लोगों की राय

सदाबहार >> न भूतो न भविष्यति

न भूतो न भविष्यति

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :692
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 334
आईएसबीएन :81-8143-232-00

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

451 पाठक हैं

स्वामी विवेकानन्द के लक्ष्य, कर्म और संघर्ष पर लिखा गया एक उपन्यास।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

आधी रात हो चुकी थी। अपने मन की अशांति और व्याकुलता से संघर्ष करता, नरेन्द्र अपने कमरे में लेटा हुआ था। भयंकर ऊहापोह से उसका मन जैसे विस्फोट की स्थिति तक पहुँच गया था। विचारों के अंधड़ उसके अस्तित्व के चिथड़े उड़ा देना चाहते थे।
व्याकुलता में उसने अनेक एक बार विभिन्न कोणों से करवटें बदलीं; किंतु किसी करवट भी कल नहीं पड़ रही थी। जब किसी भी प्रकार लेटा नहीं रह सका, तो उठकर खड़ा हो गया। कुछ देर अपना सिर पकड़े पलंग पर बैठा रहा, और फिर विकट व्याकुलता की स्थिति में, कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर काटने लगा।
उसके मन में कुछ बिंब प्रकट हुए; धन सम्पत्ति, सोना-चांदी और प्रसाद, हाथी-घोड़े, बग्घियाँ, दास-दासियाँ, भोजन व्यंजन, सुंदर स्त्रियाँ, ऐश्वर्य में लिप्त जीवन।
नरेन्द्र की व्याकुलता बढ़ गई। उसके टहलने में अधिक व्यग्रता प्रकट होने लगी, जैसे उन बिंबों से पीछा छुड़ाने का प्रयत्न कर रहा हो। वह टहलता चला गया। तब उसके मन में दूसरे बिंब प्रकट हुए : सन्यासी का जीवन, हिमालय की गुफा, वत्कल वस्त्र, सिर पर जटाएँ, तपस्या, तपस्या और तपस्या, ईश्वर से प्रेम, ईश्वर की भक्ति, ईश्वर के दर्शन, ईश्वर का साक्षात्कार। बिंबों की संख्या इतनी अधिक थी कि वे एक-दूसरे पर आरोपित-प्रत्यारोपित होने लगे।
अपने कमरे में टिक रहना असंभव हो गया। उसका दम घुट रहा था। वह कपाट खोलकर कमरे से बाहर निकल आया।
उसे लगा वह आत्मनियंत्रण खो चुका था।
विभिन्न गलियों के आल जाल के चक्कर काटता हुआ, वह मुख्य सड़क पर पहुँचा। वहाँ से वह गंगा तट की ओर चल पड़ा। गंगा के जल से भीगी हवा उसके मुख से टकराई तो जैसे उसकी आत्मा सुगबुगाई : ‘‘यह उचित नहीं है।
‘‘जानता हूँ।’’ उसने अपनी आत्मा को समझाया, ‘‘किंतु अब रुकना संभव नहीं। प्रतीक्षा नहीं कर सकता मैं। आत्मदमन की भी कोई सीमा होती है।’’ वह आगे बढ़ता चला गया। गंगा का जल था कि अंधकार में एक विराट अंधकार का सागर बह रहा था। तट पर एक ओर कुछ बजरे बँधे खड़े थे। उनमें से छनकर मंद-सा प्रकाश बाहर आ रहा था। उसने अपनी दृष्टि फेर ली। दूर धारा के मध्य भी एक बजरा था, जो न चल रहा था और न ही खड़ा था। नरेन्द्र मुग्ध दृष्टि से उसकी ओर देखता रहा और फिर जैसे उसकी आँखों में एक विकट तृष्णा झलकी।
आतुरता में उसने छलांग लगाई। जल ने फटकर उसके लिए स्थान बना दिया। नरेन्द्र ने अपने कूदने के स्थान से पाँच-छह मीटर आगे, जल में से सिर बाहर निकाला। वह वेग से धारा के बीच वाले बजरे की ओर तैरता चला गया। अंततः वह बजरे के निकट पहुँचा। बजरे से लगा-लगा कुछ देर तैर कर जैसे उसके विषय में कुछ जानकारी प्राप्ति करता रहा। फिर बजरे की पट्टी पकड़, उचककर ऊपर आ गया।
माझी अथवा सेवक लोग बजरे के एक सिरे पर बने छोटे से कक्ष में अथवा उसी के आसपास रहे होंगे। बजरे के मुख्य भाग में कोई नहीं था।
नरेन्द्र दो-एक छोटे कक्षों को निर्विघ्न पार कर, केन्द्र में बने मुख्य कक्ष में आ गया। मध्य भाग में मूल्यवान कालीन बाघंबर बिछाए, पद्मासन लगाए महर्षि देवेन्द्रनाथ ध्यान कर रहे थे। नरेन्द्र उनके सम्मुख खड़ा हो गया।
‘‘महाशय !’’
महर्षि का ध्यान टूटा, आँखें खुलीं। वे विचलित थे और कुछ झुब्ध भी। उनके सामने जैसे कोई छाया खड़ी थी। उन्होंने अपने निकट रखी लालटेन उठाई। नरेन्द्र के चेहरे पर पूरा प्रकाश पड़ा : सिर से पैर तक भीगा हुआ था। कपड़े शरीर से चिपक गए थे। उसके बालों और वस्त्रों से पानी टपक रहा था जिससे फर्श पर बिछा कालीन गीला हो रहा था।
‘‘नरेन्द्रनाथ तुम इस समय यहाँ ?’’
‘‘आप मुझे जानते हैं महर्षि ?’’
‘‘ब्रह्म समाज के उत्सवों के समय तुम्हें गाते हुए सुना है।’’ वे बोले, ‘‘किंतु आधी रात को गंगा के मध्य धारा में खड़े बजरे में? तुम.....’’
‘‘मुझे आपसे एक प्रश्न पूछना है महर्षि ! रुक नहीं सका।’’
‘‘तैर कर आए हो ?’’
‘‘इस समय नौका कहाँ मिलती।’’
देवेन्द्रनाथ प्रच्छन खीज के साथ बोले, ‘‘इतना विकट है तुम्हारा प्रश्न ?’’
‘‘मेरे जीवन मरण का प्रश्न है।’’
‘‘पूछो।’’
नरेन्द्र उनके निकट चला गया। अपनी दृष्टि से जैसे उन्हें चीरता हुआ बोला, ‘‘संसार का लक्ष्य है—इंद्रियभोग, धन-संपत्ति, सोना-चाँदी, प्रासाद, हाथी-घोड़े, दास-दासियाँ, वस्त्राभूषण, भोजन व्यंजन, कामिनी कांचन, पर मनुष्य के जीवन का लक्ष्य क्या है ?’’
देवेन्द्रनाथ उसकी और देखते रहे, कुछ बोले नहीं।
‘‘क्या मानवजीवन का लक्ष्य है—इनमें लिप्त न होगा, इन सबका त्याग ? विसर्जन ?’’
‘‘हाँ पुत्र ! ये सब बंधन हैं। वे जीवात्मा को बांधते हैं। भोग से मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य है।’’
‘‘अर्थात् संन्यासी का जीवन। हिमालय की गुफा। वत्कल वस्त्र। सिर पर जटाँ। तपस्या। ईश्वर से प्रेम, ईश्वर की भक्ति। ईश्वर के दर्शन। ईश्वर का साक्षात्कार।’’
‘‘आपने ईश्वर को देखा है ?’’ नरेन्द्र ने जैसे झपट कर पूछा।
देवेन्द्रनाथ उसकी ओर देखते रह गए, कोई उत्तर दे नहीं पाए।
नरेन्द्र का स्वर कुछ और प्रबल हो गया, ‘‘आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है ?’’
महर्षि ने उसकी ओर देखा और जैसे सायास अपने हृदय का सारा माधुर्य वाणी में उँडेला, ‘‘पुत्र ! तुम्हारे नेत्र, एक योगी के नेत्र हैं।’’
नरेन्द्र ने भी उनकी ओर देखा। उसकी आँखों में निराशा और कठोरता थी।
‘‘तुम ध्यान किया करो पुत्र ! मैं तुम्हारे लिए एक महान योगी का भविष्य देख रहा हूँ।’’
नरेन्द्र की आँखों की कठोरता का भाव और भी सघन हो गया। उसमें निराशा उतर आई। उसने एक शब्द भी नहीं कहा और वापस जाने के लिए मुड़ गया।
‘‘सुनो पुत्र ! इस अँधेरे में गंगा में मत कूदना।’’ देवेन्द्रनाथ ने पीछे से कहा।
किंतु नरेन्द्र रुका नहीं, वह चलता चला गया।
‘‘रुक जाओ। मत कूदो।’’ देवेन्द्रनाथ ने पुनः कहा।
‘‘कूद कर ही खोजना होगा। खोज कर कौन कूदता है। नरेन्द्र ने जाते-जाते कहा।

 

2

 

विश्वनाथ अपने कक्ष में बैठे, कुछ कागज देख रहे थे। नरेन्द्र ने प्रवेश कर पूछा, ‘‘आपने बुलाया बाबा ?’’
‘‘हाँ !’’ विश्वनाथ ने अपने कागज इत्यादि नीचे रख दिए, ‘‘एफ.ए. में द्वितीय श्रेणी आ गई। अब ?’’
‘‘अब बी.ए.।’’
‘‘अंग्रेज़ी वाला बी.ए. ? या बांग्ला वाला बी.ए. ?
नरेन्द्र ने उसके परिहास की ओर ध्यान नहीं दिया, ‘‘आप नहीं चाहते कि मैं आगे पढ़ूँ ?’’
‘‘नहीं ! बी.ए. करो। मेरी इच्छा है कि तुम विधि की शिक्षा प्राप्त कर, अटर्नी बनो।’’
वितृष्णा से भरा हुआ नरेन्द्र कुछ कहे बिना ही बाहर जाने लगा।
‘‘नरेन्द्र ! पिता के रूप में तुम्हारी शिक्षा के अतिरिक्त भी मेरे कुछ दायित्व हैं।’’
नरेन्द्र ने आधे मुड़कर पूछा, ‘‘क्या बाबा ?’’
‘‘तुम्हारा विवाह !’’
‘‘शास्त्र के अनुसार पच्चीस वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है।’’
‘‘धर्मशास्त्र के अनुसार !’’ विश्वनाथ बोले, ‘‘किंतु यह अर्थशास्त्र का युग है। पच्चीस वर्ष के लड़के के लिए हमारे समाज में वधू नहीं मिलती। उस अवस्था की सारी लड़कियाँ अपने-अपने ससुराल पहुँच चुकी होती हैं।’’
‘‘पर बाबा ! मैं अभी से बँधना नहीं चाहता। गृहस्थी के दायित्व....’’
‘‘पागल है तू ! बहू हम लाएँगे तो दायित्व हमारा होगा या तुम्हारा ? हमारे रहते तुम्हारे दायित्व का अर्थ ?’’
‘‘संतान का पालन, पिता का दायित्व है और पत्नी का पालन, पति का।’’ नरेन्द्र ने कहा।
‘‘बेकार की बात।’’
‘‘विवाह कर न मैं गृहस्थी के दायित्वों से बच सकता हूँ, न उनके प्रलोभनों से।’’
विश्वनाथ अपने असहाय क्रोध में उसकी ओर देखते रहे। नरेन्द्र चुपचाप कमरे से निकल गया। उसके जाते ही भुवनेश्वरी दूसरे द्वार से कमरे में आई, ‘‘नहीं माना न !’’
‘‘यह तो एकदम ही हाथों से निकला जा रहा है।’’ विश्वनाथ बोले।

 

3

 

रविवार के दिन प्रातः ही हेडो तालाब के किनारे, एक गोरा पादरी सड़क पर भाषण की मुद्रा में खड़ा था। वह मदारी के समान भीड़ इकट्ठी हो जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छितरे-छितरे से लोग इधर-उधर आते-जाते दिखाई पड़ रहे थे।
सहसा पादरी बोला, ‘‘हमारा ईश्वर इस सारे संसार को बनाता है। सूरज चाँद सितारे बनाता है। इस सारी कायनात को बनाता है, और हिंदुओं के ईश्वर को बनाता है, इनका कुम्हार।’’
नरेन्द्र के पग थम गए। उसने दृष्टि उठाकर पादरी की ओर देखा। किंतु व्यर्थ के झमेले से बचने के लिए, उसने स्वयं को बलात् आगे धकेला। पादरी के शब्द अब भी उसके कानों में पड़ रहे थे।
‘‘वह गंदा कुम्हार अपने पैरों से रौंदकर इस गंदी मिट्टी से एक घटिया-सी मूर्ति बना देता है और हिंदू उसकी पूजा करने लगते हैं। उसके सम्मुख माथा टेकने लगते हैं। वह उनका ईश्वर हो जाता है।’’
नरेन्द्र सबकुछ अनसुना कर चुपचाप आगे बढ़ जाना चाहता था, किंतु उसके पैरों में जैसे रोक ही लग गई।
‘‘हिंदू का धर्म है या राक्षसों का अघोर तंत्र। पति अपनी पत्नी को प्रतिदिन पीटता है। किसी दिन अधिक क्रोध आ जाए तो उसे जीवित जला देता है। वह नहीं जलाता तो उसकी मृत्यु के बाद, उसके संबंधी उसकी पत्नी को सती बनाने के नाम पर जीवित जला देते हैं। यह कोई धर्म है ?’’
अब नरेन्द्र स्वयं को रोक नहीं पाया। उसने पादरी को तीखी दृष्टि से देखा, पादरी को घेर कर खड़े, उसकी बातें सुन रहे लोगों पर भी घृणा की एक दृष्टि डाली; और फिर भीड़ को धकियाता-सा उस पादरी के सामने जा खड़ा हुआ, ‘‘क्या प्रत्येक हिन्दू पति अपनी पत्नी को जीवित जला देता है ?’’
पादरी ने उपेक्षा से उसकी ओर देखा और उद्दंडता से कहा, ‘‘हाँ ! जला देता है।’’
‘‘तो फिर इतनी सारी सुहागिनें जीवित कैसे हैं ?’’ नरेन्द्र ने उसे डाँटा, ‘‘सारी विधवाओं को जीवित जला दिया जाता है तो तीर्थस्थलों और मन्दिरों में इतनी सारी विधवाओं की भीड़ कहाँ से आ जाती है ?’’
‘‘मंदिर जाता ही कौन है।’’ पादरी बोला, ‘‘हम तो यही जानते हैं कि हिंदू लोग अपनी पत्नियों को जला देते हैं।’’
‘‘कुछ मूर्खों के दुष्कर्मों के कारण तुम सारे हिंदू समाज को कलंकित कर रहे हो। जो जलाता है, उस अपराधी को दंडित न करवाकर तुम हमारे धर्म को कलंकित करने में लगे हो।’’
पादरी को क्रोध आ गया, ‘‘ऐ, ऐ ज्यादा मत बोल।’’
‘‘समाज की कुप्रथाओं को धर्म पर आरोपित करना न्याय नहीं है।’’ नरेन्द्र उग्र हो उठा, ‘‘अंग्रेजों को शराब पीते देखकर हमने तो कभी ईसा को मदिरापान करने का समर्थक नहीं कहा। न ही ईसाई समाज को पियक्कड़ माना।
‘‘ऐ होश में आओ। तुम हमारे पैगंबर का अपमान नहीं कर सकते।’’
‘‘अपने पैगंबर का अपमान तो तुम कर रहे हो—झूठ बोल कर, अन्य धर्मों की झूठी निन्दा कर।’’
‘‘यह झूठ है ?’’ पादरी चिल्लाया, ‘‘क्या तुम्हारे यहाँ सती प्रथा नहीं है ?’’
‘‘ऐसी कोई प्रथा होती तो प्रत्येक घर में पत्नियाँ, पति के शव के साथ चितारोहण रह रही होतीं।’’ नरेन्द्र बोला, ‘‘सती वह नहीं होती, जो पति के साथ चितारोहण करती है।’’
पादरी आपे से बाहर हो गया, ‘‘वही होती है। वही होती है। तुम लोग अंधविश्वासी हो। औरतों को जला देते हो। तुम्हारी माताएँ अपने जीवित बच्चों को नदी में फेंक देती हैं तुम लोग मनुष्य नहीं पशु हो।’’
चारों ओर से लोग जमा होने लगे। धक्का-मुक्की होने लगी। कुछ लोग बीच-बचाव में चीख-चिल्ला रहे थे।
‘‘हम मूर्तिपूजा करते हैं, तो तुम क्या करते हो ?’’ नरेन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हारे गिरजों पर क्या सलीब पर टँगी ईसा की मूर्ति नहीं होती ? माता मरियम की मूर्ति के सम्मुख सिर नहीं झुकाते तुम लोग ?’’
‘‘ऐ जुबान संभाल कर। अंग्रेजों के राज्य में तुम एक पादरी का अपमान कर रहे हो।’’ पादरी ने अपना घूँसा हवा में लहराया, ‘‘जब जेल में सड़ोगे तब जानोगे कि किससे बातें कर रहे हो।’’
भीड़ में से आगे बढ़कर एक बलिष्ठ पुरुष ने पादरी का उठा हुआ हाथ थाम लिया, ‘‘सावधान ! इस बच्चे पर हाथ मत उठाना।’’
हक्का-बक्का सा पादरी उस पुरुष की ओर ही देख रहा था कि एक अन्य व्यक्ति भी आगे बढ़ आया, ‘‘तर्क नहीं कर सका तो घूँसेबाजी पर उतर आया।’’
पादरी का भी एक पक्षधर सामने आ गया, ‘‘तुम चुप रहो। अधिक बकवास करोगे तो तुम्हारे ये सारे दाँत तोड़ दूँगा, जो तुम्हारे मुँह से बाहर निकल आए हैं। वे लोग एक-दूसरे में गुत्थमगुत्था हो रहे थे कि एक सिपाही आ गया, ‘‘ऐ कौन झगड़ा कर रहा है। दंगा करोगे तो मार-मार कर हड्डियाँ तोड़ दूँगा। अंग्रेजों का राज्य है। इसे नवाबी राज मत समझना।’’
‘‘हम दंगा नहीं कर रहे हैं।’’ नरेन्द्र ने कहा, ‘‘पर इन्हें भी तो सँभालिए जो धार्मिक प्रवचन के नाम पर हमारे धर्म का निरंतर अपमान करते रहते हैं।’’
‘‘अच्छा समझा दूँगा इन्हें भी। जिसे देखो वही बड़ा विद्वान हो गया है।

 

4

 

संध्या समय विश्वनाथ घर लौटे, तो उनका शरीर थका हुआ था और मन बोझिल था।
‘‘आज बहुत थक गए हो।’’
भुवनेश्वरी ने कहा, ‘‘उठो हाथ-मुँह धोकर कुछ खा-पी लो।’’
विश्वनाथ मंद स्वर में बोले, ‘‘काकी ने वकील के माध्यम से नोटिस भिजवाया है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘हम बिना किसी अधिकार के उनके पति के घर में रह रहे हैं।’’
‘‘उनके पति के घर में ?’’
‘‘वे कहती हैं कि यह भवन उनके पति का है; और हम बल पूर्वक इस पर अधिकार जमाए बैठे हैं। वे असहाय विधवां हैं, इसलिए हमसे लड़ नहीं सकतीं। यदि हमने भवन नहीं खाली किया तो वे अदालत से प्रार्थना करेंगी कि भवन खाली करा कर, पूरी तरह से उन्हें सौंपा जाए।’’
‘‘तो फिर क्या सोचा है तुमने ? काकी के विरुद्ध मुकदमा लड़ोगे ?’’
‘‘तो क्या यह मिथ्या आरोप चुपचाप स्वीकार कर लूँ ?’’ विश्वनाथ बोले।
‘‘नहीं ! असत्य से तो समझौता कभी नहीं !’’ भुवनेश्वरी सहमत हो गई, ‘‘किंतु इस घर में हमारा जीवन विषाक्त हो जाएगा। ऐसा तो काकी का स्वभाव नहीं कि कचहरी में मुकदमा लड़ें और घर में हमसे स्नेह बनाए रखें।’’
‘‘यह तो शायद काली काका के जीवन में भी संभव नहीं होता। पर इस आरोप के रहते मैं इस भवन में नहीं रहूँगा। अब तो अदालत से वैध अधिकार प्राप्त कर ही यहाँ बसूँगा।’’ विश्वनाथ कुछ आवेश में बोले, ‘‘अपने पिता का एकमात्र उत्तराधिकारी होने के कारण, यह भवन मेरा है। सारा का सारा मेरा है।’’
‘‘इस भवन को छोड़ दोगे ?’’
‘‘न्यायालय से न्याय मिलने तक।’’
‘‘तो हम रहेंगे कहाँ ?’’
‘‘कहीं कोई स्थान किराए पर ले लेंगे।’’
‘‘किराए पर ?’’
‘‘हाँ। क्यों ?’’
‘‘अपना घर रहते हुए ?’’
‘‘अपना घर अब है कहाँ ?

 

5

 

जनवरी की सुबह थी। ऋतु ठंडी तो थी; किंतु कष्टदायक नहीं थी। प्रेसिडेंसी कॉलेज के वरांडों के परिसर में जैसे समय से पूर्व ही वसंत ऋतु आ गई थी। चारों ओर चहल-पहल थी। नरेन्द्र अपने मित्रों के साथ एक ओर बरामदे में खड़ा था। उसने चपकन और पजामा पहन रखा था और कलाई में पिता की दी हुई घड़ी बाँध रखी थी। अन्य लड़कों ने कोट पतलून पहन रखी थी।
‘‘तुम यही कपड़े पहनोगे ?’’ तरुण ने पूछा।
‘‘पश्चिमी वेशभूषा की तुलना में तो यही ठीक हैं।’’ नरेन्द्र ने उत्तर दिया।
‘‘ये लोग धोती-कुर्ता क्यों नहीं पहनने देते ? बंगाल की जलवायु...पल्टू कह रहा था।
‘‘अंग्रेज़ साहब बहादुर का सरकारी कॉलेज है। अधिकांश अध्यापक अंग्रेज या यूरोपीय हैं। उन्हें हम लोग धोती-कुर्ते में नंगे लगते हैं। वे उसे शिष्ट परिधान नहीं मानते। अब या तो टाई के साथ कोट और पतलून पहनो या फिर चपकन और पजामा।’’ नरेन्द्र हँसा, ‘‘कलाई पर घड़ी भी होना चाहिए।’’
‘‘यह घड़ी तो मेरी समझ में एकदम नहीं आती। कॉलेज में घंटी तो बजती ही है।’’ अमल बोला।
‘‘अरे बंगालियों को समय पालन की शिक्षा भी तो देनी है, वह बिना घड़ी के कैसे संभव है। नरेन्द्र ने ठहाका लगाया।
‘‘अरे नरेन्द्र ! तुमने विषय कौन-कौन से लिए हैं ?’’
‘‘मैंने। मैंने लिए हैं—बंग्ला साहित्य, अंग्रेजी साहित्य, गणित, तर्कशास्त्र और मनोविज्ञान। अर्थात् लॉजिक एंड साइकॉलोजी।’’
‘‘न साहित्य में अधिक अंक मिलते हैं, न साइकॉलोजी में। तुमने ऐसे विषय क्यों लिए ?’’ मणिक चकित था।
‘‘डरता हूँ कहीं अधिक अंक आ गए तो उन्हें कहाँ सँभालूँगा। मेरे पास तो कोई बड़ा बटुवा भी नहीं है।’’
‘‘मैं गंभीरता से पूछ रहा हूँ। प्रत्येक समझदार छात्र वही विषय लेता है, जिसमें सुविधा से अधिक अंक आएँ और प्रथम श्रेणी बने। और तुम....’’माणिक बोला।
‘‘समझदार छात्र अंकों के लिए पढ़ रहे हैं, और मैं....!’’
‘‘और तुम ?’’
मैं पढ़ रहा हूँ ज्ञान के लिए।’’
‘‘फिर परिहास।’’ माणिक ने बुरा-सा मुँह बनाया।
‘‘परिहास नहीं, सत्य बता रहा हूँ। परीक्षा में अधिक अंक आ गए और न मानसिक विकास हुआ, न ज्ञान बढ़ा, तो वे अधिक अंक तुम्हें लज्जित नहीं करेंगे ?’’
‘‘इसमें लज्जा की क्या बात है। संसार अंक देखता है, सर्टिफिकेट। ज्ञान देखता ही कौन है ? सारी नौकरियाँ अंक देखकर ही मिलती हैं।’’ अमल बोला।
‘‘पद के लिए अंक ठीक है। प्रतिभा के लिए नहीं। प्रतिभा को ज्ञान चाहिए।
अंक दूसरों को प्रभावित करने के लिए हैं, ज्ञान अपने परितोष के लिए है।’’ ‘‘और यदि इन विषयों की पढ़ाई से तुम्हें कोई अच्छी नौकरी न मिली ?’’ पल्टू ने पूछा।
‘‘अपना विकास नहीं करना, बस नौकरी करनी है ? नौकरी के लिए अच्छे अंक चाहिए, ज्ञान चाहे हो या न हो। अंकों के लिए हम केवल वे विषय पढ़ें, जिनमें अंक लुटाए जाते हैं। उनका भी उतना ही अध्ययन करें, जितना हमारे पाठ्यक्रम में है। संभव हो तो पाठ्यक्रम के भी वे ही अंश पढ़े, जो परीक्षा में पूछे जाने वाले हैं।’’ नरेन्द्र रुककर बोला, ‘‘यह शिक्षा नहीं है।’’
‘‘तो क्या है ?’’
‘‘व्यवसाय। व्यापार। धंधा।’’
‘‘तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं।’’ माणिक बोला, ‘‘तुम सबकुछ उलझा देते हो। मैं तो एक सरल-सा जीवन जीना चाहता हूँ।’’
अज्ञान में प्रसन्न हो तो प्रसन्न रहो। कोल्हू के बैल के काम को व्यवसाय मानते हो तो मानो। किंतु न जीवन इतना संकीर्ण है और न शिक्षा, कक्षा तक ही सीमित है। मेरे मन में सहस्रों प्रश्न हैं। मुझे उन प्रश्नों के उत्तर चाहिए। अपनी शिक्षा से। अपने अध्यापकों से। नित्यप्रति प्रकाशित होने वाली पुस्तकों से।’’
‘‘कैसे प्रश्न ?’’
‘‘संसार किसने बनाया ? क्यों बनाया ?’’
‘‘इस विषय में मेरा ज्ञान अत्यंत स्पष्ट है। मुझे निश्चित रूप से ज्ञात है कि यह संसार मैंने नहीं बनाया।’’
‘‘और मैं दिन-रात यह सोच-सोच कर परेशान हूँ कि यह संसार कहीं मैंने ही तो नहीं बनाया। नरेन्द्र हँस पड़ा।

 

6

 

सुरेश बाबू के घर में अनेक लोग एकत्रित थे। नरेन्द्र भी एक कोने में बैठा था—अन्यमनस्क-सा। किसी के आने की प्रतीक्षा थी।
सुरेश बाबू ने ठाकुर के साथ प्रवेश किया। बहुत आदर से ठाकुर को ले जाकर नियत स्थान पर बिठाया। ठाकुर ने एक उड़ती हुई दृष्टि से सबको देखा।
सुरेश बाबू ने नरेन्द्र को संकेत किया। वह वाद्ययंत्रों के पास जा बैठा। हारमोनियम अपने हाथ में लेकर सुरेश बाबू की ओर देखा।
‘‘गाओ।’’ सुरेश बाबू ने कहा।
‘‘यह लड़का कौन है ?’’ ठाकुर ने पूछा।
‘‘यह नरेन्द्रनाथ दत्त हैं ठाकुर ! कॉलेज में पढ़ता है। इसके पिता, विश्वनाथ दत्त हाईकोर्ट में अटर्नी का काम करते हैं। बहुत भले आदमी हैं, मुहल्ले में तो उन्हें दाता विश्वनाथ कहा जाता है।’’
‘‘यह लड़का भजन ही गाएगा न ?’’
‘‘हाँ ठाकुर !’’
और नरेन्द्र ने गाना आरंभ किया :

 

‘‘रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार काटों की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ ओ झाँकर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो ! सतगुरु नाम ठिकाना है।

 

ठाकुर पूरी तन्मयता से नरेन्द्र का भजन सुन रहे थे। भजन समाप्त होने पर ठाकुर ने कमरे में बैठे लोगों पर दृष्टि डाली। उनकी दृष्टि रामचंद्र दत्त पर रुकी। संकेत से उन्हें अपने पास बुलाया।
‘‘इस लड़के को लेकर दक्षिणेश्वर आना। सुना सुरेश ! इसे लेकर दक्षिणेश्वर आना।’’
‘‘अच्छा ठाकुर। अवश्य लाऊँगा।’’
ठाकुर जाने के लिए उठ खड़े हुए। चलते हुए, नरेन्द्र के पास रुके, ‘‘तुम बहुत अच्छा गाते हो’’ उन्होंने नरेन्द्र के दोनों हाथ पकड़कर बारी-बारी, उन्हें उलट-पलट कर देखा, जैसे कुछ खोज रहे हों, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो। किसी दिन दक्षिणेश्वर आना। माँ काली का दर्शन करना। आएगा न ?’’
नरेन्द्र को उनका यह सारा व्यवहार कुछ विचित्र सा लग रहा था। उसे तो सुरेश बाबू ने मात्र एक भजन गाने के लिए बुलाया था और वह पड़ोसी धर्म के नाते चला आया था। यह दक्षिणेश्वर जाने की बात बीच में कहाँ से आ गई ? वह चुपचाप उनकी ओर देखता रहा।
‘‘आएगा न ? अवश्य आना।’’ ठाकुर ने आग्रह किया।
नरेन्द्र ने अनायास ही स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। इस वृद्ध की बात को क्या टालना।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book