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इतिहास और राजनीति >> सत्ता के आर-पार

सत्ता के आर-पार

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3306
आईएसबीएन :81-89859-07-2

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आधुनिक युग की राजनीति एवं सत्तापरक लोभ पर आधारित पुस्तक...

Satta Ke Aar Par

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


सत्ता और सेवा, सत्ता और तप, सत्ता और मनीषा इनका परम्पर क्या संबंध है, अनादिकाल से हम इसी प्रश्न से जूझते आ रहे हैं। कितने रुप बदले सत्ता ने। बाहरी अंतर अवश्य दीख पड़ा, पर अपने वास्तविक रुप में वह वैसे ही सुरक्षित रही, जैसे अनादिकाल में थी, अनपढ़ और क्रूर। प्रस्तुत नाटक लिखने का विचार मेरे मन में इन्हीं प्रश्नों से जूझते हुए पैदा हुआ था। जैन वाङ्मय की अनेक कथाओं ने मुझे आकर्षित किया। प्रस्तुत नाटक ऐसी ही कथा का रूपान्तर है भगवान आदिनाथ के दो पुत्र सत्ता के मोह में पड़कर एक-दूसरे को पराभूत करने की भावना ही मानव संस्कृति का अवमूल्यन है। भरत और बाहुबली की यह कहानी तब से आज तक अपने को दोहराती आ रही है। आज सत्ता और सेवा एक-दूसरे के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। लेकिन वे एक-दूसरे का विकल्प हो ही नहीं सकते। सत्ता का लक्ष्य पाना और छीनना है और सेवा का लक्ष्य देना और अपने को विसर्जित करना है।

आधुनिक युग की प्रायः सभी समस्याएँ मूल रूप में अनादिकाल में भी वर्तमान थीं। उनका समाधान खोजने के लिए लोग तब भी वैसे ही व्याकुल रहते थे जैसे आज। तो कैसी प्रगति की हमनें ? कहाँ पहुँचे हम ? ये प्रश्न हमें बार-बार परेशान करते हैं। भले ही उनका वह समाधान न हो सके जो तब हुआ था, पर शब्दों की कारा से मुक्ति पाने को हम आज भी उसी तरह छटपटा रहे हैं। यह छटपटाहट ही मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाती है।

भरत और बाहुबली इसी मुक्ति की चाह के लिए व्याकुल थे और वह तब मिली थी जब वे ‘मैं’ से मुक्ति पा सके थे और मान गये थे कि ‘कौन मैं’ कौंन तू’ सब सबके’ और यह भी अहंकार से मुक्त होकर ही तप पूर्ण होता है और तप के चरणों में झुककर ही सत्ता पवित्र होती है।   

प्रस्तुति


(प्रथम संस्करण से)

‘सत्ता के आर-पार’ का सृजन यशस्वी साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर की लेखिनी से हुआ है, यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि नाटक की कथावस्तु इतनी महत्त्वपूर्ण है कि विष्णु जी इससे आकर्षित हुए और अनेक साहित्यिक व्यस्तताओं के बीच उन्होंने इसके लेखन को प्राथमिकता दी ताकि कर्नाटक में श्रवणबेलगोल तीर्थ की विंध्यगिरि पहाड़ी पर स्थित संसार की सबसे ऊँची और भारतीय कला की भव्यता की प्रतिमान, 57 फुट ऊँची भगवान गोमटेश्वर बाहुबली की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के सहस्त्राब्दी महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर पर 22 फरवरी, 1981 से पहले इसका प्रकाशन हो सके और संभव हो तो इसका मंचीय प्रस्तुतीकरण भी हो।

स्पष्ट है कि ‘सत्ता के आर-पार’ में कथा इन्हीं बाहुबली की है, जो जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में सर्वप्रथम ऋषभदेव, अपर नाम आदिनाथ के द्वितीय पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र थे भरत, जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है। अनेक पुराणों में इस तथ्य का उल्लेख है। बाहुबली और भरत के द्वंद्वयुद्ध की कथा इतनी मार्मिक है कि कहानी के रूप में पढ़ते हुए पाठक को रोमांच हो आता है।
तीर्थंकार ऋषभदेव (आदिनाथ) जब युग के आदि में मानव जाति की सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ आधार दे चुके, समाज को असि (आत्मरक्षा), मसि (लेखन), कृषि, वाणिज्य और विद्या (कलाएँ) आदि में निपुण कर चुके तो आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए-संयम और तप की साधना द्वारा केवल ज्ञान तथा निर्वाण के लिए-वन में चले गए। भरत को अयोध्या का राज्य दिया, बादुबली को पोदनपुर (तक्षशिला के अंचल) का। भरत की आयुधशाला में चक्र-रत्न उत्पन्न हुआ, अर्थात् दिग्विजय के लिए प्रयाण करने का संकेत। चक्रवर्ती का कर्तव्य है कि एकच्छत्र शासन के अंतर्गत देश के अन्य सब क्षेत्रों और राज्यों को संगठित करे। चतुरंगिणी सेना का अपार सागर दिग्विजय के लिए प्रवासित हो चला। आगे-आगे चक्रवर्ती का अप्रतिहत विरोध-संहारक चक्र चलता जाता था। एक-एक करके सब राजा और शासक भरत का चक्रवर्तित्व स्वीकार करके उसके अधीन होते गए। विजय के गर्व से उल्लसित सेना जब अयोध्या वापस आई और परकोट के द्वार में प्रवेश करने लगी तो चक्र आगे बढ़ने से रुक गया। सेना की गति अवरुद्ध हो गई।

दिग्विजय अधूरी रह गई, क्योंकि भरत ने और सबके राज्यों को अपने आधीन कर लिया था, किन्तु बाहुबली और अपने अन्य भाइयों के राज्यों की ओर सेना को उन्मुख नहीं किया था। प्रश्न भी नहीं उठता था, क्योंकि भाई तो भाई हैं। उनका अग्रज जब चक्रवर्ती बने तो वे तो उसके सहयोगी हैं। शासन की व्यवस्था भावना पर नहीं, ठोस अधिकार पर चलती है। चक्र के गतिरोध ने भरत को चिंतित किया, किन्तु केवल एक ही क्षण को, उसने अपने मन को आश्वस्त किया- ‘कोई बात नहीं; यह एक औपचारिक बात ही तो है। मैं भाइयों के पास दूत भेजकर उन्हें दिग्विजय के महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करता हूँ। वे आएँगे ही और चक्रवर्ती भाई को नमस्कार करेंगे ही, बस, चक्र का प्रतिरोध दूर हो जाएगा।’ दूत गए। भरत के अट्ठानवे भाइयों को चक्रवर्ती की पराधीनता स्वीकार नहीं थी। वे पिता तीर्थंकार आदि नाथ की धर्मसभा (समवसरण) में गए और समस्या का समाधान पूछा। तीर्थंकार ने वही कहा जो शाश्वत सत्य है : ‘राजतंत्र और शासन की समस्याएं भौतिक हैं। एक बहुत बड़ा संसार आध्यात्मिकता का है, जिसमें विजय प्राप्त करने के लिए मानवीय विकारों को, राग-द्वेष, क्रोध-मान-माया-लोभ को वश में करना पड़ता है। तुम सब वही मार्ग साधो, जो श्रेयस्कर है।’ वे सब पुत्र मुनिधर्म में दीक्षित हो गए। बचे बाहुबली।

वे न तो तीर्थंकार के पास गए, न मंत्रियों से विशेष परामर्श किया। उनका मन स्पष्ट था कि निमंत्रण अग्रज ने नहीं, एक चक्रवर्ती ने अपनी दिग्विजय को संपन्न कराने के लिए दिलाया है। दूत चतुर था और कूटनीति के तर्कों में निपुण। किन्तु बाहुबली स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए कृत-संकल्प रहे। सो, अंत में दोनों भाइयों की सेनाएँ आमने-सामने आकर टकराने को सन्नद्ध हो गई। कैसी विडंबना ! तीर्थंकार पिता संसार को अंहिसा और संयम का उपदेश दे रहे हैं और उनके दोनों पुत्र विपुल रक्तपात के लिए उन्मादग्रस्त हैं। भरत और बाहुबली के प्रमुख मंत्रियों ने आपस में परामर्श किया और निर्णय किया कि दो व्यक्तियों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में सेनाओं का कोई काम नहीं। दोनों भाई आपस में दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध द्वारा प्रमाणित करें कि कौन विजयी होता है और कौन पराजित। भरत पराक्रमी और प्रतापी थे, किन्तु बाहुबली तो बाहुबली ही थे। वह संसार के प्रथम कामदेव थे। उन्नत और पुष्ट देह, प्रदीप्त नेत्र, वज्र-मुष्टि। तीनों प्रकार की चुनौतियों में बाहुबली जीत गए। उनकी सेना के तुमुल हर्ष-निनाद ने भरत को अवसाद और लज्जा के गर्त में धकेल दिया। हताशा के अंतर्मुहूर्त में उन्होंने बाहुबली पर चक्र चला दिया। चक्र विपक्षी का सिर उतारकर ही संतुष्ट होता है। चक्र द्रुत वेग से उठा, बाहुबली की ओर बढ़ा-जनता के प्राण कंठ में आ गए। एक स्वर में उन्होंने भरत को धिक्कारा। तभी निमिष मात्र में बाहुबली की तीन प्रदक्षिणाएँ चक्र ने कीं और कीलित-सा स्थिर खड़ा हो गया। भरत अपने विक्षुब्ध उन्माद में भूल गए कि दैवी चक्र बंधु-बांधवों का विघात नहीं करता।

अयोध्या के दुर्ग-द्वार पर चक्र कीलिक खड़ा है....यहीं से ‘सत्ता के आर-पार’ का प्रथम दृश्य प्रारंभ होता है.....
आगे की कथा का संकेत करना उसके मर्म की धार को भोथरा करना होगा। इसलिए पाठकों से मेरा अनुरोध है कि इस कृति को पढ़े, मंच-शिल्पी इसे अभिनीत करें और देखें कि मानवीय विकार जीवन के यथार्थ को किस सीमा तक गर्हित कर सकते है....और आत्मबोध का क्षण जिस उन्मेष को जन्म देता है उसकी चरमसिद्धि की मानवीय प्रक्रिया क्या है।
चरम सिद्धि के इस क्षण को शिल्पी अपनी तक्षण-कला के माध्यम से पाषाण के हृदय में किस प्रकार सजीवता प्रदान करता है, विंध्यगिरि पर स्थित बाहुबली की मूर्ति एक हजार वर्ष से इसका निर्देशन प्रस्तुत कर रही है।
श्री विष्णु प्रभाकर ने भरत-बाहुबली की कथा के भौतिक और आध्यात्मिक आयामों को प्रभावकारी ढंग से उभारा है। यह जानकारी सिद्ध लेखिनी का चमत्कार ही है। हिन्दी में कहाँ है ऐसा नाटक, जिसके संवादों की अपरिहार्य व्याख्यात्मक शैली कथ्य के मर्म का उद्धाटन इतनी रसात्मकता से करती हो।

विष्णु जी की साहित्यिक प्रतिभा अनेक अवसरों पर सार्वजनिक रूप से अभिनंदित हो चुकी है। कहानी, उपन्यास, रेखाचित्र, नाटक, ललित गद्य-सभी विधाओं पर उनका समान अधिकार है।
बाँग्ला भाषा के महान् कथा-शिल्पी शरतचन्द्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखकर विष्णु जी ने साहित्यिक अध्यवसाय और उपलब्धि का जो मापदंड स्थापित किया है वह सभी भाषाओं के लिए अनुकरणीय बन गया है।
हमें विश्वास हैं कि ‘सत्ता के आर-पार’ का सृजन उनके यश का संवर्द्धन करेगा और भारतीय साहित्य के लिए श्लाघनीय अवदान माना जाएगा।

26 जनवरी, 1981

-लक्ष्मीचन्द्र जैन

भूमिका


वैदिक और जैन साहित्य दोनों में मानव और उसकी संस्कृति के विकास को रेखांकित करती असंख्य कथाएँ गुथी हुई हैं। आवश्यकता उनके सही अर्थ समझकर उनकी, आधुनिक संदर्भ में, नए सिरे से व्याख्या करने की है। पुराण और इतिहास को सृजन का आधार बनाया जाए या नहीं, इस पर दो मत हैं। एक दल गड़े मुर्दे उखाड़ने में विश्वास नहीं करता। दूसरे पक्ष का कहना है कि हम अपने को महान और गौरवशाली प्रामाणित करने के लिए भूतकाल की ओर नहीं लौटना चाहते, बल्कि अपनी परंपरा और विकास-क्रम को समझने के लिए नाना रूपों और नाना विधाओं के माध्यम से उसका अध्ययन प्रस्तुत करना चाहते हैं। व्यक्ति समाज या चिंतन कोई भी अपनी जड़ से कटकर जीवित नहीं रह सकता, सार्थक भूमिका निभाने की बात तो दूर है। जड़ को पहचानने का प्रयत्न पीछे लौटना नहीं है।

उदाहरण के लिए वैदिक युग की नारी अपाला, पौराणिक और महाकाव्य युग की सीता, कुंती और द्रौपदी से लेकर आज तक की नारी की विकास-यात्रा में वह कितनी बदली, यह अध्ययन करना पीछे लौटना नहीं है, बल्कि इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना है कि क्या आदिकाल की नारी और आधुनिक काल की नारी की स्थिति में चिंतन और व्यवहार की दृष्टि से कोई गुणात्मक अंतर आया है ?
छूत-छात, जाति-पाँति और सत्ता की समस्या भी ऐसी ही समस्याएँ हैं। पुराण और इतिहास को एक तरफ रखकर इनका समाधान नहीं खोजा जा सकता। हर समस्या का निराकरण उसके मूल में छिपा रहता है।<

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