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अमावस्या के तारे

किसनसिंह चावड़ा

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3302
आईएसबीएन :81-88139-78-5

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पूरे ब्रह्मांड को नापने के लिए अत्यंत तेज गति से मनुष्य उद्यत हो रहा है। उसे मद्देनजर रखते हुए कहें तो राष्ट्रीयता तो ठीक, अपितु, ‘जय जगत्’ सूत्र भी पुरातन होता जा रहा है।

Amavasya ke Tare a hindi book by Kisan Singh Chavada - अमावस्या के तारे -किसनसिंह चावड़ा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उनमें से एक आदमी ने कहा-‘‘जब तक हम दूसरों की सहायता कर सकते हैं तब तक हम जीने का एहसास करते हैं। जब हममें दूसरों का उपयोग करने की वृत्ति जाग्रत होगी तब हम जीवित नहीं होंगे। आप लोग चालिए, आपको देरी हो रही है।’’ मैं बोले बिना रह न सका, अतः मैंने पूछा।‘‘आप हमें सच बताइए, आप कौन हैं और कहाँ के हैं?’’ ‘‘हम?’’ कहकर दोनों हँस पड़े। बोले, ‘‘हम जिप्सी हैं। हम इजिप्ट में पैदा हुए हैं, परंतु सारा जगत् हमारा देश है। हमें कहीं भी पराया नहीं लगता। मिस्त्र में हमने हजारों वर्ष की उम्र के मुरदे (ममी) देखे है, अतः जब हम कम उम्र का, लेकिन जिंदा आदमी देखते हैं तो हमें अद्भुत खुशी होती है कि चलती रहना ही जिंदगी है।’’ नाम से अनजान इन जिंदा आदमियों को देखकर अस्तित्व ने पल भर जिंदगी के रोमांच की अनुभूति की। मुझे लगा यदि हम ‘जिप्सी’ बन जाएँ तो? आज नाम से ‘जिप्सी’ बना हूँ। काम से कब बनूँगा?

हमारी बात

अगर सच पूछें तो साहित्य के अपने कोई प्रदेश, भाषा, धर्म या संस्कृति के स्वतंत्र क्षेत्र में नहीं होते हैं। साहित्य का उपादान मनुष्य होता है। मनुष्य का बाह्य आवरण अकसर भिन्न-भिन्न दिखाई देता है, लेकिन इन आवरणों को अगर हटा दिया जाए तो जो आकृति दृश्यमान होती है, वह निर्मल और सुरेख आकृति ही उसके अपने अंतःस्वरूप के साथ साहित्य का उपादान होती है।

लेकिन उपादान के अंतःस्वरूप की ऐसी तात्त्विक एकता होने पर भी साहित्य को अपने क्षितिज-विस्तार के लिए विभिन्न भाषाओं के माध्यम अंगीकृत करने पड़ते हैं। साहित्य का यह व्यवहारगत सत्य है।
इसी सत्य को स्वीकृत करके गुजराती साहित्य की सत्त्वशील रचनाओं को अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित कराने का एक प्रकल्प ‘गुजराती साहित्य प्रदान प्रतिष्ठान’ के नाम से आरंभ किया गया है। इस उपक्रम के अंतर्गत ही यह ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। यह घटना आनंदप्रद है।

पूरे ब्रह्मांड को नापने के लिए अत्यंत तेज गति से मनुष्य उद्यत हो रहा है। उसे मद्देनजर रखते हुए कहें तो राष्ट्रीयता तो ठीक, अपितु, ‘जय जगत्’ सूत्र भी पुरातन होता जा रहा है। ‘राष्ट्र’ शब्द को उसके शीर्षस्थ स्तर से देखें तो विवादस्पद भी हो सकता है। इस सत्य को स्वीकार करते हुए भी तत्कालीन युग में राष्ट्रीयता को अस्वीकार नहीं कर सकते। इस विभावना को व्यापक कर सकें, ऐसी प्रक्रिया साहित्यिक आदान-प्रदान है।

हमारे ‘प्रदान प्रतिष्ठान’ ने जिस अभियान को आरंभ किया है, वह इस प्रक्रिया का मूल है। प्रतिवर्ष सत्त्वशील गुजराती पुस्तकों को विभिन्न भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में भी प्रकाशित करना प्रतिष्ठान का उद्देश्य है।
-दिनकर जोशी
मैनेजिंग ट्रस्टी
गुजराती साहित्य प्रदान प्रतिष्ठान

मर्मी जीवनयात्री

बंगलौर साइंस कांग्रेस से आगरा के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए डॉ. कांतिलाल पंड्या ने मुझे एक खत लिखा था-हाल में ‘प्रजाबंधु’ में स्व. फैयाज खाँ का लेख पढ़ा संगीत के बारे में इतनी जानकारी के साथ गुजराती भाषा में कोई ऐसा वर्णन कर सके, मेरे ध्यान में तो शायद कोई नहीं है। यह ‘जिप्सी’ है कौन ?
‘संस्कृति’ में ‘जिप्सी’ की आंखों से ‘शीर्षक से प्रकाशित होनेवाली प्रसंगमाला के बारे में मुझे अनेक पत्र मिले होंगे-दूर कच्छ, मद्रास और कलकत्ता से भी। रूबरू भी ऐसा कहनेवाले मिल जाते हैं-

हमारी माँजी हैं वे ‘संस्कृति’ आते ही चश्मा ठीक करके सबसे पहले ‘जिप्सी’ पढ़ लेती हैं। साहित्य-रसिक एवं सेवकों के मुँह से भी ऐसी ही स्वीकृति सुनी है। ‘संस्कृति’ में से ‘जिप्सी की आँखों से’ के प्रसंग गुजराती एवं अन्य भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। जिप्सी की अपील का एक उल्लेखनीय उदाहरण बंबई के ग्रंथागार (प्रवर्तक पुस्तकालय) के श्री रसिक झवेरी ने सूरत लेखक सम्मेलन में दिया था-नलबाजार-भिंडीबाजार की ओर काम करनेवाले एक श्रमी को एक भी किताब पसंद नहीं आ रही थी। ले जाना और मुँह बनाकर सब वापस लौटाना। ऊबकर उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने उसे ‘बोझिल’ संस्कृति की फाइल दे दी। थोड़े दिनों बाद उन्हें अपनी प्रतीक्षा में बैठे देखा। मुझे देखते ही उत्साह से चिल्ला उठे- खुल गया। खुल गया ! मेरे द्वारा पूछे जाने पर कि क्या खुल गया तो कहने लगे-इनमें से जिप्सी पढ़कर दिल खुल गया।
जिप्सी कौन है, उसके बारे में आरंभ में अनेक तर्क-वितर्क दिए थे। शांति-निकेतन का उल्लेख था, अतः श्री नगीनदास पारेख होने चाहिए-ऐसा तर्क किया गया; संगीत एवं पांडिचेरी का उल्लेख है, इसलिए श्री दिलीप कुमार राय का लेखन होगा, ऐसा मान लिया गया। किसी ने तो संपादक को ही टोपी पहना दी (वैसे उन भटकैयों को निपट जिप्सी की कोटि में नहीं रखा जा सकता) यूरोप, अमेरिका और चारों महाद्वीपों के स्वानुभव की बातें करनेवाले विविध अनुभव-भंडारी गुजराती ‘लेखक’ खोजना थोड़ा मुश्किल तो है ही; परंतु राजा-महाराजाओं के अब इतिहास में विलीन हो रहे कारवाँ की सूक्ष्म जानकारी के प्रसंगों जिप्सी-यानी श्री किशन सिंह चावड़ा हैं-यह जता देने में सहायता की।

‘अमावस्या के तारे’ जिप्सी की रचना है। जिप्सी यानी प्राणशक्ति के उद्रेकवाला बहिर्मुखी व्यक्ति। परंतु जिप्सिओं को केवल बहिर्मुखी मान लेना शायद अन्याय होगा। बाह्म जगत् में गुम से हो जाते दिखाई देनेवाले कभी-कभार भीतरी सृष्टि को खोजनेवाले अंतर्मुखी यात्री भी होते हैं। इस बात का संकेत यह ‘अमावस्या के तारे’ अवश्य देगी।
पहला प्रभाव विविधता का होना स्वाभाविक है। चार महाद्वीप (सचमुच ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर) की धरती के अनुभवों की बातें इसमें संगृहीत हैं। इन 76 प्रसंगों के पाँच विस्तृत विभाग हो सकते हैं-

(1) कुटुंब कथाएँ,
(2) विलक्षण चरित्र,
(3) संगीत-अनुभव,
(4) जीवन-समीश्रक प्रसंग और
(5) जीवन-मांगल्य के काव्य को व्यक्त करनेवाली मर्मकथाएँ।

‘पहले मन को मूँड़ो, फिर आतम को ढूँढो’-गानेवाले भक्त गोविंद सिंह चावड़ा गृहस्थ थे। उनके व्यक्तित्व का ताप महाकोर को माकली कह देनेवाली माँ को जिंदगी भर झेलना है; परंतु दूसरी ओर दीक्षा लेने के प्रसंग में ‘माँ’ की निस्स्वार्थ, मार्मिक सलाह के वश होना भी गोविंद सिंहजी जानते हैं। परिजनों में पिता, बहन, बूआ इत्यादि पात्र अपने-अपने तरीके से आकर्षक हैं, परंतु ‘माँ’-मंगलसूत्र के बदले में बेटे के लिए साइकिल की सुविधा देनेवाली ‘माँ’-की मूर्ति तो अविस्मरणीय ही है।

तरह-तरह के विलक्षण चरित्र इस पुस्तक में उपस्थित हैं। गंगाघाट पर सपेरे के नाग को मृदंग बजाकर नादमुग्ध कर देनेवाला अनजान साधु-मातृत्व बरसानेवाली अमेरिकी महिला या ‘ऐलोन’ (एकाकी) की सुरावली से मुग्ध करनेवाली तरुण आँग्ल माता, नाप-तौल के युग में इत्रवाले को केरोसिन ले आने के लिए कहनेवाले पुस्तकों के शौकीन मुस्तका अली या मैरीन ड्राइव पर लोगों की भीड़ के बीच भी गीत गुनगुनाने और चुटकी बजाकर ताल देनेवाले, जमीन पर तौलिया बिछाकर उस तख्त पर से सामने वाले के सलाम स्वीकार करनेवाले दिल्ली की शहंशाहत के अंतिम अवशेष, जंगल के बादशाह के शव पर बहादुरी से गोली चलानेवाले गोरे, साहब, शेर को भाले से बेधकर विवाह का अधिकार प्राप्त करनेवाले मसाई जवान, ‘गाड़ी को जाना हो तो जाए, मैं अपनी चाल नहीं बदलूँगा’ कहनेवाले राजासाहब, ठेले पर प्रियतमा को सवारी करानेवाली संगी, ‘वो’ चीज, ब.क.ठा, फक्कड़ चाचा, नन्नू मियाँ, अफलातून, कृष्णाप्पा, लाडली के रघुराजसिंहजी, हाजी वजीर महम्मद-मनुष्य जाति का मन भर देनेवाली विविधता का संकेत करने के लिए ऐसी चरित्रमाला पर्याप्त है।
संगीत के अनुभव का आलेखन इस पुस्तक का महत्त्वपूर्ण अंग है। चित्रकला के आस्वाद के विषय में थोड़ा-बहुत लिखा जा रहा है। उसी प्रकार संगीत के बारे में भी गहरी समझदारी पूर्वक उन अनुभवों को मानो फिर से जी रहे हों, इस प्रकार का वर्णन होना आवश्यक है। संगीत, नृत्य, चित्र आदि ललितकलाओं की समानुभूति का स्वयं संस्पर्श करनेवाला कर्ता उसे अच्छे ढंग से शब्दवद्ध कर सकता है। स्व. फैयाज खाँ या नन्नु उस्ताद के संगीत के वर्णनों में यह देखा जा सकता है।
जीवन को समीक्षक की दृष्टि से देखते हुए, जो विसंवादी चित्र प्राप्त होते हैं, वे कर्ता ने तूलिका की सूक्ष्म शैली एवं संतुलन से प्रस्तुत किए हैं। आरती के पैसों की चोरी दीये के लिए बिगड़ा हुआ घी जलानेवाला बनिया, फ्री-मेसन जैसी संस्था में दान की पेटी में से निकलते खोटे सिक्के, ऐसी सच्चाई पाठक को, अलग नजरिए से जीवन को निहारने की ओर प्रेरित करती है। स्वदेश वापस लौट रहे, भावुक को कोई अनुभवी खादी के कपड़े बदलने की सलाह देता है, उसमें कितना तीखापन है। हाल की स्थिति के प्रति पुण्य-प्रताप, स्वराज मिला है, यदि मर्द हो तो उसे सँभालना ऐसी एक हिजड़े की चुनौती द्वारा प्रकट करके समकालीन परिस्थिति की हास्यास्पदता एवं करुणता दोनों का एक साथ कर्ता ने निदेश दिया है। इस विसंवादिता में से कभी लेखक जुड़वाँ दृष्य प्रस्तुत करके-एक आँख कुत्सित दृष्य पर और दूसरी मंगल पर स्थित करके-संवादिता के सम पर अपनी हृदय-गूँज को लाने की कोशिश करता है। ‘उजाले में और अँधेरे में’,‘अल्पता एवं महता’,‘हिंदी एवं अंग्रेजी’ एवं विशेष रूप से ‘जीवन की कविता’ जैसे प्रसंग इस प्रकार के हैं। पुस्तक में हास्य भी है, जो इस विभाग की रचनाओं में है। महाराजा के ‘अनिवार्य असबाब’ में धोने का पत्थर भी होता है, वाइसराय जिस शेर का शिकार करता है उसको नापने की पट्टी में से आरंभ की एक फीट की लंबाई गायब कर दी गई हो, जिससे अधिक मापन हो- इन प्रसंगों में निहित हास्य स्वयं ही प्रकट हो जाए, ऐसी लेखक की कोशिश रही है, कुछ भी समीक्षा करने के लिए वे रुकते नहीं हैं।

संपूर्ण पुस्तक के मर्मभाग जैसा समूह है-जीवन मांगल्य के प्रसंगों का और जीवन की कविता प्रकट करनेवाले कल्याणक प्रसंगों का ! वैसे तो जीवन की अंतिम कल्याणमयता की हवा करीब संपूर्ण पुस्तक में फैली हुई है, परंतु इटालियन कैदी मजदूरों द्वारा बनाए गए गिरजा की कथनी ‘हृदय धर्म का प्रसाद’ और गांधीजी के पुण्य-प्रताप से’ जैसे प्रसंग उसकी सविशेष प्रतीति कराते हैं।
एक पुस्तक के लिए और लेखक के लिए यह बहु प्रशंसनीय विविधता है। पाठक प्रश्न कर सकता है-यह सब सच होगा ? एक ही आदमी ने ऐसे विविध अनुभव किए होंगे ?

यदि ये सभी लेखक के स्वानुभव हैं तो भी उसके लिए हमें आश्चर्य होता है और यदि यह उनकी कल्पना है तो उनकी अमोघ कल्पनाशक्ति के लिए आदर होता है; परंतु इन दोनों ही तरीकों से देखने की आवश्यकता नहीं है। जब किसी विशिष्ट व्यक्ति के संस्मरण होते हैं तब उनका मूल्य होता है। कोई खास लेखन संस्मरणात्मक है या सत्यकथा इतने से ही अपने आप बेशकीमती नहीं हो जाता। उसमें जीवन का कोई मर्म है, जीवन की एकाध सौंदर्य-किरण को भी वे साकार करते हैं-यही मुख्य प्रश्न होते है। (विशिष्ट व्यक्ति के संस्मरण या आत्मकथात्मक लेखन, वे स्वयं जिस सत्य को साकार करते हैं, उसी के संदर्भ में अपने आप अर्थगर्भ बन जाते हैं।)
निवेदन में लेखन ने सही कहा है कि उन्होंने हकीकत के साथ कहीं-कहीं छूट भी ली है और काव्यगत सत्य के वश में होकर रचना की है।

कुछ लोगों की बातचीत में हम देखते हैं कि आज कहे हुए प्रसंग और छह महीने बाद उसी प्रसंग की पुनरुक्ति में कभी फर्क भी हो जाता है। कुछ लोग वार्तालाप के भी कलाकार होते हैं। वाणी द्वारा किसी सत्यांश को वे आकार प्रदान करते हैं। पिछली बार अमुक पक्ष विकसित करके अमुक सत्यांश को प्रकट करने की कोशिश की हो, अब अन्य प्रकार से ‘बेल्जियन कट’ करके दूसरा पहलू तराशे और अधिक वांछनीय सत्य किरण प्रज्वलित करने की कोशिश करे। प्रसंग कथन में उनकी कोशिश सत्य के सौंदर्य की खोज विषयक ही होती है। ऐसे लोगों की स्मृति प्रसंग को यथार्थ रूप से सँजोने या प्रस्तुत करके प्रसन्न होने के बदले सत्य सौदर्य की नाप के अनुसार उन प्रसंगों को देखनेवाली एवं चित्रित करनेवाली होती है। ऐसी स्मृति को एक यूरोपीय कवि विचारक ने क्रिएटिव मेमोरी-रचयिता स्मृति-का नाम दिया है। यद्यपि विज्ञान, जीवन चरित्र इत्यादि में वह नहीं चल सकती; ललित साहित्य में, कलाप्रवृत्ति में ही रचयिता स्मृति का विलास संभव है।

श्री चावड़ा की रचयिता स्मृति की ये रचनाएँ जितनी मावन-जीवन के किसी-न-किसी रहस्य सौंदर्य को साकार कर सकेंगी उतनी साहित्य के रूप में आस्वाद्य होंगी। कुल मिलाकर ऐसे सौंदर्य की खोज के सिवा उनकी लेखनी क्रियाशील नहीं होती। निरे वर्णन के या रहस्य-खोज में असफलता प्राप्ति के उदाहरण बहुत थोड़े होंगे। निपट वर्जन में कभी-कभार मानवीय भाव भरकर वे उसे कितना सजीव बना सकते हैं, यह ‘मातृत्व’ में दृष्टिगत होता है।
सत्य घटना से प्रभावित होकर यदि कोई अप्रिय अंश किसी को नजर आए तो वे महाजनों के निकट संपर्क की या अनिच्छा से भी कभी राजा के रूप में स्वीकृत होने की या कभी-कभार किसी को दो-चार पैसों की सहायता विषयक होंगी। परंतु शायद वह स्वानुभावात्मक लेखन का निर्वाहक दोष माना जाएगा।

‘अमावस्या के तारे’ का गद्य अवश्य आस्वाद्य ही होगा। कहानी या निबंध में श्री चावड़ा का गद्य कभी-कभार प्रस्तार एवं पल्लव का शौक प्रकट करता था, परंतु जिप्सी की प्रसंगमाला का स्वरूप ही ऐसा है कि उन्हें डोरी पर ही स्थित रहना पड़े। सचमुच प्रसंगमाला ने कर्ता के गद्य को सुग्रथित किया है और उनकी खुशबू भरी शैली को पूरा अवसर प्रदान किया है। कर्ता के दिल में अवरुद्ध काव्य यहाँ कभी-कभार मुक्त रूप से प्रकट हो सका है। झूले का चित्रण या आत्मविलोपन के उत्सव का निरुपण, सितादी नन्नू उस्ताद की वादन कला का आलेखन या मल्हार के चार स्वरूपों का शब्दांकन, काव्य से पिसी हुई गद्य शैली का परिचय करवाना है। ‘संगीत की सरहदों का सूबा तानपूरा’, ‘आदिमियत की खुशबू’, ‘जीवन का इत्र’,‘शिक्षा की अंधता’ जैसी उपमाएँ या शब्दावली ‘अमावस्या के तारे’ का एक उल्लेखनीय लक्षण है। दिल्ली स्टेडियम में, मुआ परिवार नियोजन मातृत्व की चाह रखनेवाली कहकर मानिनी का केवल कानों की सहायता से किया गया वर्णन लेखक की ढीठ अनुभव कुशलता का भी अच्छा परिचय करता है।

ऐसे विविध अनुभवों के मधु संचय का मूल्य भी तो चुकाना पड़ा होगा। पर हमें क्या ? हमें तो इत्र से काम है। पत्तियों पर क्या बीती वे तो वही जानें। जीवन में शब्द की सहायता से भी किंचित् सौंदर्य प्रकट करना भी कम कृतार्थता नहीं है। रोम्या रोलाँ ने कहीं पर कहा है-‘हम तो हैं माटी का पिंड, कला तो है उसमें से प्रस्फुटित सुंदर फूल।’
स्वानुभवों को कला का आकार देकर जीवन के सौंदर्य को प्रकट करनेवाले चुटकुले, प्रसंग, चरित्र, कथाओं को प्रस्तुत करने के इस प्रकार के प्रयत्न अन्य, विशेष रूप से विदेशी, भाषाओं के साहित्य में दृष्टिगट होते हैं। हमारे यहाँ भी ऐसी कोशिश की जा रही है। परंतु अपनी अंतर अभिव्यक्ति की सहज सवारी के रूप में श्री चावड़ा की तरह शायद ही किसी लेखक ने इस स्वरूप को बड़े पैमाने पर आजमाया हो। सूक्ष्म सौंदर्य सूझ के कारण इस साहित्य स्वरूप को कला की कक्षा तक पहुँचाने की संभावनाओं को भी श्री चावड़ा की लेखनी ने भरपूर विकसित किया है। फलस्वरूप गुजरात को एक मन में समा जाए ऐसी जीवन की मधुर एवं मत्त खुशबू भरी पुस्तक प्राप्त हुई है।
-उमाशंकर जोशी

माँ

बाबूजी जब भी गाँव से बाहर जाते, माँ बहुत उदास रहती और शायद इसीलिए या पता नहीं क्यों; लेकिन अनिवार्य न हो तो बाबूजी क्वचित् ही गाँव से बाहर जाते। एक दिन सूरत से तार आया, जिसमें गुरु महाराज ने बाबूजी को तुरंत ही सूरत पहुँचने का आदेश दिया था। उन दिनों तार का आना अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंग माना जाता था। पूरे मुहल्ले में बात फैल गई कि हमारे यहाँ तार आया है। धीरे-धीरे घर पर पूछताछ करनेवालों की संख्या बढ़ती गई। एक के बाद एक लोगों का आना-जाना जारी रहा; लेकिन कोई बुरी खबर नहीं थी, इसलिए वातावरण में कौतूहल एवं उत्साह था। पैंतीस वर्ष पहले का वह जमाना। सूरत, अहमदाबाद दो या पाँच साल में एकाध बार जाना होता और बंबई, कलकत्ता जाना यानी विदेश जाने जितना कठिन और दुर्लभ माना जाता।

इसलिए बाबूजी की यात्रा की तैयारी करने के लिए बड़ी मौसी और मामी भी माँ की मदद के लिए आ पहुँचीं। पार्वती बूआ पीतल की डिबिया में बेसन के चार लड्डू ले आईं। बाबूजी को पाथेय देने की आधी समस्या तो बूआ ने ही सुलझा दी। बिस्तर के लिए मामा अपने घर से छोटी सी नई दरी ले आए। धोबी लल्लू काका चार दिन बाद देनेवाले बाबूजी के कपड़े आज ही खासतौर पर इस्तरी करके ले आए। शाम को भजन गाए गए। रात को खाने के बाद लालटेन के उजाले में पसोतम चाचा ने बाबूजी की हजामत बनवा दी। बाबूजी आधी रात की लोकल गाड़ी से सूरत जानेवाले थे। देर रात को स्टेशन जाने के लिए कोई साधन नहीं मिलता, इसलिए दस बजे निकलने का तय हुआ। साढ़े नौ बजे तो मामा घोड़ागाड़ी बुलाने के लिए लहेरीपुरा गए। वहाँ हमारी पहचानवाले मुसलिम स्वजन मलंग चाचा की गाड़ी खड़ी थी। मामा ने बताया तो मलंग चाचा गाड़ी लेकर आ पहुँचे। उन्होंने खुद ग्यारह बजे तक गप्पें मारकर बाबूजी की विदाई के विषाद का बोझ कम कर दिया। परंतु गाड़ी निकल जाने के बाद सब्र का बाँध टूट गया। माँ के रुके हुए आँसू टपकने लगे। मौसी, मामी और बुआ-सबने माँ को आश्वासन दिया और आधी रात को सबने विदा ली। हम भी लेटे। जब भी माँ मुझे अधिक सहलातीं और प्यार करतीं, तब हमेशा मैं उसे दुःखी और अस्वस्थ पाता। आज भी माँ मुझे वैसा ही प्यार करने लगीं। प्यार करते-करते सिसकती रहीं। अतः माँ को शांत करने के लिए मैंने उन्हें सहलाना शुरू किया, लेकिन उसका असर हुआ और वह रो पड़ीं। उस समय मेरी उम्र बारह वर्ष की रही होगी। माँ मुझे बहुत प्यारी थीं। बाबूजी के प्रति अपार सद्भाव था, लेकिन कभी-कभी उनसे डर लगता था; परंतु माँ से तो निर्भयता का वरदान पाया था। मैं माँ के पहलू में छिप करके पल्लू से उनके आँसू पोंछने लगा। जैसे-जैसे पोंछता गया, आँसू और बहते गए। अंत में मेरा भी दिल भर आया। माँ के आँसू देखकर अधीर बनी हुई मेरी आँखें छलछला उठीं। मेरी रोती हुई आँखें देखकर माँ के आँसू अपने आप थम गए। माँ पल्लू से मेरी आँखें पोंछने लगीं। इस दौरान माँ एक भी शब्द बोल नहीं सकीं, मुझसे तो बोला ही नहीं गया।

आखिर माँ ही बोलीं। उनकी आवाज में रुदन की नमी थी।‘‘बेटा, क्या मैं तुम्हें बहुत प्यारी लगती हूँ ?’’ उनके उत्तर में मेरी आँसू भरी आँखें एकटक उसे देखती रहीं। उसमें निहित उत्तर देखकर उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारे बाबूजी को भी मैं उतना ही चाहती हूँ, इसलिए जब वे गाँव से बाहर जाते हैं तब मैं उदास हो जाती हूँ; लेकिन इस बार तो मैं अपने आपको रोक ही नहीं सकी। क्या पता, गुरु महाराज ने तार देकर क्यों बुलाया है ? चलो, अब सो जाएँ।’’ और इस तरह बातें करते-करते एक-दूसरे को दिलासा देते हुए हम सो गए।

पाँचवें दिन बाबूजी आए तब तक माँ उदास ही थीं, लेकिन उन्हें देखते ही उनकी आँखों में जिंदगी उमड़ पड़ी। उदासी पर आनंद का सैलाब उमड़ गया, मैं, उनके गले लग गया। पवन गति से यह समाचार फैल गया। स्वजन एवं रिश्तेदारों का ताँता लग गया। हमारे घर में जहाँ खालीपन लुका-छिपी कर रहा था, वहाँ फिर से जिंदगी की हिना की महक रच-बस गई। सबको विदा करके हम तीनों ने एक साथ खाना खाया। मैं हमेशा बाबूजी के पास अलग बिस्तर पर सोता था। हम दोनों के सामने माँ का बिस्तर होता था। रात को प्रार्थना करके हम सो गए। देर रात को माँ की सिसकियाँ सुनकर मेरी नींद खुल गई। देखा तो माँ फूट-फूटकर रो रही थीं। बिस्तर पर बैठे हुए धीरे-धीरे पास जाकर मैं माँ के पहलू में दुबक गया। बाबूजी को मैंने इतना अधिक बेचैन शायद ही कभी देखा था। इसलिए माँ की गोद में से सरककर मैं बाबूजी के पास जाकर बैठ गया। वे मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे। उनकी आवाज में अस्वस्थता थी। माँ से उन्होंने कहा, ‘‘आप स्वीकृति देंगी तभी मुझसे सूरत की गादी (गद्दी) के लिए हामी भरी जाएगी। गुरु महाराज ने कहा है कि नमर्दा की सहमति मिलने पर ही आपका संन्यास सार्थक होगा।’’

‘‘आपको गादी देने की गुरु महाराज की इच्छा है, इसका शक तो मुझे कभी हो गया था जब वे पिछली बार यहाँ आए थे। नारायणदास के बताने पर तो मैंने मजाक ही समझा था। तभी तो मैंने आपसे पूछ लिया था। आपने मना कर दिया था। फिर भी आपके मन की दुविधा तो उस वक्त भी समझ में आ रही थी। लेकिन जयरामदास को सूरत की गादी देने की बात फैली हुई थी, इसलिए मैंने अपने मन को मना लिया था; परंतु तार के आते ही मेरे मन के उस शक की ज्वाला भड़क उठी।’’ माँ की सिसकियाँ जारी थीं।

‘‘परंतु देखिए, ‘‘बाबूजी की वाणी में भी बेचैनी थी। ‘‘गुरु महाराज जयरामदास को दीक्षा देना नहीं चाहते। उन्होंने बताया कि तुम्हारे परिवार का त्याग ऊँचा है। तुम्हारे पिताजी के दान को शोभान्वित करना हो, मंदिर की प्रतिष्ठा को सहेजना हो और निरांत संप्रदाय को जीवित रखना हो तो तुम्हें गादी स्वीकार करना चाहिए।’’
माँ का रोना बंद हो गया। आँसू आँखों में अटक गए। उनकी आवाज में कुछ जान आई-‘‘देखिए, आपकी आत्मा के कल्याण के बीच में आने से मेरा धर्म लजाएगा, इससे तो हमारे माथे पर कलंक लगेगा।’’

‘‘दीक्षा लेने को कलंक कौन कहेगा ? मैं दुःख या निराशा से ऊबकर थोड़े ही गादी स्वीकार करने जा रहा हूँ। संसार के प्रति कायरता दिखाकर संन्यास लेना कलंक माना जाएगा। मैं तो सुखी जीव हूँ। आपकी सहमति से गादी स्वीकार करना चाहता हूँ। यदि आप मना कर देंगी तो हमें गादी नहीं चाहिए।’’ बाबूजी अभी पूर्ण स्वस्थ नहीं हुए थे।
माँ ने कहा, ‘‘मेरे कलंक कहने का मतलब एकदम भिन्न है। मेरा कहना यह है कि लोग तो यही मानेंगे न कि बाप-दादा की जायदाद विरासत में सीधी तरह से नहीं मिली तो साधु बनकर ले ली। बाप ने उदारता से अपनी जायदाद मंदिर को सौंप दी और बेटे ने साधु बनकर उस जायदाद का भोग किया। हमारी तो जायदाद भी गई और इज्जत भी। आपके ऊपर कोई ऐसा शक भी करे तो मैं मर जाऊँ।’’

बाबूजी शांत रहे। उनका हाथ मेरा माथा सहलाता रहा। पास में पड़ी हुई लालटेन की बाती उन्होंने अधिक बढ़ा दी। कमरे में उजाला हो गया। माँ की दृष्टि बाबूजी की आँखों में उतरकर जैसे कुछ खोज रही थी। तब बाबूजी-हमेशा की तरह अपने धीर-गंभीर स्वर में बोले, ‘‘आपने जो कहा, वह तो मेरे ध्यान में आना चाहिए था, परंतु मेरे मन में ऐसी कोई भावना नहीं थी। गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करने की ही एक भावना थी, इसलिए आपकी बात अब समझ में आ रही है। हम कल प्रातः ही तार द्वारा गुरु महाराज के चरणों में मनाही कर देंगे।’’
माँ ने मेरी परवाह किए बिना उठकर बाबूजी के पाँव पकड़ लिये।

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