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कश्मीर रात के बाद

कमलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3335
आईएसबीएन :81-7016-248-3

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प्रस्तुत पुस्तक में कश्मीर की यात्रा का एक बहुत ही सुखद वर्णन किया है

Kasmir Rat Ke Bad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर का कश्मीर से पुराना और गहरा लगाव रहा है। ‘कश्मीरः रात के बाद’ में लेखक के इस इस पुराने और गहरे कश्मीरी लगाव को शिद्दत से महसुस किया जा सकता है। एक गप्पकार की नक्काशी, एक पत्रकार की निर्भीकता,एक चेतस इतिहास-दृष्टा की पैनी नजर तथा सबके मूल में जन सामान्य से प्रतिश्रुत मानवीय सरोकारों से लैस यह यात्रा-वृत्तांत लेखक कमलेश्वर का एक और अप्रतिम योगदान है।
‘कश्मीरः रात के बाद संभवतः हिन्दी में पहला एसा मानक प्रयास भी है दजो कैमरा और कलम को एक साथ इस अंदाज से प्रस्तुत करता है ताकि दोनों की अस्मिता पूर्णतः मुक्त भी रहे। शायद इससे भी महात्त्वपूर्ण बात यह है कि इस यात्रा-रिपोर्ताज में कश्मीर के बर्फीले तूफानों और चट्टानों के खिसकने का शाब्दिक ‘रोमांच’ मात्र नहीं है बल्कि यहाँ है-इतिहास और धर्म (युद्ध) को अपनी एकल परिभाषा देने के मंसूबों को तर्क और विवेक के बल पर ध्वस्त कर सकने की सहमतिजन्य प्रतिभा। कय़श्मीर की राजनीकति में, बल्कि कहें कि अराजक ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ में यह लेखक मात्र पत्रकार का तटस्थ और निष्फल बाना घारण करके प्रवेश नहीं करता बल्कि वह एक ऐसा सच्चे और खरे इंसान के रुप में हस्तक्षेप करता है जो भारतीयता को जानता है और कश्मीरियत को पहचानता है । वह कृति के नैसर्गिक सौंदर्य-पाश में बँधा, प्रकृति के अप्रत्यासित रौद्र रुप को, जान की बाजी लगाकर देखता है तो वह आतंकवादियों के विष-बुझे ठिकानों को भी अपने कलम और कैमरे के माध्यम से उद्घाटित करता है। वास्तव में यहा साहस इस यात्रा-वृत्तांत को अविस्मरणीयता सौंपता है।
इस पुस्तक में कश्मीर की कुछ खंडित यात्राएँ भी हैं जिनमें जन सामान्य के प्रति लेखक की प्रतिबद्धता को शब्द-दर-शब्द पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। परवर्ती यात्रा के रुप में कमलेश्वर ने सुलगते कश्मीर की उस झुलशन को शब्द दिए हैं, जिसे तमाम तकनीक विकास के बावजूद कैमरा पकड़ नहीं पाता। यह किताब मुद्रित शब्द और कैमरे के आधुनिक युग की सामर्थ्य और सीमा का भी संभवतः अनुपम दस्तावेज साबित होगी।

यह सफ़रनामाः कश्मीर- रात के बाद

जब मैं कश्मीर का दूसरा सफ़रनामा लिख रहा था, तो एक दिन बाहर बालकनी में खड़ा था। वहाँ मैंने कुछ पौधे लगाए हैं। उनमें जब एक पौधे में पहली बार फूल आया तो मैंने डायरी में उस पहले फूल की तारीख़ नोट की। फिर और पौधों में फूल आए तो एक दिन देखा-एक तितली आई। उसकी तारीख़ भी मैंने नोट की। कुछ महीनों बाद तो पौधों में खू़ब फूल आने लगे और तितलियाँ भी खू़ब आने लगीं। यानि वह रोज़ का नजा़रा हो गया। पौधे अपने मौसम से खिलते रहे और तितलियाँ भी आती रहीं।
लेकिन उस दिन जब बालकनी में खड़ा हुआ तो एक भयावह दृश्य देखने को मिला। एक तितली फूलों की तरफ़ आ रही थी और एक कौआ उसका पीछा कर रहा था तितली बहुत फुर्तीली थी, कभी चमक के ऊपर उड़ जाती, कभी दाहिने या बाएँ मुड़कर फूल की तरफ आने की कोशिश करती। आख़िर एक मोड़ पर कौए ने उसके एक पर का थोड़ा-सा हिस्सा कुतर ही लिया... जैसे-तैसे तितली एक फूल तक आई और बैठकर सुस्ताने लगी। पंख कुतर जाने के बाद भी उसमें उड़ने की ताक़त थी। कुछ पलों बाद उसने अपने पंखों को तौला, उड़ी और फिर आकर उस फूल पर बैठ गई !
यह सफ़रनामा लिखते-लिखते मुझे बार-बार उस तितली की याद आती रही। शायद इसलिए कि यही नैसर्गिक सच्चाई है-तितली और फूल की।

तो दहकते, सुलगते जलते कश्मीर का यह सफ़रनामा पेश है मेरे उन पाठकों के लिए, जिन्होंने हमेशा मुझसे साहित्य के अलावा समय के आवश्यक सवालों पर लिखने की अपेक्षा की है... बरसों मैंने इसलिए अख़बारों और पत्रिकाओं में ज्वलंत प्रश्नों पर कॉलम लिखे हैं।
लेकिन यह सफ़रनामा- अपने भारतीय होने के एहसास के अलावा, अगर नीरज के शब्दों में कहूँ तो - ‘यह शायरी जु़बां हैं किसी बेजु़बान की !’ और दुष्यंत के शब्दों में कहूँ तो- ‘कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं !’ हालाँकि दुष्यंत यह बात बिलकुल अलग संदर्भ में कही है, पर हर वह बड़ी बात जो गहराई से महसूस करके साहित्य में कही जाती है, वह बदले हुए संदर्भों में नया अर्थ देने लगती है। कुछ इन्हीं बदले हुए अर्थों में मुझे लगा कि हमारा कश्मीर गाते-गाते चिल्लाने क्यों लगा है ? और यह कैसे मंजर सामने आने लगे हैं ?
कश्मीर की इन सन् 93-94 की यात्राओं के बाद लगा कि शायद नीरज की पंक्ति के सहारे यह कहा जा सकता है कि ‘यह शायरी (यानी या सफ़रनामा) ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की !’

मैं नहीं जानता की अमरीकी शतरंज की बिसात पर कश्मीर का क्या भविष्य होगा, क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद अब अमेरिका प्रथम और अकेली महाशक्ति के रूप में दुनिया के राजनीतिक और सामरिक संतुलन का नियमन करना चाहता है, और कश्मीर के समझदार लोगों से गम्भीर बातचीत करने के बाद यह बात भी उजागर हुई कि सोवियत संघ के विघटन को हासिल करने के बाद, अब अमेरिका चीन पर घेरा डालना चाहता है, और इसके लिए उसे कश्मीर घाटी और लद्दाख की ज़रूरत है, इसलिए कश्मीर की आग तो बुझने वाली नहीं है-पाकिस्तान तो अमरीका का एक मोहरा है, जैसा कि उसे अफ़गानिस्तान के लिए मोहरा बनाया गया था।
यह सफ़रनामा कुछ अजीब सा है, क्योंकि यह खुली यात्राओं का विवरण नहीं है। यह असामान्य युद्ध-स्थितियों के बीच अधूरे साक्षात्कारों और अधूरी सच्चाइयों का रोज़नामचा है। किसकी बात में कितना भयग्रस्त सत्य और कितना आत्मिक सत्य है, यह कहा नहीं जा सकता। मैंने उस सत्य को ईमानदार भारतीय लेखक-पत्रकार के रूप में देखने और दर्ज करने की कोशिश की है, ताकि यदि पाकिस्तानी साज़िशों और अमरीकी इरादों के तहत भारत के इस भूभाग-कश्मीर की राजनीतिक और भौगोलिक सच्चाइयों को बदलने की कोशिश की जाए, तो मानवीय चिन्ताओं और दायित्व का यह दास्तावेज़ बदले, हुए या न बदले जा सके इतिहास का साक्षी रहे !

कश्मीर क्या था, यह अब सुखद स्मृतियों का इतिहास है। अब न वहाँ जनदेवता ड्राइवर है, न कमाला और केतकी के फूल। बेंतवन हैं और न वह झेलम नदी।
अब तो कश्मीर में कुछ और ही है। इसे समझना और दर्ज करना भी ज़रूरी था। वही मैंने इस पुस्तक में किया है।
तो चालीस साल पहले के यात्रा-वृत्तांत- ‘खण्डित यात्राएँ’ को एक अलग खण्ड के रूप में इसी में शामिल कर लिया गया है, और अपने दोस्त जवाहर चौधरी के प्रकाशकीय को बदल कर उस पुरातन खण्ड की भूमिका के रूप में दिया गया है क्योंकि वह किसी प्रकाशक की व्यवसायिक टिप्पणी से ज्या़दा एक लेखक की टिप्पणी है।
मैंने अपने उपन्यास को रोककर यह पुस्तक पूरी की है। यह मेरी मजबूरी है क्योंकि मेरे समय में जो में जो कुछ घटित होता है, उसे नकार कर या नज़रअंदाज़ करके मैं कुछ भी लिखने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ।
यह सफ़रनामा मेरे अपने पाठकों को समर्पित है !
कश्मीर जलता सवाल
हुआ यह कि एक दिन कश्मीर में सूचना सलाहकार श्री राममोहन राव से मुलाकात हो गई। मैं उन्हें पहले ही जानता था, जब वे भारत सरकार के प्रिंसिपल इन्फार्मेशन आफिसर और प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार भी थे। मैं उन दिनों दूरदर्शन में था और राव साहब से सरकारी स्तर पर मुलाकातें होती रहती थीं। तब भी मैंने महसूस किया था कि राव साहब बड़े खुले और संतुलित ढंग से देश की समस्याओं के बारे में सोचते और विचार व्यक्त करते थे। न तो उनमें सुपर-सरकारी पत्रकार होने का दंभ था और न सरकारी समाचारों नियंता होने का अफलातूनी शौर्य !
तो मुलाका़त हुई और जा़हिर है कि बातें कश्मीर पर होने लगीं। मैंने उन्हें बताया था कि 22 अगस्त ’93 को ही मैं चुपचाप श्रीनगर गया था, और किसी तरह एक हादसे से बचकर वापस आ गया था। राममोहन राव से फिर कश्मीर के हालत पर लम्बी चर्चा हुई। ताज्जुब हुआ कि कश्मीर को लेकर उनके दिल और दिमाग़ पर दहशतगर्दों की उतनी छाया नहीं थी, जितनी की वहाँ के लोगों की अंदरूनी तकलीफ़ की- गन- बन्दूक के डर से ज़ुबान न खोल सकने की मजबूरी की। मुझे तब लगा कि एक पत्रकार की यही सबसे बड़ी चिंता हो सकती है। और राव साहब चाहे जिस ओहदे पर हों, उनके भीतर का पत्रकार अब शायद और अधिक जीवित और जीवंत था। बहरहाल ... तो तय यह हुआ कि मुझे फिर कश्मीर जाना चाहिए और एक स्वतन्त्रजीवी भारतीय पत्रकार के रूप में कश्मीरियों की बंद आवाज़ को समझने और सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए।
यों सन् ’56 से अब तक मैं दसियों बार कश्मीर गया हूँ। महीनों वहाँ ठहरा हूँ। वहाँ के संस्मरण लिखे हैं। वहाँ कई हिंदी फ़िल्मों की शूटिंग में लेखक की तरह शामिल रहा हूँ। मोहन राकेश की बनती-बिगड़ती घरेलू जिंदगी का एक तकलीफ़देह दौर कश्मीर में सामने आया। ‘पैरतले की ज़मीन’ की लिद्दर नदी में आई बाढ़ वाली दुर्घटना का सामना भी मैंने और राकेश ने यहीं साथ-साथ किया। कश्मीर की दुर्गम यात्राएँ भी मुझे याद हैं, जिनमें उपेंद्रनाथ अश्क और मोहन राकेश साथ थे। इतिहासकार डॉ. फीरोज़ अशरफ के सान्निध्य में रहने का मौका़ भी हाथ आया था और ओमकार काचरू जैसा दोस्त भी यहीं मिला था। दीनानाथ नादिम जैसे महत्त्वपूर्ण कश्मीरी कवि के साथ यहाँ बहुत-सी शामें गुज़री थीं ! एक खा़स पाकिस्तानी बेगम साहिबा से यहीं मुलाका़त हुई थी।
लेकिन वह कश्मीर दूसरा था।
यह सन् 1990 के बाद बंदूक और बारूद के धुएँ से भरा और ख़ून से लथपथ कश्मीर दूसरा ही था ! और फिर मुझे वहाँ जाना था।
तारीख़ थी 19 सितम्बर 1993।
पाकिस्तान की शह, उकसावे और मदद से कश्मीर घाटी में लूटपाट, आगजनी, हत्या, बलात्कार, रैंसम, किडनैपिंग और मारकाट का बाजार गर्म था। भारतीय सुरक्षा बल पाकिस्तान और उसकी खुफि़या एजेंसी आई. एस. आई. द्वारा जारी किए गए छाया युद्ध में लिप्त थे। हमें ख़बरों और जानकारियों का एक पुलिंदा दिया गया था और आगाह किया गया था कि मुझे श्रीनगर तक जाना तो इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट से है-अन्य कश्मीरी यात्रियों के साथ, पर फ़्लाइट में सुरक्षा का पूरा इन्तज़ाम है और श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरते ही हमें सीमा सुरक्षा बल के संरक्षण में ले लिया जाएगा। सारी व्यवस्था फुल-प्रूफ़ है।
तो मैं 19 सितम्बर ’93 की सुबह दिल्ली से श्रीनगर के लिए रवाना हुआ... एयरपोर्ट लाउंज में ज़्यादातर यात्री कश्मीरी ही थे। उड़ान का इंतज़ार करते हुए कुछेक से यूं ही बातचीत भी शुरू हो गई... कश्मीर जाने वाले यात्री सौ फी़सदी कश्मीरी मुसलमान ही थे। जम्मू उतरने वाले ज़्यादातर धर्म से हिंदू थे। पर दिल्ली एयरपोर्ट पर धर्म का कोई भेदभाव कहीं मौजूद नहीं था।
मैंने अपने अनुभव के लिए अपनी चेतना के सारे दरवाजे़ खुले रखे थे और कश्मीर जाने वाले हर यात्री के तौर तरीक़ों को बड़े ग़ौर से, पर कैजुअल दिखते हुए मार्क कर रहा था। जानेवाले यात्री शक्ल से डूंगर या कश्मीरी थे, पहनावे और बोलचाल से भी, पर उनमें कहीं भी ग़ैर हिंदुस्तानी होने का अहसास नहीं था। सबके लिए लाउंज में वही पानी था, वही कॉफ़ी। कोई कहवा न मिलने की शिकायत नहीं कर रहा था।

कश्मीरी यात्रियों में सुंदर औरतें और फूलों की तरह खिली और ख़ुशनुमा लड़कियाँ यतीं। पढ़ी-लिखी लड़कियों के बाल, मेकअप और तौर-तरीक़े वही थे जो मिरांडा या लेडी श्रीराम में पढनेवाली लड़कियों के होते हैं। वे उतनी ही उन्मुख, आज़ाद और बेख़बर थीं, जितनी की कोई भी भारतीय लड़की होती है या हो सकती थी। वे अच्छे घरों और तहजी़बयाफ्ता खा़नदानों की लड़कियाँ थीं।
आख़िर फ़्लाइट का एनाउंसमेंट हुआ। हम सबको बसों में बैठाकर हवाई जहाज़ तक बहुँचा दिया गया। बस में बैठते हुए भी कहीं कोई ख़ास फ़र्क़ या दूरी नहीं थी। यह भी ज़रूरी नहीं था कि औरतें औरतों के पास ही बैठें... या अपने आदमियों की छाया में खड़ी हों, या अपने बदन चुराने की कोई खुली कोशिश करें। संस्कारों की सहज पाबंदियाँ थीं- कश्मीरी या भारतीय जन या मुसलमान से अलग होने, दिखने या लगने की कोई लादी हुई कोशिश कहीं नहीं थी।
जहाज़ में सीटों के नम्बरों के मुताबिक ही बैठना था। मेरी बगल में एक कश्मीरी नौजवान बैठा था और आइल के बादवाली सीट पर शायद उसकी बहन। उस लड़की की बगल में जम्मू उतरनेवाला एक डूंगर नौजवान था जो अपनी पत्नी के साथ जम्मू जा रहा था। उस कश्मीरी नौजवान और उसकी बहन ने साथ-साथ बैठने की भी कोई पेशकश नहीं की।
जहाज़ उड चला तो नाश्ता मिलने से कुछ पहले आइल के पार बैठी लड़की ने कुछ कहा। मैं समझा शायद वह अपने भाई से कुछ कहना चाह रही थी, तो मैंने कहा आप चाहे तो सीट पर आ जाएँ
-नहीं ठीक है...यहाँ भी ठीक है...
- आप इनसे कुछ बात करना चाह रही थीं...
- हाँ, मैं कश्मीरी में इससे पूछ रही थी कि आप टीवी के कमलेश्वर साहब की तरह नहीं लग रहे हैं ?
-जी मैं कमलेश्वर ही हूँ !
-जी बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर...हमें आपकी आवाज़ से ही शक हुआ था...
फिर नाश्ता आ गया।
और मैं सोचने लगा कि मुझे तो आगाह किया गया था कि जब तक आपको कोई न पहचाने, तब तक आप अपना परिचय न दें... पहचाने भी तो भी बेहतर यही होगा कि आप कांशस न हों, और ख़ुद को पहचाने जाने के सिलसिले में, जहाँ तक मुमकिन हो, ख़ुद आप मददगार न हों।
और इस बात की तो ख़ास ताकी़द की गई थी कि पहचाने जाने के बाद भी मैं भारतीय दूरदर्शन से जुड़े होने की सच्चाई मंजूर न करूँ। ज़रूरत पड़ ही जाए तो इतना ही मंजूर करूँ कि आठ-दस साल पहले मैं टीवी में था, पर अब इतने बरसों से भारतीय दूरदर्शन से अलग होकर मैं विदेशी टेलीविजन कंपनियों के लिए काम कर रहा हूँ।
नाश्ता करते-करते मैं यही सब सोच रहा था और पछता भी रहा था कि मैं तो पहले ही इम्तिहान में ख़ुद फ़ेल हो गया हूँ। लोकप्रियता भी एक नशा है और उस नशे में मैं सारी हिदायतें भूल गया था। मैंने सफ़र के बीसवें मिनट में ही ख़तरे के दरवा़ज़े ख़ुद ही खोल दिए थे। नाश्ता करते हुए मैं चोर निगाहों से उस लड़की और लड़के को देख लेता था... पर दाहिने या बाएँ, किसी भी सिम्त से कोई ख़तरा मुझे नहीं दिखाई देता था।
जम्मू के करीब एक तिहाई लोग उतर गए। जब जहाज़ श्री नगर की ओर उडा़ तो नजा़रा ही बदलने लगा। कुदरती नजा़रा तो वही था- बाहर मीलों तक साथ चलती बर्फ ढकी चोटियाँ... पर्वत-श्रृंखलाओं की सफे़द पलटनें पामीर के पठार तक शायद कतारबद्ध खड़ी हुईं और उनकी घाटियों में भरा हुआ दूधिया कोहरा। फिर कुछ ही मिनटों बाद खुलती हुई कश्मीर की घाटी... पतझड़ से पीले पड़ते हुए पेड़... बाहर सब कुछ वही और वैसा ही था, जो सदियों से इस मौसम में दिखाई देता होगा ! दशकों से तो मैंने ख़ुद कश्मीर की इस कुदरत और इस मौसम को हमेशा ऐसा ही देखा है।
लेकिन जहाज़ के भीतर का मौसम एकाएक बिल्कुल बदल सा गया था। वे कश्मीरी जो अभी तक भारतीय और कश्मीरी लग रहे थे, एकाएक कश्मीरी और मुसलमान लगने लगे थे। सबके सिरों पर ऊनी, सूती और मोटे धागों की जालीदार टोपियाँ आ गई थीं। महिलाओं का सारा मेकअप उतर गया था। उनके खू़बसूरत बाल और आधा माथा चादरों से ढक गया था... कुछेक के ज़िस्म बुरकों से छिप गए थे। आँखों का काजल मलगुजे़ रूमालों में पुँछ गया था। इंद्रधनुषी दुपट्टों की जगह अब सफेद और काली चादरों ने ले ली थी और कश्मीरी त्वचा की उदास ज़र्दी उभर आई थी। ऐसा लगा था कि खिले हुए चमन पर पाला पड़ गया था।
और जहाज़ अब श्रीनगर उतरने ही वाला था।

जहाज़ श्रीनगर उतरा


श्रीनगर उतरने से पहले जहाज़ ने ऊपर आसमान में एक चक्कर लगाया। मौसम पतझड़ का था। यों जहाज़ के अंदर पतझ़ड़ आ ही चुका था। नीचे बादामी-पीले कालीनों के ख़ूबसूरत टुकड़े बिछे थे। जहाज़ अभी काफ़ी ऊपर था। सफ़ेदे के पेड़ धरती में तीरों की तरह गढ़े हुए थे। जब जहाज़ काफ़ी नीचे आकर धरती की सतह के साथ-साथ उतरता हुआ सीमेंट की सुरमई रनवे को छूनेवाला था, तो दूर पर चिनार के एकाध पेड़ दिखाई दिए थे। वे अपने बाल छितराए हुए थे। शायद मैंने उन्हें कल्पना में देखा था, क्योंकि अब जहाज़ उतरकर रुका, तो दूर-दूर तक चिनार का कोई पेड़ नहीं दिखाई दिया।
लोग बाक़ायदा उतरने लगे। मैंने अपना बैग सँभाला और ख़ुद को आगाह करते हुए उतरा कि मुझे अपनी पहचान का शिकार नहीं होना है। एयरपोर्ट की इमारत मुँडेरों पर पड़े सीले और मैले लिहाफ़ की तरह सूख रही थी। जहाज़ की सीढियों के पास तीन-चार गुच्छों में बीस-बाईस लोग खड़े थे। उनमें सुरक्षाबलों या सेना की ड्रेस में कोई नहीं था। फिर भी मैं इतना तो खोज ही रहा था कि कोई मुझे लेने आया होगा। मैं एक साहब को देखकर मुस्कराया, वे भी मुस्कराए, फिर वे आगे बढ़ गए।
हुआ यह था कि इस बार मेरी टीवी टीम चार दिन पहले ही श्रीनगर पहुँच चुकी थी और एक प्राइवेट होटल में ठहरकर कश्मीर के आंतकवादियों से सम्पर्क स्थापित कर चुकी थी। सन् ’93 के पतझड़ वाले कश्मीर में यह कोई मुश्किल काम नहीं है। वैसे कश्मीर में पचानवे फ़ीसदी होटल बंद पड़े हैं। शराबघर, क्लब, रेस्तराँ और सिनेमाघर भी बंद हैं, जिन्हें आतंकवादियों की सरपरस्ती हासिल है।
कश्मीर में टूरिज़्म समाप्त हो चुका है, पर एक नई तरह का टूरिज़्म शुरू हुआ है- जो दहशतगर्दों का नया व्यापारी सिलसिला है। गिने-चुने दो-तीन प्राइवेट होटल, जो धंधा कर सकते हैं, वे दहशगर्दों के अड्डे तो नहीं हैं, पर वहाँ के सारे टैक्सीवाले, बेयरे और दूसरे लोग दहशगर्दों से सम्पर्क स्थापित कर सकने के ज़रिए भी हैं और गाइड्स भी। या कहे कि ब्रोकर्स हैं। इन ब्रोकर्स से पैसा तय हो जाता है और जो जितने नामी और इनामी दहशतगर्द से मिलवा सकता है, वह उतना ही ज़्यादा पैसा कमा लेता है।
एक तरह से कश्मीर अब इस नए धंधे का बाजार बन गया है। इस नए धंधे में खासतौर से वे बेरोज़गार शामिल हैं, जो आतंकवाद के कारण ही अपने रेस्तराओं, सिनेमाघरों, शराबघरों और क्लबों के धंधों से बेदख़ल हुए हैं। यह ज़्यादातर अनपढ और गली छाप हीरो हैं। इस्लाम एक बहुत ही संजीदा, ग़ैरपेचीदा, सीधा और सादा मज़हब है उसमें पश्चिमी दुनिया के थ्रिल, मस्ती और दिशाहीन अडवेंचर के लिय जगह नहीं है, पर अग्रेज़ों की दासता के ज़माने से से लेकर आज़ादी के इन तमाम सालों के साथ, टूरिज़्म की जो नई संस्कृति कश्मीर घाटी में पनपी है, वह मौज-मस्ती, पैसा बनाने और थ्रिल की संस्कृति है... ख़ासतौर से नवजवान पीढ़ी के लिए... एक पीढ़ी की जवानी के इन दस-पन्द्रह बरसों का जो इस्तेमाल पाकिस्तान और दहशतर्दों ने किया है, वह सचमुच बेमिसाल है। टूरिस्ट-संस्कृति की देन, दिशाहीन और मौज-मस्ती वाली, दस-पन्द्रह साल तक जीवित रहने वाली इसी ‘जवानी’ ने, पाकिस्तान से मदद पाकर और जमाते-इस्लामी की मज़हबी सरपरस्ती हासिल करके हथियार उठाए हैं।

और उधर भारतीय सत्ता में बैठे लोगों ने शेख़ अब्दुल्ला से लेकर फा़रुख़ अब्दुल्ला तक, कशमीर को जगीर की तरह सौंपकर उसके तमाम मुख्यमंत्रियों को ‘भारतीय समर्थन’ के एवज़ में भ्रष्टाचार, बेईमानी और ज़्यादितियाँ करने की खुली छूट दे रखी थी...नहीं तो कश्मीर में मज़हबी अंधवादिता क लिए कोई जगह नहीं थी। कष्मीरी मुसलमान मज़हबी है, पर वह सम्प्रदायिक नहीं है। आज कश्मीर में मज़हब के नाम पर वह साम्प्रदायिक नहीं है। तो खै़र... आज कश्मीर में मज़हब के नाम पर पकिस्तान और जमाते-इस्लामी ने एक बवंडर खड़ा कर रखा है।
इस मज़हबी बवंडर में शामिल यों तो क़रीब डेढ़-दो सौ तंज़ीमें हैं- संगठन है मगर इनमें से दस तंजी़में नामी-गिरामी हैं, जिन्हें पाकिस्तान में ट्रेनिंग, पैसा और हथियार मिलते हैं। इस सच्चाई को कश्मीर का बच्चा-बच्चा जानता है। दुनिया के सारे देश भी इस सच्चाई को जानते हैं। पर अमरीका समेत कुछ देश इसे जानते और मन-ही-मन मानते हुए भी मंजूर नहीं करना चाहते। यह अमरीका और अमरीकापरस्त देशों की स्वार्थगत कूटनीतिक और राजनीतिक ज़रूरत है !
अमरीका अब साम्यवादी चीन को घेरना चाहता है। उस नाकेबंदी के लिए उसे ‘आजाद’ कश्मीर चाहिए, ताकि वह लद्दाख को अलग कर सके और बौद्ध धर्म के नाम पर लद्धाख को ‘आज़ाद तिब्बत’ से मिलाकर इस संवेदनशील इलाके में चीन के घुटनों में ज़ंजीरें डाल सके, और इस दूरगामी नीति के तहत कश्मीर में हर दिन विदेशी-अमरीकी पत्रकारों की टोलियाँ उतरती रहती हैं, जो सैर-सपाटे के लिए नहीं, दहशतगर्दों से मिलने और भारत को, भारत के सुरक्षाबलों को बदनाम करने के नए-नए पहलू खोजती रहती हैं। इसलिए कश्मीर में सिर्फ़ पाकिस्तान-पोषित और अघोषित युद्ध ही नहीं चल रहा है, बल्कि कश्मीर में विदेशी पत्रकारों द्वारा चालित ज़बरदस्त कुप्रचार युद्ध भी जारी है। यह करोड़ो डालर का धंधा है, जिसका सीधा फायदा आतंकवादी प्रचार बाज़ार और उसके दलालों को मिल रहा है। दहशतगर्दों को ज़बरदस्त प्रचार चाहिए, इसलिए उनके दलालों ने यह नया धंधा शुरू किया है।
तो हमारी वीडियो टीम, जिसमें प्रणव बोस, धनपाल और सुरिंदर थे, श्रीनगर पहुँचकर आहदूश नामक प्राइवेट होटल में ठहर गई। जा़हिर है कि हमारी टीम सरकारी या
दूरदर्शन की टीम के नाम पर तो ठहर ही नहीं सकती थी ठहरती तो ख़तरा उठाती। इसलिए मैंने सिर्फ़ सुरक्षा की ख़ातिर एक विदेशी कम्पनी से समझौता कर लिया था और हमारी टीम उसी कंपनी के नाम तले उस प्राइवेट होटल में ठहरी थी। यह तो दूसरे ट्रिप की बात है। पहले ट्रिप में मैं इसी विदेशी कम्पनी (एटीएन) के नाम के सहारे श्रीनगर गया था और होटल सेंटोर में ठहरा था। इस होटल में सीआरपीएफ़ की छावनी है, पर इसके मैनेजर अनिल पार्ती मेरे अच्छे परिचित थे। दूसरी बार मेरी टीम ने फिर ख़तरा उठाया था और उसी प्राइवेट होटल नें ठहरकर कवरेज किया था। तब मैं उसके साथ नहीं था, क्योंकि मुझे भारतीय दूरदर्शन के पत्रकार के रूप में पहचान लिया गया था। यह किस्सा कुछ बाद में बताऊँगा।
मेरी टीम के पहुँचते ही ब्रोकर्स ने उन्हें आ घेरा था और अपना सहयोग देने की पेशकश की थी।
इतना सब कहने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि कश्मीर घाटी के यह नए पहलू कोई छुपी हुई चीज़ नहीं है। वहाँ के लोगों के लिए पाकिस्तानी और अमरीकी इरादे भी साफ हैं। इसीलिए ‘आजादी’ का मसला, या कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने का मसला- दोनों की असलियत कश्मीरी जनता है। लेकिन मुश्किल यह है कि बंदूक के खौ़फ़ के कारण वह बोल नहीं पाता। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कश्मीरी मुसलमान भारत-समर्थक है, वह अब तक की भारतीय नीति और राजनीति से शोषित और अपमानित महसूस करता है। पर इसी के साथ यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है कि कश्मीरी घाटी का मुसलमान नब्बे फी़सदी सेक्युलर सोच का समर्थक है- यह तथ्य ही भारत की सबसे बड़ी उम्मीद है !
इसका एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पहलू और भी है, और वह है कश्मीरियत। कश्मीर घाटी का आम कश्मीरी जानता और मानता है कि वह कश्मीरी हिंदुओं के साथ रह सकता है पर इस्लाम के नाम पर पाकिस्तानी पंजाबियों के साथ नहीं।
कश्मीरी घाटी की दूसरी महत्त्वपूर्ण सच्चाई यह है कि नियंत्रण रेखा के पार जो पाकिस्तान अधिकृत तथाकथित आ़ज़ाद कश्मीर है, उसके मुसलमान बाशिंदों की भाषा और कल्चर सोलह आने कश्मीरी नहीं है... इस इलाके की भाषा पंजाबी और पश्तो है और रहन-सहन भी कश्मीर घाटी के मूल निवासियों से अलग है। पाक हज़रतबल का जो धार्मिक महत्त्व कश्मीर घाटी के मुसलमानों के लिए है, उसका वह महत्त्व तथाकथित आज़ाद कश्मीर के कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी नहीं है। सूफी-ऋषि परम्परा का जो रूहानी असर कश्मीरी घाटी में है, वह तथाकथित आज़ाद कश्मीर में नहीं है।
इन सब बातों के चलते एक अजीब-सी स्थित है, कश्मीर में। कश्मीरी अवाम अपनी ‘आज़ादी’ की माँग को भी अच्छी तरह नहीं जानता, पर वहाँ अलग-अलग गुटों-ग्रुपों की आज़ादी की परिकल्पना अलग-अलग है और इन तमाम उलझे धागों के जंजाल में कश्मीरी अवाम फँसा हुआ है...वह भारतीय सुरक्षाबलों के साथ नहीं है, पर वह दहशतगर्दी से भी खुश नहीं है-क्योंकि सुरक्षाबलों के कड़े रूख का सामना भी कश्मीरी अवाम करता है, और आतंकवादियों की बंदूक से भी डरता है-इसलिए वह ख़ामोश रहने के लिए मज़बूर है क्योंकि उसके लिए एक तरफ़ खाई है तो दूसरी तरफ खंदक।
शक, संशय, भय दिशाहीनता और भविष्य की मारक अनिश्चितता के बीच आज की कश्मीर घाटी फँसी हुई है। वहाँ सिर्फ़ ख़तरा ही ख़तरा है। गलत ख़बरों और प्रोपेगण्डे की आँधियाँ वहाँ चल रही है। अफ़वाहों तथा ग़लतबयानी की इतनी रेत उड़ रही है कि किसी का चेहरा साफ़ दिखाई नहीं देता। कुछ चेहरों पर रेत की परत है, कुछ आँखों पर रेत का पर्दा है। सब कुछ धुँधला है।
ऐसे धुँधलके और ख़तरे के माहौल में मैं जहा़ज़ की सीढ़ी से उतरकर नीचे पहुँचा था। लोगों का पहला गुच्छा पार करके दूसरे या तीसरे गुच्छे के पास से गुज़रा तो एक साहब ने कहा-
-दूरदर्शन !
मैं खा़मोश रहा। दहशतगर्दों की हिट-लिस्ट में ‘दूरदर्शन का नाम काफी़ ऊपर है।
मैंने कोई प्रतिक्रिया जा़हिर नहीं की, क्योंकि मैं मिली हिदायतों से भी अधिक सतर्क था। मुझे पहले ही बता दिया गया था कि दिल्ली-श्रीनगर फ़्लाइट के पैसिंजरों की लिस्ट पहले ही आतंकवादियों के पास पहुँच जाती है, पर एयरपोर्ट तक खुले आम या हथियार लेकर घुस सकने की उनकी हिम्मत नहीं है।
मैं अपना बैग लिए अराइवल लाउंज की ओर चलता रहा, तो दो लोग साथ आ गए। उनमें से एक बोला-
-सर ! आपका एस्कोर्ट आया हुआ है ! और साथ चलते दूसरे आदमी से उसी आदमी ने आगे कहा- सर को एस्कोर्ट तक पहुँचा दो।
मुझे मालूम था कि सीमा सुरक्षाबल का एस्कोर्ट मुझे लेने आनेवाला था और मेरी टीम उस प्राइवेट होटल से निकलकर डिपार्चर लाउंज में पहुँचकर, भीतर ही भीतर अराइवल लाउंज में आकर मुझसे मिलने वाली थी। उस दूसरे आदमी ने मेरा बैग थाम लिया
हम अराइवल लाउंज में पहुँचे।
उस आदमी ने कहा-
-आइए सर एस्कोर्ट वाली गाड़ियाँ बाहर हैं।
मैंने कहा-पर मुझे अपना सूटकेस अभी लेना है। बैगेज आ जाए तो लेकर चलता हूँ... पर मेरी आँखे लगातार अपनी टीम या सीमा सुरक्षाबल के किसी वर्दीधारी को तलाश रही थीं तभी मुझे बोस दिखाई दिया और उसके साथ सिविलियन ड्रेस में एक बहुत ही चुस्त-दुरूस्त व्यक्ति। वे दोनों मेरी तरफ़ बढ़े, मैं उनकी तरफ़। सच कहूँ तो, अब सचमुच जान में जान आई थी। बोस के साथ वाले उस स्मार्ट अफसर ने अपना परिचय दिया-
-सर! मैं बी.एस. एफ का डिप्टी कमांडेंट विकास चन्द्रा।...आपका सामान...
-मेरा सूटकेस बैगेज में है और मेरा हैण्डबैग.. कहते हुए मैंने पलटकर देखा- तो मेरा हैण्डबैग कुछ दूर पर पीछे फर्श पर रखा हुआ था, पर जो साहब मुझे एस्कोर्ट तक पहुँचाने के लिए बैग लेकर अराइवल लाउंज तक साथ-साथ आए थे- उनका कहीं पता नहीं था !

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