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व्यक्तित्व निर्माण

मदनलाल शुक्ल

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3281
आईएसबीएन :81-88140-68-6

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व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में सहायक पुस्तक।

Vyaktitya nirman

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


व्यक्ति के जीवन में मुख्यतः छह पड़ाव होते हैं-शिशु बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध। इन्हीं अवस्थाओं में व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है। व्यक्तित्व निर्माण में अनेक अवरोध आते हैं। हर अवस्था की अपनी एक क्षमता, सम्भावनाएँ एवं सीमाएँ होती हैं। हर व्यक्ति की दो तस्वीरें होती हैं-धवल और धूमिल। चरित्र के कुछ विशेष गुणों के कारण ही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अंतर मालूम पड़ता है।

जिस किसी के भी जीवन में अच्छाई सदाचार, विनम्रता, सच्चाई एवं विश्वनीयता होगी-उसका प्रभाव सब पर अवश्य होगा। ऐसा व्यक्ति ही रचनात्मक तथा सकारात्मक कार्य कर सकता है। जो व्यक्ति इन गुणों से युक्त होगा, उसमें नैतिकता अपने आप आ जाएगी।

प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न क्षेत्रों के अनुकरणीय व्यक्तित्यों का दिग्दर्शन भी कराया गया है, ताकि किशोर एवं युवा उनके जीवन अनुभवों से लाभ उठाएँ और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन को उज्जवल बनाएँ तथा आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण करें।
आशा है, यह व्यावहारिक एवं वस्तुपरक पुस्तक सभी आयु वर्ग के लोगों को पसंद आएगी और उनके व्यक्तित्व-निर्माण में सहायक सिद्ध होगी।

 समर्पण

परम पूज्य अग्रज श्री गोरेलाल शुक्ल (सेवानिवृत्त आई.ए.एस.) के मार्गदर्शन और समायोचित संरक्षण के कारण ही मैं अपने समग्र जीवन में सफल हो सका।

चौथी हिंदी से लेकर महाविद्यालयीन स्तर तक वे छात्रवृत्ति पाते रहे। सन् 1936 में माध्यमिक शिक्षा मंडल, (नागपुर) से मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। हिंदी विषय में छिहत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त कर उन्होंने रिकॉर्ड कायम किया। व्याकरणाचार्य श्री कामता प्रसाद गुरु, जो उस विषय के परीक्षक थे, उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बधाई-पत्र भेजा और उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएँ व्यक्त कीं। ‘मॉरिसस कॉलेज’ (नागपुर) से बी.ए. ऑनर्स। (अंग्रेजी साहित्य) में विशेष योग्यता प्राप्त कर वे उत्तीर्ण हुए।

किंग एडवर्ड कॉलेज (अमरावती) में उन्हें अंग्रेजी लेक्चरर का पद मिला। ऑफिसर्स यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर में उन्होंने विद्यार्थी जीवन में सर्वोच्च पद प्राप्त किया। प्रान्तीय सरकार ने सन् 1950 के आसपास उन्हें प्रांत में ग्राम सेना खड़ी करने का निर्देश दिया। तत्कालीन जनरल करिअप्पा ने उस संस्था को बहुत सराहा था। सन् 1971 में उन्हें यूनाइटेड नेशंस फेलोशिप मिली, जिससे वे यूनिवर्सिटी कॉलेज, स्वांस्व (इंग्लैंड) में एक वर्ष सामाजिक नीति और प्रशासन में डिप्लोमा अध्ययन के लिए रहे। कॉमनवेल्थ से एकत्र प्रशिक्षार्थी समूह में उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया और प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित हुए।

मध्य प्रदेश रामचरितमानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति और भारतीय समाज कल्याण परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर वे अभी भी हैं। समाज कल्याण संबंधी सम्मेलनों एवं परिसंवादों के संदर्भ में वे लगभग पूरी तरह दुनिया घूम चुके हैं। गांधी भवन (भोपाल) से प्रकाशित ‘मानस भारती’ के वे संस्थापक हैं। उनकी वक्तृत्व-कला के सभी कायल हैं। मैं अपनी यह पुस्तक उन्हें समर्पित कर रहा हूँ।

डॉ. मदनलाल शुक्ल

समस्याएँ और समाधान

‘‘श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्येतत्-
स्तौ सम्परीत्य विविनक्तिधीरः
श्रेयो हि धीरोभिप्रेयसो वृणीते-
प्रेयो मन्दो योगक्षेभाद्वृणीते।’’

कठोपनिषद्

अर्थात् अनुभवजन्य अवं अनुभवातीत जीवन-मूल्य आपस में इतने समाहित हैं कि सहसा मनुष्य उन दोनों के आपस में भेद को नहीं समझती। केवल प्रबुद्ध वर्ग ही उनके अंतर को समझता है और वह अनुभवातीत मूल्यों को चुनता है। आज्ञानी व्यक्ति सदैव अनुभवजन्य, अनुभूतिमूलक मूल्यों के लिए तरसता रहता है।

प्राक्कथन

सिविल सर्जन के पद से सन् 1980 में सेवानिवृत्त होने के पूर्व, यानी सेवाकाल में, मैं सुबह से शाम तक व्यस्त रहता था। सेवानिवृत्त होने के बाद मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करूँ।
मेरे अग्रज पं. गोरेलालजी ने मुजे सुझाव दिया कि मैं देश में भ्रमण करूँ और लेखन-कार्य के लिए सामग्री एकत्र करूँ। तदनुसार मैं बेलूर मठ, हरिद्वार, शांतिकुंज, ऋषिकेश, कोंकण आदि दूरस्थ स्थानों में गया।

किसी भी जगह वह इनसानियत नहीं मिली, जो मैं चाहता था। अंततः मैंने मनोयोग के साथ पुस्तक-लेखन का कार्य प्रारंभ किया। सन् 1972 में प्रकाशित ‘आसमयिक मृत्यु : कारण और बचाव’ मेरी प्रथम कृति थी। प्रभात प्रकाशन (नई दिल्ली) ने इस पुस्तक का प्रकाशन किया और राष्ट्रीय मौखिक पुस्तक लेखन प्रतियोगिता में इसे भेज दिया। ईश्वर की दया से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मेरे इस ग्रंथ को द्वितीय पुरस्कार मिल गया। उसी वर्ष वहाँ विश्व-साहित्य मेला प्रदर्शनी में इस ग्रंथ को प्रथम पुरस्कार मिला। यह मेरे जीवन की एक महान् उपलब्धि थी।

उक्त उपलब्धि से प्रोत्साहित होकर मैंने दूसरी पुस्तक लिखी—‘आवाज और हम’, जिसकी भूमिका स्व. डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने लिखी है। इस ग्रंथ का भी प्रकाशन दिल्ली से हुआ। इस ग्रंथ का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। मुझे कई प्रशंसा-पत्र भी मिले हैं।
‘व्यक्तित्व-निर्माण’ नामक यह पुस्तक मेरी तीसरी कृति है। इस रचना का मूल उद्देश्य है—व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व निर्माण कैसा हो। यही विचार इसके केन्द्र-बिंदु में है। अब मैं चौरासी वर्ष का हो चुका हूँ। शास्त्रों के अनुसार, मेरा यह संन्यास आश्रम चल रहा है। मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ और मानसिक चिंतन करता रहता हूँ। पत्रिकाओं में लेख आदि छपते रहते हैं, मैं यह समझता हूँ कि बुढ़ापे की एक जबरदस्त समस्या है—आखिर समय कैसे काटा जाए ?

मुझे पूरा विश्वास है कि किशोरो एवं युवाओं ही नहीं, बल्कि सभी अवस्था के लोगों के व्यक्तित्व निर्माण में यह एक अनुपम कृति होगी, मेरी यह पुस्तक पाठकों को जरूर पसंद आएगी, ऐसा मैं समझता हूँ।

डॉ. मदनलाल शुक्ल

भूमिका

आज हमारे देश में महापुरुषों—विश्वसनीय तथा लोकोपयोगी व्यक्तियों-का ऐसा दुर्भिक्ष क्यों ? देश में आज ऐसा कोई उदारचेता व्यक्ति नहीं है, जिसका नाम सुनकर हम नतमस्तक हो जाएँ। अनैतिकता की बाढ़-सी आई हुई है। जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। मूल्य-आधारित राजनीति का पालन कोई नहीं कर रहा है। इनसानियत धूल में मिल रही है—इन्हीं बिंदुओं को लेकर यह पुस्तक लिखी गई है। बचपन से बुढ़ापा, अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त—मानव-जीवन की इस विकास-यात्रा का विवेचन सभी दृष्टिकोणों से किया गया है।

व्यक्ति के जीवन के मुख्यतः छः पड़ाव हैं—शिशु, बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध। शिशु को ‘आदमी का जनक’ कहा जाता है। इस मर्म को समझाने का प्रयास इसमें किया गया है। हर अवस्था से संबंधित सामान्य बीमारियों की चर्चा भी बोधगम्य भाषा में की गई है। हर अवस्था की करीब दस ऐसी साधारण बीमारियों को लिया गया है, जो प्रायः ठीक समय पर नहीं पहचानी जातीं और जिनके कारण संबंधित व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इस तरह साठ बीमारियों की सामान्य जानकारी उपलब्ध कराई गई है, उनके प्रारंभिक लक्षण बताए गए हैं। इन बीमारियों की पहचान प्रायः ठीक समय पर नहीं हो पाती, फलस्वरूप व्यक्तित्व-निर्माण में कई अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं। हर अवस्था की अपनी क्षमता, संभावनाएँ और सीमाएँ होती हैं। अपवादस्वरूप कुछ व्यक्ति विशिष्ट योग्यता अर्जित कर माहन् बन जाते हैं। मनुष्य में यह विशिष्टता कैसे आती है, इसे लेकर कई अध्याय लिखे गए हैं।

हर व्यक्ति की दो तसवीरें होती हैं—धवल और धूमिल। दोनों तस्वीरों का निष्पक्ष व आलोचनात्मक विश्लेषण करना लाभदायक होगा। दोनों पहलुओं को पूर्वग्रह से हटकर देखना होगा, ताकि हम यह समझ सकें कि वर्तमान में महापुरुषों का दुर्भिक्ष क्यों पड़ रहा है ?

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