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परिणति

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : क्रिएटिव बुक कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3346
आईएसबीएन :81-86798-07-2

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नरेन्द्र कोहली की 11 सामाजिक कहानियों का संग्रह...

Parnati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारा जीवन अर्थशून्य आदर्शों और रोमानी अवधारणाओं की परतों से ढंका होने के कारण झूठा हो गया है। नरेन्द्र कोहली ने अपनी इन कहानियों में, अपनी तीखी कलम से झूठ की इन परतों को छील-छील कर जीवन का वास्तविक रुप निखारा है। ये कहानियाँ किसी आयु, किसी वर्ग या जीवन के किसी विशिष्ट खंड की कहानियाँ नहीं हैं-ईमानदारी के प्रति कमिटेड एक पारदर्शी दृष्टि द्वारा, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से चुने गये ये चित्र आपके सामने समसायिक जीवन की वास्विकता साकार कर देंगे। वैयक्तिगत, सामाजिक तथा राष्ट्रीय धरातल पर टूटते हुए जीवन की उस पीड़ा का अनुभव आप इस संग्रह की हर कहानी में करेंगे, जिसकी अनुभूति ने लेखक को बार-बार व्यंग्य की दिशा में धकेला है।

ये ग्यारह कहानियाँ आठ वर्षों के लम्बे अन्तराल में हिन्दी के शीर्षस्थ पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित एवं प्रशंसित हो चुकी हैं। अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार की चुनी हुई कुछ कहानियों का यह पहला संग्रह !

फरवरी, 1960 में मेरी पहली कहानी ‘दो हाथ’ ‘कहानी’ प्रकाशित हुई थी। और तब से आज तक की लंबी यात्रा में लिखी गई लगभग सौ कहानियों में से ये ग्यारह कहानियाँ मैंने अपने प्रथम संग्रह के लिए चुनी हैं।
मैंने ये ही ग्यारह कहानियाँ क्यों चुनी ? इस प्रश्न का सीधा, स्पष्ट और बना बनाया उत्तर मेरे पास नहीं है। पर इतनी बात अवश्य है कि ये कहानियाँ अपने लेखन तथा प्रकाशन काल में मुझे काफी प्रिय रही हैं। इनमें से एक भी कहानी ऐसी नहीं है, जो प्रकाशित होने पर पूर्वाग्रह-मुक्त लोगों के द्वारा पर्याप्त मात्रा में सराही न गयी हो। किन्तु, फिर भी केवल प्रिय या प्रशंसित होना इन कहानियों के चुनाव के लिए, यथेष्ट तर्क नहीं है।

मुझे लगता है कि कहीं न कहीं मेरा प्रयत्न यह रहा है कि मैं अपनी लिखी हुई हर प्रकार की कहानियों का प्रतिनिधित्व इस संग्रह में करवा सकूँ। हो सकता है कि मेरी कुछ ही कहानियाँ पढ़ कर मेरे पाठक ने जो इमेज बनाया होगा, वह इस पूरे संग्रह को पढ़कर बना न रह सके। मैं जानता हूँ कि ‘शटल’ के प्रशंसक ‘सार्थकता’ को नहीं पचा सके और ‘परिणति’ को पसंद करने वालों को ‘किरचें’ अपठनीय लगी है। पर मैं चाहता हूँ कि पाठक मेरे कहानी लेखन के प्रत्येक कोण से परिचित हों।
सभी प्रकार की कहानियाँ-विशेषकर व्यंग्य, राजनीति तथा सेक्स संबंधी कहानियां देकर मैंने इस संग्रह को सरकार तथा अन्य संस्थाओं की ओर से मिलने वाले प्रत्येक पुरस्कार से वंचित कर दिया है—यह मैं जानता हूँ। इस संग्रह के विषय में यह कभी नहीं कहा जा सकेगा कि इस पर अमुक सरकार ने पाँच सौ रुपयों का पुरस्कार दिया। किन्तु क्या पुरस्कार (और वह भी पाँच सौ रुपयों का) पाना ही किसी कहानी-संग्रह का ध्येय होता है ?
रहा प्रश्न कहानी, साहित्य अथवा जीवन संबंधी दृष्टिकोण का। तो दृष्टिकोण तो है, प्रत्येक व्यक्ति के पास होता है, चाहे वह उसके विषय में सोचता हो या न सोचता हो। मैंने भी विभिन्न पत्रिकाओं तथा सभाओं, गोष्ठियों में अपनी बात कही, फिर भी मुझे यह लगता है कि वह सब कहना गलत न होते हुए भी। अभी मैं उस स्थान पर नहीं पहुँचा हूँ, जहाँ से घोषणाएँ आवाश्यक हो जाती है। इसलिए भी चुप हूँ।

14 जुलाई, 1969

नरेन्द्र कोहली

परिणति


अनुराधा बहुत देर से आयी और जब आई तो बहुत उदास थी।
अमिताभ ने उस देखते ही कारण पूछना चाहा-देर का भी और उदासी का भी; पर, वह अनुराधा को बहुत अच्छी तरह जानता था। पूछने पर वह बड़ी सुविधा से सारा दोष परिवहन-व्यवस्था पर डाल सकती थी। और उदासी का कारण ? वह अनुराधा नहीं बताएगी। जितनी बार पूछेगा, उतनी ही बार वह कहेगी, ‘‘कुछ नहीं हुआ। तुम तो खामखाह ही पीछे पड़ जाते हो !’’
अमिताभ ने कुछ नहीं पूछा।
वे मॉरिसनगर से यूनिवर्सिटी-लायब्रेरी की ओर जा रहे थे। चुपचाप।
फिर अनुराधा ही बोली, ‘‘सुनो अमि ! एक बात कहनी है, पर इस एश्योरेंस के साथ कि तुम उसका कारण नहीं पूछोगे, पूछताछ नहीं करोगे।’’
अनुराधा स्वयं ही खुल रही थी। फिर अधिक कुरेदने की आवश्यकता ? वह जानता था, अनुराधा उससे कुछ छिपा नहीं पाएगी। पहले थोड़ी-सी बात बताएगी, फिर आधी और जाते-जाते पूरी बात कह जाएगी।
अनुराधा को आश्वस्त करने के लिए ही उसने कह दिया, ‘‘नहीं पूछूंगा।’’
सोचा था, उसके यह कहते ही अनुराधा शुरू हो जाएगी और बात समाप्त करने से पूर्व चुप नहीं होगी।
पर अनुराधा चुप ही रही।

अनुराधा की चुप्पी से अमिताभ के स्नायुओं पर बोझ बढ़ने लगा था।
लायब्रेरी की सीढ़ियां चढ़कर अमिताभ हटकर एक किनारे खड़ा हो गया। अनुराधा काउंटर पर चली गई। किताबें लौटाने में उसे पांच मिनट से अधिक न लगे। कार्ड वापिस ले, उसने अपने पर्स में डाले और साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई लायब्रेरी के स्कैट-हॉल की ओर मुड़ गई।

अमिताभ को साथ चलना पड़ा। उसको अनुराधा का स्कैट-हॉल में जाना अच्छा नहीं लग रहा था। वह बात, जो अनुराधा उसे बताने वाली थी, क्या है ? अधिक प्रतीक्षा वह नहीं कर सकता था। वह जल्दी से जल्दी लायब्रेरी से निकलना चाहता था ताकि अनुराधा से वह बात पूछ सके। पर अनुराधा स्कैट-हॉल में जा रही थी, जहाँ से वह चार-पाँच पुस्तकें छाँटेगी, फिर उन्हें ईशू करवाएगी और तब बाहर निकलेगी। इस सब में आधा-पौन घंटा तो लग ही जाएगा।
अनुराधा शेल्फें खंगाल रही थी। जिस शेल्फ के सामने जा खड़ी होती, उसकी कोई भी पुस्तक अनछुई न रहने देती ! और तब तक अमिताभ की दृष्टि, आस-पास खड़े, पुस्तकें देखने में संलग्न लोगों को उलटती पलटती रही।

अनुराधा ने तीन पुस्तकें चुनीं, अपने पर्स में से ईशू  कराने वाले तीन कार्ड निकाले और उसे इंगित किया, ‘‘आओ, चलें।’
अमिताभ आगे-आगे चलता हुआ, पहले ही दरवाज़े से बाहर निकल, सीढ़ियों पर आ खड़ा हो गया। अनुराधा पुस्तकें ईशू करवा पीछे-पीछे ही आ गई।
‘‘क्या बात है ?’’ सीढ़ियाँ उतरते ही अमिताभ ने पूछा।
‘‘बता दूँगी !’’ अनुराधा बोली, पर उसका स्वर स्पष्टतः टालने वाला नहीं था।
अमिताभ को लगा, अभी एक-आध बार और पूछना पड़ेगा।

वे चलते-चलते विधि-संकाय के पास से गुजरते हुए, रामजस कॉलेज के सामने आ खड़े हुए थे। रास्ते में अमिताभ और दो-तीन बार पूछ चुका था। अनुराधा बता देना चाह रही थी। रामजस कॉलेज और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स की बीच की सड़क पर आते ही वह ठिठक गई, ‘‘लो ! आज मैं फिर भूल गई !’’
‘‘क्या भूल गई ?’’ अमिताभ इस अप्रत्याशित बात से कुछ खीझ-सा उठा।
‘‘भई ! अब देखो हम यहाँ तक आ गए हैं,’’ अनुराधा बोली, ‘‘इस समय मिसेज़ शर्मा से भी मिलते चलते।’’
‘‘तो मिल लो न !’’ अमिताभ बोला, ‘‘मैंने कब मना किया है।’’

‘‘आज नहीं। मैं आज उनकी चीज़ें नहीं लायी।’’
‘‘न सही। अच्छा, अब यह बताओ, वह बात क्या है ?’’
‘‘वह बात !’’ अनुराधा एक क्षण रुकी, ‘‘तुम बुरा मत मानना और कुछ पूछना भी मत !’’
‘‘नहीं पूछूंगा !’’
‘‘देखो,’’ अनुराधा बहुत हौले से बोली, ‘‘तुम अब हमारे घर मत आना ! बाहर जहाँ कहोगे, जब कहोगे,-मैं आ जाऊँगी। पर अब हम घर पर नहीं मिलेंगे।’’
‘‘क्यों ?’’ अमिताभ के मुख से अनायास ही निकल गया।
‘‘तुमने कहा था, तुम कुछ नहीं पूछोगे !’’ अनुराधा ने याद दिलाया।
‘‘हाँ-हाँ ! अच्छा नहीं पूछता।’’
दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे।
‘‘बुरा मान गए क्या ?’’
‘‘नहीं ! इसमें बुरा मानने की क्या बात है !’’ अमिताभ बोला।
अनुराधा ने उसके मुख की ओर देखा-चेहरे से वह चिंतित नहीं दीख रहा था।
अमिताभ के मस्तिष्क से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया। इतने से समय में वह बहुत कुछ सोच गया था। अनुराधा ने जैसे ही बहुत उदास होकर कहा था कि उसे कुछ कहना है, तभी उसके मस्तिष्क में अनुराधा की मौसी की बात बार-बार उभरकर आ रही थी।

अमिताभ ने अनुराधा की मौसी को एक ही बार देखा था, पर अनुराधा से सुना बहुत कुछ था। मौसी बहुत अमीर थी। उनकी कोयले की कुछ खानें थीं। उसके दोनों लड़के अमरीका में थे और बेटी किसी मिनिस्टर के बेटे से ब्याही गई थी। पिछले दिनों मौसी ने अनुराधा के लिए बहुत सारे रिश्ते बताए थे। एक-से-एक बढ़कर लड़के : पढ़े लिखे, अमीर मां-बाप के सुन्दर लड़के और अच्छी से अच्छी नौकरी पर लगे हुए।
अमिताभ, मन-ही-मन इस मौसी से चिढ़ गया था और डरने भी लगा था। उन्हीं दिनों उसने बहुत सारे स्वप्न भी देखे थे कि एक चुड़ैल अनुराधा को उससे छीन कर लिए जा रही है। वह चीख रहा है, हाथ-पैर पटक रहा है, पर अपने स्थान से हिल नहीं पाता। और उसे उस चुड़ैल की शक्ल हर बार मौसी से मिलती-सी लगी थी।
अनुराधा ने अमिताभ की आशंकाओं का हमेशा मज़ाक उड़ाया था। उसका कहना था, मौसी अपने स्तर से रिश्ते बताती है। यह नहीं देखती कि अनुराधा के मां-बाप की हैसियत क्या है। और फिर, वह स्वयं व्यस्क है। कोई बच्ची नहीं है कि मौसी जिससे चाहे उससे ब्याह दे।
चुपचाप चलते-चलते, काफी समय हो चुका था। अमिताभ ने नजर उठाई, अनुराधा का मुख निर्विकार था। ऐसा नहीं लगता था कि निकट भविष्य में वह कुछ कहेगी। सुबह से जिस बात का घनत्व उसके मुख पर छाया था, कहकर उसका विरेचन हो गया था।

‘‘वैसे अब हम कहाँ तक जा रहे हैं ?’’ मन के हल्केपन को जताने के लिए वह हँसकर बोला।
अनुराधा ने रुककर उसे देखा। ‘‘कनॉट-प्लेस चलें तो कैसा रहे। कुछ शॉपिंग कर लेंगे और कहीं बैठकर कॉफी भी पी लेंगे !’’
अमिताभ चुपचाप चलता रहा। मल्कागंज के स्टैंड से उन्होंने एक स्कूटर-रिक्शा ले लिया।
कनॉट-प्लेस के बरामदों में घूमते हुए अमिताभ सोच रहा था—अब वह उनुराधा के घर नहीं जाएगा। फिर वे कहाँ मिलेंगे ? बाहर बहुत ज्यादा मिलना-जुलना उसे पसंद नहीं था। पर यदि वे बाहर नहीं मिलेंगे तो कहाँ  मिलेंगे ? बिना मिले रहने की बात वह सोच नहीं सकता। उसे लगा, कोई उसकी शक्ति को तौलना चाहता है।
वे हैंडलूम-हाउस के सामने से निकले तो अमिताभ रुक गया। अनुराधा ने फिरकर प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा।
‘‘अनु !’’ अमिताभ को अपना स्वर काँपता लगा।

अनुराधा एकदम पास आ गई।
‘‘आज प्रेम में पहली बाधा आयी है।’’ अमिताभ बोला, ‘‘यह हमारे प्रेम की तीव्रता को तौलना चाहती है। मैं आज तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ।’’
वह अनुराधा की बाँह पकड़कर उसे हैंडलूम-हाउस के भीतर ले गया, उसे स्वयं लगा वह बहुत रोमांटिक हो रहा है, पर उसने स्वयं को रोका नहीं।
अनुराधा ने एक सादी-सी चौड़े बार्डर वाली सफेद सूती साड़ी पसंद की।
हैंडलूम-हाउस से निकलकर वे काफी देर तक शामियाना कॉफी हाउस में बैठे रहे।
अमिताभ लौटा तो उस पर काफी गहरा अवसाद घिर आया था। आज घर पर मिलने पर बंधन लगा है, कल किसी और बात से भी रोका जा सकता है। अब अनुराधा से मिले बिना रहना सम्भव नहीं था। पर उसने ऐसा क्यों होने दिया ? वह इतना कमजोर ही क्यों बना ? वह अपने-आप को टटोल रहा था।

जब विवाह की बात शुरू हुई थी, वह अनुराधा को जानता भी नहीं था। इस बातचीत के बीच में बहुत सारे रिश्तेदार थे।
पर अब उसे याद भी नहीं है, कब औपचारिक बातचीत रोमांस में बदल गई। यह नहीं लगता था कि अमिताभ, कभी इस घर में अनुराधा को बड़े औपचारिक रूप में देखने आया होगा। या उसे उस रूप में बुलाया गया होगा। अमिताभ और अनुराधा एक-दूसरे को अपनी ही पसन्द लगते थे।

वे दोनों साथ घूमने जाते रहे। कई पिक्चरें उन्होंने इकट्ठे देखीं। अमिताभ टिकटें खरीदकर पिक्चर-हॉल से टेलीफोन कर देता था। यदि घर का कोई भी बड़ा फोन उठाता तो वह कह देता, वह पिक्चर-हॉल से बोल रहा है, टिकटें उसने खरीद ली हैं। वे अनुराधा को भेज दें। अनुराधा हर बात आती रही। कभी किसी ने आपत्ति की मुद्रा नहीं दिखाई। उन्होंने कई बार बाहर डिनर खाया और फिर स्थिति यह हो गई कि अमिताभ, शाम को दफ्तर से छूटते ही अनुराधा के घर चला जाता। शाम की चाय वहीं पीता। उसे बुलाने की आवश्यकता नहीं थी। न वह कहकर जाता।
सब को पता था, वह शाम को आएगा। जिस दिन न जाता, उस दिन अवश्य यह पूछ हो जाती कि वह क्यों नहीं आया। अब जब वह अनुराधा के साथ इतना बँध चुका है, यह वर्जन उसे समझ नहीं आया।
अलग होते हुए, अमिताभ के ध्यान में यह बात थी कि अगली बार मिलने का समय और स्थान अभी तय नहीं हुआ है। पर वह मौन रहा अनुराधा ने मना किया है तो वही क्यों नहीं बताती, वह उसे कब और कहाँ मिलेगी। मिलने को उसी का मन नहीं चाहता, अनुराधा भी व्याकुलता से उसकी प्रतीक्षा करती। फिर वही क्यों पहल नहीं करती ?
पर अनुराधा ने इस विषय में कोई बात नहीं की। हैंडलूम हाउस से निकलकर वह साड़ी को निहारने लगी हुई थी। कई बार अंजाने ही उसने साड़ी के पैकेट को अपने गालों से लगाया था, वक्ष के साथ जोरों से भींच लिया था।
उसी मग्नता में अनुराधा चली गई थी और अगली भेंट का कुछ निश्चित नहीं हो पाया था।
अमिताभ के मस्तिष्क की नसें तड़कने लगी थीं और उसे अपना दिल डूबता-सा लगा।

सुबह उठा तो उदासी उसकी आत्मा के साथ चिपक गई थी। लगा उसके शरीर में इंजेक्शन की सिरिंज डालकर उसकी सारी ऊर्जा निचोड़ ली गई है। बिस्तर से हिलने तक को मन नहीं चाहा। पर दफ्तर तो जाना ही था। दफ्तर जाएगा, काम में उलझा रहेगा तो अनुराधा को भूला रहेगा और तबीयत सँभली रहेगी। कमरे में पड़े-पड़े तो तबीयत और घबराएगी।
नाश्ता करके तैयार होते-होते तक उसका विचार बदल गया था। वह पहले यूनिवर्सिटी जाएगा-उसने तय कर लिया था-फिर दफ्तर जाएगा। दफ्तर के लिए देर हो जाएगी, पर वह यूनिवर्सिटी अवश्य जायगा। वहाँ वह अनुराधा से शाम को मिलने का समय और स्थान नियत कर लेगा। वह जानता था, अनुराधा रोज सवेरे घंटे-डेढ़-घंटे के लिए लाइब्रेरी ज़रूर जाती थी। वह दस बजे वहाँ पहुँचती थी और अमिताभ को साढ़े नौ बजे दफ्तर में अपनी सीट पर होना चाहिए था। काफी देर हो जाएगी, पर वह उसे मिलने जाएगा !

ठीक दस बजे अनुराधा उसे यूनिवर्सिटी-लाइब्रेरी में मिल गई।
‘‘तुम आ गए !’’ अनुराधा बोली, ‘‘मैं सोच रही थी, तुम्हें कहाँ कंटैक्ट करूँ। अभी न मिलते तो शाम को तुम्हारे कमरे में ज़रूर आती, तुम दफ्तर नहीं गए ?’’
‘‘दफ्तर !’’ अमिताभ हँसा, ‘‘जाऊँगा अभी।’’
‘‘दस तो बज गए !’’
‘‘हाँ !’’
‘‘बंधन कितना कठिन लग रहा है न ?’’ अनुराधा उदास थी।
‘‘हाँ, अनु !’’ अमिताभ जल्दी से बोला, ‘‘बताओ शाम को कहाँ मिलोगी ?’’
‘‘शाम को ?’’ अनुराधा ने एक मिनट के लिए सोचा, ‘‘दफ्तर से सीधे वैंगर्स में आ जाना। बाकी वहीं सोच लेंगे।’’
‘‘ओ. के.,’’ अमिताभ बोला, ‘‘मैं चलूँ फिर। देर हो रही है।’’
वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए लाइब्रेरी से बाहर निकल आया। उसे काफी हल्का लग रहा था। स्नायुओं का बोझ कम हो चुका था। अब वह दफ्तर का काम कर सकता था।
अमिताभ दफ्तर से छूटते ही वैंगर्स पहुँचा। बस की प्रतीक्षा उसने नहीं की। पार्लियामेंट स्ट्रीट से वैंगर्स दूर ही कितना था। दस मिनट में पैदल पहुँचा जा सकता था और बस शायद मिलती ही आधे घंटे में।
अनुराधा कोने की मेज़ पर अकेली बैठी थी। उसने अभी तक आर्डर नहीं दिया था-या अभी-अभी ही आई थी।
अमिताभ हाथ की दो-एक पत्रिकाएँ मेज़ पर रखकर, कुर्सी पर पसर कर, आराम से बैठ गया। अनुराधा ने आँखें उठाकर उसे देखा और हल्के से मुस्कराई।
‘‘यूनिवर्सिटी से सीधी आई हो ?’’

‘‘नहीं !’’ अनुराधा बोली, ‘‘यूनिवर्सिटी में यह साड़ी पहनकर गई थी क्या ?’’
उसने कल खरीदी हुई लाल बार्डर सफेद साड़ी पहन रखी थी। ‘‘घर से होकर आयी हो ?’’
‘‘हाँ।’’ अनुराधा बोली, ‘‘घर से होकर आई हूँ। साड़ी बदल कर आई हूँ और लड़कर आई हूँ।’’
‘‘लड़कर ?’’

‘‘हाँ।’’ अनुराधा ने बताया, ‘‘मैंने यह साड़ी पहनी तो सबकी आँखें खुल गईं। पूछा, यह साड़ी कहाँ से ली ? मैंने बता दिया। मैं कोई डरती हूँ किसी से। मम्मी ने बहुत डाँटा। बोलीं, ‘‘हम इतने गए बीते हैं कि तुम अमिताभ से साड़ियाँ ले-लेकर पहनों। शादी के बाद जो चाहे लेती रहना, अभी कुछ मत लो।’ उन्होंने कहा, यह साड़ी तुम्हें वापस कर दूँ। पर मैं कैसे कर सकती हूँ। मैंने कह दिया कि वापस नहीं करूँगी और बता दिया कि इसे पहनकर तुम्हीं से मिलने जा रही हूँ।’’
‘‘तो घर से बाहर की पहली भेंट पर ही झगड़ा-वगड़ा आरम्भ हो गया ?’’ अमिताभ मुस्कराया।
‘‘झगड़े-वगड़े तो होंगे ही। आखिर उन्होंने ऐसी स्थिति...अच्छा छोड़ो !’’ उसने बात बदली, ‘‘क्या खिला रहे हो ?’’
दोनों ने मटन-कटलेट और दो-दो स्लाइस खाए। कॉफी पी और बिल चुकाकर बाहर आए।
‘‘पिक्चर देखें, अनु ?’’ अमिताभ ने पूछा।

‘‘देर हो जाएगी, अमि ! मैं इतनी देर के लिए घर पर कहकर नहीं आयी।’’
‘‘पर वह कोई ज़रूरी तो नहीं।’’
‘‘अच्छा चलो !’’
हॉल में घंटा भर अनुराधा ठीक रही, फिर अमिताभ को लगा कि उसका मन नहीं लग रहा, वह अनमनी-सी होती जा रही है। उसने कई बार धीरे से पूछा, पर वह टाल गई।
बाहर निकल अमिताभ ने पूछा, ‘‘कैसी लगी ?’’
‘‘भई, सच यह है,’’ अनुराधा का स्वर उत्साहशून्य था, ‘‘मैं एन्जॉय नहीं कर सकी। घर पर कहकर नहीं आयी थी। बिन बताए देर तक बाहर रहने की मुझे आदत नहीं है, इसलिए मन नहीं लग रहा था।’’
‘‘चलो !’’ अमिताभ को उसकी स्थिति का एहसास हुआ, ‘‘मैं तुम्हें टैक्सी पर छोड़ आऊँ।’’

 

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