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उजली आग

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3250
आईएसबीएन :0978-81-8031-41

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दिनकर जी की चुनी हुई कहानियों का संकलन ...

Ujli Aag

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

मकड़ी ने मधुमक्खी से कहा, ‘‘हाँ, बहन ! शहद बनाना तो ठीक है, लेकिन, इसमें तुम्हारी क्या बड़ाई है ? बौरे हुए आम पर चढ़ो, तालाब में खिले हुए कमलों पर बैठो, काँटों से घिरी कलियों से भीख माँगों या फिर घास की पत्ती-पत्ती की खुशामद करती फिरो, तब कहीं एक बूँद तुम्हारे हाथ आती है। मगर, मुझे देखो। न कहीं जाना है न आना, जब चाहती हूँ जाली पर जाली बुन डालती हूँ। और मजा यह कि मुझे किसी से भी कुछ माँगना नहीं पड़ता। जो भी रचना करती हूँ, अपने दिमाग से करती हूँ, अपने भीतर संचित संपत्ति के बल पर करती हूँ। देखा है मुझे किसी ने किसी जुलाहे या मिलवाले से सूत माँगते ?
मधुमक्खी बोली, ‘‘सो तो ठीक है बहन ! मगर, कभी यह भी सोचा है कि तुम्हारी जाली फिजूल की चीज है, जब कि मेरा बनाया हुआ मधु मीठा और पथ्य होता है ?’’

आदमी का देवत्व


सृष्टि के आरम्भिक दिनों की बात है। देवता तो कुछ-कुछ पुराने हो चले थे, किन्तु आदमी बस अभी-अभी तैयार हुआ था, यहाँ तक कि उसके बदन की मिट्टी भी अभी ठीक से सूख न पायी थी। मगर, आदमी तो आरंभ से ही आदमी था। उसने इधर-उधर नजर दौड़ायी और देखा कि देवता छोटे हों या बड़े, उनकी इज्जत खूब है। फिर उसने अपनी ओर देखा और वह सोचने लगा कि देवताओं से भला मैं किस बात में कम हूँ। और तब भी लोग मुझे महज आदमी समझते हैं और कहते हैं कि मैं देवता नहीं हूँ।
एक दिन जब ब्रह्मा को घेरकर सभी देवता बैठे हुए थे, आदमी भी वहाँ जा पहुँचा और सब के सामने उसने यह घोषणा कर दी कि मिट्टी का होने से मैं कुछ अपदार्थ नहीं हो गया। आज से आप लोग नोट कर लें कि किसी-न-किसी तरह का देवता मैं भी हूँ।
देवताओं ने आदमी की घोषणा बड़े ही ध्यान से सुनी और सोच-समझ कर यह निर्णय दे दिया कि आदमी को देवता समझने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।

मगर, आपत्ति उन्हें थी और यह निर्णय उन्होंने अपनी खुशी से नहीं दिया था। असल में, उन्हें मालूम था कि आदमी की रचना ब्रह्मा ने किन तत्वों से की है। वे स्वर्ग में यह भी सुन चुके थे कि ब्रह्मा जिस नये जीव की रचना कर रहे हैं, वह बड़ा ही उपद्रवी होगा। वह मिट्टी का होने पर भी समुद्र पर राज करेगा, बिना पाँख का होने पर भी आकाश में उड़ेगा और जो ताकतें पहाड़ और वन को हिलाती रहती हैं, धरती और जंगल को जलाती रहती हैं और जिनकी चिग्घाड़ से स्वर्ग भी काँपने लगता है, वे सब इसके कब्जे में रहेंगी। समुद्र में जो रत्न हैं, वन में जो फल और जीव हैं तथा धरती के भीतर जो धन है, उन सब का उपभोग इस नये प्राणी के लिए सुरक्षित रखा गया है। यही नहीं, बल्कि, देवता जिसे सूँघकर रह जाते हैं, उसे यह नया जीव हाथ से छू सकेगा, दाँतों से चबाकर अपने उदर में डाल सकेगा और इस प्रकार, जिन चीजें को देखकर देवता ललचाकर रह जाते हैं, वे चीजें आदमी के लहू में समा जाएँगी, मन और बुद्धि में जा बसेंगी, साँस का सौरभ बन जाएँगी।
और, यद्यपि, यह मरनेवाला होगा, मगर बड़े-बड़े अमर इसके भय से भागते फिरेंगे। नहीं तो एक दिन यह उन्हें पकड़कर चटकल में भरती कर सकता है।
देवताओं ने सोचा, अरे, अब तो यह हमारा भी गुरू निकलेगा।

देवता, आरंभ से ही, आदमी से डरे हुए थे, इसलिए आदमी ने जब यह कहा कि एक तरह का देवता मैं भी हूँ, तब वे उसके इस दावे को झुठला नहीं सके। मगर, वे छिपे-छिपे इस घात में लगे रहे कि इस नये जीव को बेबस कैसे किया जाए।
निदान, यह निश्चित हुआ कि आदमी का देवत्व चुरा लिया जाए। और इस विचार के आते ही देवता खुशी से उछल पड़े। और सोये हुए आदमी का देवत्व चुराकर देवताओं ने उसे अपने पास कर लिया।
लेकिन, फिर तुरंत उनका चेहरा उतर गया, क्योंकि एक देवता ने सवाल किया, ‘‘अगर आदमी इतना धूर्त और सयाना है, इतना प्रतापी और शक्तिशाली है, तो फिर उसका देवत्व चुराकर रखा कहाँ जाएगा ? आकाश और पाताल, आदमी तो दोनों जगह घूमेगा। रह गयी धरती, उस पर तो आदमी का रात-दिन का वास है। और अगर यह कहो कि कोई देवता उसे अपनी मुट्ठियों में बन्द किये रहे, तो हम में ऐसा कौन है, जो इस नये जीव से दुश्मनी मोल ले ? कहीं ऐसा न हो कि क्रोध में आकर आदमी स्वर्ग पर ही धावा बोल दे !’’
देवताओं को उदास देखकर ब्रह्मा बोले, ‘‘अच्छा, लाओ, आदमी का देवत्व मेरे हाथ में दे दो।’’
देवत्व ब्रह्मा के हाथ में आया, उन्होंने अपनी मुट्ठी बन्द की और फिर चीज उसमें से गायब हो गयी। देवता दंग रह गये।
तब ब्रह्मा ने कहा, ‘‘चिन्ता न करो। मैंने आदमी के देवत्व को एक ऐसी जगह पर छिपा दिया है, जहाँ उसे खोजने की बात आदमी को कभी सूझेगी ही नहीं। मैंने यह प्रकाश स्वयं उसी के हृदय में छिपा दिया है।’’

बीज बनने की राह

दो राही किसी गाँव से होकर जा रहे थे कि अचानक गाँव में आग लग गयी और फूस के बने हुए घर पर घर धायँ-धायँ जलने लगे।
एक राही भागकर गाँव के बाहर एक पेड़ की छाया देखकर बैठ गया और बोला, जला करें ये लोग। आखिर, वे बीड़ी क्यों पीते हैं ? मैं आग बुझाने को नहीं जा सकता। यह मेरा काम नहीं है।’’
मगर, दूसरा बहादुर था। उसने अपनी गठरी दोस्त के पास पटकी और दौड़कर आग में पिल पड़ा। आग बुझाने की कोशिश में उसके हाथ-पाँव जल गये और देह पर कई फफोले भी निकल आये, किन्तु, तब भी उसने एक जान और कुछ असबाब को आग से बचा लिया।
उसके लौटकर आने पर छाया में सुस्तानेवाले राही ने कहा, ‘‘आखिर, जला लिये न अपने हाथ-पाँव ? किसने तुझसे कहा था कि दूसरों के काम के लिए अपनी जान खतरे में डाला कर ?’’
बहादुर राही बोला, ‘‘उसी ने, जिसने यह कहा कि बीज बोते चलो, फसल अच्छी उगेगी।’’
‘‘और अगर आग में जलकर खाक हो जाता तो ?’’
‘‘तब तो मैं स्वयं बीज बन जाता।’’

धर्म लोगे धर्म ?
(१)


‘‘धर्म लोगे, धर्म ?’’
मैंने किवाड़ खोलकर देखा, बगल की राह से पुरोहित जा रहा था। धर्म इसकी खेती है और पर्व-त्योहार फसल काटने के अच्छे मुहूर्त। मैंने कहा, ‘‘पुरोहित, मेरे घर तेरी फसल नहीं उपजी है।’’ और किवाड़ मैंने बन्द कर लिया।

(२)


‘‘धर्म लोगे, धर्म ?’’
मैंने किवाड़ खोलकर देखा, बगल की राह से पंडा जा रहा था। धर्म इसकी ठेकेदारी और देवता इसका इंजीनियर है और जैसे इंजीनियर की कृपा से ठेकेदार मालामाल हो जाता है, उसी तरह, देवता के मेल से पंडे को मालपूए खूब मिलते हैं। मैंने कहा, ‘‘पंडा, मुझे पुल बनवाना नहीं है।’’ और किवाड़ मैंने बन्द कर लिया।

(३)


‘‘धर्म लोगे, धर्म ?’’
मैंने किवाड़ खोलकर देखा, बगल की राह से उपदेशक जा रहा था। धर्म इसकी मशाल है, जिसे वह सिर्फ दूसरों के लिए जलाता है और यह वह नाई है, जो मशाल अपनी रोजी के लिए जलाता है, जिससे बरात के लोग अपना रास्ता पा सकें। मैंने कहा, ‘‘नाऊ, मुझे आज कहीं नहीं जाना है।’’ और किवाड़ मैंने बन्द कर लिया।

(४


‘‘धर्म लोगे, धर्म ?’’
मैंने किवाड़ खोलकर देखा, बगल की राह से एक अमीर जा रहा था। धर्म इसका छाता है, जिसे इसने मार्क्सवादी ओलों की बौछार से बचने को तान रक्खा है। मैंने कहा, ‘‘अमीर, मेरे पास बचाने की कोई चीज नहीं है।’’ और किवाड़ मैंने बन्द कर लिया।
और शाम को जब मैं घर से निकला, तब देखा कि गाँव का आठ वर्ष का छोटा बच्चा रामू खेत की मेड़ पर बैठा किसी विचार में लीन है। मैंने पूछा, ‘‘अरे रामू, यहां बैठा-बैठा क्या सोच रहा है?’’
रामू बोला, ‘‘सोच रहा हूँ कि ईश्वर एक ही है, यह आदमी के लिए काफी कठिनाई की बात है। अब तुम्हीं सोचो दादा, कि दो ईश्वर होते, तो आदमी को थोड़ी सहूलियत जरूर हो जाती। मसलन, अगर यह ईश्वर रूठ गया, तो उस ईश्वर के यहाँ चले गये और वह ईश्वर रूठ गया, तो इस ईश्वर के यहाँ चले आये। मगर, ईश्वर एक ही है, इसलिए, हमें बहुत सँभल-सँभलकर चलना होगा।’’
मैंने बच्चे को गोद में उठा लिया और कहा कि ‘‘प्यारे काश, अपनी शंका और बेचैनी तू मेरे दिल में उँड़ेल पाता।’’

गुफावासी


मेरे हृदय के भीतर एक गुफा है और वह गुफा सूनी नहीं रहती। आरंभ से ही देखता आ रहा हूँ कि उसमें एक व्यक्ति रहता है, जो बिलकुल मेरे ही समान है।
और जब मैं उसके सामने जाता हूँ मेरी अक्ल गायब हो जाती है और मैं उसे यह कहकर बहला नहीं सकता कि मैंने छिपकर कोई पाप नहीं किया है और जो मलिन बातें हैं, उनके लिए मुझमें लोभ नहीं जागा है।
और इस गुफावासी के सामने जाते ही ऐसा भान होने लगता है, मानो, मेरा बदन चमड़ी नहीं, शीशे से ढँका हो और वह शीशे के भीतर की सारी चीजों को देख रहा हो।
और वह हाथ उठाकर कोई दंड नहीं देता, फिर भी, मेरी रगें दुखने लगती हैं और प्राण बेचैन हो जाते हैं।
और मैं कभी यह भी नहीं कह पाता कि यह काम मैंने तुम्हारी सहमति से किया है, क्योंकि उसके सामने होते ही मेरी सभी इन्द्रियाँ मेरे खिलाफ हो जाती हैं और वे इस गुफावासी की ओर से गवाही देने लगती हैं।
और एक दिन इस गुफावासी ने मुझे कहा कि देख, ऐसा नहीं है कि तू कोई और, और मैं कोई और हूँ।
मैं तेरी वह मूर्ति हूँ, जो स्फटिक से बनायी गयी थी। किन्तु तू जो-जो सोचता है उसकी छाया मुझ पर पड़ती जाती है तू जो-जो करता है, उसका क्षरित रस मुझ पर जमता जाता है। और जन्म-जन्मान्तर में रस के इस क्षरण से और विचारों की इस छाया से मुझ पर परतें जम गयी हैं।
इसलिए, अब ऐसा कर कि नयी परतें जमने न पायें और पुरानी परतें भी छूट जाएँ। क्योंकि स्वर्ग और नरक भले ही न हों, किन्तु, जन्म-जन्मान्तर की यह यात्रा स्वयं भारी विपत्ति है और परतों के बोझ को लेकर एक जन्म से दूसरे जन्म तक उड़ने में काफी मशक्कत पड़ जाती है।

दो ध्रुव


एक दिन महात्मा ईसा मसीह कहीं जा रहे थे कि उन्होंने देखा, उनके एक शिष्य का बाप मर गया है और वह उसकी लाश को रो-रोकर दफना रहा है। गुरु को देखकर वह दौड़कर आया तो, मगर, आस्तीन चूमकर फिर तुरंत कब्र की ओर वापस चला गया।
गुरु को यह बात अच्छी नहीं लगी, इसलिए, शिष्य को सचेत करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘जो मर गया, वह भूत का साथी हो गया। लाश के साथ लिपट कर तू क्यों वर्त्तमान से दूर होता है ? यह समय बहुत लंबा है और इसने बहुत-सी लाशों को जनत से दफना रखा है। तेरे बाप की लाश उसके लिए कुछ बहुत भारी नहीं पड़ेगी। भूत की खबर अब भूत को लेने दे और तू सीधे मेरे साथ चल।’’
शिष्य लाश को छोड़कर गुरु के साथ हो गया।
अजब संयोग कि थोड़ी दूर चलने पर ईसा का दूसरा शिष्य भी उन्हें इसी अवस्था में मिला। उसका भी बाप मर गया था और वह भी अपने बाप की लाश को दफना रहा था। किन्तु गुरु पर उसकी ज्योंहि दृष्टि पड़ी, वह कब्रिस्तान से भागकर उनके पास आ गया और उनके साथ चलने का हठ करने लगा। परन्तु गुरु ने उससे हँसते हुए कहा, ‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है ? लाश को दफना कर आओ। मैं आगेवाले गाँव में ठहरनेवाला हूँ।’’
एक ही अवस्था में दो प्रकार के उपदेश सुनकर ईसा के शिष्य मैथ्यू कुछ घबराये और उन्होंने महात्मा ईसा से इसका कारण जानना चाहा।
ईसा बोले-‘‘जीवन की धारा किसी एक घाट में बाँधी नहीं जा सकती। उपदेश जब यह कहता है कि मैं आ गया, अब दूसरे को मत आने दो, तब वह लोहे की श्रृंखला बन जाता है और आदमी का सच्चा बंधन लोहे की कड़ी नहीं, रेशम का तार है।
और मैथ्यू, मैं जो कुछ बोलता हूँ, वह मेरी ही आवाज है, चाहे वह मेरे भीतर के उत्तरी ध्रुव से आती हो या दक्षिणी ध्रुव से। आत्माओं की भी अलग-अलग ऋतुएँ होती हैं, और जिस ऋतु में उन्हें जिस चोटी पर की आवाज सुनायी पड़ती है, उस ऋतु में मैं उसी चोटी पर से बोलता हूँ।
इसलिए, मैथ्यू, जो राग में फँसा है, उसे विराग सिखलाओ। किन्तु, जो वैरागी हो चुका है, उसे रागों से अलग रहने का उपदेश तो निरर्थक उपदेश है।’’


अफ़सर और पैग़म्बर


एक अफ़सर ने एक पैग़म्बर से पूछा, ‘‘यह जो ज़माने से सुनता आ रहा हूँ कि जीवन का एक-एक क्षण संघर्ष है, सो इसके मानी क्या होते हैं ? अब यही देखिये कि आज भोर से मैंने अपने जीवन में कहीं कोई संघर्ष नहीं देखा। प्रात:काल उठा, हजामत बनायी, नहाया-धोया, अख़बार पढ़ा, फिर खाना खाया और अब दफ़्तर से काम करके वापस जा रहा हूँ। सुबह से शाम हो गयी, किन्तु संघर्ष तो कभी आया ही नहीं।’’
पैग़म्बर ज़रा हँसा। फिर कहने लगा, ‘‘संघर्ष देखने को भी आँखें चाहिए। लड़ाई को वही समझ सकता है, जिसमें लड़ने की थोड़ी-बहुत योग्यता होती है। और तुम-जैसे लोग, जो लड़ना नहीं जानते, उन्हें लड़ाई दिखायी भी नहीं देती। और, जिन्हें लड़ाई दिखायी नहीं देती, वे जीतनेवाले नहीं, हारनेवाले होते हैं।
और आज तुम कई लड़ाइयाँ हार चुके हो। और चूँकि जीत की तुम्हें फ़िक्र नहीं है, इसलिए, हारकर भी तुम हार को पहचान नहीं पाते।
उदाहरण के लिए, आज भोर में जब तुम्हें सेज पर की चाय मिलने में देर हुई, तब तुम, पौ फटते ही नौकर पर बरस पड़े। यह तुम्हारी पहली पराजय थी।
और स्नानागार में साबुन की बट्टी ज़रा ज़ोर से चिपक कर बन्द हो गयी थी और तुमने उसे पटक कर तोड़ दिया। यह तुम्हारी दूसरी हार थी।
और रास्ते में तुम्हारी मोटर के सामने एक आदमी आ गया। तुमने मोटर तो रोक ली, लेकिन, उस आदमी को काफ़ी भला-बुरा कहा। यह तुम्हारी तीसरी हार थी।
अब तुम स्वयं सोच लो कि दफ़्तर में आज तुम कभी जीते भी या बराबर हारते ही रहे हो।’’

उजला हाथी और गेहूँ के खेत


एक किसान के दो बेटे थे, एक बाल-बच्चोंवाला और दूसरा क्वाँरा। मरने के पहले किसान ने अपनी जायदाद दोनों बेटों में बाँट दी और जब वह मरा, उसके मन में यह संतोष था कि भाइयों के बीच कोई झगड़ा नहीं होगा।
दोनों भाई मेहनती थे और दोनों ईमानदार तथा दोनों के मन में यह भाव गठा हुआ था कि मैं चाहे जैसे भी रहूँ, मगर भाई को आराम मिलना चाहिए।
दोनों भाइयों ने रब्बी की फसल खूब डटकर उपजायी और बैसाख में दोनों के खलिहान गेहूँ के बोझों से भर गये।
तब एक रात छोटे भाई ने सोते-सोते सोचा, ‘‘मैं भी कैसा निष्ठुर हूँ ? मेरे आगे-पीछे कौन है कि इतना गेहूँ घर ले जाऊँ ? हाँ, भाई के बाल-बच्चे बहुत हैं। अच्छा हो कि मैं अपने खलिहान से कुछ बोझे उसके खलिहान में रख आऊँ।’’
इतना सोचना था कि क्वाँरा भाई उठा और अपने खलिहान से बीस बोझे उठाकर उसने भाई के खलिहान में डाल दिये और वह फिर घर आकर सो रहा।
और नींद में उसने सपना देखा, दोनों ओर गेहूँ के लहलहाते खेत हैं और वह उनके बीच उजले हाथी पर चढ़कर घूम रहा है।
और ठीक यही बात बड़े भाई के मन में भी उठी। उसने सोचा, ‘‘मैं भी कितना स्वार्थी हूँ ? अरे, मेरे तो बाल-बच्चे हैं। भगवान ने चाहा तो जब वे जवान होंगे, तब मुझे बैठे-बैठाये दो रोटियाँ मिल जाया करेंगी। मगर, मेरा छोटा भाई ! हाय, उसे तो कोई नहीं है। क्यों न अपने खलिहान से कुछ बोझे उठाकर मैं उसके खलिहान में दे आऊँ ? अन्न बेचकर दस पैसे अगर वह जमा कर लेगा, तो बुढ़ापे में उसके काम आएँगे।’’
और वह भी दौड़ा-दौड़ा खलिहान में पहुँचा और अपने ढेर में से बीस बोझे उठाकर उसने छोटे भाई के खलिहान में मिला दिये। और घर आकर वह खुशी-खुशी सो रहा।
और सोते-सोते उसने सपना देखा कि दोनों ओर गेहूँ के लहलहाते खेत हैं और वह उजले हाथी पर बैठकर खेतों की सैर कर रहा है।
और भोर में उठकर छोटा भाई अपने खलिहान पहुँचा, तो यह देखकर दंग रह गया कि उसके बोझों में से बीस कम नहीं हुए हैं।
और भोर में उठकर बड़ा भाई अपने खलिहान पहुँचा, तो यह देखकर दंग रह गया कि उसके बोझों में से बीस कम नहीं हुए हैं।
निदान, रात में फिर दोनों भाइयों ने चोरी-चोरी अपने बोझे भाई के खलिहान में पहुँचा दिये। और दोनों ने फिर रात में उजले हाथी पर चढ़कर गेहूँ के खेत में घूमने का सपना देखा और दोनों भोर में खलिहान को ज्यों-का-त्यों देखकर फिर दंग रह गये।
यह खेल कई रात चला। आखिर, एक रात दोनों चोर जब अपने-अपने खलिहान के बोझे उठाये भाई के खलिहान की ओर जा रहे थे, दोनों एक दूसरे से टकरा गये और दोनों ने बोझे फेंककर एक दूसरे को कसकर पकड़ लिया और दोनों आनन्द के मारे रोने लगे।
खलिहान में बोझों की संख्या क्यों नहीं घटती थी, यह रहस्य एक क्षण में खुल गया और इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह आनन्द आँसुओं में ही बोल सकता था।
उनके आँसुओं की जो बूँदें पृथ्वी पर गिरीं, उनसे नीचे पड़ा हुआ पीपल का एक बीज भींग गया और उसमें अंकुर निकल आया।
अब उस खलिहान की जगह एक पीपल का एक बड़ा वृक्ष लहराता है। और जो भी राही उसके नीचे सुस्ता कर सो जाता है, वह सपना देखता है कि दोनों ओर गेहूँ के लहलहाते खेत हैं और वह उनके बीच उजले हाथी पर चढ़कर घूम रहा है।




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