जीवनी/आत्मकथा >> आनंदमूर्ति श्री श्री रविशंकर आनंदमूर्ति श्री श्री रविशंकरफ्रांस्वा गोतिये
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जीवन के आनंद का बोध करानेवाले आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की प्रामाणिक जीवनगाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कौतुहल प्रिय भोले-भाले से, इतने-मुद्रित, इतने पारंगत, सदैव मुसकराते
रहनेवाले वे गुरु वास्तव में कौन हैं ? जिनका लक्ष्य है ‘जो उनके
सम्पर्क में आए’ सदा मुसकराते रहने का प्रसाद पाए।’ वे हैं
गुरुजी श्री श्री रविशंकर-विश्व की सबसे बड़ी सामाजिक-आध्यात्मिक
गैर-सरकारी संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक, जिसके केंद्र विश्व में
140 से भी अधिक देशों में कार्यरत हैं। यह पुस्तक उनके प्रेरणाप्रद जीवन
की अंतरंग झलकियाँ प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में उनकी संस्था, उनके
द्वारा निर्मित ‘कल्याणकारी श्वास कार्यशाला’ और चमत्कारी एवं
रुपांतकारी ‘सुदर्शन क्रिया’ का परिचय है। और एक ऐसे व्यक्ति
का परिचय है, जो किसी धर्म का प्रचार नहीं करता वरन् अपने ही आनंदस्वरुप
व्यक्तित्व से वास्तविक आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाता है-‘सदा आनंदित
रहना’।
बंगलौर से बोस्निया तक, सूरीनाम से दक्षिण अफ्रीका तक, तमिलनाडु से त्रिनिदाद तक-सर्वत्र उनकी उपस्थिति, प्रेम-प्रसाद और विभिन्न विधियों से अनगिनत लोगों के जीवन में रूपांतरण हुआ है। गुरुजी ने संयुक्त राष्ट्र, विश्व आर्थिक मंच और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के होनहार युवकों को संबोधित किया है; संघर्ष और कलह से पीड़ित संसार में प्रेम का संदेश पुनरुज्जीवित किया है।
जीवन के आनंद का बोध करानेवाले आध्यात्मिक गुरु जी श्री श्री रविशंकर की प्रामाणिक जीवनगाथा।
बंगलौर से बोस्निया तक, सूरीनाम से दक्षिण अफ्रीका तक, तमिलनाडु से त्रिनिदाद तक-सर्वत्र उनकी उपस्थिति, प्रेम-प्रसाद और विभिन्न विधियों से अनगिनत लोगों के जीवन में रूपांतरण हुआ है। गुरुजी ने संयुक्त राष्ट्र, विश्व आर्थिक मंच और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के होनहार युवकों को संबोधित किया है; संघर्ष और कलह से पीड़ित संसार में प्रेम का संदेश पुनरुज्जीवित किया है।
जीवन के आनंद का बोध करानेवाले आध्यात्मिक गुरु जी श्री श्री रविशंकर की प्रामाणिक जीवनगाथा।
प्राक्कथन
आज साधाणतया यह मान्यता है कि आधुनिक ज्ञान और पुरातन परंपराएँ परस्पर एक
दूसरे के विरोधी हैं। ऐसे में परम पूज्य श्री श्री रविशंकरजी जैसे
व्यक्ति, जिन्होंने अपनी वैज्ञानिक शिक्षा वैदिक संस्कारों के मिश्रण से
एक राह दिखाई है जो समकालिक आवश्कताओं के प्रासंगिक है। उनका
‘दि
आर्ट ऑफ लिविंग’ (जीने की कला) इसी योग की प्रस्तुति है। जीवन
को
उत्सव बनाने और सेवा में रत हो जाने हेतु प्रत्येक पृष्ठभूमि,
धर्म
एवं संस्कृति के लोगों को प्रेरित करने की उनकी कटिबद्धता
प्रशंसनीय
है। मुझे उनसे कई बार मिलने एवं उनके आश्रम में जाने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ है।
परम पूज्य श्री श्री रविशंकरजी पर लिखी इस पुस्तक के माध्यम से फ्रांस्वा गोतिए भारत के प्रति चिरकालिक व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक रुझान को अभिव्क्ति मिली है। मुझे विश्वास है कि मानव मूल्यों को अपने जीवन में जगाने के इच्छुक पाठकों को इस पुस्तक से बहुत प्रेरणा मिलेगी और उनका मार्ग भी प्रशस्त होगा।
परम पूज्य श्री श्री रविशंकरजी पर लिखी इस पुस्तक के माध्यम से फ्रांस्वा गोतिए भारत के प्रति चिरकालिक व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक रुझान को अभिव्क्ति मिली है। मुझे विश्वास है कि मानव मूल्यों को अपने जीवन में जगाने के इच्छुक पाठकों को इस पुस्तक से बहुत प्रेरणा मिलेगी और उनका मार्ग भी प्रशस्त होगा।
-परम पावन दलाई लामा
प्रस्तावना
बनारस और नौका विहार
नवंबर की सुहानी रात, गुलाबी सी ठंडक कड़कड़ाती सर्दी नहीं। हल्की सी धूप
में दूर से दीयों का प्रकाश बड़ा रहस्यमय लग रहा था। काशी तो सो चुकी थी ।
कुछ छिटपुट साधु छोटी-मोटी आग से आस-पास झुंड़ बनाकर बैठे हुए थे, अन्यथा
किनारे सुनशान थे। दो दुबले से खेवैये हमारी नाव खेकर गंगा के बीचोबीच ले
आए। यहाँ नाव धारा के सहारे धीरे-धीरे तैरने लगी। सघन सन्नाटा, सन्नाटे को
भेदती नौका टकराती लहरों की आवाज।
एक साधक धीमे से ‘ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय’ गुनगुनाने लगा, जो संभवतः काशी नगरों से भी पुरातन है। फिर सभी साथ हो लिए-बड़ी कोमलता से ताकि छाई मौन की खुमारी खंडित न हो। श्री श्री ने आँखे मूँद ली। पूर्णतया अंतर्ध्यानस्थ किसी अन्य धाम में स्थिर उनकी मुद्रा ने सभी को आत्मविभोर कर दिया। वह एक अद्वितीय अनुभव था। शांत एवं सौम्य परिवेश-एक कोने में एक लड़की निःशब्द आनंदाश्रु बहा हरी थी। एक वृद्ध दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थनारत मन के अहोभावों की मूक अभिव्यक्ति कर रहा था। सभी अचंभित से, आंतरिक आनंद की कांति से दमक रहे थे। और मैं, मेरा सतत वाचाल मन शांत हो गया, मेरी आत्मा सातवें आकाश पर उड़ रही थी। मैं उस अलौकिक क्षण को जी रहा था, पी रहा था। बाद में होटल लौटते उन क्षणों की अनुमोल अनुभूति हृदय में ऐसे सँजोए कि कहीं खो न जाए-मैं अवलोकन कर रहा था कि यह सब कब और कैसे शुरू हुआ !
स्वयं में परमात्मा के दर्शन ध्यान है।
दूसरे में परमात्मा के दर्शन प्रेम है।
सब में परमात्मा के दर्शन ज्ञान है।
मैं लगभग पच्चीस वर्षों से भारत में रह रहा हूँ। मैं सन् 1969 में भारत पहुँचा, तब से 1973 तक-जब पांडिचेरी की ‘माँ’ का देहावसान हुआ-मुझे कई बार उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे जीवन के सात उत्कृष्ठ वर्ष पांडिचेरी में श्री अरविंद की भव्य जीवन उपस्थिति और ज्ञान (जो आश्रम में सर्वत्र व्याप्त है) में पूर्णतया सिक्त होते बीते। तत्पश्चात् मैं ऑरोविल में आ गया। तब से यहीं मेरा निवास स्थान है। मैं एक पत्रकार और जिज्ञासु-भारत की चारों दिशाओं में घूमा। धीरे-धीरे भारत की अतल गहराई और सौंदर्य का उद्घाटन होता गया। मेरी भारत माँ ने मुझे अतुलनीय संपदा के साथ-साथ एक सुंदर और प्रेममयी पत्नी-नम्रता प्रणय भी-दी।
तथापि जीवन में किसी अभाव की कसोट मन में बनी रहती थी। ‘आखिर यह चाह क्या ?’ मैं हैरान था। मैं छह वर्ष का था जब एक मेले में भारी झूले से, जिसमें दस बच्चे सट कर बैठ जाते हैं, मेरी नाक पर चोट लगी। इस चोट से नाक के अंदर की हड्डी को –जो दोनों नासिकाओं को अलग करती है-बुरी तरह क्षति पहुँची और इसी कारण मेरी श्वास-प्रश्वास क्रिया भी क्षतिग्रस्त हो गई। तब सो दो बार ऑपरेशन भी हुआ, पर कोई लाभ नहीं हुआ। मैं फ्रांस के सबसे प्रचलित दैनिक पत्र ‘ली फिगारो’ के संवाददाता के रूप में दक्षिण एशिया में नियुक्त था। प्रायः कंप्यूटर पर काम करते मुझे लगता कि मेरी श्वास-प्रश्वास क्रिया बहुत उथली है। वास्तव में मुझे भले देर से ही-यह आभास होने लगा कि मेरी साँस कभी ठीक से चली ही नहीं। अंततोगत्वा मेरे शरीर पर इसका कुप्रभाव पड़ेगा। परन्तु इसका उपाय क्या करूँ, यह पता नहीं था।
सन् 1994 की ग्रीष्म ऋतु। एक दिन मैं पेरिस में अपने मित्र कृष्णकांत के साथ चाय पी रहा था और मेरी साँस में साँय-साँय की आवाज आ रही थी। तभी उसने सुझाव दिया-‘बंगलौर में आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र में क्यों नहीं जाते ? वहाँ कुछ प्राणायाम सीखो और श्री श्री रविशंकरजी द्वारा निर्मित एक विशिष्ट श्वास विधि ‘सुदर्शन क्रिया’ करो, तुम्हें लाभ होगा’ संदेही और दोष-दृष्टियुक्त मेरा व्यक्तित्व (छह वर्ष की आयु से इसी श्वास में रहने की आदत) बड़े बे-मन से मैंने पता लेकर रख लिया कि संभवतः किसी दिन यह भी देख लूँगा। और फिर इस चर्चा को बिलकुल भूल गया। किंतु कुछ महीनों बाद एक अजीब सी भावदशा अकसर चेताती कि मुझे वहाँ जाना चाहिए। मेरा तार्किक मन फिर भी यह टालता रहा; पर अंत में मैंने छलांग लगाने का और अपनी पत्नी नम्रता के साथ बंगलौर जाने का निर्णय कर लिया। मन में विचार उठने लगे-‘शायद यह करने में जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण मोड़ आ जाए (शायद बुद्धत्व घट जाए) या इसी शरीर में पराशक्ति की अनुभूति हो जाए, जिसकी श्री अरविंद ने बहुत चर्चा की है।
अगले दिन पांडिचेरी से बंगलौर जाते समय मैं अपने खयालों में खोया कार्यक्षेत्र की दयनीय दशा का आकलन कर रहा था। मैं अचंभित था कि ‘ली फिगारो’ के संपादक ने भारत –भ्रमण के बिना ही भारत के विषय में ऐसी धारणाएँ कैसे बना लीं ?
मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता कोरा दिखावा मात्र है। स्वतंत्रता है कहाँ ? तभी नम्रता की चीख ने मेरी विचार-श्रृंखला तोड़ी और पता चला कि एक कुत्ता सड़क के पार भाग निकला, उसी कारण तेज गति से जाती गाड़ी एकाएका ची-ची करती रुकी। चालक मुस्कराता हुआ पीछे मुड़ा, जैसे बता रहा था कि सब सही-सलामत है। फिर वह इतने मजे से गाड़ी चलाने लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। मेरी पत्नी घबराई-सी लग रही थी। उसे शांत करने के लिए मजाक किया, ‘चालक दोहरी भूमिका निभाते हैं यह केवल गाड़ी ही नहीं चलाते बल्कि भगवान को याद रखना भी सिखाते हैं और यह कार्य वे अपने देश फ्रांस के कैथोलिक पादरियों से अधिक कुशलता से करते हैं।’ चालक के चेहरे पर अब भी मुस्कान थी और वह एक धुन गुनगुना रहा था।
आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि ऐसी अव्यवस्था में जहाँ कोई नियम या तर्क काम नहीं करता, यह इतनी सहजता से कैसे रह रहा है ? ये अशिक्षित लोग मुझसे अधिक श्रद्धावान हैं।
मैं मन-ही-मन में अपनी और आस-पास के लोगों की तुलना कर रहा था कि चालक फिर रुका और स्थानीय भाषा में एक पथिक से उसने कुछ बातचीत की। मुझे लगा, शायद वह रास्ता पूँछ रहा था। उन दो अजनबियों की मित्रता हास-परिहास में बात करने और आनंदित होने की शैली प्रशंसनीय थी। ऐसी सहजता मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। मुझे लगा कि मेरे देश फ्रांस में तो ऐसा कभी नहीं देखा। क्या हम पत्रकार बहुत गंभीर हो गए हैं ? कोई भी हमें हँसी-मजाक के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। इन्हीं विचारों के घोड़ों पर सवार हो मेरा मन दौड़ने लगा फिर से गाड़ी रुकी, परंतु इस बार अपने गंतव्य पर।
संयोगवश ज्ञान मंदिर, आर्ट ऑफ लिविंग के सिटी सेंटर में अगले ही दिन आर्ट ऑफ लिविंग का बेसिक कोर्स आरंभ हो रहा था। हमने झट से अपना नाम लिखवा दिया। ध्यान कक्ष में प्रवेश करते ही मैंने नम्रता, जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित परिवार से है, को निहारा, मुझे पता था, उसकी इस कोर्स में जरा भी रुचि नहीं थी। उसका पथ निर्धारित था और उसके प्रति मन दृढ़ निश्चयी था। वह यह कोर्स मेरे लिए कर रही थी। हमारे प्रशिक्षक माइकेल फिशमैन (जो अमेरिकन था) ने कहना आरंभ किया, ‘कि प्रत्येक प्राणी को आनंद प्रेम की चाह है। परंतु जीवन में तनावग्रस्त मन ही इन गुणों की बृद्धि में आड़े आता है। प्रायः हमें पता ही नहीं चलता कि तनाव किस मात्रा में हमारे स्वाभाविक (नैसर्गिक उत्साह को ढाप लेता है, शक्ति क्षीण कर देता है) संबंधों को भेद देता है और अंततः हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है। यह कोर्स तनाव की परतों का बड़े सहज ढंग से विमोचन करने में, बाधाओं को निष्कासित करने में सहायक है, ताकि जीवन में ऊर्जा एवं आनंद की वृद्धि हो, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
माइकल ने आगे बताया कि यह कार्स आधुनिक और पुरातन आध्यात्मिक धरोहर का सम्मिश्रण है, जिसके माध्यम से हम अपने अंतर-मौन के मूल, अपने आत्मतत्त्व का परिचय पा सकते हैं। ‘मानव को संचालित करनेवाले अदृश्य नियमों का उद्घाटन होगा’ और ‘कहा अपनी नाकारत्मक भावना का सही ढंग से निवारण करने की कुशलता आ जाती है। इसके अतिरिक्त प्राचीन योग साधना, ध्यान और श्वास की लयबद्धता का भी आनंद ले पाएँगे, जिनसे हमारे जीवन के सभी स्तर-शरीर, मन तथा आत्मा का पोषण होता है।’
हमारे अस्तित्व के सात स्तरों का वर्णन किया, जो मानव प्रकृति (स्वभाव) के नियमों का नियमन करते हैं। जीवन-चालक ऊर्जा के चार स्रोत-निद्रा, भोजन, श्वास और ज्ञान का परिचय दिया।
अब कुछ सरल नियमों की चर्चा हुई, जिन्हें कोर्स पॉइंट अथवा ‘सूत्र’ कहते हैं। ये ऐसे आधारभूत नियम हैं जिन्हें सभी को जीवन में जीना चाहिए; किन्तु वास्तव में इनका उपयोग जीवन में किया ही नहीं जा रहा। ये सूत्र परस्पर संबद्ध हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के चमत्कारपूर्ण स्वरूप को यही सूत्र सहेजते हैं। ‘वर्तमान में रहो’ पहले दिन ही कहा गया। मुझे लगा यह तो इतनी सीधी सी बात है। पच्चीस वर्ष श्रीअरविंद आश्रम में रहे हैं और यह हमने बहुत पहले ही लिख लिया था।’ माइकल हमें देखकर मुस्कराया। उसने आँखें बन्द कर अपने मन को अवलोकन का आदेश दिया। कि वहाँ क्या घट रहा है। कुछ ही समय पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि सतत चंचल मन को वर्तमान क्षण में स्थिर करने जैसा कठिनतम काम कोई और नहीं। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, यह उद्धाटित होने लगा कि मन किस उन्मत्त गति से या तो भूतकाल में पुनः विचरण करता है अथवा भविष्य के सपने सँजोता है। किंतु वर्तमान क्षण में तो कभी रहता ही नहीं। विशेषकर जब मैं ध्यान में बैठना चाहता हूँ तो अति तीव्रता से एक विचार दूसरे विचार पर ऐसे विचरण करता है जैसे बन्दर पेड़ की एक शाखा से दूसरी शाखा पर झूलता है।
सत्र समाप्ति हम ज्ञान मंदिर से बाहर निकल रहे थे। मन उसी सूत्र का निरीक्षण कर रहा था कि साथी अरविंद ने टिप्पणी की, ‘मैं तो अज्ञेयवादी हूँ, परंतु आज का पाठ और इस पाठ का पृष्ठाधार पुरुष कहीं गहरे पैठ गए हैं। मैंने निर्णय कर लिया है कि यह कोर्स पूरा करूँगा। यद्यपि मैं अपनी पत्नी के बाध्य किए जाने पर आया था।’ असका यह वक्तव्य हमारे लिए अत्यधिक भावना-प्रेरक रहा। ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि अज्ञेयवादी, जो निस्संकोच स्वयं को मदिरा की मस्ती का मौजी कहता है, आर्ट ऑफ लिविंग की सहज-साधारण विधियों से इतना पसीज सकता है तो निश्चय ही इस कोर्स में कुछ अप्रत्याशित गहनता है। अपने सब संदेह समेटकर हमने भी अगले दिन आने का निश्चय कर लिया।
अगले दिन हम ज्ञान मंदिर पहुँचे। हममें पिछले दिन से अधिक उत्सुकता थी। सत्र के प्रारंभ होते ही माइकल ने विनम्रता से नम्रता, जो अभी भी खुली नहीं थी (अपने को रोके हुए थी, सहज नहीं हुई थी), को शत-प्रतिशत करने को कहा। वह क्रोधित हो उठी। उसने सोचा, ‘यह आदमी जानता ही क्या है ? मैं पहले ऑरोविल में कई प्रकार के प्राणायाम कर चुकी हूँ’ जब वह गुस्से से भुनभुना रही थी, तभी उसका ध्यान साँस के बदलते चलन पर गया। साँस भारी और उथली हो गई थी। तभी उसे स्पष्ट हुआ कि साँस मन और भावनाओं में संबंध स्थापित करता सूत्र है। जब कोई उत्तेजित होता है, दबाव में होता है अथवा तनाव में तो साँस की स्वाभाविक लय में अंतर आ जाता है। इस बोध ने उसे कुछ ऐसा निर्बाध किया कि उसने आगे की प्रत्येक प्रक्रिया पूर्ण प्रतिबद्धता से करने की ठान ली।
ज्यों-ज्यों कोर्स आगे बढ़ता गया मेरी, अभिरुचि और तेज होती गई। मैंने अपनी पत्नी की ओर देखा। उसकी अभिरुचि घट रही थी। इससे मुझे बड़ा चैन मिला। फिर मैंने समूह के चेहरे पढ़े। लगता था कि वह हर बात की तार्किक व्याख्या ढूँढ़ने में व्यस्त थे और साथ-ही-साथ जीवन से सीधे-साधे सत्यों के साथ भी उनका संपर्क बन रहा था। अभी भी मेरा विद्रोही पत्रकार मन विश्लेषण और प्रश्नों में उलझा हुआ था।
परंतु माइकेल बहुत सौम्य है। उसने कभी मुझको टोका नहीं। उसका धैर्य सराहनीय है। वह ऐसे विषम जातीय समूह के हर प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देता था। मेरे विचार में मैं उसके स्थान पर होता तो बहुत पहले अपना संयम खो चुका होता। अचंभित हूँ कि वह ऐसा धीर कैसे बना ! वह जो भी कहता अर्थपूर्ण ही होता; किंतु मेरे भीतर मन का वार्तालाप चलता ही रहता।
अब अंततः सुदर्शन क्रिया-इतनी ऊर्जस्वी और अवाक कर देने वाली क्रिया कि आज भी, इतनी बार क्रिया को स्वयं करने और होते देखने के उपरांत भी इसके वर्णन हेतु शब्द नहीं। पहला अनुभव अभी याद है। मन का हल्का सा प्रतिरोध तो था, परंतु प्रयास से अपने को एक सीमा तक ले जाते ही आश्चर्यजनक अनुभवों का क्रम प्रारंभ हो गया। बड़ा सुखद, चकित, शांत, अंतःप्रेरित मन, सबसे बढ़कर अत्यधिक तुष्टिपूर्ण हृदय इस आभास से कि अंततः ऐसी आसाधारण विधि अस्तित्व में है। लगा अंत में ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया। हम सबका जैसे कायाकल्प हो गया। अब आने वाला समय कल बताएगा कि अद्वितीय विधि-श्री श्री रविशंकरजी का विश्व को उपहार-किस तरह भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करता है। और सबके जीवन में एक अमिट छाप छोड़ देता है। ‘माँ’ के प्रस्थान के उपरांत मैं पहली बार शांत एवं स्थिर हुआ। समझ में आया कि अब तक की साधना सार्थक रही।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, परस्पर घनिष्ठता बढ़ती गई। एक समुदाए बन गया, एक-दूसरे से संबंध बन गए उनसे भी पहले हम खीजते थे। उदारहरणार्थ विनय-जो हर समय कुछ-न-कुछ खाता ही रहता था, फिर भी माइकेल ने कभी किसी पर कोई टिप्पणी नहीं की। उसका सौहार्द और सौम्यता भी संदेश थी हमें सजग करने के लिए, कि आध्यात्मिक पृष्ठभूमि होने पर भी अभी हमें बहुत लंबी यात्रा करनी थी। किस तरह हम गुण विवेचन के कठघरे में जकड़े हुए-व्यक्तियों, वस्तुओं के सतत निर्णायक बने किसी की आलोचना अथवा किसी को स्वीकार या बहुधा अस्वीकार करते। कोर्स के प्रत्येक सहयोगी का हमारी प्रगति में कुछ-न-कुछ योगदान रहा। अतः उनके विषय में, विधि के विषय में, प्रशिक्षक एवं गुरु के विषय में निरिमित सब धारणाएँ दूर हो गईं। इसी के साथ कोर्स के सबसे महत्त्वपूर्ण पाठ ‘लोगों को जैसे हैं वैसे ही स्वीकार कर लो’ को भी आत्मसात कर लिया। अब बात समझ में आई कि सहज साधारण बातें वास्तव में सूत्र हैं-एक सफल जीवन जीने के गूढ़ रहस्य।
अब सब उठे; ‘मैं आपका हूँ’, यह कहकर एक-दूसरे का अभिनंदन किया, जैसे कोर्स के श्रीगणेश पर किया था। वाह ! अब तो इस अभिनंदन का गुण-धर्म ही कुछ अनूठा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वास्तव में हम एक-दूसरे से संबंध स्थापित करने ही वहाँ इकठ्ठे हुए थे। इन छह दिनों में हम सब ऐसे आकर्षक और मार्मिक स्नेह-सूत्र में बधें कि कुछ दिन पहले जो अपरिचित थे, अब चिर-परचित लगने लगे। वहाँ से निकलते हुए नम्रता और मैंने एक-दूसरे को देखा और लगा कि कुछ आंतरिक विचलन घटा, अंतस में निर्भार उन्मुक्तता की प्रतीति हुई। जैसे हम द्विज हो गए। पुनर्जन्म की अनुभव की बातें सुनी थी; परंतु यह तो स्वानुभूति थी। हम फिर से बाल-हृदयी बन गए-प्रेममय और स्वच्छंद।
रेवले स्टेशन पर पांडिचेरी जानेवाली गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए अपने आप में परिवर्तन देखा। कहीं कोई अधीरता, कोई अशांति, कोई उत्तेजना नहीं थी। इस बार प्रतीक्षा का कोई महत्त्व न था। अंत में सिग्नल हुआ, गाड़ी पहुँची। हम जीवन के नवारंभ की यात्रा पर निकल पड़े।
हम ऑरोविल लौटे। मन में आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स की स्मृतियाँ संचित थीं। जो भी विधियाँ वहाँ सीखीं उनका अभ्यास करते रहे। अनायास मेरे आस-पास का जीवन जैसे और जीवंत हो उठा।
हर समय मेरे विस्मित विचारों में वह परमपुरुष ही होता, जिसने ऐसे अकथनीय, शुभकारी एवं शक्तिशाली कोर्स का निर्माण किया। मेरा उनसे साक्षात्कार निश्चित था। इस उत्सुकता के कारण मैंने बंगलौर आश्रम फोन किया। मुझे एडवांस्ड कोर्स का पता चला और तभी मैंने उसमें अपना नामांकन करवा लिया। इस बार नम्रता घर पर ही रही।
मैं बंगलौर वापस आकर सीधे आश्रम पहुँचा। आश्रम कनकपुर रोड पर शहर में 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ‘घर आना और सब झंझट एवं चिंताएँ छोड़ देना’, श्री श्री का कथन है। मानव-मन की नैसर्गिक वृत्ति है कि अपना परिवेश बदलना, उसे तनिक नहीं भाता। लगभग बीस वर्ष से श्रीअरविंद आश्रम और ऑरोविल मेरा सुरक्षित स्थान रहा-परचित लोग, परचित पास-पड़ोस-अतः ज्यों-ज्यों आश्रम पास आ रहा था, मन कुछ आशांकित हो रहा था।
मैं जिस वातावरण का अभ्यस्त था, यहाँ वैसा नहीं था। यहाँ सबके साथ समान व्यवहार होता था। किसी के लिए अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का व्यवहार नहीं किया जाता था। हर प्रकार के लोग थे-बूढ़े, जवान, भारतीय, पाश्चात्य-जीवन के हर स्तर से आये लोग। सभी के चेहरे पर मुस्कान और सभी हँसते हुए, मान लो जीवन में कोई अमूल्य निधि पा ली हो। सब ओर उत्सव की मनोदशा थी। इस आश्रम में सभी के लिए दो घंटे सेवा करना अनिवार्य है। सेवा कुछ भी हो सकती है, जैसे-सब्जियाँ काटना, अनुवाद करना प्रतिलिपि करना, प्रतिलिपि बनाना, बागवानी करना या फर्श साफ करना। मैंने देखा कि समूह का प्रत्येक सदस्य किसी-न-किसी कार्य में लगा हुआ था। चारों ओर हँसी-खुशी और उल्लास था; परंतु आध्यात्मिक स्थान की मेरी धारणा-एक शांत और गंभीर स्थल के बिलकुल विपरीत था। इस उत्सव का उत्साह मुझमें भी संचालित हो गया और मैं भी सेवा के लिए उत्सुक हो गया। मैं कुछ पाश्चात्य लोगों में से एक था। उन्होंने मुझे झाड़ियों की छँटाई और फूलों के गमलों की सिंचाई का हल्का सा काम दिया। सहसा मेरे अंदर उत्साह की स्फूर्ति संचारित हो गई। इस सेवा को पूर्ण समग्रता से करने का भाव हुआ। संभवतः यह श्री श्री के कथन का सार है, ‘जीवन को क्षण-क्षण जिओ और उसका आनंद लो।’
मुझे अपना पहला एडवांस्ड कोर्स राजश्री तथा फिलिप के साथ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन दिनों राजश्री दुबली-पतली, किंतु कुशाग्र-बुद्धि भारतीय अमेरिकन थी। उनका जन्म गुजरात में हुआ। वह धीर, मृदुभाषी और प्रेममयी प्रशिक्षिका थी; किंतु इस शांत व्यक्तित्व के भीतर आवेग का भी प्रायः आभास मिलता था। एक उत्कृष्ट प्रशिक्षिका, जिसने विधियों में हमें पारंगत कर दिया। तब से हम उन्हीं विधियों का अभ्यास कर रहे हैं। अन्य वरिष्ठ प्रशिक्षिकों वह भी श्री श्री के प्रति पूर्णरूपेण अनुरक्त थी। परस्पर मेलजोल बढ़ने पर राजश्री ने गुरुजी से मिलने की आपसी असाधारण कहानी सुनाई। जितनी याद है, आपको भी सुनाता हूँ। अमेरिका में कहीं उसने गुरुजी के विषय में सुना था और स्वयं जाकर उन्हें सुनने की बड़ी उत्कंठा उठी। राजश्री एक वकील है। उस दिन काम करने का उत्तरदायित्व कुछ ऐसा था कि अवकाश जाकर मिलने जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। परंतु एक चमत्कार हुआ-जैसे हम सब के जीवन में हुए हैं-उसके उच्चाधिकारी ने उसे छट्टी दे दी। संभवतः उसे कहीं शिकार अथवा मछली पकड़ने जाना था अतः वह गुरुजी का प्रवचन सुनने पहुँच गई। वहाँ उसका अनुभव भी वैसा ही रहा जैसे हम सबका है-बस विचार-शून्य। यद्यपि उसके अंतस में कुछ संवेदनाएँ हो रही थीं।
परंतु एक अनोखी और आंदोलित करने वाली घटना थी-गुरुजी का उसे निहारते रहना। उन दिनों राजश्री शरमीली सी रही होगी। वह अपने बैठे व्यक्ति की आड़ में छिपती रही। परंतु जब-जब वह निगाहें उठाती, श्री श्री की गहन टकटकी उसपर ही लगी होती। संक्षेप में इस घटना के बाद राजश्री स्वाभावतः परम पूज्य श्री श्री रविशंकरजी और उनके आर्ट ऑफ लिविंग- यह तो पूर्व निर्धारित ही रहा होगा- से जुड़ने लगी; किंतु अभी उसमें कुछ हिचक थी, विशेषकर शिक्षण के प्रति। एक बार गुरुजी के साथ वह इंग्लैंड की यात्रा कर रही थी। गुरुजी वहाँ कोर्स करवा रहे थे। एक दिन सत्र के मध्य में ही वह उठ गए और उसे आगे का कोर्स लेने को कह दिया। उसे लगा, ‘यह तो बौरा गए हैं।’ फिर भी उसने कोर्स लिया और उत्कृष्ट प्रशिक्षिका बनी- बेसिक कोर्स की ही नहीं एडवांस्ड कोर्स की भी।
यदि राजश्री एक आविष्ट व्यक्तित्व थी तो फिलिप उनकी सहभागिता का कोमल एवं भोला-भाला रूप था। चेहरे पर सजी शाश्वत मुस्कान, सदा सेवारत, सदा सफेद कुरते-पाजामे में सुज्जित, काले लंबे बाल पीछे को बनाए हुए।
एक साधक धीमे से ‘ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय’ गुनगुनाने लगा, जो संभवतः काशी नगरों से भी पुरातन है। फिर सभी साथ हो लिए-बड़ी कोमलता से ताकि छाई मौन की खुमारी खंडित न हो। श्री श्री ने आँखे मूँद ली। पूर्णतया अंतर्ध्यानस्थ किसी अन्य धाम में स्थिर उनकी मुद्रा ने सभी को आत्मविभोर कर दिया। वह एक अद्वितीय अनुभव था। शांत एवं सौम्य परिवेश-एक कोने में एक लड़की निःशब्द आनंदाश्रु बहा हरी थी। एक वृद्ध दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थनारत मन के अहोभावों की मूक अभिव्यक्ति कर रहा था। सभी अचंभित से, आंतरिक आनंद की कांति से दमक रहे थे। और मैं, मेरा सतत वाचाल मन शांत हो गया, मेरी आत्मा सातवें आकाश पर उड़ रही थी। मैं उस अलौकिक क्षण को जी रहा था, पी रहा था। बाद में होटल लौटते उन क्षणों की अनुमोल अनुभूति हृदय में ऐसे सँजोए कि कहीं खो न जाए-मैं अवलोकन कर रहा था कि यह सब कब और कैसे शुरू हुआ !
स्वयं में परमात्मा के दर्शन ध्यान है।
दूसरे में परमात्मा के दर्शन प्रेम है।
सब में परमात्मा के दर्शन ज्ञान है।
मैं लगभग पच्चीस वर्षों से भारत में रह रहा हूँ। मैं सन् 1969 में भारत पहुँचा, तब से 1973 तक-जब पांडिचेरी की ‘माँ’ का देहावसान हुआ-मुझे कई बार उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे जीवन के सात उत्कृष्ठ वर्ष पांडिचेरी में श्री अरविंद की भव्य जीवन उपस्थिति और ज्ञान (जो आश्रम में सर्वत्र व्याप्त है) में पूर्णतया सिक्त होते बीते। तत्पश्चात् मैं ऑरोविल में आ गया। तब से यहीं मेरा निवास स्थान है। मैं एक पत्रकार और जिज्ञासु-भारत की चारों दिशाओं में घूमा। धीरे-धीरे भारत की अतल गहराई और सौंदर्य का उद्घाटन होता गया। मेरी भारत माँ ने मुझे अतुलनीय संपदा के साथ-साथ एक सुंदर और प्रेममयी पत्नी-नम्रता प्रणय भी-दी।
तथापि जीवन में किसी अभाव की कसोट मन में बनी रहती थी। ‘आखिर यह चाह क्या ?’ मैं हैरान था। मैं छह वर्ष का था जब एक मेले में भारी झूले से, जिसमें दस बच्चे सट कर बैठ जाते हैं, मेरी नाक पर चोट लगी। इस चोट से नाक के अंदर की हड्डी को –जो दोनों नासिकाओं को अलग करती है-बुरी तरह क्षति पहुँची और इसी कारण मेरी श्वास-प्रश्वास क्रिया भी क्षतिग्रस्त हो गई। तब सो दो बार ऑपरेशन भी हुआ, पर कोई लाभ नहीं हुआ। मैं फ्रांस के सबसे प्रचलित दैनिक पत्र ‘ली फिगारो’ के संवाददाता के रूप में दक्षिण एशिया में नियुक्त था। प्रायः कंप्यूटर पर काम करते मुझे लगता कि मेरी श्वास-प्रश्वास क्रिया बहुत उथली है। वास्तव में मुझे भले देर से ही-यह आभास होने लगा कि मेरी साँस कभी ठीक से चली ही नहीं। अंततोगत्वा मेरे शरीर पर इसका कुप्रभाव पड़ेगा। परन्तु इसका उपाय क्या करूँ, यह पता नहीं था।
सन् 1994 की ग्रीष्म ऋतु। एक दिन मैं पेरिस में अपने मित्र कृष्णकांत के साथ चाय पी रहा था और मेरी साँस में साँय-साँय की आवाज आ रही थी। तभी उसने सुझाव दिया-‘बंगलौर में आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र में क्यों नहीं जाते ? वहाँ कुछ प्राणायाम सीखो और श्री श्री रविशंकरजी द्वारा निर्मित एक विशिष्ट श्वास विधि ‘सुदर्शन क्रिया’ करो, तुम्हें लाभ होगा’ संदेही और दोष-दृष्टियुक्त मेरा व्यक्तित्व (छह वर्ष की आयु से इसी श्वास में रहने की आदत) बड़े बे-मन से मैंने पता लेकर रख लिया कि संभवतः किसी दिन यह भी देख लूँगा। और फिर इस चर्चा को बिलकुल भूल गया। किंतु कुछ महीनों बाद एक अजीब सी भावदशा अकसर चेताती कि मुझे वहाँ जाना चाहिए। मेरा तार्किक मन फिर भी यह टालता रहा; पर अंत में मैंने छलांग लगाने का और अपनी पत्नी नम्रता के साथ बंगलौर जाने का निर्णय कर लिया। मन में विचार उठने लगे-‘शायद यह करने में जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण मोड़ आ जाए (शायद बुद्धत्व घट जाए) या इसी शरीर में पराशक्ति की अनुभूति हो जाए, जिसकी श्री अरविंद ने बहुत चर्चा की है।
अगले दिन पांडिचेरी से बंगलौर जाते समय मैं अपने खयालों में खोया कार्यक्षेत्र की दयनीय दशा का आकलन कर रहा था। मैं अचंभित था कि ‘ली फिगारो’ के संपादक ने भारत –भ्रमण के बिना ही भारत के विषय में ऐसी धारणाएँ कैसे बना लीं ?
मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता कोरा दिखावा मात्र है। स्वतंत्रता है कहाँ ? तभी नम्रता की चीख ने मेरी विचार-श्रृंखला तोड़ी और पता चला कि एक कुत्ता सड़क के पार भाग निकला, उसी कारण तेज गति से जाती गाड़ी एकाएका ची-ची करती रुकी। चालक मुस्कराता हुआ पीछे मुड़ा, जैसे बता रहा था कि सब सही-सलामत है। फिर वह इतने मजे से गाड़ी चलाने लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। मेरी पत्नी घबराई-सी लग रही थी। उसे शांत करने के लिए मजाक किया, ‘चालक दोहरी भूमिका निभाते हैं यह केवल गाड़ी ही नहीं चलाते बल्कि भगवान को याद रखना भी सिखाते हैं और यह कार्य वे अपने देश फ्रांस के कैथोलिक पादरियों से अधिक कुशलता से करते हैं।’ चालक के चेहरे पर अब भी मुस्कान थी और वह एक धुन गुनगुना रहा था।
आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि ऐसी अव्यवस्था में जहाँ कोई नियम या तर्क काम नहीं करता, यह इतनी सहजता से कैसे रह रहा है ? ये अशिक्षित लोग मुझसे अधिक श्रद्धावान हैं।
मैं मन-ही-मन में अपनी और आस-पास के लोगों की तुलना कर रहा था कि चालक फिर रुका और स्थानीय भाषा में एक पथिक से उसने कुछ बातचीत की। मुझे लगा, शायद वह रास्ता पूँछ रहा था। उन दो अजनबियों की मित्रता हास-परिहास में बात करने और आनंदित होने की शैली प्रशंसनीय थी। ऐसी सहजता मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। मुझे लगा कि मेरे देश फ्रांस में तो ऐसा कभी नहीं देखा। क्या हम पत्रकार बहुत गंभीर हो गए हैं ? कोई भी हमें हँसी-मजाक के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। इन्हीं विचारों के घोड़ों पर सवार हो मेरा मन दौड़ने लगा फिर से गाड़ी रुकी, परंतु इस बार अपने गंतव्य पर।
संयोगवश ज्ञान मंदिर, आर्ट ऑफ लिविंग के सिटी सेंटर में अगले ही दिन आर्ट ऑफ लिविंग का बेसिक कोर्स आरंभ हो रहा था। हमने झट से अपना नाम लिखवा दिया। ध्यान कक्ष में प्रवेश करते ही मैंने नम्रता, जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित परिवार से है, को निहारा, मुझे पता था, उसकी इस कोर्स में जरा भी रुचि नहीं थी। उसका पथ निर्धारित था और उसके प्रति मन दृढ़ निश्चयी था। वह यह कोर्स मेरे लिए कर रही थी। हमारे प्रशिक्षक माइकेल फिशमैन (जो अमेरिकन था) ने कहना आरंभ किया, ‘कि प्रत्येक प्राणी को आनंद प्रेम की चाह है। परंतु जीवन में तनावग्रस्त मन ही इन गुणों की बृद्धि में आड़े आता है। प्रायः हमें पता ही नहीं चलता कि तनाव किस मात्रा में हमारे स्वाभाविक (नैसर्गिक उत्साह को ढाप लेता है, शक्ति क्षीण कर देता है) संबंधों को भेद देता है और अंततः हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है। यह कोर्स तनाव की परतों का बड़े सहज ढंग से विमोचन करने में, बाधाओं को निष्कासित करने में सहायक है, ताकि जीवन में ऊर्जा एवं आनंद की वृद्धि हो, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
माइकल ने आगे बताया कि यह कार्स आधुनिक और पुरातन आध्यात्मिक धरोहर का सम्मिश्रण है, जिसके माध्यम से हम अपने अंतर-मौन के मूल, अपने आत्मतत्त्व का परिचय पा सकते हैं। ‘मानव को संचालित करनेवाले अदृश्य नियमों का उद्घाटन होगा’ और ‘कहा अपनी नाकारत्मक भावना का सही ढंग से निवारण करने की कुशलता आ जाती है। इसके अतिरिक्त प्राचीन योग साधना, ध्यान और श्वास की लयबद्धता का भी आनंद ले पाएँगे, जिनसे हमारे जीवन के सभी स्तर-शरीर, मन तथा आत्मा का पोषण होता है।’
हमारे अस्तित्व के सात स्तरों का वर्णन किया, जो मानव प्रकृति (स्वभाव) के नियमों का नियमन करते हैं। जीवन-चालक ऊर्जा के चार स्रोत-निद्रा, भोजन, श्वास और ज्ञान का परिचय दिया।
अब कुछ सरल नियमों की चर्चा हुई, जिन्हें कोर्स पॉइंट अथवा ‘सूत्र’ कहते हैं। ये ऐसे आधारभूत नियम हैं जिन्हें सभी को जीवन में जीना चाहिए; किन्तु वास्तव में इनका उपयोग जीवन में किया ही नहीं जा रहा। ये सूत्र परस्पर संबद्ध हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स के चमत्कारपूर्ण स्वरूप को यही सूत्र सहेजते हैं। ‘वर्तमान में रहो’ पहले दिन ही कहा गया। मुझे लगा यह तो इतनी सीधी सी बात है। पच्चीस वर्ष श्रीअरविंद आश्रम में रहे हैं और यह हमने बहुत पहले ही लिख लिया था।’ माइकल हमें देखकर मुस्कराया। उसने आँखें बन्द कर अपने मन को अवलोकन का आदेश दिया। कि वहाँ क्या घट रहा है। कुछ ही समय पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि सतत चंचल मन को वर्तमान क्षण में स्थिर करने जैसा कठिनतम काम कोई और नहीं। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, यह उद्धाटित होने लगा कि मन किस उन्मत्त गति से या तो भूतकाल में पुनः विचरण करता है अथवा भविष्य के सपने सँजोता है। किंतु वर्तमान क्षण में तो कभी रहता ही नहीं। विशेषकर जब मैं ध्यान में बैठना चाहता हूँ तो अति तीव्रता से एक विचार दूसरे विचार पर ऐसे विचरण करता है जैसे बन्दर पेड़ की एक शाखा से दूसरी शाखा पर झूलता है।
सत्र समाप्ति हम ज्ञान मंदिर से बाहर निकल रहे थे। मन उसी सूत्र का निरीक्षण कर रहा था कि साथी अरविंद ने टिप्पणी की, ‘मैं तो अज्ञेयवादी हूँ, परंतु आज का पाठ और इस पाठ का पृष्ठाधार पुरुष कहीं गहरे पैठ गए हैं। मैंने निर्णय कर लिया है कि यह कोर्स पूरा करूँगा। यद्यपि मैं अपनी पत्नी के बाध्य किए जाने पर आया था।’ असका यह वक्तव्य हमारे लिए अत्यधिक भावना-प्रेरक रहा। ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि अज्ञेयवादी, जो निस्संकोच स्वयं को मदिरा की मस्ती का मौजी कहता है, आर्ट ऑफ लिविंग की सहज-साधारण विधियों से इतना पसीज सकता है तो निश्चय ही इस कोर्स में कुछ अप्रत्याशित गहनता है। अपने सब संदेह समेटकर हमने भी अगले दिन आने का निश्चय कर लिया।
अगले दिन हम ज्ञान मंदिर पहुँचे। हममें पिछले दिन से अधिक उत्सुकता थी। सत्र के प्रारंभ होते ही माइकल ने विनम्रता से नम्रता, जो अभी भी खुली नहीं थी (अपने को रोके हुए थी, सहज नहीं हुई थी), को शत-प्रतिशत करने को कहा। वह क्रोधित हो उठी। उसने सोचा, ‘यह आदमी जानता ही क्या है ? मैं पहले ऑरोविल में कई प्रकार के प्राणायाम कर चुकी हूँ’ जब वह गुस्से से भुनभुना रही थी, तभी उसका ध्यान साँस के बदलते चलन पर गया। साँस भारी और उथली हो गई थी। तभी उसे स्पष्ट हुआ कि साँस मन और भावनाओं में संबंध स्थापित करता सूत्र है। जब कोई उत्तेजित होता है, दबाव में होता है अथवा तनाव में तो साँस की स्वाभाविक लय में अंतर आ जाता है। इस बोध ने उसे कुछ ऐसा निर्बाध किया कि उसने आगे की प्रत्येक प्रक्रिया पूर्ण प्रतिबद्धता से करने की ठान ली।
ज्यों-ज्यों कोर्स आगे बढ़ता गया मेरी, अभिरुचि और तेज होती गई। मैंने अपनी पत्नी की ओर देखा। उसकी अभिरुचि घट रही थी। इससे मुझे बड़ा चैन मिला। फिर मैंने समूह के चेहरे पढ़े। लगता था कि वह हर बात की तार्किक व्याख्या ढूँढ़ने में व्यस्त थे और साथ-ही-साथ जीवन से सीधे-साधे सत्यों के साथ भी उनका संपर्क बन रहा था। अभी भी मेरा विद्रोही पत्रकार मन विश्लेषण और प्रश्नों में उलझा हुआ था।
परंतु माइकेल बहुत सौम्य है। उसने कभी मुझको टोका नहीं। उसका धैर्य सराहनीय है। वह ऐसे विषम जातीय समूह के हर प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देता था। मेरे विचार में मैं उसके स्थान पर होता तो बहुत पहले अपना संयम खो चुका होता। अचंभित हूँ कि वह ऐसा धीर कैसे बना ! वह जो भी कहता अर्थपूर्ण ही होता; किंतु मेरे भीतर मन का वार्तालाप चलता ही रहता।
अब अंततः सुदर्शन क्रिया-इतनी ऊर्जस्वी और अवाक कर देने वाली क्रिया कि आज भी, इतनी बार क्रिया को स्वयं करने और होते देखने के उपरांत भी इसके वर्णन हेतु शब्द नहीं। पहला अनुभव अभी याद है। मन का हल्का सा प्रतिरोध तो था, परंतु प्रयास से अपने को एक सीमा तक ले जाते ही आश्चर्यजनक अनुभवों का क्रम प्रारंभ हो गया। बड़ा सुखद, चकित, शांत, अंतःप्रेरित मन, सबसे बढ़कर अत्यधिक तुष्टिपूर्ण हृदय इस आभास से कि अंततः ऐसी आसाधारण विधि अस्तित्व में है। लगा अंत में ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया। हम सबका जैसे कायाकल्प हो गया। अब आने वाला समय कल बताएगा कि अद्वितीय विधि-श्री श्री रविशंकरजी का विश्व को उपहार-किस तरह भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करता है। और सबके जीवन में एक अमिट छाप छोड़ देता है। ‘माँ’ के प्रस्थान के उपरांत मैं पहली बार शांत एवं स्थिर हुआ। समझ में आया कि अब तक की साधना सार्थक रही।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, परस्पर घनिष्ठता बढ़ती गई। एक समुदाए बन गया, एक-दूसरे से संबंध बन गए उनसे भी पहले हम खीजते थे। उदारहरणार्थ विनय-जो हर समय कुछ-न-कुछ खाता ही रहता था, फिर भी माइकेल ने कभी किसी पर कोई टिप्पणी नहीं की। उसका सौहार्द और सौम्यता भी संदेश थी हमें सजग करने के लिए, कि आध्यात्मिक पृष्ठभूमि होने पर भी अभी हमें बहुत लंबी यात्रा करनी थी। किस तरह हम गुण विवेचन के कठघरे में जकड़े हुए-व्यक्तियों, वस्तुओं के सतत निर्णायक बने किसी की आलोचना अथवा किसी को स्वीकार या बहुधा अस्वीकार करते। कोर्स के प्रत्येक सहयोगी का हमारी प्रगति में कुछ-न-कुछ योगदान रहा। अतः उनके विषय में, विधि के विषय में, प्रशिक्षक एवं गुरु के विषय में निरिमित सब धारणाएँ दूर हो गईं। इसी के साथ कोर्स के सबसे महत्त्वपूर्ण पाठ ‘लोगों को जैसे हैं वैसे ही स्वीकार कर लो’ को भी आत्मसात कर लिया। अब बात समझ में आई कि सहज साधारण बातें वास्तव में सूत्र हैं-एक सफल जीवन जीने के गूढ़ रहस्य।
अब सब उठे; ‘मैं आपका हूँ’, यह कहकर एक-दूसरे का अभिनंदन किया, जैसे कोर्स के श्रीगणेश पर किया था। वाह ! अब तो इस अभिनंदन का गुण-धर्म ही कुछ अनूठा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वास्तव में हम एक-दूसरे से संबंध स्थापित करने ही वहाँ इकठ्ठे हुए थे। इन छह दिनों में हम सब ऐसे आकर्षक और मार्मिक स्नेह-सूत्र में बधें कि कुछ दिन पहले जो अपरिचित थे, अब चिर-परचित लगने लगे। वहाँ से निकलते हुए नम्रता और मैंने एक-दूसरे को देखा और लगा कि कुछ आंतरिक विचलन घटा, अंतस में निर्भार उन्मुक्तता की प्रतीति हुई। जैसे हम द्विज हो गए। पुनर्जन्म की अनुभव की बातें सुनी थी; परंतु यह तो स्वानुभूति थी। हम फिर से बाल-हृदयी बन गए-प्रेममय और स्वच्छंद।
रेवले स्टेशन पर पांडिचेरी जानेवाली गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए अपने आप में परिवर्तन देखा। कहीं कोई अधीरता, कोई अशांति, कोई उत्तेजना नहीं थी। इस बार प्रतीक्षा का कोई महत्त्व न था। अंत में सिग्नल हुआ, गाड़ी पहुँची। हम जीवन के नवारंभ की यात्रा पर निकल पड़े।
हम ऑरोविल लौटे। मन में आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स की स्मृतियाँ संचित थीं। जो भी विधियाँ वहाँ सीखीं उनका अभ्यास करते रहे। अनायास मेरे आस-पास का जीवन जैसे और जीवंत हो उठा।
हर समय मेरे विस्मित विचारों में वह परमपुरुष ही होता, जिसने ऐसे अकथनीय, शुभकारी एवं शक्तिशाली कोर्स का निर्माण किया। मेरा उनसे साक्षात्कार निश्चित था। इस उत्सुकता के कारण मैंने बंगलौर आश्रम फोन किया। मुझे एडवांस्ड कोर्स का पता चला और तभी मैंने उसमें अपना नामांकन करवा लिया। इस बार नम्रता घर पर ही रही।
मैं बंगलौर वापस आकर सीधे आश्रम पहुँचा। आश्रम कनकपुर रोड पर शहर में 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ‘घर आना और सब झंझट एवं चिंताएँ छोड़ देना’, श्री श्री का कथन है। मानव-मन की नैसर्गिक वृत्ति है कि अपना परिवेश बदलना, उसे तनिक नहीं भाता। लगभग बीस वर्ष से श्रीअरविंद आश्रम और ऑरोविल मेरा सुरक्षित स्थान रहा-परचित लोग, परचित पास-पड़ोस-अतः ज्यों-ज्यों आश्रम पास आ रहा था, मन कुछ आशांकित हो रहा था।
मैं जिस वातावरण का अभ्यस्त था, यहाँ वैसा नहीं था। यहाँ सबके साथ समान व्यवहार होता था। किसी के लिए अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का व्यवहार नहीं किया जाता था। हर प्रकार के लोग थे-बूढ़े, जवान, भारतीय, पाश्चात्य-जीवन के हर स्तर से आये लोग। सभी के चेहरे पर मुस्कान और सभी हँसते हुए, मान लो जीवन में कोई अमूल्य निधि पा ली हो। सब ओर उत्सव की मनोदशा थी। इस आश्रम में सभी के लिए दो घंटे सेवा करना अनिवार्य है। सेवा कुछ भी हो सकती है, जैसे-सब्जियाँ काटना, अनुवाद करना प्रतिलिपि करना, प्रतिलिपि बनाना, बागवानी करना या फर्श साफ करना। मैंने देखा कि समूह का प्रत्येक सदस्य किसी-न-किसी कार्य में लगा हुआ था। चारों ओर हँसी-खुशी और उल्लास था; परंतु आध्यात्मिक स्थान की मेरी धारणा-एक शांत और गंभीर स्थल के बिलकुल विपरीत था। इस उत्सव का उत्साह मुझमें भी संचालित हो गया और मैं भी सेवा के लिए उत्सुक हो गया। मैं कुछ पाश्चात्य लोगों में से एक था। उन्होंने मुझे झाड़ियों की छँटाई और फूलों के गमलों की सिंचाई का हल्का सा काम दिया। सहसा मेरे अंदर उत्साह की स्फूर्ति संचारित हो गई। इस सेवा को पूर्ण समग्रता से करने का भाव हुआ। संभवतः यह श्री श्री के कथन का सार है, ‘जीवन को क्षण-क्षण जिओ और उसका आनंद लो।’
मुझे अपना पहला एडवांस्ड कोर्स राजश्री तथा फिलिप के साथ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन दिनों राजश्री दुबली-पतली, किंतु कुशाग्र-बुद्धि भारतीय अमेरिकन थी। उनका जन्म गुजरात में हुआ। वह धीर, मृदुभाषी और प्रेममयी प्रशिक्षिका थी; किंतु इस शांत व्यक्तित्व के भीतर आवेग का भी प्रायः आभास मिलता था। एक उत्कृष्ट प्रशिक्षिका, जिसने विधियों में हमें पारंगत कर दिया। तब से हम उन्हीं विधियों का अभ्यास कर रहे हैं। अन्य वरिष्ठ प्रशिक्षिकों वह भी श्री श्री के प्रति पूर्णरूपेण अनुरक्त थी। परस्पर मेलजोल बढ़ने पर राजश्री ने गुरुजी से मिलने की आपसी असाधारण कहानी सुनाई। जितनी याद है, आपको भी सुनाता हूँ। अमेरिका में कहीं उसने गुरुजी के विषय में सुना था और स्वयं जाकर उन्हें सुनने की बड़ी उत्कंठा उठी। राजश्री एक वकील है। उस दिन काम करने का उत्तरदायित्व कुछ ऐसा था कि अवकाश जाकर मिलने जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। परंतु एक चमत्कार हुआ-जैसे हम सब के जीवन में हुए हैं-उसके उच्चाधिकारी ने उसे छट्टी दे दी। संभवतः उसे कहीं शिकार अथवा मछली पकड़ने जाना था अतः वह गुरुजी का प्रवचन सुनने पहुँच गई। वहाँ उसका अनुभव भी वैसा ही रहा जैसे हम सबका है-बस विचार-शून्य। यद्यपि उसके अंतस में कुछ संवेदनाएँ हो रही थीं।
परंतु एक अनोखी और आंदोलित करने वाली घटना थी-गुरुजी का उसे निहारते रहना। उन दिनों राजश्री शरमीली सी रही होगी। वह अपने बैठे व्यक्ति की आड़ में छिपती रही। परंतु जब-जब वह निगाहें उठाती, श्री श्री की गहन टकटकी उसपर ही लगी होती। संक्षेप में इस घटना के बाद राजश्री स्वाभावतः परम पूज्य श्री श्री रविशंकरजी और उनके आर्ट ऑफ लिविंग- यह तो पूर्व निर्धारित ही रहा होगा- से जुड़ने लगी; किंतु अभी उसमें कुछ हिचक थी, विशेषकर शिक्षण के प्रति। एक बार गुरुजी के साथ वह इंग्लैंड की यात्रा कर रही थी। गुरुजी वहाँ कोर्स करवा रहे थे। एक दिन सत्र के मध्य में ही वह उठ गए और उसे आगे का कोर्स लेने को कह दिया। उसे लगा, ‘यह तो बौरा गए हैं।’ फिर भी उसने कोर्स लिया और उत्कृष्ट प्रशिक्षिका बनी- बेसिक कोर्स की ही नहीं एडवांस्ड कोर्स की भी।
यदि राजश्री एक आविष्ट व्यक्तित्व थी तो फिलिप उनकी सहभागिता का कोमल एवं भोला-भाला रूप था। चेहरे पर सजी शाश्वत मुस्कान, सदा सेवारत, सदा सफेद कुरते-पाजामे में सुज्जित, काले लंबे बाल पीछे को बनाए हुए।
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लोगों की राय
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