ़ी है, यहीं शिक्षित हुई है। इसलिए पूर्व और पश्चिम के संस्कारों की रस्साकशी में तनाव और द्वन्द्व उसके हिस्से में आते हैं। 1989 से लेकर 2001 तक के अर्से में एक बड़ा बदलाव यह भी आया कि अपने-अपने घरों के अन्दर बीस-तीस साल पुराने ‘भारत’ को जीनेवाले उन प्रवासियों के जीवन पर मौजूद राजनीति के छींटे भी पड़ने लगे हैं।
मैं इस अर्से में लिखे अपने रेडियो नाटकों में से दस को चुना है। पहले भाग ‘पासपोर्ट’ में उन नाटकों को संकलित किया है जिनमें ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर Confused दिखाई देते हैं, दोहरी या कहूँ, चितकवरी संस्कृति जीने पर विवश दिखाई देते हैं। बहुत सम्भव है, इन नाटकों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों को लगे कि ये तो बहुत से भारतीय परिवारों की जानी-समझी समस्याएँ हैं। लेकिन ग़ौर करने की बात यह है कि ये नाटक विदेशी
परिवेश में घटित होते हैं, इसलिए वहाँ ‘द्वन्द्व’ का रूप कुछ अलग हो जाता है। ‘कहानी का अन्त’ (1989), यूँ तो समय के साथ पारिवारिक इकाई में अनुपयोगी होते जा रहे वृद्धों की कहानी है, लेकिन यह कहानी उस समाज में घटित हो रही है जहाँ बहुत से वृद्ध एक बड़ी हद तक आत्मनिर्भर होना पसन्द करते हैं।
1992 में मैंने ‘अपना सच’ लिखा। यह वो समय था जब भारत में अयोध्या विवाद अपने चरम पर था। यह पहला अवसर था जब मैंने देश की राजनीति को प्रवासी एशियाइयों के आपसी रिश्तों में कड़ुवाहट घोलते देखा। जात-पात और धर्म के मुद्दों ने प्रवासी एशियाइयों के जीवन में ऐसी सेंध लगाई कि उसके बाद से बहुत से लोग उनकी आड़ में अपना व्यापार करने लगे ! ‘सपनों की सरहदें’ (1993) एक बेहतर जीवन की तलाश में विदेश जाकर बसने के युवा सपनों और सपनों क
े रास्तें में आनेवाले नियम कानूनों के टकराव की कहानी है। बेहतर जीवन का सपना पंजाब की पढ़ी-लिखी युवती ‘प्रीत’ (1995) ने भी देखा था लेकिन विवाह के बाद लन्दन पहुँचकर उसके सपने उन्हीं कारणों से चूर होते हैं जिन कारणों से भारत में किसी युवती के हो सकते हैं। ‘परिन्दे’ (2000) तक आते-आते मैंने प्रवासी मन की बहुत सी गुत्थियों को समझना शुरू कर दिया। ‘नॉस्टेल्जिया’, ‘अपराधबोध’, संस्कारों के नाम पर अतीत में ‘फ्रीज़’ हो जाने की मजदूरी आदि कई पहलुओं
को मैंने एक मनोविश्लेषक के माध्यम से समझने- समझाने की कोशिश की है। साथ ही यह जानने की भी कोशिश की, कि आज की दुनिया में, जहाँ एक देश से दूसरे देश जाना और आना कहीं आसान है, वहाँ मानवीय सम्बन्ध किस तरह बनने से पहले ही बिखरने को आतुर दिखाई देते हैं।
दूसरे भाग ‘जड़े’ में मैंने उन नाटकों को एक साथ रखा है जिनमें उठाए गए विषय भले ही अलग-अलग हों, लेकिन मूल प्रश्न शायद एक ही है। ‘सुबह होने तक’ (1991) मैंने जिन दिनों लिखा, उन दिनों बीबीसी हिन्दी सेवा की पत्रकारिता जहाँ अंग्रेजी से अनुवाद की मजबूरी से मुक्त हो रही थी, वहाँ भारत में बहुत सी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर अंग्रेजी सोच थोपी जा रही थी। सुबह होने तक इसी पृष्ठभूमि में एक हिन्दी अख़बार की सम्पादक की मजबूरियों को समझने का प्रयास है। और सम्पादक अगर एक महिला की सम्पादक की मजबूरियों को समझने का प्रयास है। और सम्पादक अगर एक महिला है तो फिर समस्याओं का स्वरूप भी बदल जाता है।
‘एक घर की कहानी’ (1994) के प्रसारित होने के बाद सैकड़ों श्रोताओं ने लिखा कि नाटक का शीर्षक घर-घर की कहानी होना चाहिए था। मथुरा में एक संयुक्त परिवार मीडिया के असर, ग्लोबलाइजेशन और छोटे शहरों में अवसरों की कमी के बोझ तले किस तरह बिखर रहा हैं-यही वो बात थी जो हर छोटे शहरवाले को अपनी सी लगी। यूँ तो पिछले कई वर्षों से आतंकवाद बहुत से देशों की चिन्ता का विषय रहा है। लेकिन सितम्बर में अमरीका में हुए हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई ने एक निर्णायक मोड़ इख्तियार कर लिया है। गौर करने की बात यह है कि जिसे दुनिया आतंकवाद कहती है, उसे उसके समर्थक जंगे-आज़ादी, जिहाद या संघर्ष का नाम देते हैं। हथियारबंद संघर्ष के भी, कश्मीर, श्रीलंका, अफगानिस्तान और फिलीस्तीन तक अनेकों रूप हैं लेकिन कुछ हथियारबन्द गिरोह क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं। कुछ लोग यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि आतंकवाद का उन्मूलन उसकी जड़ तक पहुँचे बिना सम्भव नहीं। ‘क्या चाहती है शिवानी’ (2001) प्रयास है एक ‘आतंकवादी’ तक पहुँचने का, उसे ‘सुनने’ का नाटक के प्रसारण के बाद कुछ आलोचकों ने सवाल उठाया कि क्या एक आतंकवादी को मंच प्रदान करना उचित है।’ मेरा सवाल है कि क्या उसका पक्ष जाने और समझे बिना सजा देना उचित है ?
‘रिश्ता (1998) को इस संकलन में शामिल करते समय मेरे मन में थोड़ा सा संकोच था। कारण यह है कि ‘रिश्ता’ मैंने चेखव के ‘दि प्रपोज़ल’ की ज़मीन पर लिखा है। इस तरह वह सौ प्रतिशत मौलिक नहीं है लेकिन विषय, कहानी और पात्र सब देसी हैं। नाटक के पात्र भले ही लन्दन में बैठे हैं, मगर बहस और उसके बहस के मुद्दे वही हैं जो भारत और पाकिस्तान के बीच वर्षों से रहे हैं। बात आमों की हो, क्रिकेट की हो या आणविक अस्त्रों की, आजमगढ़ की नाज़िया और कराची के लियाक़त के बीच हर विषय जंग की वजह बन सकता है।
‘जड़ें’ 1990 में प्रसारित हुआ लेकिन इसमें आप 6 दिसम्बर, 1992 की आहट भी सुन सकते हैं। यह वो समय था। जब भारत की राजनीति में आरक्षण की नीति ‘मंडल’ और अयोध्या में मन्दिर निर्माण की माँग ‘कमंडल’ के बीच टकराव मुखर था। यह टकराव जहाँ देश की राजनीति और जनता को विभाजित करनेवाला साबित हुआ, वहीं मेरी नजर में, हास्यस्पद भी था। इसलिए ‘जड़ें’ लिखते समय मैंने हास्य-व्यंग्य की शैली का सहारा लिया और नज़र चुनी एक NRI यानी प्रवासी
भारतीय परिवार की जो अपनी जड़ों की तलाश में भारत आता है। ‘जड़ें’ का प्रोडक्शन खासा जटिल था। सबसे बड़ी कास्ट शायद मेरे इसी एक नाटक की रही और दृश्य जगह-जगह बिखरे हुए थे। कहीं दंगे के बाद का उदास-सहमा-ख़ामोश गाँव था, कहीं शहर की भीड़ और नारे थे कहीं राजनीतिक रैली थी, खुले मैदान में गूँजता हुआ भाषण था तो कहीं रेडियो से प्रसारित होनेवाला भाषा। निर्देशक प्रोड्यूसर परवेज आलम के सामने जितनी चुनौतियाँ थीं उससे दुगुनी हमारे स्टूडियो मैनेजर के सामने थीं। कभी Microphone स्टूडियो के अन्दर रखा गया तो कभी स्टूडियो के बाहर बने छोटे से
Rehearsal room में और कभी दोनों का एक साथ इस्तेमाल हुआ। रिकॉर्डिंग के दौरान बहुत से कलाकारों की जिम्मेदारी सिर्फ यही थी कि वो background sound का ध्यान रखें। यानी अगर पार्टी का दृश्य है तो पृष्ठभूमि में गिलासों चम्मचों बातों और हँसी की आवाजें लगातार आती रहें। ऐसा न हो कि दो पात्र संवाद बोलते रहें और लगे कि वे किसी दावत में न होकर अपने घर में बैठे हैं।
मैं चाहूँगी कि जब आप इन नाटकों को पढ़ें तो ये याद रखें कि ये नाटक मैंने रंगमंच के लिए नहीं लिखे। ये सभी नाटक ध्वनि नाटक हैं, और ‘ध्वनि’, फ़िल्म के कैमरे से किसी भी रूप कम सक्षम नहीं है। ध्वनि रेडियो नाटकों का सबसे महत्त्वपूर्ण tool है-पर जरूरत है उसके सही इस्तेमाल की।पीछे मैंने कहा कि Sound effects और Sound perspective रेडियो नाटकों के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैंने जो सीखा और समझा है, उसे संक्षेप में आपके साथ बाँटना चाहती हूँ।
क्या रेडियो पत्रकारिता जैसी कोई विधा भारत के मीडिया परिदृश्य पर भी पनप पाएगी-इन सवालों के जवाब फिलहाल मुश्किल हैं। लेकिन यह निश्चित है कि रेडियो या ध्वनि माध्यम की सम्भावनाएँ अपार हैं। मैं 1977 से लेकर आज तक रेडियो से जुडी हूँ। आकाशवाणी से लेकर बीबीसी तक के अपने कामकाजी जीवन के पच्चीस वर्षों में मैंने रेडियो प्रसारण के विभिन्न रूप और आयाम समझने की कोशिश की है। एक रेडियो पत्रकार के रूप में यह जाना कि ‘रेडियो पत्रकारिता’
पत्रकारिता की एक विशिष्ट और चुनौतीपूर्ण विधा है। एक रेडियो प्रोड्यूसर की हैसियत से ध्वनि माध्यम की क्षमता और उसके भविष्य में मेरी अटूट आस्था रही है। रेडियो की पहुँच टेलीविजन और इंटरनेट से कहीं व्यापक है, रेडियो घर दफ्तर की सीमाओं को पार करने में सक्षम है। आप दुनिया के किसी ऐसे सुदूर छोर पर चले जाएँ जहां टेलीफ़ोन, टेलीविजन या कम्प्यूटर की सुविधाएँ न हों, वहां भी एक नन्हा सा ट्रांजिस्टर रेडियो आपको सारी दुनिया से जोड़ सकता है। मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब रेडियो की इस ताकत से पूरी तरह परिचित नहीं थी।
मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब घर में एक डिब्बे के आकार का बिजली से चलनेवाला मर्फी रेडियो था। नाटक की विधा से मेरा पहला परिचय भी उसी रेडियो सैट के माध्यम से हुआ। रंगमंच को तो बहुत बाद में जाना। टेलीविजन सीरियल या सोप की शुरूआत तो भारत में अभी हाल के वर्षों में हुई है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा बहुत पुरानी और मजबूत है। इसलिए ‘रेडियो ड्रामे’ की जो मेरी समझ है उसमें ऑल इंडिया रेडियो का बहुत बड़ा योगदान है।
जब छोटी थी तो एक श्रोता के रूप में आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र से प्रसारित होनेवाले नाटकों को रेडियो से कान लगाकर सुनती थी। लगता था जैसे नाटकों के सारे पात्र रेडियो के बक्से में मिनियेचर के रूप में बन्द हों और उन्हें महसूस किया जा सकता हो।
उन दिनों नाटकों का अखिल भारतीय कार्यक्रम प्रसारित हुआ करता था। हर शुक्रवार की रात, घर के एकमात्र रेडियो सैट से चिपककर मैंने न जाने कितने ही बेहतरीन नाटक सुने हैं। पिछले पन्द्रह वर्षों में मुझे आकाशवाणी के नाटक सुनने का अवसर नहीं मिला। लेकिन मेरे बचपन या बड़े होने की प्रक्रिया में कई रेडियो नाटकों ने अहम रोल अदा किया है।...कैसे-कैसे लेखक कैसे-कैसे अभिनेता और कैसी- कैसी आवाजें।
बड़े-बड़े और नए से नए लेखकों की रचनाओं को आकाशवाणी ने सशक्त रूप में लोगों तक पहुँचाया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि सभी जानेमाने लेखक रेडियो के लिए लिखने और विशेष रूप से नाटक लिखने में गर्व का अनुभव करते थे। रेडियो नाटकों के आरम्भिक दौर से भले ही मेरा सीधा परिचय नहीं रहा, लेकिन साठ- सत्तर के दशक में हर सप्ताह नाटक का इंतजार मुझे कुछ इस तरह रहता था, जिस तरह उसी जमाने में बहुत से लोगों को अमीन सयानी की ‘बिनाका
गीतमाला’ का या फिर आज के जमाने में टेलीविजन सीरियलों का। उन बहुत से श्रेष्ठ नाटकों में से कुछ के नाम मुझे आज भी याद हैं, जैसे ‘फिर उसी वीराने की तलाश में’, ‘लाओ ज़हर पिला दो’, ‘रीढ़ की हड्डी‘, ‘तौलिए’, ‘आपका बंटी’, ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’, ‘बेगम का तकिया’, ‘निजा़म सक़्क़ा’, ‘गँवार’, इत्यादि। उन दिनों नाटक सिर्फ़ सुन नहीं जाते थे बल्कि अगले दिन अपनी दोस्त और ‘सह-श्रोता’ सुषमा भटनागर के साथ हर नाटक के कथ्य और पात्रों पर गम्भीर चर्चा भी होती थी। तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मैं खुद रेडियो के लिए नाटक लिखूँगी।
लेकिन जब मैंने आकाशवाणी में काम करना शुरू किया तो मेरी सहयोगी ममता गुप्ता ने मेरी दो कहानियों के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। कई वर्षों बाद ममता बीबीसी हिन्दी सेवा में मेरी सहयोगी बनीं और उन्होंने मेरे लिखे कुछ नाटकों का निर्देशन किया।
अस्सी के दशक में लन्दन जाकर, बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़ने के बाद पहली बार मुझे रेडियो की अस्ल ताक़त और पहुँच का अन्दाजा़ हुआ। करोड़ों श्रोता किस तरह नन्हा सा रेडियो कान से सटाए, बीबीसी हिन्दी सेवा से प्रसारित होनेवाले हर शब्द को सुनते और ग्रहण करते हैं, यह जानकर अचम्भा भी हुआ और सन्तोष भी। बीबीसी विश्व सेवा यूँ तो समाचारों और सामयिक विषयों की चर्चा के लिए प्रसिद्ध है,
मगर रेडियो नाटकों की परम्परा वहाँ भी रही। अंग्रेजी तथा कई अन्य भाषाओं में समय-समय पर रेडियो नाटक प्रसारित होते रहे हैं। बीबीसी से जुड़ने के बाद मुझे तमिल सेवा के अपने सहयोगी शंकरमूर्ति की प्रतिभा को देखने और सराहने का अवसर मिला। अंग्रेजी के कई दिग्गज नाटककारों, और विशेष रूप से शेक्सपियर के कई नाटकों का, शंकरमूर्ति ने तमिल में रूपान्तर किया। अद्भुत प्रतिभा के मालिक हैं शंकरमूर्ति। बीबीसी की हिन्दी सेवा में भी रेडियो नाटक की पुष्ट परम्परा रही है। और क्यों न रहती ? किसी जमाने में सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी उससे जुड़े थे। हिन्दी सेवा के पुराने फोटो एलबम और उनमें लगी अनगिनत तस्वीरें कई रेडियो नाटकों की रिकॉर्डिग का इतिहास समेटे हैं।
मैंने जब बीबीसी हिन्दी सेवा में क़दम रखा तो उस समय अध्यक्ष कैलाश बुधवार थे जिन्होंने अपनी यात्रा कभी पृथ्वी थियेटर्स से आरम्भ की थी। नाट्य कला का पोषण सहज और स्वाभाविक था। मेरे दो अन्य सहयोगी, नीलाभ अश्क और मनोज भटनागर भी नाटकों में गहरी रुचि रखते थे। नीलाभ ने बच्चों के कार्यक्रम के लिए ‘पिनोकियो’ का रूपान्तर किया जो अत्यन्त सफल रहा। कुछ वर्ष बाद राजनारायण बिसारिया ने जॉर्ज ऑर्वेले के उपन्यास ‘एनिमल फा़र्म’ का रेडियो नाट्य-रूपान्तर किया जिसका प्रस्तुतिकरण जटिल और चुनौतीपूर्ण था
लेकिन Digital Sound Technology ने काफी कुछ आसान कर दिया। नब्बे के दशक में, मधुकर उपाध्याय ने शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ का रूपान्तर किया और फिर नाइजीरिया के कवि और एक्टिविस्ट ‘कैन सारो वीवा’ की जीवनी पर आधारित एक नाटक लिखा। खुद मैंने प्रेमचन्द्र की कहानी ‘जुलूस’, सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टोवा टेकसिंह’ और चेखव के नाटक ‘दि प्रापोज़ल’ के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। लेकिन रूपान्तरों से हटकर, मौलिक रेडियो नाटकों की मेरी लेखन-यात्रा ‘पिनोकियो’ के बाद और ‘एनिमल फार्म’ की प्रस्तुति से पहले, कहीं बीच में शुरू हो चुकी थी। मैंने एक रेडियो-प्रोड्यूसर के रूप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा, और लेखिका की हैसियत से
रेडियो-तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की। नाटक के मूल तत्त्व ‘तनाव’ के अलावा रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थित रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी Sound Perspective यानी ध्वनि परिप्रेक्ष्य। मेरा मानना है कि भारत में आज भी बहुत से ऐसे लेखक हैं जो रेडियो के लिए सशक्त रूप से लिख सकते हैं लेकिन शायद रेडियो नाटक के क्राफ्ट़ से परिचित नहीं हैं।
दुःख है कि बहुत से अच्छे लेखक इसी झिझक के कारण रेडियो से दूर रह जाते हैं। मुझे लगता है कि रेडियो से जुड़े लोगों को ही इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। शुरुआत रेडियो (और टेलीविज़न) नाटकों के लिए कुछ वर्कशॉप्स आयोजित करके की जा सकती है। बात ये है कि कहानी और उपन्यास लिखना अलग विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें, एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की समझ की जरूरत है। टेलीविज़न या फिल्म के लिए वो तकनीक अलग है, और
रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आए। "सविता ने रमेश को कनखियों से देखते हुए उसे इशारे से ‘ना’ कर दी। साथ ही उसने अम्मा से नज़र बचाकर, नीचे का होंठ भींचते हुए अपने जू़ड़े से बेले का एक फूल तोड़ा, और रमेश की ओर फेंक दिया।" रेडियो नाटक के लिए इस दृश्य को रूपान्तरित करने में किसी भी लेखक को
पसीने आ जाएँगे। इसलिए मैं तो फिलहाल कोशिश भी नहीं करूँगी। कुछ इसलिए भी कि यह दृश्य मैंने ही गढ़ा है। रेडियो नाटक लिखते समय दृश्य और दृश्य के घटित होनेवाले स्थान के हिसाब से, ध्वनि परिप्रेक्ष्य (Sound Perspective) और ध्वनि प्रभाव, (Sound effects) का खास खयाल रखना पड़ता है। मसलन, पात्र उस समय कहाँ हैं, घर के अन्दर या किसी भीड़ भरे स्थान पर एक-दूसरे के नज़दीक बेठै हैं, या कुछ दूरी पर, सिचुएशन रोमांटिक है या तनावपूर्ण। अपने
अनुभव से मैंने ये भी समझा कि पृष्ठभूमि में संगीत की ज़रूरत हर दृष्य में कतई ज़रूरी नहीं। उसका प्रयोग समय, स्थान और कहानी की सिचुएशन पर निर्भर है। आमतौर पर रेडियो के लिए नाटक लिखनेवाला लेखक इन तमाम बातों का ध्यान रखता है लेकिन अगर कुछ छूट जाए तो वह एक कुशल प्रोड्यूशर सँभाल लेता है। मगर जिसे प्रोड्यूसर नहीं सँभाल सकता, और शायद उसे सँभालना भी नहीं चाहिए, वह है कहानी और संवाद।
लन्दन में रहकर भारतीय परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में रेडियो नाटक करने की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं। फर्ज कीजिए आपने मथुरा के एक मुहल्ले का दृश्य लिखा और सुबह का समय दिखाया। बीबीसी विश्व सेवा के मुख्यालय बुश हाउस की साउंड लाइब्रेरी में भला मथुरा की सुबह कहाँ से मिलेगी। किसी ने सुझाव दिया, ‘चिड़ियों की आवाज ले लो और उनमें मन्दिर की घंटियों और सड़क का शोर मिक्स कर दो।’ यह तो इतना आसान नहीं। इसलिए कि ये देखना भी ज़रूरी है कि अगल चिड़ियाँ विलायती हों, ट्रैफिक लन्दन का और मन्दिर की घंटियाँ लन्दन के नीजड़न स्थित स्वामीनारायण मन्दिर से, तो क्या यह मथुरा की सुबह के साथ ज्यादती नहीं ? ऐसी हालत में बहुत बार हमें अपने दिल्ली ब्यूरो से हाथ जोड़कर
अनुरोध करना पड़ा कि वह हमारी मदद करे। यहाँ दिक्कत पेश यह आई कि बीबीसी के पत्रकार के लिए, विदेश मन्त्रालय द्वारा आयोजित संवाददाता सम्मेलन रिकॉर्ड करना आसान है, मथुरा की सुबह रिकॉर्ड करना मुश्किल।
लन्दन में हिन्दी बोलनेवाले अच्छे ड्रामा आर्टिस्टों की भी ख़ासी कमी है। इसलिए बहुत मौकों पर बीबीसी के पत्रकारों को चुनौती देनी पड़ी कि वो अपनी अभिनय प्रतिभा का नमूना पेश करें। आमतौर पर बुश हाउस में स्टूडियो मैनेजर
अंग्रेजीभाषी होते हैं। इसलिए, हर रिकॉर्डिंग से पहले उन्हें नाटक की कहानी और हर दृश्य समझाना भी कोई आसान काम नहीं होता। कुल मिलाकर, जब साल में एक बार बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटक की रिकॉर्डिंग का समय नजदीक आता है तो स्टूडियो मैनेजर से लेकर हर हिन्दी बोलनेवाले ड्रामा आर्टिस्ट को इंतजार रहता है कि किसे चांस मिलेगा। सब जी-जान लगा देते हैं। सुबह से शाम तक, और कभी-कभी देर रात तक रिकॉर्डिंग चलती है।...मुझे इस बात का सन्तोष है कि बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटकों ने न केवल विदेश में रेडियो नाटकों की परम्परा को जीवित रखा है बल्कि कई
संवेदनशील और ज्वलन्त विषयो पर नाटक प्रसारित करके करोड़ों हिन्दी श्रोताओं का दिल भी जीता है। हर वर्ष नवम्बर का महीना आते-आते श्रोताओं के पत्र आने लगते हैं, इस आशा के साथ कि इस बार भी हिन्दी सेवा कोई विचारोत्तेजक नाटक सुनवाएगी। नाटकों के कथानक ढूँढ़ने के लिए कभी दूर नहीं जाना पड़ा। प्रवासी भारतीयों का जीवन और भारत के राजनीतिक हालात अक्सर प्रेरक का काम करते रहे।..पिछले पन्द्रह- बीस वर्षों में विदेश में रहते हुए मैंने प्रवास की
समस्याओं को नजदीक से देखा, समझा और भोगा है, भारत से यहाँ आनेवालों के शुरुआती Culture Shock से लेकर ‘बसने’ तक की प्रक्रिया कई तरह के द्वन्द्वों और अन्तर्द्वन्द्वों की यात्रा है। पश्चिमी समाज में रहकर अपनी पहचान को कायम रखने की जद्दोजहद एक बड़ी चुनौती रही है। हालाँकि पिछले पन्द्रह वर्षों में इस पहचान के बहुत से चिह्न इतने आम हो गए हैं कि कुछ शहरों के एशियाई इलाकों में जाकर यह भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है कि आप भारत में हैं या ब्रिटेन
में। भारतीय भोजन, भारतीय पहनावा, सैटलाइट पर कई भारतीय टेलीविजन चेनल, भारतीय संगीत भारतीय फ़िल्में, भारतीय उत्सव, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भारतीय संस्कृति के नाम पर सारे lcons मौजूद हैं। लेकिन मेरी नज़र में जो समस्या आज भी ज़्यादातर भारतीयों प्रवासियों की मूल समस्या है, वो है उनकी अपनी सोच, जिसे वे संस्कारों के नाम पर नई पीढ़ी पर थोपना चाहते हैं। समस्या अब उस पीढ़ी की है, जो खुद को प्रवासी नहीं समझती। यह पीढ़ी यहीं जन्मी है,
यहीं पली-बढ़ी है, यहीं शिक्षित हुई है। इसलिए पूर्व और पश्चिम के संस्कारों की रस्साकशी में तनाव और द्वन्द्व उसके हिस्से में आते हैं। 1989 से लेकर 2001 तक के अर्से में एक बड़ा बदलाव यह भी आया कि अपने-अपने घरों के अन्दर बीस-तीस साल पुराने ‘भारत’ को जीनेवाले उन प्रवासियों के जीवन पर मौजूद राजनीति के छींटे भी पड़ने लगे हैं।
मैं इस अर्से में लिखे अपने रेडियो नाटकों में से दस को चुना है। पहले भाग ‘पासपोर्ट’ में उन नाटकों को संकलित किया है जिनमें ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर Confused दिखाई देते हैं, दोहरी या कहूँ, चितकवरी संस्कृति जीने पर विवश दिखाई देते हैं। बहुत सम्भव है, इन नाटकों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों को लगे कि ये तो बहुत से भारतीय परिवारों की जानी-समझी समस्याएँ हैं। लेकिन ग़ौर करने की बात यह है कि ये नाटक विदेशी
परिवेश में घटित होते हैं, इसलिए वहाँ ‘द्वन्द्व’ का रूप कुछ अलग हो जाता है। ‘कहानी का अन्त’ (1989), यूँ तो समय के साथ पारिवारिक इकाई में अनुपयोगी होते जा रहे वृद्धों की कहानी है, लेकिन यह कहानी उस समाज में घटित हो रही है जहाँ बहुत से वृद्ध एक बड़ी हद तक आत्मनिर्भर होना पसन्द करते हैं।
1992 में मैंने ‘अपना सच’ लिखा। यह वो समय था जब भारत में अयोध्या विवाद अपने चरम पर था। यह पहला अवसर था जब मैंने देश की राजनीति को प्रवासी एशियाइयों के आपसी रिश्तों में कड़ुवाहट घोलते देखा। जात-पात और धर्म के मुद्दों ने प्रवासी एशियाइयों के जीवन में ऐसी सेंध लगाई कि उसके बाद से बहुत से लोग उनकी आड़ में अपना व्यापार करने लगे ! ‘सपनों की सरहदें’ (1993) एक बेहतर जीवन की तलाश में विदेश जाकर बसने के युवा सपनों और सपनों क
े रास्तें में आनेवाले नियम कानूनों के टकराव की कहानी है। बेहतर जीवन का सपना पंजाब की पढ़ी-लिखी युवती ‘प्रीत’ (1995) ने भी देखा था लेकिन विवाह के बाद लन्दन पहुँचकर उसके सपने उन्हीं कारणों से चूर होते हैं जिन कारणों से भारत में किसी युवती के हो सकते हैं। ‘परिन्दे’ (2000) तक आते-आते मैंने प्रवासी मन की बहुत सी गुत्थियों को समझना शुरू कर दिया। ‘नॉस्टेल्जिया’, ‘अपराधबोध’, संस्कारों के नाम पर अतीत में ‘फ्रीज़’ हो जाने की मजदूरी आदि कई पहलुओं
को मैंने एक मनोविश्लेषक के माध्यम से समझने- समझाने की कोशिश की है। साथ ही यह जानने की भी कोशिश की, कि आज की दुनिया में, जहाँ एक देश से दूसरे देश जाना और आना कहीं आसान है, वहाँ मानवीय सम्बन्ध किस तरह बनने से पहले ही बिखरने को आतुर दिखाई देते हैं।
दूसरे भाग ‘जड़े’ में मैंने उन नाटकों को एक साथ रखा है जिनमें उठाए गए विषय भले ही अलग-अलग हों, लेकिन मूल प्रश्न शायद एक ही है। ‘सुबह होने तक’ (1991) मैंने जिन दिनों लिखा, उन दिनों बीबीसी हिन्दी सेवा की पत्रकारिता जहाँ अंग्रेजी से अनुवाद की मजबूरी से मुक्त हो रही थी, वहाँ भारत में बहुत सी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर अंग्रेजी सोच थोपी जा रही थी। सुबह होने तक इसी पृष्ठभूमि में एक हिन्दी अख़बार की सम्पादक की मजबूरियों को समझने का प्रयास है। और सम्पादक अगर एक महिला की सम्पादक की मजबूरियों को समझने का प्रयास है। और सम्पादक अगर एक महिला है तो फिर समस्याओं का स्वरूप भी बदल जाता है।
‘एक घर की कहानी’ (1994) के प्रसारित होने के बाद सैकड़ों श्रोताओं ने लिखा कि नाटक का शीर्षक घर-घर की कहानी होना चाहिए था। मथुरा में एक संयुक्त परिवार मीडिया के असर, ग्लोबलाइजेशन और छोटे शहरों में अवसरों की कमी के बोझ तले किस तरह बिखर रहा हैं-यही वो बात थी जो हर छोटे शहरवाले को अपनी सी लगी। यूँ तो पिछले कई वर्षों से आतंकवाद बहुत से देशों की चिन्ता का विषय रहा है। लेकिन सितम्बर में अमरीका में हुए हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई ने एक निर्णायक मोड़ इख्तियार कर लिया है। गौर करने की बात यह है कि जिसे दुनिया आतंकवाद कहती है, उसे उसके समर्थक जंगे-आज़ादी, जिहाद या संघर्ष का नाम देते हैं। हथियारबंद संघर्ष के भी, कश्मीर, श्रीलंका, अफगानिस्तान और फिलीस्तीन तक अनेकों रूप हैं लेकिन कुछ हथियारबन्द गिरोह क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं। कुछ लोग यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि आतंकवाद का उन्मूलन उसकी जड़ तक पहुँचे बिना सम्भव नहीं। ‘क्या चाहती है शिवानी’ (2001) प्रयास है एक ‘आतंकवादी’ तक पहुँचने का, उसे ‘सुनने’ का नाटक के प्रसारण के बाद कुछ आलोचकों ने सवाल उठाया कि क्या एक आतंकवादी को मंच प्रदान करना उचित है।’ मेरा सवाल है कि क्या उसका पक्ष जाने और समझे बिना सजा देना उचित है ?
‘रिश्ता (1998) को इस संकलन में शामिल करते समय मेरे मन में थोड़ा सा संकोच था। कारण यह है कि ‘रिश्ता’ मैंने चेखव के ‘दि प्रपोज़ल’ की ज़मीन पर लिखा है। इस तरह वह सौ प्रतिशत मौलिक नहीं है लेकिन विषय, कहानी और पात्र सब देसी हैं। नाटक के पात्र भले ही लन्दन में बैठे हैं, मगर बहस और उसके बहस के मुद्दे वही हैं जो भारत और पाकिस्तान के बीच वर्षों से रहे हैं। बात आमों की हो, क्रिकेट की हो या आणविक अस्त्रों की, आजमगढ़ की नाज़िया और कराची के लियाक़त के बीच हर विषय जंग की वजह बन सकता है।
‘जड़ें’ 1990 में प्रसारित हुआ लेकिन इसमें आप 6 दिसम्बर, 1992 की आहट भी सुन सकते हैं। यह वो समय था। जब भारत की राजनीति में आरक्षण की नीति ‘मंडल’ और अयोध्या में मन्दिर निर्माण की माँग ‘कमंडल’ के बीच टकराव मुखर था। यह टकराव जहाँ देश की राजनीति और जनता को विभाजित करनेवाला साबित हुआ, वहीं मेरी नजर में, हास्यस्पद भी था। इसलिए ‘जड़ें’ लिखते समय मैंने हास्य-व्यंग्य की शैली का सहारा लिया और नज़र चुनी एक NRI यानी प्रवासी
भारतीय परिवार की जो अपनी जड़ों की तलाश में भारत आता है। ‘जड़ें’ का प्रोडक्शन खासा जटिल था। सबसे बड़ी कास्ट शायद मेरे इसी एक नाटक की रही और दृश्य जगह-जगह बिखरे हुए थे। कहीं दंगे के बाद का उदास-सहमा-ख़ामोश गाँव था, कहीं शहर की भीड़ और नारे थे कहीं राजनीतिक रैली थी, खुले मैदान में गूँजता हुआ भाषण था तो कहीं रेडियो से प्रसारित होनेवाला भाषा। निर्देशक प्रोड्यूसर परवेज आलम के सामने जितनी चुनौतियाँ थीं उससे दुगुनी हमारे स्टूडियो मैनेजर के सामने थीं। कभी Microphone स्टूडियो के अन्दर रखा गया तो कभी स्टूडियो के बाहर बने छोटे से
Rehearsal room में और कभी दोनों का एक साथ इस्तेमाल हुआ। रिकॉर्डिंग के दौरान बहुत से कलाकारों की जिम्मेदारी सिर्फ यही थी कि वो background sound का ध्यान रखें। यानी अगर पार्टी का दृश्य है तो पृष्ठभूमि में गिलासों चम्मचों बातों और हँसी की आवाजें लगातार आती रहें। ऐसा न हो कि दो पात्र संवाद बोलते रहें और लगे कि वे किसी दावत में न होकर अपने घर में बैठे हैं।
मैं चाहूँगी कि जब आप इन नाटकों को पढ़ें तो ये याद रखें कि ये नाटक मैंने रंगमंच के लिए नहीं लिखे। ये सभी नाटक ध्वनि नाटक हैं, और ‘ध्वनि’, फ़िल्म के कैमरे से किसी भी रूप कम सक्षम नहीं है। ध्वनि रेडियो नाटकों का सबसे महत्त्वपूर्ण tool है-पर जरूरत है उसके सही इस्तेमाल की।पीछे मैंने कहा कि Sound effects और Sound perspective रेडियो नाटकों के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैंने जो सीखा और समझा है, उसे संक्षेप में आपके साथ बाँटना चाहती हूँ।
ध्वनि प्रभाव (Sound effects)
ध्वनि प्रभाव रेडियो नाटक की
सबसे
बड़ी ताकत हैं। इनके माध्यम से आप किसी दृश्य को जहाँ चाहे ले जा सकते
हैं-दुनिया के किसी भी कोने में, घर के भीतर, रसोई में या आँगन में, बाजार
में, मेले में या एकान्त में पहाड़ी झरने के पास या समन्दर के किनारे।
ज़रूरत Authentictity की है। यानी ध्वनि प्रभाव दृश्य के
‘स्थान’ से मेल खाते हुए होने चाहिए। जैसेः
-अगर दृश्य रसोई का है तो पृष्ठभूमि में बर्तनों की खटपट प्रैशर कुकर की आवाज़ इत्यादि हों तो दृश्य भरा-भरा लगेगा।
-अगर पक्षियों की आवाज़ें हैं तो यह निश्चित करना ज़रूरी है कि पक्षी कहाँ के हैं, क्या वहाँ पाए जाते हैं जहाँ आपका दृश्य अभिनीत हो रहा है ?
-इस तरह ट्रेफ़िक का भी हर देश और हर शहर में अलग मिज़ाज होता है। कहीं रिक्शे-ताँगे भी होते हैं तो कहीं सिर्फ़ मोटर कारें। कहीं ‘हॉर्न’ बजते है तो कहीं बिल्कुल नहीं।
-कार का इंजन स्टार्ट होने या उसका दरवाजा बन्द होने का ध्वनि प्रभाव है तो यहध्यान रखने की ज़रूरत है कि कार किस मॉडल की है। क्योंकि अगर नाटक का पात्र कहता है कि उसके पास BMW है तो इंजिन या दरवाज़े की आवाज Maruti की नहीं हो सकती। मैंने कभी एक टेलीविजन प्रोग्राम देखा था, जिसमें एक आदमी की आँखों पर पट्टी बँधी थी और इम्तिहान यह था कि वो कारों के दरवाज़ों के बन्द होने की आवाज़ सुनकर बताए कि वो कौन सी कार है।
-ध्वनि प्रभावों के इस्तेमाल में एक अहम बात और ध्यान में रखी जाती हैं। फ़र्ज़ कीजिए नाटक के पात्र किसी ‘बार’ में बैठे हैं तो बार के ध्वनिप्रभाव दृश्य के खत्म होने तक पृष्ठभूमि में चलते रहने चाहिए। हाँ, इस बात का खयाल रहे कि ध्वानि प्रभाव संवादों पर हावी न हो जाएँ।
-अगर दृश्य रसोई का है तो पृष्ठभूमि में बर्तनों की खटपट प्रैशर कुकर की आवाज़ इत्यादि हों तो दृश्य भरा-भरा लगेगा।
-अगर पक्षियों की आवाज़ें हैं तो यह निश्चित करना ज़रूरी है कि पक्षी कहाँ के हैं, क्या वहाँ पाए जाते हैं जहाँ आपका दृश्य अभिनीत हो रहा है ?
-इस तरह ट्रेफ़िक का भी हर देश और हर शहर में अलग मिज़ाज होता है। कहीं रिक्शे-ताँगे भी होते हैं तो कहीं सिर्फ़ मोटर कारें। कहीं ‘हॉर्न’ बजते है तो कहीं बिल्कुल नहीं।
-कार का इंजन स्टार्ट होने या उसका दरवाजा बन्द होने का ध्वनि प्रभाव है तो यहध्यान रखने की ज़रूरत है कि कार किस मॉडल की है। क्योंकि अगर नाटक का पात्र कहता है कि उसके पास BMW है तो इंजिन या दरवाज़े की आवाज Maruti की नहीं हो सकती। मैंने कभी एक टेलीविजन प्रोग्राम देखा था, जिसमें एक आदमी की आँखों पर पट्टी बँधी थी और इम्तिहान यह था कि वो कारों के दरवाज़ों के बन्द होने की आवाज़ सुनकर बताए कि वो कौन सी कार है।
-ध्वनि प्रभावों के इस्तेमाल में एक अहम बात और ध्यान में रखी जाती हैं। फ़र्ज़ कीजिए नाटक के पात्र किसी ‘बार’ में बैठे हैं तो बार के ध्वनिप्रभाव दृश्य के खत्म होने तक पृष्ठभूमि में चलते रहने चाहिए। हाँ, इस बात का खयाल रहे कि ध्वानि प्रभाव संवादों पर हावी न हो जाएँ।
ध्वनि प्ररिप्रेक्ष्य (Sound perspective)
ध्वनि परिप्रेक्ष्य की समझ
रेडियो नाटक करे हर कुशल प्रोड्यूसर और अनुभवी कलाकारों को होती है। जैसेः
-अगर दो पात्र एक जगह पास-पास बैठे बातचीत कर रहे हैं तो ज़ाहिर है दोनों Microphone के नज़दीक होंगे।
-फ़र्ज़ कीजिए, दोनों में एक पात्र ज़रा दूरी पर है, या प्रवेश कर रहा है तो उसकी आवाज़ Microphone से दूर यानी Off Mic होगी।
यह भी ज़रूरी नहीं कि हर संवाद Microphone के निकट आकर ही बोंले। अगर वो अपने घर में हैं तो यह स्वाभाविक है कि वो बीच-बीच में उठकर कुछ काम कर रहे हैं और काम करते हुए, एक दूसरे से बातकर रहे हैं।
-लेकिन यह क्यों मानकर चलें कि पात्र घर के अन्दर ही रहेंगे। फ़र्ज़ कीजिए वो कार में बैठे हैं, ट्रेन या हवाई जहाज में हैं, बाजार या बाग में हैं-ध्वनि परिप्रेक्ष्य हर जगह अलग-अलग होगा। एक कुशल निर्देशक और प्रोड्यूसर की सबसे बड़ी चूनौती भी यही होती है कि वह Sound perspective के माध्यम से श्रोताओं को यह समझा सके कि पात्र कहाँ हैं-क्या कर रहे हैं।
बहरहाल, रेडियो नाटकों की तकनीक पर भाषण देना मेरा मक़सद नहीं है। मुझे इस बात की खुशी है कि जिन नाटकों को बीबीसी हिन्दी सेवा के करोड़ों श्रोताओं ने सुना और सराहा है, वे नाटक अब पुस्तक के रूप में आपके हाथ में हैं। मेरे कुछ मित्रों और शुभचिन्तकों का लम्बे अरसे से आग्रह रहा है कि इन नाटकों को पाठकों के सामने रखूँ। बीबीसी हिन्दी सेवा में मेरे सहयोगी ओंकारनाथ श्रीवास्तव और मित्र के सुधीश पौचीर का इस दिशा में विशेष प्रयास रहा है।
मैं राजकमल प्रकाश की आभारी हूँ जिसने इन रेडियो नाटकों को पाठकों तक पहुँचाना स्वीकार किया। आभारी हूँ बीबीसी हिन्दी सेवा के अपने सहयोगियों की और विशेष रूप से बीबीसी के उन श्रोताओं की जिन्होंने हर वर्ष मुझसे एक नाटक की मांग की।
-अगर दो पात्र एक जगह पास-पास बैठे बातचीत कर रहे हैं तो ज़ाहिर है दोनों Microphone के नज़दीक होंगे।
-फ़र्ज़ कीजिए, दोनों में एक पात्र ज़रा दूरी पर है, या प्रवेश कर रहा है तो उसकी आवाज़ Microphone से दूर यानी Off Mic होगी।
यह भी ज़रूरी नहीं कि हर संवाद Microphone के निकट आकर ही बोंले। अगर वो अपने घर में हैं तो यह स्वाभाविक है कि वो बीच-बीच में उठकर कुछ काम कर रहे हैं और काम करते हुए, एक दूसरे से बातकर रहे हैं।
-लेकिन यह क्यों मानकर चलें कि पात्र घर के अन्दर ही रहेंगे। फ़र्ज़ कीजिए वो कार में बैठे हैं, ट्रेन या हवाई जहाज में हैं, बाजार या बाग में हैं-ध्वनि परिप्रेक्ष्य हर जगह अलग-अलग होगा। एक कुशल निर्देशक और प्रोड्यूसर की सबसे बड़ी चूनौती भी यही होती है कि वह Sound perspective के माध्यम से श्रोताओं को यह समझा सके कि पात्र कहाँ हैं-क्या कर रहे हैं।
बहरहाल, रेडियो नाटकों की तकनीक पर भाषण देना मेरा मक़सद नहीं है। मुझे इस बात की खुशी है कि जिन नाटकों को बीबीसी हिन्दी सेवा के करोड़ों श्रोताओं ने सुना और सराहा है, वे नाटक अब पुस्तक के रूप में आपके हाथ में हैं। मेरे कुछ मित्रों और शुभचिन्तकों का लम्बे अरसे से आग्रह रहा है कि इन नाटकों को पाठकों के सामने रखूँ। बीबीसी हिन्दी सेवा में मेरे सहयोगी ओंकारनाथ श्रीवास्तव और मित्र के सुधीश पौचीर का इस दिशा में विशेष प्रयास रहा है।
मैं राजकमल प्रकाश की आभारी हूँ जिसने इन रेडियो नाटकों को पाठकों तक पहुँचाना स्वीकार किया। आभारी हूँ बीबीसी हिन्दी सेवा के अपने सहयोगियों की और विशेष रूप से बीबीसी के उन श्रोताओं की जिन्होंने हर वर्ष मुझसे एक नाटक की मांग की।
दिस्म्बर,2000
लन्दन
लन्दन
अचला शर्मा
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