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ठीकरे की मँगनी

नासिरा शर्मा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3337
आईएसबीएन :9788170163411

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**"ठीकरे की मँगनी : ठहराव से संघर्ष की ओर, सच्चाई की खोज में"**

Theekare Ki Mangani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महरुख़ की जिंदगी में ठहराव था और बहुत सारे लोगों के साथ-साथ चलने की ताक़त भी। इसी सोच से उसने बाहर और भीतर के सच को पहचाना था।

ठीकरे की मंगनी हुई थी महरुख़ के जन्म के साथ ही। तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी जीने वाले पुरुष की सत्ता को स्वीकारने के लिए मजबूर कर दिया था उसे। उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा था यह महरुख़ उस साँचे में ढली हुई थी, जिसे कोई तोड़ नहीं सकता। ठोस इरादे और नजरिए ने उसे थोपी हुई सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया।

समकालीन लेखन की परिचित लेखिका नासिरा शर्मा का यह एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें महरुख़ की दास्तान के माध्यम से दो खिड़कियाँ खुलती हैं, जिनमें एक गाँव है, वहाँ का स्कूल है, गाँव के असहाय लोग हैं, जिनके छोटे-छोटे दुखों से भी वह विचलित हो उठती है। दूसरी तरफ़ एक परम्परागत मुस्लिम खानदान है, उसमें रह रहे लोगों के अपने-अपने सरोकार और टकराव हैं। इन दोनों ही परिवेशों से गुजरते हुए महरुख़ बदहवास दुनिया की सच्चे अर्थों में पड़ताल करती है और चुनती है अपने लिए थरथराते सत्य को, जो उसे अकेला तो कर देता है, पर सशक्त ढंग से खड़ा होना सिखा देता है। औरत को जैसा होना चाहिए उसी की कहानी यह उपन्यास कहता है।
कथा-रचना की गठन अपने पूरे-पूरे आकार में उभरकर उद्वेलित करती है। ठीकरे की मंगनी वर्तमान कथा-साहित्य के बीच रेखांकित किया जाने वाला मार्मिक उपन्यास है।

 

कथन

मेरा विश्वास है कि इंसान दो बार जन्म लेता है, पहली बार तो माँ की कोख से और दूसरी बार हालात की मार से... प्रत्येक व्यक्ति कुछ सोच कर आगे बढ़ने के लिए किसी एक दिशा की ओर क़दम बढ़ाता है, मगर हवा उसे किसी दूसरी दिशा की ओर उड़ा ले जाती है। बनना वह कुछ और चाहता है और बन कुछ और जाता है। इंसान जैसा ऊपर से दिखता है, वैसा वह अंदर से होता नहीं है। किसी भी व्यक्ति के अंदर झांकिए तो महसूस होगा कि तहख़ाने-दर-तहख़ाने, कोठरियां-दर-कोठरीयां गलियां-दर-गलियां और जाने कितने पुरे-पेच-ख़म रास्तों का जाल फैला है, जिस पर से वह चल कर यहां पहुंचा है, जहां पर आपसे असकी पहली मुलाकात होती है और आप पल-भर में उसके व्यक्तित्व के बारे में ‘फ़तवा’ दे बैठते हैं।

         हालात की मार से पैदा हुई लड़की ‘महरूख़’ की यही कहानी है और दूसरी तरफ़ यह कहानी रफ़त भाई की भी है, मगर दोनों में जो बुनियादी फ़र्क़ है, वह नज़रिए का है। हालात प्रत्येक व्यक्ति को एक बार जिंदगी के चौराहे पर ला कर खड़ा कर देती है और यही समय होता है, जहां पर पहुंच कर इंसान अपना रास्ता चुनता है। कुछ अपने को हालात के हवाले कर देते हैं, कुछ सर झुका देते हैं, कुछ अपने को मिटा देते हैं और कुछ इस टूटन को एक नया अर्थ देकर यह बताते हैं कि यही जीवन का अन्तिम चौराहा नहीं है, इस लम्बी ज़िन्दगी में बहुत सारे चौराहे आपको मिलेंगे और यह आप होंगे, जो अपने रास्ते को पहचानते नाक की सीध में चलते हुए अपनी मंज़िल पर पहुंचेंगे।
         इन्हीं रास्तों पर चलने वाला पात्र है ‘महरूख़’ जो ज़िन्दगी को अपने नज़रिए से देखकर उसको एक पहचान, एक अर्थ देती हुई जनसमुदाय की आवाज़ में उदय होती है।

नई दिल्ली

 

नासिरा शर्मा

 

 

ठीकरे की मंगनी

 1


         ‘यह कौन सी ताक़त है, जो मेरी सांसों को अपनी गिरफ़्त में ले लेती है, जिससे मेरा सांस लेना दूभर हो जाता है...रूक-रूककर आती ये सांसे...! या ख़ुदा ! मैंने आखिर तेरा क्या बिगाड़ा है, जो यह उजाड़-वीरान शामें हर रोज़ मुझे निगलने की कोशिश में अपने काले डैने फैलाती है।’ महरूख़ ने अपनी सासों की छूटती डोर को पकड़ने की कोशिश में गहरी-गहरी सांसे भरनी शुरू कर दीं।

         कमरे की छोटी सी खिड़की, जिसके सामने देखने को कुछ भी नहीं है, महरूख़ के लिए इस तन्हाई के समन्दर में किसी रोशनी की मीनार से कम नहीं है, मगर यह मीनार भी हमेशा उसका साथ नहीं दे पाती है। जब कभी वह ग़म की गहरी खाई में डूबने लगती है, उस वक्त यह मीनार उसे अपने से बहुत दूर, बहुत ऊंची लगने लगती है, तब वह ज़िन्दगी का सन्देश नहीं देती है, बल्कि उसके दिल पर मानों बोझ की तरह ढह जाती है और उसे यक़ीन सा होने लगता है कि बस, पल-दो पल बाद उसके दिल की धड़कन बन्द हो जाएगी और मौत उसे अपने आग़ोश में भींच लेगी मगर...

         रोशनी से नहाए कमरे में महरूख़ कुछ लम्हे ख़ामोश, अपने में खोई खड़ी रही, फिर बेचैन-सी एकाएक खिड़की की तरफ़ लपकी और बन्द खिड़की के पट खोल दिए। उसे एक अज़ीब-सा डर महसूस होता है, जैसे कि कमरे की दीवारें उसे अपने शिकंजे़ में लेकर पीस डालेंगी। इस ख़्याल से खौफ़ज़दा हो वह खिड़की की तरफ़ भागती है और सामने फैले वीराने और अंधेरे से ऊबकर फिर खिड़की बन्द कर देती है। कमरा, दीवारें, खिड़की, किससे डर कर किसकी पनाह में भागे ? उसे किसी कल क़रार नहीं मिलता, किसी पहलू आराम नहीं मिलता है। चैन तो उसका कब का छिन चुका है और नींद हराम। सुकून के सोते को उसे अपने अन्दर ढूढंना है, ताकि पारे की तरह थरथराता उसका बेचैन वजूद ठहर तो सके, ‘उफ़, मेरे ख़ुदा ! यह कैसी बेचैनी है !’ ठण्डी सांस भरकर महरूख़ ने खिड़की पर अपना सर रख दिया। दिल का सुकून लुट जाए तो इन्सान खुला में नाचता हुआ ग़ुबार बन जाता है, जिसकी न कोई पहचान होती है, न निशान, न ठौर, न ठिकाना !

         दूर बसे पासियों के झोपड़ों से मल्हार गाने की आवाज़ आने लगती है। अंधेरे में जलते उनके मिट्टी के चूल्हे अपनी लाल, पीली, नारंगी लपटों के कारण दूर से दियों की लौ की तरह फड़फड़ाते नज़र आते हैं। रोशनी के छूटते पकड़ते ये दायरे उसे किसी पैग़ाम की तरह अपनी तरफ़ आते महसूस होते हैं, मगर चिराग़ से चिराग़ जल उठने की कैफि़यत को न पाकर वह आधे रास्ते से ही वापस लौट जाते हैं। महरूख़ के अन्दर न तपिश है, न चिंगारी, जो उसके अन्दर के राख के ढेर को आग में बदल डाले। हां, एक सुख का अहसास ज़रूर हवा के झोंके की तरह गुज़र जाता है कि चलो कहीं तो ज़िन्दगी मुस्करा रही है।
         एक-एक कर के रोशनी के दायरे मिटते गए। अब सिर्फ़ अंधेरा था। इन्सान सो चुके थे। परिन्दे घोंसले में दुबके पड़े थे। यहां तक कि झींगुरो को भी नींद आ गई थी। चारों तरफ़ ख़ामोशी छाई थी, हवा भी नहीं चल रही थी। शायद यही वक़्त होता है, जब क़ुदरत थक कर सुस्ताने बैठती है और इस एक पल ने महरूख़ को अहसास दिलाया कि वह तन्हा है, बिल्कुत तन्हा...! खिड़की के सामने से हट कर उसने अपने को दीवार में लगे चौकोर बड़े आइने के सामने खड़ा पाया।

         ‘इस आइने में नज़र आते अपने चेहरे को मैं इस तरह से बार-बार क्यों देखती हूं ? उसमें क्या ढूंढ़ती हूं ? क्या चेहरा किताब होता है और उस पर बिखरी झुर्रियां इबारत ? चेहरा तो दिल की तस्वीर कहलाता है, जिसमें अहसास का अक्स देखा जा सकता है। शायद मैं भी अपने दिल के अहसास को पढ़ना चाहती हूं।’ यकायक उसकी नज़र माथे के पास उग आई सफ़ेद लट से उलझकर रह गई। यह कब और कहां से आ गई, कुछ पता ही नहीं चला ! क्या करे वह इसका...छिपा ले इसे काले बालों के नीचे...मगर क्यों ? उम्र के सफर में यह मोड़ तो आना था और फिर अब डर काहे का ! बुढ़ापा जल्दी आए या देर में, उससे अब कौन सा फ़र्क़ पड़ता है ! मेरी तलाश खोई हुई जन्नत की तलाश नहीं है, फिर घबराना और डरना कैसा ?’
         आइने के सामने से हट कर उसने कमरे पर एक उचटती नज़र डाली, यह कमरा है या कबाड़खाना ! क्या हालत बना रखी है मैंने अपनी और अपनी चीजों की ! बिस्तर पर किताबें बिखरी हैं और मेज़-कुर्सी पर तरह-तरह के सामान लदे है। अलगनी पर बेशुमार उतरे कपड़े...। कभी अपने कमरे की सजावट पर मैं ख़ुद फ़िदा हो जाती थी और आज...। जीने की न कोई ख़ुशी है, न उमंग...। महरूख़ ने बिस्तर से किताबें समेटीं और चादर की शिकनें जब झाड़ने से भी बराबर न हुई तो तंग आकर उसने धुली चादर निकाल कर बिछाई, किताबें सलीक़े से सजाईं, तभी एक छोटी सी किताब उसके पैरों पर फिसलकर गिरी। उसने उठाया। पहले पन्ने पर लिखा शेर पढ़ने लगी।

         ‘जाने यह अतीत मुझे कब माफ़ करेगा ! उसकी परछाइयां मेरे चारों तरफ़ किसी खामोशी से ताका झांकी करती है कि न मैं उन्हें पकड़कर सजा दे सकती हूं और न अपने जहन के दरवाजे़ उनके लिए बन्द कर सकती हूं।’ महरूख़ की आँखों में घिरी उदासी बरसात की स्याह रात की तरह सुनसान और वीरान हो गई, ‘मुझे गांव में आए सिर्फ़ छः महीना ही ग़ुजरा है। इस माहौल में अपने को ढालने की कोशिश करती हूं, क्योंकि मैं यह बात समझ चुकी हूं कि यह मेरा वर्तमान है, यही भविष्य है। अतीत को दफनाना-भर शेष है। महरूख़ ने उस किताब को बाकी़ किताबों के पीछे छिपा दिया।
          ‘मैंने सिर्फ़ साल और महीने नहीं जिए हैं, बल्कि लम्हों को युगों की-सी लंबाई की तरह झेला है।’ महरूख़ ने मेज़ कपड़े से पोंछते हुए सोचा, ‘एक-एक पल कितना भारी गुज़रता है ! उसका हिसाब और अहसास समय के तराजू पर नहीं तौला जा सकता है। उसका बयान क्या लफ्जो़ में मुमकिन है ? महरूख़ ने कुर्सी पर पड़े सामान को हटाते हुए अपने से पूछा।

         ‘जब लम्हे शताब्दी की चाल से सरकने लगे, तो ज़िन्दगी कितनी पुरानी लगने लगती है ! महसूस होता है, सब कुछ ठहर गया है और यह ठहराव, जो मौत से भी बदतर होता है, उसे भी जिया है मैंने, जो यह अहसास जगाता है कि सब कुछ खोकर वह कितनी ख़ाली दामन है ! यह सब कुछ किससे कहूं ? इसे सिर्फ मैं महसूस कर सकती हूं, क्योंकि यह दर्द मेरा है, सिर्फ़ मेरा।’ महरूख़ ने आइने को कपड़े से पोंछा।
         ‘दिन को स्कूल और रात को घर में यूं चहलकदमी करता देख कर कोई भी मुझे दीवाना क़रार दे देगा।’ महरूख़ ने अंगड़ाई ले कर घड़ी की तरफ़ देखा, सुबह के चार बजने वाले थे।
         ‘रात सोने के लिए होती है या सफाई के लिए !’ महरूख़ हंस पड़ी।
कहीं से मुर्गे की बांग सुनाई पड़ी, फिर अज़ान की आवाज़।
         ‘अपने बिखराव को अपने से समेटना और समेटते-समेटते फिर टूटकर बिखरना, फ़िलहाल अपनी ज़िन्दगी यहीं तक ठहरकर रह गई है।’ कहते हुए महरूख़ बिस्तर पर दराज़ हो गई।

         ‘आज की रात भी हर रात की तरह जागते गुज़र गई। नींद तो फांसी के तख़्ते पर भी आ जाती है, फिर मेरी आंखों से नींद क्यों दबे पांव लौट जाती है ? कहीं वह मुझे मुर्दा समझ कर इधर आना तो नहीं भूल बैठी है ? मुझे तो ज़िन्दगी भर फांसी के तख़्ते पर झूलते फंदे के सामने खड़ा रहना है, मौत और ज़िन्दगी का मज़ा एक साथ चखते हुए, फिर नींद मुझसे क्यों रूठी हुई है, वह मुझे किस बात की सजा दे रही है ? वह क्यों नही मेरे फांसी के तख़्ते पर आकर मुझे सुला देती है ?’ महरूख़ ने बेचैनी से करवट पर करवट बदली, तकिया कभी सिर के नीचे, कभी मुंह पर रखा, मगर उसे किसी पल क़रार नहीं आया। थककर उसने बिजली जलाई और चुपचाप आंखे खोल कर बिस्तर पर लेट गई। जज़बात की ऐसी आंधिया कभी-कभी उसका पूरा वजूद हिलाने पर तुल जाती हैं, फिर तूफ़ानी झक्कड़ों के बाद कैसा सन्नाटा छा जाता है !
ज़ैदी ख़ानदान को चार पुश्तों के बाद ख़ुदा ने लड़की की नियामत से नवाज़ा था।

         सब हार कर बैठ गए थे कि उनेक नसीब में लड़की का सुख नहीं लिखा है, चिल्ला-तावीज, दुआ, गंड़ा, किसी ने भी उनकी तक़दीर का लिखा न मिटाया और चार पुश्तों तक लड़कों की बारिश होती रही, जो बिना मांगे बरस रही थी। इस बीच एक-आध लड़कियां जो हुई भी या तो मुर्दा पैदा हुईं या फिर दो-तीन महीने ज़िन्दा रहकर अल्लाह को प्यारी हो गईं। जै़दी ख़ानदान की पुकार और फ़रियाद, सिर्फ़ लड़की तक महदूद हो कर रह गई थी।

         महरूख़ जब पैदा हुई, तो सबके दिल झूम उठे थे। जिसकी जो समझ में आया उसने वैसे खुशियां मनाईं। कहीं पैसे निछावर हुए, तो कहीं लड्डू बंटे, तो कहीं दाई को चांदी के कड़े बख्शे गये। महरूख़ छः महीने जी गई, तो सबने ख़ुदा के आगे शुक्र का सिजदा किया और मन्नतों के उतारने का सिलसिला साल-भर चलता अगर ज़ैदी ख़ानदान के पास क़ारूं का खजाना होता, तो वह भी लुटा देते। खाते पीते मामूली लोग अपनी हैसियत से बढ़कर ख़ुशी मना रहे थे। महरूख़ दादा की आंखों का नूर और दिल का सरूर थी। अम्मी अब्बू की ख़ुशी और ग़ुरूर का नायाब तोहफा़, चाचा और ताया के लिए एक रूहानी राहत का सामान और बाक़ी ख़ानदान वालों के लिए एक इत्मीनान कि चलो ख़ानदान पर से फ़क़ीर की दी बददुआ का साया तो हटा और हमें लड़की का मुंह देखना नसीब हुआ।
         छठी के दिन महरूख़ की नानी के घर से आये थाल में चांदी के चटवे, झुटझुने, पाज़ेब से लेकर सोने के बुन्दे तक थे। हर तरफ़ जश्न था। हर तरफ़ लाल-पीली झंडियों की तरह खूबसूरत जुमलों की बहार थी।
         ‘‘सच कहा है किसी ने, लड़की घर की बरकत होती है।’’ बड़ी चची ने जूही के फूलों की बाली तागे से पिरोकर कान में पहनते हुए कहा।

        ‘‘रसूले ख़ुदा का घर भी लड़की की रोशनी से मुनव्वर हुआ था, लड़कियां तो प्यार की बरकत होती हैं।’’ छोटी चची ने नन्हे-नन्हे मोजों को प्यार से देखते हुए कहा और फिर सलाइयों पर नए फंदे डालने लगीं।
         ‘‘बरकत की ख़ूब कही। सच पूछो तो नगर की रौनक़ और दुनिया की आबादी इन्हीं के दम से है।’’
         ‘‘अब तो कुछ सीने-पिरोने में भी दिल लगेगा, वरना नेकरों और पायजामों को सी-सीकर तंग आ गई थी। कम-से-कम अब यह ख़ुशी तो नसीब होगी कि चलो कुछ हुनर दिखा रहे हैं।’’ ताई मां ने छोटी-सी फ्रांक पर गुलाब के नन्हे-नन्हे फूल काढ़ते हुए कहा।

         ‘‘सच, दिलशाद भाभी, अपने तो हमारे मुंह की बात छीन ली।’’ छोटी चची ने चहककर कहा।
         ‘‘यह ज़ंजीर गढ़वा के लाए हैं।’’ खिली हंसी हंसते हुए बड़ी चाची ने महरूख़ के लिए लाई ज़ंजीर दिखाई।
         छठी के दिन जो धड़का दिलों की ख़ुशी पर गहन लगा रहा था, वह बिस्मिल्लाह की रस्म तक जाता रहा, जब पांच साल की महरूख़ ने ‘आम का सिपारा’ पढ़ा। चचाज़ाद भाइयों को तो जैसे खिलौना हाथ लग गया था। इस गोद से उस गोद, इस कन्धे से उस कन्धे महरूख़ उछलती-कूदती घूमती थी। जो बाज़ार की तरफ़ गया ख़ाली हाथ न लौटा, कोई कपड़ा-खिलौना, कुछ न सही तो ग़ुब्बारा ही लिए चला आता था। एक रिश्ता था जो ख़ुशी से पालने में झूल रहा था।
    महरूख़ की पैदाइश के बाद तले-ऊपर चार लड़कियां पैदा हुई—रेशमा, सनोवर, गुलनार, और शहनाज और इसके बाद कहीं लड़कों की बारी आई—अब्बास और हैदर। लड़कियों के जन्म ने महरूख़ के महत्त्व को कम नहीं किया था। वह खासी बड़ी होने के बाद भी अपने दादा के पास ही सोती थी। उनके साथ मजलिसों और मुशायरों में जाती थी। उसे इस तरह से पाला जा रहा था, जैसे वह शौक की चीज़ हो, जिसे संभालकर सजाकर रखना है, ताकि ज़माना देख ले कि उनके पास एक नायाब मोती है।

    बस्ती जैसे क़स्बे में सबसे अच्छे स्कूल में महरूख़ का नाम लिखवाया गया था। स्कूल से वापस आने के बाद वह दादा जान के कन्धों पर चढ़ कर बैठ जाती और उन्हें झूम-झूमकर रटा हुआ सबक़ सुनाती। उस वक़्त दादा के सर के बालों और दाढ़ी की शामत आ जाती थी। दाढ़ी को घोड़े की लगाम समझकर खींचती और सीने पर पैर मार-मार कंधे पर उछलती और गाती—हरा समन्दर गोपीचन्दर बोल मेरी मछली कितना पानी।
    फिर दादा के सीने से फिसलती हुई उनकी गोद में आ जाती और उनकी दाढ़ी के बालों की चोटी गूंथते हुए पूछती, ‘‘मछली पानी के बाहर निकलने पर क्यों मर जाती है, दादा जान ?’’

    ‘‘इस लिए कि मछली बिना पानी के नहीं रह सकती है। पानी ही उसकी ज़िन्दगी है।’’
    ‘‘मगर फिर आदमी पानी में गिरकर क्यों मर जाते हैं ?’’ महरूख़ को बाल की खाल निकालने में मज़ा आता और दादा को उससे चौगुना मज़ा उसे जवाब देने में आता था। उनको इतना घुल-मिलकर बातें करता देखकर कभी-कभी रेशमा दादा से सटकर खड़ी हो जाती, इस उम्मीद पर कि दादा अब्बू की तरह उसे भी गोद में लेकर उछालेंगे, मगर दादा उसके हाथों में बताशा रखकर उसके गाल को थपथपा देते और घर के अन्दर जाने को कहते थे।
    नया चांद निकला नहीं कि हर तरफ़ से महरूख़ की पुकार होने लगती थी। दादा-दादी तो चांद देखते ही आंखें बन्द करके दुआ पढ़ते, फिर सीधे महरूख़ का मुंह देखते ! रस्म तो यही थी कि आइना देखो या खुद की हथेलियां या फिर किसी खूबसूरत चेहरे को। महरूख़ का नाम भी ‘चांद-से चेहरे वाली’ इसीलिए छांटकर रखा गया था। दादा तो रोज़ सुबह महरूख़ का मुंह देखकर बिस्तर छोड़ते थे। उसके सर पर हाथ फेरकर अल्लाह का शुक्र अदा करते, फिर नमाज़ से फ़ारिग होने की तैयारी में चौकी की तरफ़ बढ़ते।

    दादा जान के इन्तक़ाल के बाद छः साल की महरूख़ दादी की बाहों में समा गई थी। कटे, बिखरे, घुंघुराले बालों में चमेली का तेल थोपकर उसकी पट्टियां गूंथी जातीं। छोटी-छोटी कसी चोटियों से भरा महरूख़ का सर हर तरफ़ से दुखता था, मगर आंखों में आए आसुओं को वह शरबत की तरह पी जाती। रोना उसकी शान के खिलाफ़ था। वह हुक्म देना जानती थी। बात मनवाना जानती थी। वह तो दिलो पर हुकूमत करती थी और हुक्मरां कभी रोते नहीं हैं। दादी ने इस हुक्मरां की अकड़ को प्यार से सहला-सहलाकर एक नाज़ुक लड़की में बदलना शुरू कर दिया था, तो भी जब-तब उंगलियां उठ ही जाती थीं, ‘‘यह महरूख़ चलती कैसे है, अम्मा ! आप टोकती नहीं इसे क्या ?’’ पैर फेंक-फेंककर चलती हुई महरूख़ को देखकर छोटे चचा एक दिन बोल पड़े।
    ‘‘महरूख़ का बाहर मैदान में निकलना अब बन्द करिए, अम्मां, भाइयों के साथ उसको यूं गुल्ली-डंडा खेलते देखना अजीब लगता है।’’ बड़े चचा ने एक दिन दबी ज़बान से कहा।

    ‘‘प्यार-दुलार में लड़की को जी भरकर बिगाड़ लिया है। कम-से-कम अदब-आदाब तो कुछ सिखा दें।’’ ताया अब्बा एक दिन ख़फ़ा होकर बोले। महरूख़ किसी बात पर मुंह फुलाए बैठी थी। उनके आने पर न जगह से हिली और न सलाम किया।
    ‘‘तुम्हारे अब्बा मरहूम के आगे चलती भी किसकी थी ? फिर अभी तो नाज़ुक टहनी है, जिधर झुकाऊंगी झुक जाएगी।’’ दादी लड़कों की ताबड़-तोड़ ओले की तरह बरसती एतराज़ की चोटों से घबराकर अपना इलज़ाम भी मरे हुए मियां के हिस्से में डाल देतीं। महरूख़ की हुकूमत खत्म हो गई थी, यह बात दादी समझ चुकी थीं, मगर इस हक़ीक़त को वह महरूख़ को नहीं समझा सकती थीं, जो मौत का मतलब तो समझती नहीं सलतनत के उजड़ने का मतलब क्या समझती ?
    अकसर दादी उसका मुंह धुलाते हुए बड़बडातीं, ‘‘तेरा मान करने वाला तो अल्लाह को प्यारा हो गया, जो इस घर का रोब था, दबदबा था। अब तो तू भी बाक़ी बच्चों की तरह इस घर की रौनक़-भर है।’’
    एक दिन अमजद रोज़-रोज़ की बातों से तंग आ कर मां से उलझ पड़े, जो पलंग पर बैठी सीनाबन्द में शिलंगे भर रही थीं।

    ‘‘अम्मा हमारी लड़की न हुई आंखों की किरकिरी हो गई। जिसे देखो उसी की आंखों में चुभ रही है।’’
    ‘‘ख़ुदा न करे...! वह क्यों किसी की आंखों की किरकिरी हो ? महरूख़ तो हम सब की आंखों का तारा है।’’ दादी पोती को लिपटाकर कहतीं।
    ‘‘यह वजबा उन्हें क्यों नहीं दिया आपने जिनकी आंखों में जलन हो रही है ?’’ अजमद नाराज़ हो गये।
    ‘‘मैं ठहरी मां...सुनती सबकी हूं, करती अपनी हूं। चचा-ताया के हक़ से अगर उन्होंने कुछ कह दिया, तो इसमें इतनी ख़फ़गी की क्या बात है ? आख़िर महरूख़ उनकी कुछ लगती है या नहीं ?’’ दादी इतना कहकर उठ गईं। वह बात बढ़ाना नहीं चाहती थीं। पत्थर के दर को धोकर वह नीम की चैली घिसने बैठ गई।

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