स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आयुर्वेदीय पंचकर्म विज्ञान आयुर्वेदीय पंचकर्म विज्ञानवैद्य वैद्य हरिदास श्रीधर कस्तुरे
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आयुर्वेद का शास्त्र विस्तृत होते हुए भी आज जटिल रोगों को मिटाने की समस्या चिन्ताप्रद है। यह चिन्ता निवारण के लिए श्रेष्ठतम उपचार करने की शक्ति पंचकर्म में है।
Aayurvediya Panchkarma Vigyan - A Hindi Book by - Vaidya Haridas Kasture आयुर्वेदीय पंचकर्म विज्ञान - वैद्य हरिदास श्रीधर कस्तुरे
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
“आयुर्वेदीय पंचकर्म विज्ञान” नामक यह ग्रंथ विज्ञ एवं विज्ञानप्रेमी वाचकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे परम संतोष होता है। गत एक तप तक पंचकर्म विषय में कृत अध्ययन अध्यापन, तथा प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर लिखित यह ग्रंथ इस विषय पर संभवतः प्रथम ही अनोखा वैशिष्ट्यपूर्ण ग्रंथ होगा ऐसा कहने में आत्मश्लाघा का दोष नहीं आयेगा ऐसी आशा है-किंतु वैसी वस्तुस्थिति है। विगत वर्षों में ऐसे ग्रंथ की त्रुटि मुझे भी कठिनाइयों में डालती रही है। ईश्वर की कृपा से और सद्भाग्य से मुझे स्नातक, स्नातकोत्तर रिफ्रेशर, अन्वेषक तथा नर्सेस इन सब् स्तर के छात्रों को इस विषय का अध्यापन करने का मौका मिला है। इसी तरह आतुरालय कार्य और अन्वेषण कार्य की कुछ उत्तरदायित्व निभाने का सुअवसर प्राप्त हो सका है। एक तप-अर्थात् बारह वर्ष-यद्यपि बहुत अधिक काल नहीं है-तथापि एक अत्यंत भोडवाले आतुरालय-विशाल अंतरंग विभाग के कार्य का यह काल अल्प भी निश्चित नहीं है। इस अधिकार को ग्रहण कर मैंने आपके समक्ष यह ग्रंथ प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।
इसके लेखन में प्रधानतया तीन उद्देश्य सामने रखे थे। एक वैद्यकीय छात्र को पंचकर्म का शास्त्रीय परिचयात्मक पाठ्यम्रंथ प्राप्त हो। दूसरा-प्रत्यक्ष कर्म में जो वैद्य व्यवसाय में लगे हुए हैं उन्हें प्रत्यक्षकर्मों की वैज्ञानिक पद्धति मिल जाए तथा तीसरा उद्देश्य-स्नातकोत्तर छात्रों को एवं अन्वेषकों को अपने विषय में समस्याएं, समस्यःओं को सुलझाने की विचारपद्धति इस बारे में अल्प-स्वल्प सहाय्यभूत हो सके। इसमें कितनी सफलता प्राप्त हुई है यह निर्णय विज्ञ मर्मज्ञों को तथा उपर्युक्त तीन अधिकारियों को स्वयं करना है।
इस ग्रंथ के लेखन में एक और ध्यान इसका रखा गया है कि यह ग्रंथ हाथ में होने पर पंचकर्म संबंध में सहाय्यार्थ अन्य किसी ग्रंथ की आवश्यकता न पड़े। एतदर्थ-तद्विषयक द्रव्यगुणशास्त्र, भैषज्य कल्पना शास्त्र, रसशास्त्र, शारीर विज्ञान, प्राणिशास्त्र इत्यादि का जहां संबंध आता हो, उस विषय की उपयोगी सामग्री इसी ग्रंथ में प्रस्तुत किया है। जिससे यह अपने में स्वयंपूर्ण ऐसा ग्रंथ हो सके ऐसा प्रयास किया गया है। पंचकर्म विषय में जो जो सामग्री संहिता ग्रंथों में मिल सकी उसे ‘बुद्धियोग’ ‘स्वानुभूति’ के निष्कर्ष पर रख इसमें प्रस्तुत किया है। प्रत्येक कर्म को प्रत्यक्ष करने में सुविधा-तथा उसके पीछे रहा हुआ शास्त्र भी अवगत हो-इस प्रकार-पूर्वकर्म, प्रधानकर्म और पश्चात्कर्म-शीर्षकों के द्वारा विशद किया गया है। शास्त्रीय परिभाषाओं का ध्यान इसलिये रखा है कि छात्रगण, वैद्यगण, तथा अनुभूति से आतुरगण-जन-संमर्द–इनमें ये शब्द सर्वश्रुत हो जाये। पंचकर्म के विषय में मुझे जो कुछ कहना था वह मैंने “विषय प्रवेश विज्ञान” नामक प्रथम अध्याय में कह दिया है। यहां तो कुछ और ही कहना है।
इस ग्रंथ के निर्माण में मुझ पर अनेक महानुभावों का ऋण है। जामनगर के स्नातकोत्तर प्रशिक्षण केंद्र तत्कालीन पंचकर्म विभागाध्यक्ष, और वर्तमान-भारत सरकार के आयुर्वेद परामर्शदाता डॉ० पी०एन० वासुदेव कुरुप साहब जैसे “दक्षस्तीर्थाप्त शास्त्रार्थी दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक्” के मार्गदर्शन के नीचे आपके सहायक के रूप में काम करने का सद्भाग्य है मिला। आपके प्रवचनों, अध्यापन, मनन, निदध्यास के इस यज्ञ में आहुति डालने के लिये मेरा व यदि बलवत्तर न होता तो संभवतः मैं इस विषय पर कदापि अधिकार लेखनी से लिखने में क्षम न होता, तथापि आप मेरे लिये न केवल विभागाध्यक्ष और साहब रहे हैं अपितु एक बंधु और स्वकीयजन-आप्त होकर रहे हैं। अतएव स्वकीय और आप्तजनों के ऋण में निर्देश से मुक्त होने का प्रश्न ही नहीं है। बेहतर यही है कि ऐसे ऋण में बारंबार रहने का सद्भाग्य प्राप्त होता रहे ऐसी कामना करना।
अखंडानंद आयुर्वेदिक सरकारी हॉस्पिटल और कॉलेज के अधीक्षक तथा प्राचार्य वैद्य श्रो०के० सदाशिव शर्माजी एक ऐसे ही आप्त हैं-जिनके बारे में, “वाचमर्थोनुधावति” यह उक्ति आयुर्वेद क्षेत्र में चरितार्थ होती है। इस ग्रंथ के शास्त्रीय चर्चा में, समस्याओं में अपने निरलस चर्चा करने का सुअवसर मुझे दिया जिसका अतीव मौलिक लाभ हुआ है। मैं आपका और इसलिये भी कृतज्ञ हूँ कि आतुरालयीन अन्वेषणार्थ आपने मुझे हर प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं।
गुजरात राज्य के आयुर्वेद निर्देश-वैद्यराज श्री खंडुभाई बारोट साहब का में अत्यंत कृतज्ञ हूँ – जो निरतिशय प्रेमपूर्वक विभागीय कामकाज में मुझे सुविधाएं परामर्श देकर मेरा उत्साह सतत बढ़ाते रहे हैं।
इस ग्रंथ लेखन के कार्यकाल में मैंने अनेक वैद्यवर्यों के साथ प्रत्यक्ष अथवा पत्राचार से परामर्श प्राप्त किया है तथापि स्नातकोत्तर प्रशिक्षण केन्द्र के भूतपूर्व स्व० भास्कर विश्वनाथजी गोखले, भू.पू. प्राचार्य श्री द०अ० कुलकर्णी, प्रा० श्री वासुदेवभाई द्विवेदी, प्रा० श्री विश्वनाथजी द्विवेदी तथा प्रा० श्री द्वारकानाथ जी जिनके प्रवचनों का मेरे आयुर्वेदीय दृष्टिकोण के निर्माण में महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा है मैं आपको आजीवन भूल नहीं सकता। वैद्यराज श्री गोविंद प्रसादजी-आयुर्वेद परामर्शदाता-गुजरात राज्य, वैद्य नटवर प्रसादजी शास्त्री-प्रमुख गुजरात वैद्य सभा, अहमदाबाद आदरणीय वैद्य मनिषी नारायण हरि जोशी-बम्बई, वैद्य त्र्यं म० गोगटे अमरावती इन सभी महानुभावों का मैं कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे सदा ही अभीप्सित सहाय्य किया है। इस ग्रंथ के कलेवर निर्माण में मेरे अनेक मित्रों का अमूल्य सहाय्य हुआ है-जिनमें वैद्य श्री एस० बी० गुप्ता का व्यक्तिमत्व अविस्मरणीय है श्री यशवंत सोनेवणेजी ने ग्रंथ के चित निर्माण में तथा ‘संदेश’ पत्र के फोटोग्राफर श्री कल्याणभाई शाहजी ने विज्ञानोपयोगी फोटोग्राफ तैयार करने में जो तत्यरता दिखाई है मैं उनका अभारी हूँ।
अंत में श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन के संचालक आदरणीय वैद्य श्री रामनारायण जी शर्मा, जो उदारतत्व और आयुर्वेद के एकनिष्ठ सेवक हैं-प्रधान अधिष्ठाता हैं-आपका मैं बहुत कृतज्ञ हूँ-न केवल इसलिये कि आपने इस ग्रंथ का समयोचित प्रकाशन किया है-बल्कि बारंबार सहृदय पत्रों द्वारा मुझे लेखन कार्य में प्रवृत और प्रोत्साहित किया है। आपके उदार आश्रय तथा मनोनीत कार्य में आपने जो परम्परा कायम की है वैद्य समाज उससे हमेशा कृतज्ञ है।
और अंत में इस ग्रंथ की त्रुटियों, उपयुक्त सुधारों, सूचनाओं के लिये सभी विद्वज्जनों को आवाहन करते हुए मैं आश्वासित करता हूँ कि ऐसे परामर्शों का मैं इस विषय के विद्यार्थी के नाते सतत् स्वागत करूँगा।
“आयुर्वेदीय पंचकर्म विज्ञान” नामक यह ग्रंथ विज्ञ एवं विज्ञानप्रेमी वाचकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे परम संतोष होता है। गत एक तप तक पंचकर्म विषय में कृत अध्ययन अध्यापन, तथा प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर लिखित यह ग्रंथ इस विषय पर संभवतः प्रथम ही अनोखा वैशिष्ट्यपूर्ण ग्रंथ होगा ऐसा कहने में आत्मश्लाघा का दोष नहीं आयेगा ऐसी आशा है-किंतु वैसी वस्तुस्थिति है। विगत वर्षों में ऐसे ग्रंथ की त्रुटि मुझे भी कठिनाइयों में डालती रही है। ईश्वर की कृपा से और सद्भाग्य से मुझे स्नातक, स्नातकोत्तर रिफ्रेशर, अन्वेषक तथा नर्सेस इन सब् स्तर के छात्रों को इस विषय का अध्यापन करने का मौका मिला है। इसी तरह आतुरालय कार्य और अन्वेषण कार्य की कुछ उत्तरदायित्व निभाने का सुअवसर प्राप्त हो सका है। एक तप-अर्थात् बारह वर्ष-यद्यपि बहुत अधिक काल नहीं है-तथापि एक अत्यंत भोडवाले आतुरालय-विशाल अंतरंग विभाग के कार्य का यह काल अल्प भी निश्चित नहीं है। इस अधिकार को ग्रहण कर मैंने आपके समक्ष यह ग्रंथ प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।
इसके लेखन में प्रधानतया तीन उद्देश्य सामने रखे थे। एक वैद्यकीय छात्र को पंचकर्म का शास्त्रीय परिचयात्मक पाठ्यम्रंथ प्राप्त हो। दूसरा-प्रत्यक्ष कर्म में जो वैद्य व्यवसाय में लगे हुए हैं उन्हें प्रत्यक्षकर्मों की वैज्ञानिक पद्धति मिल जाए तथा तीसरा उद्देश्य-स्नातकोत्तर छात्रों को एवं अन्वेषकों को अपने विषय में समस्याएं, समस्यःओं को सुलझाने की विचारपद्धति इस बारे में अल्प-स्वल्प सहाय्यभूत हो सके। इसमें कितनी सफलता प्राप्त हुई है यह निर्णय विज्ञ मर्मज्ञों को तथा उपर्युक्त तीन अधिकारियों को स्वयं करना है।
इस ग्रंथ के लेखन में एक और ध्यान इसका रखा गया है कि यह ग्रंथ हाथ में होने पर पंचकर्म संबंध में सहाय्यार्थ अन्य किसी ग्रंथ की आवश्यकता न पड़े। एतदर्थ-तद्विषयक द्रव्यगुणशास्त्र, भैषज्य कल्पना शास्त्र, रसशास्त्र, शारीर विज्ञान, प्राणिशास्त्र इत्यादि का जहां संबंध आता हो, उस विषय की उपयोगी सामग्री इसी ग्रंथ में प्रस्तुत किया है। जिससे यह अपने में स्वयंपूर्ण ऐसा ग्रंथ हो सके ऐसा प्रयास किया गया है। पंचकर्म विषय में जो जो सामग्री संहिता ग्रंथों में मिल सकी उसे ‘बुद्धियोग’ ‘स्वानुभूति’ के निष्कर्ष पर रख इसमें प्रस्तुत किया है। प्रत्येक कर्म को प्रत्यक्ष करने में सुविधा-तथा उसके पीछे रहा हुआ शास्त्र भी अवगत हो-इस प्रकार-पूर्वकर्म, प्रधानकर्म और पश्चात्कर्म-शीर्षकों के द्वारा विशद किया गया है। शास्त्रीय परिभाषाओं का ध्यान इसलिये रखा है कि छात्रगण, वैद्यगण, तथा अनुभूति से आतुरगण-जन-संमर्द–इनमें ये शब्द सर्वश्रुत हो जाये। पंचकर्म के विषय में मुझे जो कुछ कहना था वह मैंने “विषय प्रवेश विज्ञान” नामक प्रथम अध्याय में कह दिया है। यहां तो कुछ और ही कहना है।
इस ग्रंथ के निर्माण में मुझ पर अनेक महानुभावों का ऋण है। जामनगर के स्नातकोत्तर प्रशिक्षण केंद्र तत्कालीन पंचकर्म विभागाध्यक्ष, और वर्तमान-भारत सरकार के आयुर्वेद परामर्शदाता डॉ० पी०एन० वासुदेव कुरुप साहब जैसे “दक्षस्तीर्थाप्त शास्त्रार्थी दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक्” के मार्गदर्शन के नीचे आपके सहायक के रूप में काम करने का सद्भाग्य है मिला। आपके प्रवचनों, अध्यापन, मनन, निदध्यास के इस यज्ञ में आहुति डालने के लिये मेरा व यदि बलवत्तर न होता तो संभवतः मैं इस विषय पर कदापि अधिकार लेखनी से लिखने में क्षम न होता, तथापि आप मेरे लिये न केवल विभागाध्यक्ष और साहब रहे हैं अपितु एक बंधु और स्वकीयजन-आप्त होकर रहे हैं। अतएव स्वकीय और आप्तजनों के ऋण में निर्देश से मुक्त होने का प्रश्न ही नहीं है। बेहतर यही है कि ऐसे ऋण में बारंबार रहने का सद्भाग्य प्राप्त होता रहे ऐसी कामना करना।
अखंडानंद आयुर्वेदिक सरकारी हॉस्पिटल और कॉलेज के अधीक्षक तथा प्राचार्य वैद्य श्रो०के० सदाशिव शर्माजी एक ऐसे ही आप्त हैं-जिनके बारे में, “वाचमर्थोनुधावति” यह उक्ति आयुर्वेद क्षेत्र में चरितार्थ होती है। इस ग्रंथ के शास्त्रीय चर्चा में, समस्याओं में अपने निरलस चर्चा करने का सुअवसर मुझे दिया जिसका अतीव मौलिक लाभ हुआ है। मैं आपका और इसलिये भी कृतज्ञ हूँ कि आतुरालयीन अन्वेषणार्थ आपने मुझे हर प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं।
गुजरात राज्य के आयुर्वेद निर्देश-वैद्यराज श्री खंडुभाई बारोट साहब का में अत्यंत कृतज्ञ हूँ – जो निरतिशय प्रेमपूर्वक विभागीय कामकाज में मुझे सुविधाएं परामर्श देकर मेरा उत्साह सतत बढ़ाते रहे हैं।
इस ग्रंथ लेखन के कार्यकाल में मैंने अनेक वैद्यवर्यों के साथ प्रत्यक्ष अथवा पत्राचार से परामर्श प्राप्त किया है तथापि स्नातकोत्तर प्रशिक्षण केन्द्र के भूतपूर्व स्व० भास्कर विश्वनाथजी गोखले, भू.पू. प्राचार्य श्री द०अ० कुलकर्णी, प्रा० श्री वासुदेवभाई द्विवेदी, प्रा० श्री विश्वनाथजी द्विवेदी तथा प्रा० श्री द्वारकानाथ जी जिनके प्रवचनों का मेरे आयुर्वेदीय दृष्टिकोण के निर्माण में महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा है मैं आपको आजीवन भूल नहीं सकता। वैद्यराज श्री गोविंद प्रसादजी-आयुर्वेद परामर्शदाता-गुजरात राज्य, वैद्य नटवर प्रसादजी शास्त्री-प्रमुख गुजरात वैद्य सभा, अहमदाबाद आदरणीय वैद्य मनिषी नारायण हरि जोशी-बम्बई, वैद्य त्र्यं म० गोगटे अमरावती इन सभी महानुभावों का मैं कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे सदा ही अभीप्सित सहाय्य किया है। इस ग्रंथ के कलेवर निर्माण में मेरे अनेक मित्रों का अमूल्य सहाय्य हुआ है-जिनमें वैद्य श्री एस० बी० गुप्ता का व्यक्तिमत्व अविस्मरणीय है श्री यशवंत सोनेवणेजी ने ग्रंथ के चित निर्माण में तथा ‘संदेश’ पत्र के फोटोग्राफर श्री कल्याणभाई शाहजी ने विज्ञानोपयोगी फोटोग्राफ तैयार करने में जो तत्यरता दिखाई है मैं उनका अभारी हूँ।
अंत में श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन के संचालक आदरणीय वैद्य श्री रामनारायण जी शर्मा, जो उदारतत्व और आयुर्वेद के एकनिष्ठ सेवक हैं-प्रधान अधिष्ठाता हैं-आपका मैं बहुत कृतज्ञ हूँ-न केवल इसलिये कि आपने इस ग्रंथ का समयोचित प्रकाशन किया है-बल्कि बारंबार सहृदय पत्रों द्वारा मुझे लेखन कार्य में प्रवृत और प्रोत्साहित किया है। आपके उदार आश्रय तथा मनोनीत कार्य में आपने जो परम्परा कायम की है वैद्य समाज उससे हमेशा कृतज्ञ है।
और अंत में इस ग्रंथ की त्रुटियों, उपयुक्त सुधारों, सूचनाओं के लिये सभी विद्वज्जनों को आवाहन करते हुए मैं आश्वासित करता हूँ कि ऐसे परामर्शों का मैं इस विषय के विद्यार्थी के नाते सतत् स्वागत करूँगा।
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