इतिहास और राजनीति >> चीन मित्र या ? चीन मित्र या ?अरुण शौरी
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भारत-चीन संबंधों के अतीत ,वर्तमान व भविष्य की पड़ताल
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बदले हुए रणनीतिक सिद्धांत के मद्देनजर चीन भारत को अमेरिका के एक हथियार
के रूप में देखता है। वह पिछले कई दशकों से भारत को घेरे में लेने और उसे
दक्षिण एशिया में उलझाकर रखने की सोची-समझी नीति अपना रहा है। पाकिस्तान
को जितनी चीन की ओर से हथियारों और अन्य साधनों की मदद मिली है उतनी
पश्चिम के किसी देश से नहीं मिली। उत्तर में चीन ने तिब्बत का सैन्यकरण कर
लिया है। उधर पूर्व में उसने बाँग्लादेश के साथ एक सैन्य समझौता कर लिया
है। पूर्व में ही और आगे बढ़ें तो एक ओर जहाँ हम म्याँमार को लोकतंत्र का
हवाला देकर झिड़क रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चीन उसे अपना आश्रित बनाने की
दिशा में तेजी से आगे बढ़ चुका है।
और यहाँ हम अपनी आँखें बंद किए बैठे हैं साथ ही "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का राग और तेजी से अलाप रहे हैं।
और यहाँ हम अपनी आँखें बंद किए बैठे हैं साथ ही "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का राग और तेजी से अलाप रहे हैं।
-इसी पुस्तक से
वरिष्ट पत्रकार एवं लेखक श्री अरुण शौरी की यह पुस्तक चीन द्वारा हासिल की
जानेवाली शक्तियों, उसकी रणनीतियों और भारत के संदर्भ में उनके परिणामों
की समीक्षा तो करती ही है, भारत-चीन संबंधों के अतीत, वर्तमान व भविष्य की
भी पड़ताल करती है।
भूमिका
हमें अपने मित्रों की गतिविधियों के प्रति भी सतर्क रहना चाहिए
भारतीय सेना की ओर से जब मुझे दोनों व्याख्यानों, जिन पर इस पुस्तक के दोनों खंड आधारित हैं, में से पहले व्याख्यान-‘पैदल सेना स्मारक व्याख्यान, 2002’- के लिए आमंत्रित किया गया था, उस समय चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 285 अरब डॉलर था। उसके बाद सन् 2004 में जब मुझे दूसरे व्याख्यान-‘अश्वारोही सेना स्मारक व्याख्यान, 2004’- के लिए आमंत्रित किया गया, तब तक यह 600 अरब डॉलर पर पहुँच गया था और जबकि यह पुस्तक प्रेस में जा रही है, चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 1,000 अरब डॉलर हो गया है। हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में भी वृद्धि हो रही है, इसमें कोई दो राय नहीं-और सचमुच यह एक महान उपलब्धि है; किन्तु अभी तक हम लगभग 160 अरब डॉलर तक ही पहुँच सके हैं। भारत लगभग 40 लाख टन इस्पात का उत्पादन करता है जबकि चीन की इस्पात उत्पादन क्षमता 300 लाख टन है। यही नहीं, अन्य वस्तुओं के उत्पादन में भी यह अंतर कमोबेश बना हुआ है। ज्यादा नहीं, अभी बीस वर्ष पहले की बात करें तो चीन इन क्षेत्रों में भारत से आगे नहीं था।
ऐसा भी नहीं है कि यह अंतर केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित है। इसका प्रत्यक्ष और तात्कालिक प्रभाव राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पड़ रहा है। आज चीन के आर्थिक विकास की गति को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित हो रहा है; किन्तु चीन में इतनी तीव्र गति से चल रही विकास-प्रक्रिया को केवल आर्थिक विकास मानकर चलना एक बड़ी भूल है।
पहली बात, अपने आर्थिक विकास के बल पर चीन को अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने में मदद मिल रही है। तेल का ही उदाहरण लीजिए-हर कोई कहता और स्वीकार करता है यह न केवल हमारे आर्थिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है बल्कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को भी बल मिलता है। आज स्थिति यह है कि भारत और चीन दोनों ही आयातित तेल पर निर्भर है। लेकिन एक ओर जहाँ भारत अपनी कुल तेल की खपत का तीन-चौथाई हिस्सा आयात करता है, वहीं दूसरी ओर चीन अपनी कुल आय की खपत का केवल एक-चौथाई हिस्सा ही आयात करता है। ऐसे में दोनों ही देश तेल के समृद्ध भंडारवाले देशों में तेल भंडार का पता लगाने के लिए अधिकार प्राप्त करने में जुटे हैं। सन् 1996 में चीन को सूडान की 40 प्रतिशत तेल परियोजना का अधिकार मिला था। हम वर्ष 2003 तक भी कुछ नहीं हासिल कर पाए थे। अगस्त 2005 में चीन ने कजाकिस्तान में पेट्रो-कजाकिस्तान को खरीदकर भारत को मात दे दी। सितंबर 2005 में उसने इक्वाडोर में एन काना (En Cana) को खरीदकर एक बार फिर हमें बहुत पीछे धकेल दिया। सन् 2005 के उत्तरार्ध तक भारत ने नाइजीरिया में तेल क्षेत्र प्राप्त करने की अपनी कोशिश छोड़ दी थी। उधर, जनवरी 2006 में चीन वहाँ भी पहुँच गया और देश के एक महत्त्वपूर्ण तेल क्षेत्र को खरीदने में सफल हो गया। मार्च 2006 में छोटे से देश दक्षिण कोरिया ने भी नाइजीरिया में ड्रिलिंग ऑपरेशन की दौड़ में बाजी मार ली और हम ताकते रह गए। अभी थोड़े ही दिन पहले, जून 2006 में चीन की सियोनपेक (Sionpec) कंपनी ने ब्रिटिश पेट्रोलियम की एक सिस्टर-कंपनी को खरीदने की अपनी योजना की घोषणा की थी...। किस मुँह से हम तेल-सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात करेंगे।
दूसरी बात, अपने इस प्रकार के आर्थिक विकास के जरिए चीन जो क्षमता और प्रभावशीलता हासिल कर रहा है, उसका महत्त्व तेल-क्षेत्रों और तेल के भंडार का पता लगाने के अधिकार प्राप्त करने से भी ज्यादा है। क्षेत्र के दौरे पर आए चीनी राष्ट्रपति घोषणा करके जाते हैं कि चीन लैटिन अमेरिका में 100 अरब डॉलर का निवेश करेगा; एशियाई गणराज्यों के दौरे पर वह घोषणा करते हैं कि चीन इस क्षेत्र में (भी) 100 अरब डॉलर का निवेश करेगा; जब चीन ईरान में लगभग 50 अरब डॉलर का निवेश शुरू करता है, जब वह पाकिस्तान को कराकोरम राजमार्ग का निर्माण-कार्य शुरू करता है और ग्वाडर में एक नया पतन बनाने की पूरी लागत स्वयं वहन करता है, जब वह अफ्रीका में एक के बाद एक परियोजनाओं को वित्त-पोषित करता है तो इन सबसे वह अपने उत्पादों के लिए बाजार-क्षेत्र ही नहीं प्राप्त करता, बल्कि संबंधित क्षेत्र या देश के लोगों और वहाँ की सरकारों पर अपना प्रभाव भी जमाता है। उसके आयात के मामले में भी यही बात सच है।
आज स्थिति यह है कि आसियान (ASEAN) के सदस्य देशों-ऑस्ट्रेलिया के कई देशों और यहाँ तक कि भारत के खनिज निर्यात क्षेत्रों की समृद्धि और खुशहाली चीन के विकास से जुड़ी हुई है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इन क्षेत्रों के लोग यही चाहेंगे कि चीन अधिकतम संभव गति से विकास करे। दूसरी ओर, अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति क्षण भर के लिए भी अपने मन से यह बात नहीं निकाल सकता कि चीन अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों का सबसे बड़ा धारक है, कि चीन आज अमेरिका के चालू खाते के घाटे का सबसे बड़ा वित्त-पोषक है। दक्षिण-पूर्व एशिया का कोई भी नेता चीन के खिलाफ एक शब्द बोलने का साहस नहीं कर सकता। इतना ही नहीं क्षेत्र की कोई सरकार चीन की संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगाए बिना एक कदम भी नहीं उठा सकती। दूर क्यों जाएँ-क्या हम स्वयं ऐसा नहीं कर रहे हैं ? जिस तरह तिब्बत, उसकी जनता, उसके धर्म और संस्कृति को बेरहमी से कुचला जा रहा है, उसे देखकर भी आखिर हम कुछ कहने की हिम्मत क्यों नहीं कर पाते हैं ? इसीलिए न कि कहीं चीन आक्रामक रुख न अपना ले।
तीसरी बात, जिसे ‘आर्थिक विकास’ का जामा पहनाकर दुनिया के सामने पेश किया जा रहा है, उसमें सेना द्वारा प्रयोग में लाए जानेवाले सैनिक उपकरण भी शामिल हैं। चीन जब मिसाइलें बनाता है तो उसे भी अपने ‘आर्थिक विकास’ में ही गिनता है। जब वह तिब्बत में सड़कों का व्यापक जाल तैयार करता है, जब वह शंघाई से लेकर ल्हासा तक रेलमार्ग का निर्माण करता है, जिस पर रेलगाड़ियाँ 16 फीट की ऊँचाई पर दौड़ा करेंगी- तो इन्हें भी वह ‘आर्थिक विकास’ में ही शामिल करके गिनता है, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इनसे चीन को संबंधित क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व जमाने और भारत के सिर के ऊपर तक अपने युद्ध उपकरण लाने की शक्ति नहीं मिल रही है ?
चौथी बात, ‘आर्थिक विकास’ से चीन को ऐसे संसाधन मिल रहे हैं, जिन्हें वह अपने रक्षा बलों के पूर्ण आधुनिकीकरण में लगा सकता है, बल्कि लगा ही रहा है। इसका अनुमान एक ही उदाहरण से लगाया जा सकता है। आज मध्य एशियाई गणराज्य अपने समृद्ध तेल भंडार और सामरिक स्थिति के कारण व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मैदान बन गए हैं-खासकर अमेरिका, रूस और चीन के बीच। चूँकि ये गणराज्य पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे, अत: रूस को इसका अतिरिक्त लाभ मिला। किंतु अभी तक उसे इस प्रतिस्पर्धा में चीन के एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में बने रहना पड़ा है। कारण, उसके पास वे संसाधन उपलब्ध नहीं है, जो अमेरिका इस क्षेत्र में लगा रहा है। दूसरी ओर, चीन के पास वे सभी संसाधन हैं और वह उन्हें प्रयोग में भी ला रहा है। तेल भंडार का पता लगाने में, इन देशों से चीन तक पाइप लाइनें बिछाने में-सबकुछ अपने खर्च पर।
पाँचवीं बात, चीन ने यह सबकुछ ऐसे समय पर हासिल किया है, जब उसने अपने रणनीतिक सिद्धांत को पूरी तरह संशोधित कर लिया है। माओ के समय में चीनी बलों को ‘जन युद्ध’ के लिए संगठित किया गया था। उस समय चीन का रणनीतिक सिद्धांत शत्रु को किसी तरह चीन के भीतर फँसाना और फिर उसका एक-एक बूँद खून बहाकर उसे मौत के मुँह में धकेलना था। इस सिद्धांत के स्थान पर ‘उच्च तकनीकी पर आधारित सीमित यु्द्ध’ का सिद्धांत अपनाया गया। अब चीनी बलों को इस आधार पर तैयार और संगठित किया गया है कि दुश्मन को चीनी भूभाग में प्रवेश करने से रोक सकें या फिर उन्हें सीमा पर ही उलझाकर रख सकें। चीन के पड़ोसी देशों के लिए उसकी यह रणनीति कितनी घातक हो सकती है, यह हमने सन् 1962 में अपने गाल पर खाए चीनी तमाचे से समझ लिया था लेकिन तब से लेकर अब तक इस रणनीतिक सिद्धांत में काफी विकास और बदलाव लाया जा चुका है। अब चीनीं बलों को ‘उच्च तकनीकीवाली स्थितियों में शक्ति-प्रदर्शन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सुसज्जित और पुनर्गठित किया जा रहा है। चीन अपनी सीमा के बाहर तक शक्ति-प्रदर्शन की क्षमता हासिल करने में जुटा है।
उसके बाद क्या हो सकता है-जैसा कि जनरल परवेज मुशर्रफ ने कहा था, क्षमता हासिल कर लेने के बाद इरादे बदलने में देर नहीं लगती।
इस प्रकार की सैन्य-शक्ति और बदले हुए रणनीतिक सिद्धांत को भारत के प्रति चीन की सोच और दृष्टिकोण के प्रकाश में देखा जाना चाहिए। चीन भारत को केकड़े के एक पंजे के रूप में देखता है। और उसकी दृष्टि में यह केकड़ा और कोई नहीं, स्वयं अमेरिका है। इस केकड़े का एकमात्र इरादा चीन को घेरकर उस पर अपना दबदबा बनाना है। ऐसा चीन का मानना है। इस उद्देश्य के लिए वह अपने पंजों—जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया और भारत का प्रयोग कर रहा है। हिंदी-चीनी भाई का राग अलापकर हमारे साथ विश्वासघात किया जा रहा है। कम-से-कम चीन तो हमारे साथ भाई का फर्ज नहीं अदा कर रहा है। वह हमें अमेरिका के एक हथियार के रूप में देखता है तथा पिछले कुछ वर्षों में गहराए संबंधों एवं समझौतों से इस धारणा को और बल ही मिला है।
अपनी इसी धारणा को ध्यान में रखते हुए वह पिछले कई दशकों से भारत को घेरे में लेने और उसे दक्षिण एशिया में उलझाकर रखने की सोची-समझी नीति अपना रहा है। पाकिस्तान को जितनी चीन की ओर से हथियारों और अन्य साधनों की मदद मिली है उतनी पश्चिम के किसी देश से नहीं मिली। उत्तर ने चीन ने तिब्बत का सैन्यकरण कर लिया है। उधर पूर्व में उसने बँगलादेश के साथ एक सैन्य समझौता कर लिया है। पूर्व में ही और आगे बढ़े तो एक ओर जहाँ हम म्याँमार को लोकतंत्र का हवाला देकर झिड़क गए हैं, वहीं दूसरी ओर चीन उसे अपना आश्रित बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ चुका है।
यहाँ हम अपनी आँखें बंद किए बैठे हैं। साथ ही हिंदी-चीनी भाई-भाई का राग और तेजी से अलाप रहे हैं। जरा देखिए, जब नाथू ला दर्रे को जुलाई में व्यापार के लिए पुन: खोला गया तो समाचार-पत्रों ने कैसे-कैसे भ्रामक लेख प्रकाशित किए थे।
हमें अपने मित्रों और सहयोगियों की गतिविधियों के प्रति भी सजग एवं सतर्क रहना चाहिए और जब कोई हमें किसी ऐसी शक्ति के हथियार के रूप में देख रहा हो, जो उसपर प्रभुत्व जमाना चाहता है तो उसकी गतिविधियों की बात ही अलग है।
इस प्रकार, यह खंड चीन द्वारा हासिल की जानेवाली शक्तियों उसकी रणनीतियों और भारत के संदर्भ में उनके परिणामों की समीक्षा हेतु है।
भारतीय सेना की ओर से जब मुझे दोनों व्याख्यानों, जिन पर इस पुस्तक के दोनों खंड आधारित हैं, में से पहले व्याख्यान-‘पैदल सेना स्मारक व्याख्यान, 2002’- के लिए आमंत्रित किया गया था, उस समय चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 285 अरब डॉलर था। उसके बाद सन् 2004 में जब मुझे दूसरे व्याख्यान-‘अश्वारोही सेना स्मारक व्याख्यान, 2004’- के लिए आमंत्रित किया गया, तब तक यह 600 अरब डॉलर पर पहुँच गया था और जबकि यह पुस्तक प्रेस में जा रही है, चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 1,000 अरब डॉलर हो गया है। हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में भी वृद्धि हो रही है, इसमें कोई दो राय नहीं-और सचमुच यह एक महान उपलब्धि है; किन्तु अभी तक हम लगभग 160 अरब डॉलर तक ही पहुँच सके हैं। भारत लगभग 40 लाख टन इस्पात का उत्पादन करता है जबकि चीन की इस्पात उत्पादन क्षमता 300 लाख टन है। यही नहीं, अन्य वस्तुओं के उत्पादन में भी यह अंतर कमोबेश बना हुआ है। ज्यादा नहीं, अभी बीस वर्ष पहले की बात करें तो चीन इन क्षेत्रों में भारत से आगे नहीं था।
ऐसा भी नहीं है कि यह अंतर केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित है। इसका प्रत्यक्ष और तात्कालिक प्रभाव राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पड़ रहा है। आज चीन के आर्थिक विकास की गति को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित हो रहा है; किन्तु चीन में इतनी तीव्र गति से चल रही विकास-प्रक्रिया को केवल आर्थिक विकास मानकर चलना एक बड़ी भूल है।
पहली बात, अपने आर्थिक विकास के बल पर चीन को अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने में मदद मिल रही है। तेल का ही उदाहरण लीजिए-हर कोई कहता और स्वीकार करता है यह न केवल हमारे आर्थिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है बल्कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को भी बल मिलता है। आज स्थिति यह है कि भारत और चीन दोनों ही आयातित तेल पर निर्भर है। लेकिन एक ओर जहाँ भारत अपनी कुल तेल की खपत का तीन-चौथाई हिस्सा आयात करता है, वहीं दूसरी ओर चीन अपनी कुल आय की खपत का केवल एक-चौथाई हिस्सा ही आयात करता है। ऐसे में दोनों ही देश तेल के समृद्ध भंडारवाले देशों में तेल भंडार का पता लगाने के लिए अधिकार प्राप्त करने में जुटे हैं। सन् 1996 में चीन को सूडान की 40 प्रतिशत तेल परियोजना का अधिकार मिला था। हम वर्ष 2003 तक भी कुछ नहीं हासिल कर पाए थे। अगस्त 2005 में चीन ने कजाकिस्तान में पेट्रो-कजाकिस्तान को खरीदकर भारत को मात दे दी। सितंबर 2005 में उसने इक्वाडोर में एन काना (En Cana) को खरीदकर एक बार फिर हमें बहुत पीछे धकेल दिया। सन् 2005 के उत्तरार्ध तक भारत ने नाइजीरिया में तेल क्षेत्र प्राप्त करने की अपनी कोशिश छोड़ दी थी। उधर, जनवरी 2006 में चीन वहाँ भी पहुँच गया और देश के एक महत्त्वपूर्ण तेल क्षेत्र को खरीदने में सफल हो गया। मार्च 2006 में छोटे से देश दक्षिण कोरिया ने भी नाइजीरिया में ड्रिलिंग ऑपरेशन की दौड़ में बाजी मार ली और हम ताकते रह गए। अभी थोड़े ही दिन पहले, जून 2006 में चीन की सियोनपेक (Sionpec) कंपनी ने ब्रिटिश पेट्रोलियम की एक सिस्टर-कंपनी को खरीदने की अपनी योजना की घोषणा की थी...। किस मुँह से हम तेल-सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात करेंगे।
दूसरी बात, अपने इस प्रकार के आर्थिक विकास के जरिए चीन जो क्षमता और प्रभावशीलता हासिल कर रहा है, उसका महत्त्व तेल-क्षेत्रों और तेल के भंडार का पता लगाने के अधिकार प्राप्त करने से भी ज्यादा है। क्षेत्र के दौरे पर आए चीनी राष्ट्रपति घोषणा करके जाते हैं कि चीन लैटिन अमेरिका में 100 अरब डॉलर का निवेश करेगा; एशियाई गणराज्यों के दौरे पर वह घोषणा करते हैं कि चीन इस क्षेत्र में (भी) 100 अरब डॉलर का निवेश करेगा; जब चीन ईरान में लगभग 50 अरब डॉलर का निवेश शुरू करता है, जब वह पाकिस्तान को कराकोरम राजमार्ग का निर्माण-कार्य शुरू करता है और ग्वाडर में एक नया पतन बनाने की पूरी लागत स्वयं वहन करता है, जब वह अफ्रीका में एक के बाद एक परियोजनाओं को वित्त-पोषित करता है तो इन सबसे वह अपने उत्पादों के लिए बाजार-क्षेत्र ही नहीं प्राप्त करता, बल्कि संबंधित क्षेत्र या देश के लोगों और वहाँ की सरकारों पर अपना प्रभाव भी जमाता है। उसके आयात के मामले में भी यही बात सच है।
आज स्थिति यह है कि आसियान (ASEAN) के सदस्य देशों-ऑस्ट्रेलिया के कई देशों और यहाँ तक कि भारत के खनिज निर्यात क्षेत्रों की समृद्धि और खुशहाली चीन के विकास से जुड़ी हुई है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इन क्षेत्रों के लोग यही चाहेंगे कि चीन अधिकतम संभव गति से विकास करे। दूसरी ओर, अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति क्षण भर के लिए भी अपने मन से यह बात नहीं निकाल सकता कि चीन अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों का सबसे बड़ा धारक है, कि चीन आज अमेरिका के चालू खाते के घाटे का सबसे बड़ा वित्त-पोषक है। दक्षिण-पूर्व एशिया का कोई भी नेता चीन के खिलाफ एक शब्द बोलने का साहस नहीं कर सकता। इतना ही नहीं क्षेत्र की कोई सरकार चीन की संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगाए बिना एक कदम भी नहीं उठा सकती। दूर क्यों जाएँ-क्या हम स्वयं ऐसा नहीं कर रहे हैं ? जिस तरह तिब्बत, उसकी जनता, उसके धर्म और संस्कृति को बेरहमी से कुचला जा रहा है, उसे देखकर भी आखिर हम कुछ कहने की हिम्मत क्यों नहीं कर पाते हैं ? इसीलिए न कि कहीं चीन आक्रामक रुख न अपना ले।
तीसरी बात, जिसे ‘आर्थिक विकास’ का जामा पहनाकर दुनिया के सामने पेश किया जा रहा है, उसमें सेना द्वारा प्रयोग में लाए जानेवाले सैनिक उपकरण भी शामिल हैं। चीन जब मिसाइलें बनाता है तो उसे भी अपने ‘आर्थिक विकास’ में ही गिनता है। जब वह तिब्बत में सड़कों का व्यापक जाल तैयार करता है, जब वह शंघाई से लेकर ल्हासा तक रेलमार्ग का निर्माण करता है, जिस पर रेलगाड़ियाँ 16 फीट की ऊँचाई पर दौड़ा करेंगी- तो इन्हें भी वह ‘आर्थिक विकास’ में ही शामिल करके गिनता है, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इनसे चीन को संबंधित क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व जमाने और भारत के सिर के ऊपर तक अपने युद्ध उपकरण लाने की शक्ति नहीं मिल रही है ?
चौथी बात, ‘आर्थिक विकास’ से चीन को ऐसे संसाधन मिल रहे हैं, जिन्हें वह अपने रक्षा बलों के पूर्ण आधुनिकीकरण में लगा सकता है, बल्कि लगा ही रहा है। इसका अनुमान एक ही उदाहरण से लगाया जा सकता है। आज मध्य एशियाई गणराज्य अपने समृद्ध तेल भंडार और सामरिक स्थिति के कारण व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मैदान बन गए हैं-खासकर अमेरिका, रूस और चीन के बीच। चूँकि ये गणराज्य पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे, अत: रूस को इसका अतिरिक्त लाभ मिला। किंतु अभी तक उसे इस प्रतिस्पर्धा में चीन के एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में बने रहना पड़ा है। कारण, उसके पास वे संसाधन उपलब्ध नहीं है, जो अमेरिका इस क्षेत्र में लगा रहा है। दूसरी ओर, चीन के पास वे सभी संसाधन हैं और वह उन्हें प्रयोग में भी ला रहा है। तेल भंडार का पता लगाने में, इन देशों से चीन तक पाइप लाइनें बिछाने में-सबकुछ अपने खर्च पर।
पाँचवीं बात, चीन ने यह सबकुछ ऐसे समय पर हासिल किया है, जब उसने अपने रणनीतिक सिद्धांत को पूरी तरह संशोधित कर लिया है। माओ के समय में चीनी बलों को ‘जन युद्ध’ के लिए संगठित किया गया था। उस समय चीन का रणनीतिक सिद्धांत शत्रु को किसी तरह चीन के भीतर फँसाना और फिर उसका एक-एक बूँद खून बहाकर उसे मौत के मुँह में धकेलना था। इस सिद्धांत के स्थान पर ‘उच्च तकनीकी पर आधारित सीमित यु्द्ध’ का सिद्धांत अपनाया गया। अब चीनी बलों को इस आधार पर तैयार और संगठित किया गया है कि दुश्मन को चीनी भूभाग में प्रवेश करने से रोक सकें या फिर उन्हें सीमा पर ही उलझाकर रख सकें। चीन के पड़ोसी देशों के लिए उसकी यह रणनीति कितनी घातक हो सकती है, यह हमने सन् 1962 में अपने गाल पर खाए चीनी तमाचे से समझ लिया था लेकिन तब से लेकर अब तक इस रणनीतिक सिद्धांत में काफी विकास और बदलाव लाया जा चुका है। अब चीनीं बलों को ‘उच्च तकनीकीवाली स्थितियों में शक्ति-प्रदर्शन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सुसज्जित और पुनर्गठित किया जा रहा है। चीन अपनी सीमा के बाहर तक शक्ति-प्रदर्शन की क्षमता हासिल करने में जुटा है।
उसके बाद क्या हो सकता है-जैसा कि जनरल परवेज मुशर्रफ ने कहा था, क्षमता हासिल कर लेने के बाद इरादे बदलने में देर नहीं लगती।
इस प्रकार की सैन्य-शक्ति और बदले हुए रणनीतिक सिद्धांत को भारत के प्रति चीन की सोच और दृष्टिकोण के प्रकाश में देखा जाना चाहिए। चीन भारत को केकड़े के एक पंजे के रूप में देखता है। और उसकी दृष्टि में यह केकड़ा और कोई नहीं, स्वयं अमेरिका है। इस केकड़े का एकमात्र इरादा चीन को घेरकर उस पर अपना दबदबा बनाना है। ऐसा चीन का मानना है। इस उद्देश्य के लिए वह अपने पंजों—जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया और भारत का प्रयोग कर रहा है। हिंदी-चीनी भाई का राग अलापकर हमारे साथ विश्वासघात किया जा रहा है। कम-से-कम चीन तो हमारे साथ भाई का फर्ज नहीं अदा कर रहा है। वह हमें अमेरिका के एक हथियार के रूप में देखता है तथा पिछले कुछ वर्षों में गहराए संबंधों एवं समझौतों से इस धारणा को और बल ही मिला है।
अपनी इसी धारणा को ध्यान में रखते हुए वह पिछले कई दशकों से भारत को घेरे में लेने और उसे दक्षिण एशिया में उलझाकर रखने की सोची-समझी नीति अपना रहा है। पाकिस्तान को जितनी चीन की ओर से हथियारों और अन्य साधनों की मदद मिली है उतनी पश्चिम के किसी देश से नहीं मिली। उत्तर ने चीन ने तिब्बत का सैन्यकरण कर लिया है। उधर पूर्व में उसने बँगलादेश के साथ एक सैन्य समझौता कर लिया है। पूर्व में ही और आगे बढ़े तो एक ओर जहाँ हम म्याँमार को लोकतंत्र का हवाला देकर झिड़क गए हैं, वहीं दूसरी ओर चीन उसे अपना आश्रित बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ चुका है।
यहाँ हम अपनी आँखें बंद किए बैठे हैं। साथ ही हिंदी-चीनी भाई-भाई का राग और तेजी से अलाप रहे हैं। जरा देखिए, जब नाथू ला दर्रे को जुलाई में व्यापार के लिए पुन: खोला गया तो समाचार-पत्रों ने कैसे-कैसे भ्रामक लेख प्रकाशित किए थे।
हमें अपने मित्रों और सहयोगियों की गतिविधियों के प्रति भी सजग एवं सतर्क रहना चाहिए और जब कोई हमें किसी ऐसी शक्ति के हथियार के रूप में देख रहा हो, जो उसपर प्रभुत्व जमाना चाहता है तो उसकी गतिविधियों की बात ही अलग है।
इस प्रकार, यह खंड चीन द्वारा हासिल की जानेवाली शक्तियों उसकी रणनीतियों और भारत के संदर्भ में उनके परिणामों की समीक्षा हेतु है।
अरुण शौरी
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उधार का चाकू
निस्संदेह हमारे लिए सबसे निकटतम खतरा पाकिस्तान से है। बंग्लादेश निकट
भविष्य में एक प्रमुख समस्या का कारण बनने की राह पर है लेकिन चीन एक ऐसे
अनिष्टकारी बादल की तरह है, जो कुछ दूरी पर ही सही, लेकिन हमारी आँखों के
सामने मँडरा रहा है। सच पूछें तो जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, भारत को
नुकसान पहुंचाने की पाकिस्तान की क्षमता बढ़ती जा रही है। साथ-ही-साथ
दक्षिण एशिया में पाकिस्तान चीन के ‘शक्ति-प्रदर्शन’
का एक बेहतर माध्यम बनता जाएगा।
मौके पर चीन के प्राधिकारी भारत की क्षमता और सफलता को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-देश ने परमाणु और मिसाइल क्षमता प्राप्त कर ली है, उसकी बहुआयामी कूटनीति और मध्य एशियाई गणतंत्रों वियतनाम, अमेरिका आदि देशों से संबंध अंडमान में इसके द्वारा त्रिपक्षीय सेवा के अड्डे की स्थापना...इसके बावजूद चीन भारत को एक प्रतिद्वंद्वी या खतरे के रूप में नहीं देखता है। भारत के संदर्भ में सैन्य रणनीति की चर्चा करते हुए एक चीनी लेखक भारत को भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में एक उपेक्षित शक्ति के रूप में व्याख्या करता है। एक ऐसा संभावित काँटा, जिसे दक्षिण एशिया में ही उलझाए रहना है। चीनी विश्लेषक प्राय: इस बात पर जोर देते रहते हैं कि भारत स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उत्तराधिकारी के रूप में देखता है। लिहाजा, वह हमेशा इस क्षेत्र में प्रभुत्व जमाने की कोशिश में रहता है। वे भारत की इस कोशिश में आड़े आनेवाली कमजोरियों का भी उल्लेख करते हैं-जाति और धर्म के आधार पर विभाजन, धीमी चाल से चलनेवाली इसकी राजनीतिक और प्रशासनिक कार्य-प्रणाली। इस तरह के मूल्यांकन के अनुसार, भारत की मुश्किल उत्पन्न करने की संभावित क्षमता उसकी अपनी शक्ति के बल पर उतनी नहीं है जितनी उसके सहयोगियों के माध्यम से है। चीनी मुख्य रूप से भारत से संबंधित उस विषय पर चिंतित है जिसके अंतर्गत अमेरिका चीन को ’घेरने’ के अपने इरादे में भारत का उपयोग एक हथियार के रूप में करे। इसके अलावा चीन को इस संभावना पर भी चिंता है कि भारत कहीं जापान के साथ गुटबाजी न कर ले, क्योंकि ऐसे में दो ऐसे देश गठजोड़ कर लेते हैं, जो कट्टर राष्ट्रवाद के रंग में रँगे रहते हैं।
मौके पर चीन के प्राधिकारी भारत की क्षमता और सफलता को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-देश ने परमाणु और मिसाइल क्षमता प्राप्त कर ली है, उसकी बहुआयामी कूटनीति और मध्य एशियाई गणतंत्रों वियतनाम, अमेरिका आदि देशों से संबंध अंडमान में इसके द्वारा त्रिपक्षीय सेवा के अड्डे की स्थापना...इसके बावजूद चीन भारत को एक प्रतिद्वंद्वी या खतरे के रूप में नहीं देखता है। भारत के संदर्भ में सैन्य रणनीति की चर्चा करते हुए एक चीनी लेखक भारत को भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में एक उपेक्षित शक्ति के रूप में व्याख्या करता है। एक ऐसा संभावित काँटा, जिसे दक्षिण एशिया में ही उलझाए रहना है। चीनी विश्लेषक प्राय: इस बात पर जोर देते रहते हैं कि भारत स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उत्तराधिकारी के रूप में देखता है। लिहाजा, वह हमेशा इस क्षेत्र में प्रभुत्व जमाने की कोशिश में रहता है। वे भारत की इस कोशिश में आड़े आनेवाली कमजोरियों का भी उल्लेख करते हैं-जाति और धर्म के आधार पर विभाजन, धीमी चाल से चलनेवाली इसकी राजनीतिक और प्रशासनिक कार्य-प्रणाली। इस तरह के मूल्यांकन के अनुसार, भारत की मुश्किल उत्पन्न करने की संभावित क्षमता उसकी अपनी शक्ति के बल पर उतनी नहीं है जितनी उसके सहयोगियों के माध्यम से है। चीनी मुख्य रूप से भारत से संबंधित उस विषय पर चिंतित है जिसके अंतर्गत अमेरिका चीन को ’घेरने’ के अपने इरादे में भारत का उपयोग एक हथियार के रूप में करे। इसके अलावा चीन को इस संभावना पर भी चिंता है कि भारत कहीं जापान के साथ गुटबाजी न कर ले, क्योंकि ऐसे में दो ऐसे देश गठजोड़ कर लेते हैं, जो कट्टर राष्ट्रवाद के रंग में रँगे रहते हैं।
भारत-अमेरिका के लिए एक हथियार के रूप में
चूँकि भारत-अमेरिका संबंध वास्तव में उदासीनता, विरोध, सहयोग, क्षोभ और
फिर वापस सहयोग के बीच थपेड़े खाता रहा है, चूँकि अमेरिका और चीन दोनों ही
सन् 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद उसपर प्रतिबंध
थोपने में सहयोग किया था1, इसलिए चीनी इस क्षेत्र में भारत को अमेरिका की
कठपुतली के रूप में देख रहे हैं।
चीन इस विश्वास में है कि अमेरिका अपनी कुशल रणनीति के तहत आगे बढ़ रहा है। उसकी इस रणनीति का एकमात्र उद्देश्य, ‘अंतरराष्ट्रीय मामलों पर काररवाई करने की पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करना और इस प्रकार विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना है।’ उसने इस क्षेत्र को अपनी सैन्य उपस्थिति दर्ज कराने के लिए-हर मामले का अपने हित में प्रयोग किया है। यह भी सच है कि उसे अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पहले चीन को घेरकर उसपर अपना दबदबा बनाना होगा और इसके लिए वह अपने हथियार के रूप में भारत, ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस, ताइवान, जापान और दक्षिण कोरिया का प्रयोग कर सकता है।2 पिल्सबरी के संग्रह में इस संदर्भ में कई संकेत मिलते हैं। चीन के एक सुरक्षा मामले संबंधी विश्लेषक ने इस संदर्भ में कुछ इस तरह लिखा है-
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उदाहरण के लिए देखें जॉन डब्ल्यू, गार्वर का ‘द चाइनीज-इंडिया-यू-एस.ट्राइएंगल-स्ट्रैटेजिक रिलेशंस इन द पोस्ट-कोल्ड वार एरा (The Chinese-India-US Triangle Strategic Relation in the Post-Cold War Era), एन.बी.आर.विश्लेषण, द नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च, सिएटल, वाशिंगटन, खंड 13, संख्या 5, अक्टूबर 2002।
2.ऐसे लेखों के सारांश के लिए देखें, यांग डेंग का लेख ‘हेजीमन ऑन द अफेंसिव-चाइनीज पर्सपेक्टिव ऑन यू.एस.ग्लोबल स्ट्रेटेजी ‘पोलिटिकल साइंस त्रैमासिक, खंड 116 संख्या 3, 2001, पृष्ठ 343-65।
‘पश्चिमी विश्व की भू-राजनीतिक नीति पड़ोसी देश के निशाने पर है। लिहाजा, वह चीन के पश्चिमी भूभाग या और स्पष्ट कहें तो चीन के तिब्बती भूभाग को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। रूस को उत्तरी क्षेत्र में व्यस्त करने के बाद वह चीन और मध्य एशिया के तेल उत्पादक देशों के बीच एक राजनीतिक अवरोधक तैयार करना चाहता है। इसके लिए वह तिब्बत या जिंगजियांग मामले को तूल दे रहा है। इससे स्पष्ट है कि पश्चिमी देश विश्व के भौगोलिक और ऊर्जा केंद्र पर स्थायी आधिपत्य चाहते हैं। यह भारत और चीन के बीच तिब्बत के रूप में एक अंत:स्थ क्षेत्र बनाने की भारत की राजनीतिक चाल से मेल खाता है। फिलहाल भारत उन सभी अवरोधकों को हटाने में लगा है, ताकि पश्चिमी देशों को यह विश्वास दिलाया जा सके कि भारत उनकी कोशिशों को सफल बनाने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इसके पीछे यह अपेक्षा की जा रही है कि पश्चिमी देश भारत के परमाणु विकल्प के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाएँगे।’1
चीन के फैकल्टी ऑफ लुओयांग पी.एल.ए.फॉरेन लैंग्वेज कॉलेज के जिन बेंजियान ने इस संदर्भ में विवरण प्रस्तुत किया है।2 ‘यदि अमेरिका अवरोध’ की भूमिका अदा करना चाहता है-जैसे उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था-तो उसे चीन के साथ संबंधों की होड़ लगाते हुए अन्य क्षेत्रीय शक्तियों-भारत, रूस, जापान-को अपने रणनीतिक जाल में फँसाना पड़ेगा। अमेरिकी विशेषज्ञ, हंटिग्टन ने कहा था, ‘सैद्धान्तिक रूप से बात की जाए तो–यदि अन्य शक्तियाँ चीन को भी संतुलन में लाना चाहती तो अमेरिका तुलादंड की भूमिका अदा करके उसे अपने प्रभाव-क्षेत्र में ला सकता था। चूँकि रूस नाटो (Nato) के विस्तार, एबीएम (ABM) की पुनरावृत्ति और चेचन्या मामले को लेकर अमेरिका से शत्रुता कर बैठा है और चीन के प्रति मित्रवत् हो गया है, इसलिए अमेरिका चीन को भारत और जापान के संतुलन में ही ला सकता है।’
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माइकल पिल्सबरी, ‘चाइना डीबेट्स द फ्यूचर सिक्योरिटी एनवायरमेंट, ‘नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी प्रेस, वाशिंगटन, डी.सी.,2000,पृष्ठ 111।
जिन बेंजियान, ‘सिक्योरिटी डिलेम्मा, बैलेंस ऑफ पॉवर वर्सस यू.एस.पॉलिसी टुवडर्स चाइना इन द पोस्ट-कोल्ड वार एरा’ (Security Dilemma, Balance of Power Vs.US Policy Towards China In the Post-Cold War Era) जियांदई गुओजी गुआंक्सी (आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध), सितंबर 2001। यह जर्नल (पत्र) चीन के राज्य सुरक्षा मंत्रालय से संबंद्ध संस्थान ‘चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपररी इंटरनेशनल रिलेशंस’ से निकलता है।
चीन इस विश्वास में है कि अमेरिका अपनी कुशल रणनीति के तहत आगे बढ़ रहा है। उसकी इस रणनीति का एकमात्र उद्देश्य, ‘अंतरराष्ट्रीय मामलों पर काररवाई करने की पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करना और इस प्रकार विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना है।’ उसने इस क्षेत्र को अपनी सैन्य उपस्थिति दर्ज कराने के लिए-हर मामले का अपने हित में प्रयोग किया है। यह भी सच है कि उसे अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पहले चीन को घेरकर उसपर अपना दबदबा बनाना होगा और इसके लिए वह अपने हथियार के रूप में भारत, ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस, ताइवान, जापान और दक्षिण कोरिया का प्रयोग कर सकता है।2 पिल्सबरी के संग्रह में इस संदर्भ में कई संकेत मिलते हैं। चीन के एक सुरक्षा मामले संबंधी विश्लेषक ने इस संदर्भ में कुछ इस तरह लिखा है-
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उदाहरण के लिए देखें जॉन डब्ल्यू, गार्वर का ‘द चाइनीज-इंडिया-यू-एस.ट्राइएंगल-स्ट्रैटेजिक रिलेशंस इन द पोस्ट-कोल्ड वार एरा (The Chinese-India-US Triangle Strategic Relation in the Post-Cold War Era), एन.बी.आर.विश्लेषण, द नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च, सिएटल, वाशिंगटन, खंड 13, संख्या 5, अक्टूबर 2002।
2.ऐसे लेखों के सारांश के लिए देखें, यांग डेंग का लेख ‘हेजीमन ऑन द अफेंसिव-चाइनीज पर्सपेक्टिव ऑन यू.एस.ग्लोबल स्ट्रेटेजी ‘पोलिटिकल साइंस त्रैमासिक, खंड 116 संख्या 3, 2001, पृष्ठ 343-65।
‘पश्चिमी विश्व की भू-राजनीतिक नीति पड़ोसी देश के निशाने पर है। लिहाजा, वह चीन के पश्चिमी भूभाग या और स्पष्ट कहें तो चीन के तिब्बती भूभाग को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। रूस को उत्तरी क्षेत्र में व्यस्त करने के बाद वह चीन और मध्य एशिया के तेल उत्पादक देशों के बीच एक राजनीतिक अवरोधक तैयार करना चाहता है। इसके लिए वह तिब्बत या जिंगजियांग मामले को तूल दे रहा है। इससे स्पष्ट है कि पश्चिमी देश विश्व के भौगोलिक और ऊर्जा केंद्र पर स्थायी आधिपत्य चाहते हैं। यह भारत और चीन के बीच तिब्बत के रूप में एक अंत:स्थ क्षेत्र बनाने की भारत की राजनीतिक चाल से मेल खाता है। फिलहाल भारत उन सभी अवरोधकों को हटाने में लगा है, ताकि पश्चिमी देशों को यह विश्वास दिलाया जा सके कि भारत उनकी कोशिशों को सफल बनाने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इसके पीछे यह अपेक्षा की जा रही है कि पश्चिमी देश भारत के परमाणु विकल्प के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाएँगे।’1
चीन के फैकल्टी ऑफ लुओयांग पी.एल.ए.फॉरेन लैंग्वेज कॉलेज के जिन बेंजियान ने इस संदर्भ में विवरण प्रस्तुत किया है।2 ‘यदि अमेरिका अवरोध’ की भूमिका अदा करना चाहता है-जैसे उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था-तो उसे चीन के साथ संबंधों की होड़ लगाते हुए अन्य क्षेत्रीय शक्तियों-भारत, रूस, जापान-को अपने रणनीतिक जाल में फँसाना पड़ेगा। अमेरिकी विशेषज्ञ, हंटिग्टन ने कहा था, ‘सैद्धान्तिक रूप से बात की जाए तो–यदि अन्य शक्तियाँ चीन को भी संतुलन में लाना चाहती तो अमेरिका तुलादंड की भूमिका अदा करके उसे अपने प्रभाव-क्षेत्र में ला सकता था। चूँकि रूस नाटो (Nato) के विस्तार, एबीएम (ABM) की पुनरावृत्ति और चेचन्या मामले को लेकर अमेरिका से शत्रुता कर बैठा है और चीन के प्रति मित्रवत् हो गया है, इसलिए अमेरिका चीन को भारत और जापान के संतुलन में ही ला सकता है।’
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माइकल पिल्सबरी, ‘चाइना डीबेट्स द फ्यूचर सिक्योरिटी एनवायरमेंट, ‘नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी प्रेस, वाशिंगटन, डी.सी.,2000,पृष्ठ 111।
जिन बेंजियान, ‘सिक्योरिटी डिलेम्मा, बैलेंस ऑफ पॉवर वर्सस यू.एस.पॉलिसी टुवडर्स चाइना इन द पोस्ट-कोल्ड वार एरा’ (Security Dilemma, Balance of Power Vs.US Policy Towards China In the Post-Cold War Era) जियांदई गुओजी गुआंक्सी (आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध), सितंबर 2001। यह जर्नल (पत्र) चीन के राज्य सुरक्षा मंत्रालय से संबंद्ध संस्थान ‘चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपररी इंटरनेशनल रिलेशंस’ से निकलता है।
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