संस्कृति >> भारतीय संस्कृति के आधार भारतीय संस्कृति के आधारविद्यानिवास मिश्र
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भारतीय संस्कृति पर आधारित पुस्तक
Bhartiya Sanskrati ke Aadhar a hindi book by Vidyanivas Mishra - भारतीय संस्कृति के आधार - विद्यानिवास मिश्र
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं कहूँगा, भारतीय संस्कृति जीवन के रस का तिरस्कार नहीं हैं, नकार नहीं है, पर एक अलग ढंग का स्वीकार है। भारतीय संस्कृति जीवन को केवल भोग्य रुप में ही नहीं देखती है; वह जीवन को भोक्ता के रुप में भी देखती है; बल्कि ठीक-ठीक कहें तो जीवन को भाव के रुप में, अव्यय भाव के रुप में, न चुकनेवाले भाव के रुप में देखती है; अंग-अंग कट जाय, तब भी मैदान न छूटे-ऐसे सूरमा के भाव के रूप में देखती है।
इस जीवन में मृत्यु नहीं होती, होती भी है। तो वह जीवन का पुनर्नवीकरण के रुप में होती है। आनंद क्या भोग में नहीं है, भोग प्रस्तुत करने में नहीं है ? खजुराहो में एक म्रियमाण माँ की मूर्ती देखी थी। वह बच्चे को दूध पिला रही है, शायद अपने रूप की अंतिम बूँद दे रही है।
एकदम कंकाल है, पर चेहरे पर अद्भुत आह्वाद है। सूली के ऊपर सेज बिछाने में क्या मीरा को कम आनंद मिलता है। आनंद क्या इसमें है कि मुझे कुछ मिल गया या इसमें है। कि मैं कहीं खो गया ! यदि मनुष्य के जीवन में चरम आनंद है तो प्यार तो खोना ही है, पाना कहाँ हैं; हाँ, जो है, उससे कुछ अलग होना है; पर वह होना खोने के बिना कब संपन्न होता है।
इस जीवन में मृत्यु नहीं होती, होती भी है। तो वह जीवन का पुनर्नवीकरण के रुप में होती है। आनंद क्या भोग में नहीं है, भोग प्रस्तुत करने में नहीं है ? खजुराहो में एक म्रियमाण माँ की मूर्ती देखी थी। वह बच्चे को दूध पिला रही है, शायद अपने रूप की अंतिम बूँद दे रही है।
एकदम कंकाल है, पर चेहरे पर अद्भुत आह्वाद है। सूली के ऊपर सेज बिछाने में क्या मीरा को कम आनंद मिलता है। आनंद क्या इसमें है कि मुझे कुछ मिल गया या इसमें है। कि मैं कहीं खो गया ! यदि मनुष्य के जीवन में चरम आनंद है तो प्यार तो खोना ही है, पाना कहाँ हैं; हाँ, जो है, उससे कुछ अलग होना है; पर वह होना खोने के बिना कब संपन्न होता है।
भूमिका
संस्कृति पर केंद्रित लेखों का यह संग्रह आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र के उन सरोकारों को रेखांकित करता है, जिनके लिए वे आजीवन कटिबद्ध होकर के उन सरोकारों को रेखाकिंत करता है, जिनके लिए वे आजीवन कटिबद्ध होकर समर्पित रहे। उनके लिए संस्कृति समग्र जीवन के स्पंदन के रूप में रची बसी प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक वस्तुवादी दृष्टि की नजर नहीं लगी है।
संस्कृति इस अर्थ में विलक्षण है कि वह देश काल से जुड़ी भी है और उसका अतिक्रमण भी करती है। अनुभव में बिंधी संस्कृति इस अर्थ में परंपराजीवी है कि वह अतीत और भविष्य के बीच सेतु बनाती चलती है। मनुष्य की रचनाधर्मिता के प्रमाण के रूप में संस्कृति चेतना के नए-नए प्रतिमान गढ़ती है, पर उसके उपादान आस-पास पसरे नए- पुराने भौतिक और वैचारिक स्रोत होते हैं।
पंडितजी ने सजग बौद्धिक निर्भीकता के साथ भारतीय जीवन दृष्टि को उभारने का प्रयास किया है, जो निरंतरता, परिपूरकता परस्पर संबद्धता पर बल देती है। यह दृष्टि व्यक्ति और समष्टि के बीच तालमेल बिठाती है और सर्व की चिंता करती है।
पंडितजी जीवन के स्वाभाविक प्रवाह में मनुष्य और प्रकृति की पूरी साझेदारी देखते हैं, जो यंत्रचलित स्वकेंद्रित आधुनिक मन, जो तोड़कर देखने और खंडित दृष्टिकोण से देखने का आदी हो चला है, के लिए अनबूझ पहेली सरीखी है।
संस्कृति के विभिन्न पक्षों का साक्षात्कार कराते हुए मिश्रजी मिथकों, निजी अनुभवों और शास्त्रीय दृष्टि के साथ-साथ लोक या सामान्य जन के आचार-विचार और मानस के साथ भी जुड़ते हैं।
जीवन में गाँव शहर महानगर और अनेक देशों में रहने और संपर्क रखने से मिश्रजी के विवेचन में एक विशेष प्रकार की व्यापकता और वस्तुनिष्ठता आ जाती है, जो पाठक को सोचने के लिए उद्देलित करती है। इस संग्रह के लेखों से गुजरते हुए हमें आत्मालोचन का आमंत्रण मिलता है
और यह अहसास भी होता है कि हम सांस्कृतिक विरासत को न सँभालते हुए भौतिक और वैचारिक रूप से कितने रीते होते जा रहे हैं। संस्कृत और संस्कृति का तात्त्विक विश्लेषण करते हुए पंडितजी ने हमारे बीच फैले कई भ्रमों को भी तोड़ा है और भारतीय दृष्टि के कई अनछुए पहलुओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
इस संकलन के अंतर्गत कई लेख देवी-देवताओं को संबोधित हैं। आज के जमाने में अज्ञानतावश आमतौर पर हम इनका एक हद तक विकृत अर्थ ही ग्रहण करते हैं। पंडितजी ने ब्रह्मा, लक्ष्मी, सूर्य, गंगा, श्री, शिव की मूल अवधारणाओं को मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया है और पुराणों तथा अन्य आकर-ग्रन्थों में उपलब्ध चिंतन से पुष्ट करते हुए नए अर्थ दिए हैं।
संस्कृति और साहित्य के पारस्परिक संबंध हिंदी और संस्कृत के विपुल रचना-संसार के आलोक में परखते हुए पंडितजी ने विनम्रता पूर्वक कई स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं, जो भारतीय मानवीय दृष्टि को रूपायित करती हैं, जो भारतीय मानवीय दृष्टि को रूपायित करती हैं।
स्व का निरंतर विस्तार और समष्टि के साथ साहचर्य-जिसमें भरोसा हो और जो सबको समावेश करने वाला हो-ऐसे ही विचार हैं, जो इन लेखों में बार-बार उभरते हैं और हमारा ध्यान खींचते हैं। ऐसी अवधारणाओं का चरम उत्कर्ष धर्म की अवधारणा में मिलता है।
बड़े ही सटीक शब्दों में पंडितजी ने धर्म को उन छद्म आवरणों से अलग कर जीवन के स्वभाव के रूप में प्रतिष्ठित किया है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही नहीं अपितु लोक-जीवन के प्रसंगों की सहायता से पंडितजी सहजता से यह दरशाते हैं कि धर्म बाँटता नहीं है, तोड़ता नहीं है, न ही वह विरोध में खेमे खड़े करता है। धर्म की शक्ति ही है सबको
धारण करना।
इस संग्रह में एक लेख आचार्य हाजारी प्रसाद द्विवेदी पर है, जो यह दिखाता है कि अपनी रचना-कर्म में सबको समेटने वाली व्यापक भारतीय दृष्टि को द्विवेदीजी किस तरह प्रयोग में लाते थे। मिश्रजी ने उसे संघिनी-शक्ति कहा है और दरशाया है कि किस तरह व्यापक प्रयोजन के लिए द्विवेदीजी विभिन्न तथ्यों, स्रोत्रों का रचनात्मक उपयोग करते थे, जो एक सीमा तक चमत्कारी लगता है।
इस संग्रह के कई निबंध पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे और कुछ अप्रकाशित थे। इस रूप में प्रस्तुत करने के पहले ही पंडितजी हम सब को अचकचाया छोड़ विदा ले लिये। उनकी रचनाएँ पाठकों तक पहुँचें, इस दृष्टि से हम सभी स्रोत्रों से उन्हें एकत्र कर रहे हैं। भाई डॉ. दयानिधि मिश्र ने बड़े श्रम से इस कार्य का बीड़ा उठाया है। इस संग्रह को तैयार करने में उमाकांत त्रिपाठी तथा अभिलाषा ने विशेष योगदान दिया है, उनका आभार।
संस्कृति इस अर्थ में विलक्षण है कि वह देश काल से जुड़ी भी है और उसका अतिक्रमण भी करती है। अनुभव में बिंधी संस्कृति इस अर्थ में परंपराजीवी है कि वह अतीत और भविष्य के बीच सेतु बनाती चलती है। मनुष्य की रचनाधर्मिता के प्रमाण के रूप में संस्कृति चेतना के नए-नए प्रतिमान गढ़ती है, पर उसके उपादान आस-पास पसरे नए- पुराने भौतिक और वैचारिक स्रोत होते हैं।
पंडितजी ने सजग बौद्धिक निर्भीकता के साथ भारतीय जीवन दृष्टि को उभारने का प्रयास किया है, जो निरंतरता, परिपूरकता परस्पर संबद्धता पर बल देती है। यह दृष्टि व्यक्ति और समष्टि के बीच तालमेल बिठाती है और सर्व की चिंता करती है।
पंडितजी जीवन के स्वाभाविक प्रवाह में मनुष्य और प्रकृति की पूरी साझेदारी देखते हैं, जो यंत्रचलित स्वकेंद्रित आधुनिक मन, जो तोड़कर देखने और खंडित दृष्टिकोण से देखने का आदी हो चला है, के लिए अनबूझ पहेली सरीखी है।
संस्कृति के विभिन्न पक्षों का साक्षात्कार कराते हुए मिश्रजी मिथकों, निजी अनुभवों और शास्त्रीय दृष्टि के साथ-साथ लोक या सामान्य जन के आचार-विचार और मानस के साथ भी जुड़ते हैं।
जीवन में गाँव शहर महानगर और अनेक देशों में रहने और संपर्क रखने से मिश्रजी के विवेचन में एक विशेष प्रकार की व्यापकता और वस्तुनिष्ठता आ जाती है, जो पाठक को सोचने के लिए उद्देलित करती है। इस संग्रह के लेखों से गुजरते हुए हमें आत्मालोचन का आमंत्रण मिलता है
और यह अहसास भी होता है कि हम सांस्कृतिक विरासत को न सँभालते हुए भौतिक और वैचारिक रूप से कितने रीते होते जा रहे हैं। संस्कृत और संस्कृति का तात्त्विक विश्लेषण करते हुए पंडितजी ने हमारे बीच फैले कई भ्रमों को भी तोड़ा है और भारतीय दृष्टि के कई अनछुए पहलुओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
इस संकलन के अंतर्गत कई लेख देवी-देवताओं को संबोधित हैं। आज के जमाने में अज्ञानतावश आमतौर पर हम इनका एक हद तक विकृत अर्थ ही ग्रहण करते हैं। पंडितजी ने ब्रह्मा, लक्ष्मी, सूर्य, गंगा, श्री, शिव की मूल अवधारणाओं को मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया है और पुराणों तथा अन्य आकर-ग्रन्थों में उपलब्ध चिंतन से पुष्ट करते हुए नए अर्थ दिए हैं।
संस्कृति और साहित्य के पारस्परिक संबंध हिंदी और संस्कृत के विपुल रचना-संसार के आलोक में परखते हुए पंडितजी ने विनम्रता पूर्वक कई स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं, जो भारतीय मानवीय दृष्टि को रूपायित करती हैं, जो भारतीय मानवीय दृष्टि को रूपायित करती हैं।
स्व का निरंतर विस्तार और समष्टि के साथ साहचर्य-जिसमें भरोसा हो और जो सबको समावेश करने वाला हो-ऐसे ही विचार हैं, जो इन लेखों में बार-बार उभरते हैं और हमारा ध्यान खींचते हैं। ऐसी अवधारणाओं का चरम उत्कर्ष धर्म की अवधारणा में मिलता है।
बड़े ही सटीक शब्दों में पंडितजी ने धर्म को उन छद्म आवरणों से अलग कर जीवन के स्वभाव के रूप में प्रतिष्ठित किया है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही नहीं अपितु लोक-जीवन के प्रसंगों की सहायता से पंडितजी सहजता से यह दरशाते हैं कि धर्म बाँटता नहीं है, तोड़ता नहीं है, न ही वह विरोध में खेमे खड़े करता है। धर्म की शक्ति ही है सबको
धारण करना।
इस संग्रह में एक लेख आचार्य हाजारी प्रसाद द्विवेदी पर है, जो यह दिखाता है कि अपनी रचना-कर्म में सबको समेटने वाली व्यापक भारतीय दृष्टि को द्विवेदीजी किस तरह प्रयोग में लाते थे। मिश्रजी ने उसे संघिनी-शक्ति कहा है और दरशाया है कि किस तरह व्यापक प्रयोजन के लिए द्विवेदीजी विभिन्न तथ्यों, स्रोत्रों का रचनात्मक उपयोग करते थे, जो एक सीमा तक चमत्कारी लगता है।
इस संग्रह के कई निबंध पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे और कुछ अप्रकाशित थे। इस रूप में प्रस्तुत करने के पहले ही पंडितजी हम सब को अचकचाया छोड़ विदा ले लिये। उनकी रचनाएँ पाठकों तक पहुँचें, इस दृष्टि से हम सभी स्रोत्रों से उन्हें एकत्र कर रहे हैं। भाई डॉ. दयानिधि मिश्र ने बड़े श्रम से इस कार्य का बीड़ा उठाया है। इस संग्रह को तैयार करने में उमाकांत त्रिपाठी तथा अभिलाषा ने विशेष योगदान दिया है, उनका आभार।
-गिरीश्वर मिश्र
भारतीय संस्कृति के आधार
भारतीय संस्कृति के बारे में बात करना आज बहुत कठिन हो गया है; इसलिए नहीं कि यह अपरिभाषेय है-इसकी परिभाषा की नहीं जा सकती, हालाँकि अपनी जगह वह बात भी सही है-बल्कि इसलिए कि इसका सही चेहरा इतने रूप-बिगाड़ आईनों से घिर गया है कि वह खुद के बारे में संशयग्रस्त हो उठा है। भारतीय संस्कृति को इन आईनों ने, इन विकृति-दर्पणों ने इसका कोई-न-कोई आयाम दबा दिया है। किसी ने इसकी लंबाई पर बल दिया है और इसे आध्यात्मिकता की जिराफी लकीर बना दिया, किसी ने इसकी सामासिकता पर बल दिया और इसे एकदम बौनी हथिनी बना दिया। इस स्थिति में जरूरी हो जाता है कि दर्पणों के घेरे में व्याख्याओं से सताई संस्कृति को पहले मुक्त किया जाय, तब इसके बारे में कोई बात शुरू की जाय।
भारतीय संस्कृति भौगोलिक अर्थ में या राजनीतिक-भौगोलिक अर्थ में विशेष रूप से भारतीय नहीं है। वह वैचारिक रूप से भारतीय है। भारत के सभी निवासी इसको स्वीकार करते हैं, यह भी नहीं है; केवल भारत के निवासी ही स्वीकार करते हैं, यह भी नहीं है। भारतीय संस्कृति भारतीय है तो वैचारिक अर्थ में और इसके साझीदार हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध : सभी हो सकते हैं-पूरे नहीं तो आधे ही सही; परन्तु इसकी पूरी विरासत किसी एक समुदाय या व्यक्ति को नहीं मिली।
‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदासजी ने भरत के बारे में तत्त्वज्ञानी जनक के मुँह से कहलवाया है-
भारतीय संस्कृति भौगोलिक अर्थ में या राजनीतिक-भौगोलिक अर्थ में विशेष रूप से भारतीय नहीं है। वह वैचारिक रूप से भारतीय है। भारत के सभी निवासी इसको स्वीकार करते हैं, यह भी नहीं है; केवल भारत के निवासी ही स्वीकार करते हैं, यह भी नहीं है। भारतीय संस्कृति भारतीय है तो वैचारिक अर्थ में और इसके साझीदार हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध : सभी हो सकते हैं-पूरे नहीं तो आधे ही सही; परन्तु इसकी पूरी विरासत किसी एक समुदाय या व्यक्ति को नहीं मिली।
‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदासजी ने भरत के बारे में तत्त्वज्ञानी जनक के मुँह से कहलवाया है-
धरम राजनय ब्रह्म बिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोर भरत महिमाही। कहहि काह छल छुवति न छाँही।।
सो मति मोर भरत महिमाही। कहहि काह छल छुवति न छाँही।।
‘मेरी गति धर्म, राजनीति और ब्रह्मविद्या में थोड़ी-बहुत है; पर जब भरत को जाँचने चलता हूँ तो लगता है, मैं उनकी परछाईं भी नहीं छू पाऊँगा।’ आगे चलकर फिर जनक ने समाधान किया-
भरत महामहिमा सुनु रानी। जानहिं राम न सकहिं बखानी।।
भरत सरिस को राम सनेही। जग जपु रामु रामु
जपु जेही।।
भरत सरिस को राम सनेही। जग जपु रामु रामु
जपु जेही।।
- ‘भरत की महिमा बस राम जानते हैं; पर उनसे भी व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो वे भी व्याख्या नहीं कर पाएँगे। भरत राम के स्नेही हैं। जिस घट में आकाश भर जाए, उस घट के बारे में आकाश क्या कहेगा ? सारा संसार राम को जपता है और राम भरत को जपते हैं।’ अब कोई टोक सकता है कि कथावाचकी मुद्रा छोड़िए, विषय पर आइए। भरत और भारतीय संस्कृति में क्या संबंध है, जो भरत की चर्चा शुरू करके विषयांतर कर रहे हैं।
मेरा उत्तर यह होगा कि भरत से भारतीय संस्कृति का वर्णात्मक और अर्थात्मक दोनों प्रकार का घनिष्ठ संबंध है। भारतीय संस्कृति विशालता के लिए निश्शेष समर्पण है, भूमा की सतत साधना है, वह निरंतर विरेचन है नए संभरण के लिए। विशालता उसकी व्याख्या नहीं है।
हाँ, भारतीय संस्कृति विशालता की पहचान जरूर है- इसी प्रकार जिस प्रकार राम भरत को जानते हैं। भरत की व्याख्या नहीं कर सकते, राम जानते हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव भरत को देखकर हो जाता है, क्योंकि राम का स्नेह उनकी साँस-साँस में बजता रहता है।
भरत को देखकर राम की सच्ची प्रतीति होती है। राम राममयता की साधना में ही पहचाने जा सकते हैं, विशालता विशालता के लिए जागरूक और एकाग्र समाधि में ही पहचानी जा सकती है। भारतीय संस्कृति को उसके अतीत से नहीं, उसके वर्तमान से पहचानना अधिक जरूरी है।
विशालता के प्रवाह में निश्शेष समर्पण का जब कोई समन्वय रहता है तो मुझे बहुत भय लगता है। लोग कहते हैं, सामाजिक संस्कृति है। एक दह तक यह बात स्वीकार की जा सकती है। यह तीनों का क्या, सबका अतिक्रमण करती है, कबीर के शब्दों में - ‘‘हिन्दू तुरुक दोऊ मरम न जाना’’। पर यह कहना कि इसमें इतना फीसदी हिंदू तत्त्व है, इतना फीसदी इसलाम है, इतना फीसदी बौद्ध तत्त्व है,
इतना फीसदी जैन तत्त्व है, इतना फीसदी ईसाई तत्त्व है, इतना फीसदी मार्क्स तत्त्व है- इन सबका योग, इन सबका समास भारतीय संस्कृति हैं, बहुत गलत है। कोई जान-बूझकर कहे तो लगता है, इसमें कोई बड़ी मक्कारी है। बिना जाने कहे तो लगता है,
उसे समास का अर्थ नहीं मालूम। समास व्याकरण में योग नहीं होता, समास अपने घटकों से एकदम अलग होता है, इसीलिए श्यामपट्ट हमेशा श्यामपट्ट नहीं होता। स्कूलों में हरा श्यामपट्ट अधिक चल रहा है। समास का प्रयोजन है घटकों की भूमिका को कम करना, गौण बनाना। भारतीय संस्कृति ने विशालता का अवगाहन करते समय हर विचारधारा की उस शक्ति को ग्रहण किया है
जो इस विशालता के लिए प्राणों में आकुलता भर सके, पर उसे ग्रहण करके अपने अभिप्राय का साधक बनाती रही है, वह शक्ति भारतीय संस्कृति की शक्ति में समा गई है, वह अलग दिख नहीं सकती। भारतीय संस्कृति ने किसी विचारधारा के आगे समर्पण नहीं किया, न उसने किसी वस्तु को इस दृष्टि से आत्मसात् किया कि उस वस्तु का नामोनिशान न रहे। उने विविधता को, अनेकरूपता के बराबर आदर दिया, प्रश्रय दिया है।
कहीं भी उसने अपने को आरोपित नहीं किया है। हाँ, उसने प्रत्यारोपण जरूर किए हैं, इस संस्कृति की कई मौलिक उपलब्धियाँ हैं। इसने सरकंडे को गन्ने के रूप में प्रत्यारोपण के द्वारा विकसित किया, इसने सरकंडे में रस भरा, इसने जंगली धान्य को शालि के रूप में विकसित किया, उसमें अद्भुत गंध भरी, इसने जंगली आम की कलम करके सहकार का विकास किया है, उसमें गंध और रस दोनों भरा। वैचारिक स्तर पर भी इसने अनेक विचारों का, भावों का प्रत्यारोपण नई-नई जमीन पर किया और वे भाव विचार अधिक विकसित हुए हैं।
मैं यहाँ एक उदाहरण देना चाहूँगा बाली का। बाली द्वीप में पितृपूजा को नई जमीन मिली और पितृपूजा का महान् अनुष्ठान अंत्येष्टि का प्रयोजन बड़ा हो गया, पितृपूजा पितरों से चिपकाव न रहकर पितरों के चिपकाव से मुक्त हो गई। दूसरा उदाहरण चंपा का दूँगा।
चंपा (आज के मध्य वियतनाम) में कौंडिन्य गोत्र के कोई भारतीय पहुँचे। उन्होंने एक स्थानीय कन्या नागी से विवाह किया, वहीं के हो गए। उनके साथ रामायण-महाभारत वहीं के हो गए। रामायण महाभारत के आख्यानों के रूपांतर भी हो गए। कौंडिन्य के वंशजों ने अपनी मूल भूमि को न मोतियों की पेटियाँ भेजीं, न स्वर्णराशि। उन्होंने अपने को चंपा में प्रतिरोपित कर लिया।
चंपा के मूल निवासियों की कला, उस कला के अभिप्राय उन्होंने नष्ट नहीं किए, उन्हें नई जमीन दी और जब पश्चिम के समीक्षक भी चीनी प्रभाव की वियतनामी कला से इस कला की तुलना करते हैं तो उन्हें स्पष्ट पता लग जाता है कि चंपा की कला का व्यक्तित्व भारतीय भाव से उभरा है और चीनी प्रभाव ने स्थानीय कला के ऊपर अपने को आरोपित करके उसे दबा दिया है।
मेरा उत्तर यह होगा कि भरत से भारतीय संस्कृति का वर्णात्मक और अर्थात्मक दोनों प्रकार का घनिष्ठ संबंध है। भारतीय संस्कृति विशालता के लिए निश्शेष समर्पण है, भूमा की सतत साधना है, वह निरंतर विरेचन है नए संभरण के लिए। विशालता उसकी व्याख्या नहीं है।
हाँ, भारतीय संस्कृति विशालता की पहचान जरूर है- इसी प्रकार जिस प्रकार राम भरत को जानते हैं। भरत की व्याख्या नहीं कर सकते, राम जानते हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव भरत को देखकर हो जाता है, क्योंकि राम का स्नेह उनकी साँस-साँस में बजता रहता है।
भरत को देखकर राम की सच्ची प्रतीति होती है। राम राममयता की साधना में ही पहचाने जा सकते हैं, विशालता विशालता के लिए जागरूक और एकाग्र समाधि में ही पहचानी जा सकती है। भारतीय संस्कृति को उसके अतीत से नहीं, उसके वर्तमान से पहचानना अधिक जरूरी है।
विशालता के प्रवाह में निश्शेष समर्पण का जब कोई समन्वय रहता है तो मुझे बहुत भय लगता है। लोग कहते हैं, सामाजिक संस्कृति है। एक दह तक यह बात स्वीकार की जा सकती है। यह तीनों का क्या, सबका अतिक्रमण करती है, कबीर के शब्दों में - ‘‘हिन्दू तुरुक दोऊ मरम न जाना’’। पर यह कहना कि इसमें इतना फीसदी हिंदू तत्त्व है, इतना फीसदी इसलाम है, इतना फीसदी बौद्ध तत्त्व है,
इतना फीसदी जैन तत्त्व है, इतना फीसदी ईसाई तत्त्व है, इतना फीसदी मार्क्स तत्त्व है- इन सबका योग, इन सबका समास भारतीय संस्कृति हैं, बहुत गलत है। कोई जान-बूझकर कहे तो लगता है, इसमें कोई बड़ी मक्कारी है। बिना जाने कहे तो लगता है,
उसे समास का अर्थ नहीं मालूम। समास व्याकरण में योग नहीं होता, समास अपने घटकों से एकदम अलग होता है, इसीलिए श्यामपट्ट हमेशा श्यामपट्ट नहीं होता। स्कूलों में हरा श्यामपट्ट अधिक चल रहा है। समास का प्रयोजन है घटकों की भूमिका को कम करना, गौण बनाना। भारतीय संस्कृति ने विशालता का अवगाहन करते समय हर विचारधारा की उस शक्ति को ग्रहण किया है
जो इस विशालता के लिए प्राणों में आकुलता भर सके, पर उसे ग्रहण करके अपने अभिप्राय का साधक बनाती रही है, वह शक्ति भारतीय संस्कृति की शक्ति में समा गई है, वह अलग दिख नहीं सकती। भारतीय संस्कृति ने किसी विचारधारा के आगे समर्पण नहीं किया, न उसने किसी वस्तु को इस दृष्टि से आत्मसात् किया कि उस वस्तु का नामोनिशान न रहे। उने विविधता को, अनेकरूपता के बराबर आदर दिया, प्रश्रय दिया है।
कहीं भी उसने अपने को आरोपित नहीं किया है। हाँ, उसने प्रत्यारोपण जरूर किए हैं, इस संस्कृति की कई मौलिक उपलब्धियाँ हैं। इसने सरकंडे को गन्ने के रूप में प्रत्यारोपण के द्वारा विकसित किया, इसने सरकंडे में रस भरा, इसने जंगली धान्य को शालि के रूप में विकसित किया, उसमें अद्भुत गंध भरी, इसने जंगली आम की कलम करके सहकार का विकास किया है, उसमें गंध और रस दोनों भरा। वैचारिक स्तर पर भी इसने अनेक विचारों का, भावों का प्रत्यारोपण नई-नई जमीन पर किया और वे भाव विचार अधिक विकसित हुए हैं।
मैं यहाँ एक उदाहरण देना चाहूँगा बाली का। बाली द्वीप में पितृपूजा को नई जमीन मिली और पितृपूजा का महान् अनुष्ठान अंत्येष्टि का प्रयोजन बड़ा हो गया, पितृपूजा पितरों से चिपकाव न रहकर पितरों के चिपकाव से मुक्त हो गई। दूसरा उदाहरण चंपा का दूँगा।
चंपा (आज के मध्य वियतनाम) में कौंडिन्य गोत्र के कोई भारतीय पहुँचे। उन्होंने एक स्थानीय कन्या नागी से विवाह किया, वहीं के हो गए। उनके साथ रामायण-महाभारत वहीं के हो गए। रामायण महाभारत के आख्यानों के रूपांतर भी हो गए। कौंडिन्य के वंशजों ने अपनी मूल भूमि को न मोतियों की पेटियाँ भेजीं, न स्वर्णराशि। उन्होंने अपने को चंपा में प्रतिरोपित कर लिया।
चंपा के मूल निवासियों की कला, उस कला के अभिप्राय उन्होंने नष्ट नहीं किए, उन्हें नई जमीन दी और जब पश्चिम के समीक्षक भी चीनी प्रभाव की वियतनामी कला से इस कला की तुलना करते हैं तो उन्हें स्पष्ट पता लग जाता है कि चंपा की कला का व्यक्तित्व भारतीय भाव से उभरा है और चीनी प्रभाव ने स्थानीय कला के ऊपर अपने को आरोपित करके उसे दबा दिया है।
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